परमाणु सुरक्षा

जापान में जो कुछ हुआ है उसके बाद से चिंता और भी बढ़ गई है कि परमाणु संस्थान, जो पहले से अपनी कार्यशैली को गोपनीय रखता है, निजी उद्योग के साथ मिलने पर और ज्यादा समस्यामूलक हो गया है, श्री नारायण का कहना है कि, ‘जापान में चिंता है कि इस उद्योग ने दुर्घटना के बारे में लोगों को पर्याप्त जानकारी नहीं दी। भारत में हम परमाणु क्षेत्र में बड़े उद्योग की भागीदारी वाली नई व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।’ 1979 में थ्री माइल आइलैंड और 1986 में यूक्रेन के चेर्नोबिल के बाद फुकुशिमा दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा परमाणु हादसा है इसकी वजह से परमाणु ऊर्जा पर दुनिया भर में पुनर्विचार शुरू हो गया है। जर्मनी 1980 से पहले के अपने सात परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बंद करने की योजना बना रहा है और चीन ने नए सुरक्षा नियमों को लागू किए बिना नई परमाणु परियोजनाओं को मंजूरी देने से इनकार कर दिया है, रूस तो खामोश है, जबकि फ्रांस और अमेरिका ने परमाणु लॉबी को सक्रिय कर रखा है।

भारत आज दावा कर सकता है कि उसके पास तारापुर में दुनिया के सबसे पुराने बॉयलिंग वाटर रिएक्टर (बीडब्ल्यूआर) काम कर रहे हैं, तारापुर संयंत्र बनाने वाली जनरल इलेक्ट्रिक ने ही फुकुशिमा में बीडब्ल्यूआर की आपूर्ति की थी, जो संकट की जड़ हैं विशेषज्ञों का कहना है कि 1969 में बने तारापुर संयंत्र को बंद करने के लिए भारत पर दबाव पड़ना लाजिमी है।

लेकिन सरकार ने परमाणु उद्योग को बचाने का इरादा कर लिया है एक ओर जहां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सभी परमाणु परियोजनाओं की सुरक्षा समीक्षा करने की घोषणा की, वहीं परमाणु ऊर्जा संस्थान के सदस्यों ने भारतीय रिएक्टरों की सुरक्षा पर जो दिया है।

परमाणु ऊर्जा आयोग (एईसी) के अध्यक्ष श्रीकुमार बनर्जी का कहना है, भारतीय परमाणु रिएक्टर जापान में आई भीषण प्राकृतिक आपदा जैसी स्थितियां झेलने में सक्षम है। हमारे पास ऐसी व्यवस्था है जिसमें हर पांच साल पर सुरक्षा के सभी उपायों की समीक्षा की जाती है। इस समीक्षा से उभरी सभी सिफारिशों पर सख्ती से अमल किया जाता है।

लेकिन तथ्य इस तरह के आशावाद का समर्थन नहीं करते इसके उलट, पिछले दो दशकों के दौरान कई ऐसी छोटी-छोटी दुर्घटनाएं हैं जो आसानी से बड़े हादसे में तब्दील हो सकती थी। 1992 में कोटा परमाणु संयंत्र और तारापुर संयंत्र में हैवी वाटर (गुरुजल) रिस गया था, 2009 में कैगा परमाणु बिजली संयंत्र में विकिरण संक्रमण पाया गया।

परमाणु संयंत्रों पर सुनामी के प्रभाव के बारे में शायद नहीं सोचा गया होगा, पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने 16 मार्च को कहा, मुझे याद नहीं है कि (जैतापुर परमाणु संयंत्र की) पर्यावरण संबंधी मंजूरी प्रक्रिया में सुनामी का जिक्र किया गया, लेकिन सुरक्षा का मामला एईआरबी (परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड) और परमाणु ऊर्जा परिषद के हवाले छोड़ दिया गया है।

परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर भूकंपीय गतिविधि के असर को लेकर स्पष्ट समझ नहीं दिखती है, हाल की दो प्राकृतिक आपदाएं - 2001 में भुज में रिक्टर पैमाने पर 6.9 का भूकंप और तमिलनाडु के तट पर पहुंची 2004 की सुनामी-परमाणु संयंत्रों के पास हुई थी। इन दोनों मौकों पर गुजरात के काकरापार परमाणु संयंत्र और तमिलनाडु के कलपक्कम परमाणु रिएक्टर को सुरक्षापूर्वक बंद कर दिया गया था भारतीय विशेषज्ञों का कहना है कि सुरक्षित ढंग से बंद किए जाने से साबित होता है कि ये परमाणु संयंत्र सुरक्षित हैं, एईसी, के पूर्व अध्यक्ष पी. के. आयंगार का कहना है, कलपक्कम में कूलिंग (ठंडा करने) के लिए पानी की आपूर्ति करने वाले हमारे जनरेटर 25 फुट ऊंचाई पर स्थित थे और इस तरह संयंत्र में घुसा समुद्री पानी उन्हें नहीं छू पाया।

लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि रिक्टर पैमाने पर 9 वाले भूकंप के एक-दो झटकों और 23 फुट ऊंची लहरों के थपेड़ों को कोई भारतीय परमाणु संयंत्र बर्दाश्त कर सकता है, ऊंची लहरों ने फुकुशिमा के कूलेंट पंपों में पानी भर दिया, आयंगार स्वीकार करते हैं, इंजीनियर और वैज्ञानिक सभी संभावनाओं की भविष्यवाणी नहीं कर सकते।

भारत के कुल बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली का योगदान मात्र 3 फीसदी है, सरकार 2050 तक इसका हिस्सा करीब 25 फीसदी करना चाहती है, इसी वजह से भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर इतना जोर दिया गया।

भारत अगले कुछ दशकों के दौरान अमेरिका, फ्रांस और रूस से नई पीढ़ी के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के आयात पर अनुमानतः 175 अरब डॉलर खर्च करने वाला है, एईसी के पूर्व अध्यक्ष अनिल काकोड़कर का कहना है कि आज की जरूरतें जीवाश्म ईंधन, पन और सौर ऊर्जा से पूरी हो सकती हैं लेकिन भविष्य के लिए परमाणु और सौर ऊर्जा ही इकलौते दो विकल्प हैं।

पेंच यही है, विशेषज्ञ संयंत्र लगाने के स्थान पर अध्ययन किए बगैर उतावलेपन में नए परमाणु रिएक्टरों की खरीद या ऐसे रिएक्टर डिजाइन के इस्तेमाल के खिलाफ चेताते हैं जिन्हें आज़माया नहीं गया है एईआरबी के पूर्व अध्यक्ष डॉ.ए.गोपालकृष्णन का कहना है कि वे 21 विदेशी परमाणु बिजली रिएक्टर खरीदने की भारत की योजना से चिंतित हैं उनमें से कई के डिजाइन पहले परखे नहीं गए हैं, जिनमें अरेवा का ईपीआर (यूरोप प्रेशराइज्ड रिएक्टर) है जिसे जैतापुर में लगाया जाना है।

भारत चार विभिन्न प्रकार की लाइट वाटर रिएक्टर प्रौद्योगिकियां आयात कर रहा है, जिससे इसका परमाणु कार्यक्रम दुनिया में सबसे विविधतापूर्ण हो जाएगा, गोपालकृष्णन का कहना है, हमारे इंजीनियरों को अपरिचित प्रौद्योगिकियों को समझने में वक्त लगेगा, जो दुर्घटना की घड़ी में खतरनाक स्थिति होगी क्योंकि तब फौरन कार्रवाई महत्वपूर्ण होती है, देश में 19 रिएक्टर काम कर रहे हैं। 2013 तक चार और रिएक्टर बनकर तैयार हो जाएंगे, छह नए परमाणु संयंत्रों (तमिलनाडु में तिरूनेलवेली, महाराष्ट्र में रत्नागिरि, आंध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम, गुजरात में भावनगर, हरियाणा में फतेहाबाद और मध्य प्रदेश में मंडला) के लिए जल्दी ही काम शुरू हो जाएगा।

सामरिक विशेषेज्ञ ब्रह्म चेलानी का कहना है कि, ‘फुकुशिमा में रिएक्टर भवनों में विस्फोट और स्पेंट फ्यूल (इस्तेमालशुदा ईंधन) के तालबों में आग दरअसल भारत में दो और खतरों को उजागर करती है: प्रत्येक पार्क के इर्दगिर्द छह या उससे अधिक रिएक्टरों का निर्माण तारापुर में चार दशकों से जमा हो रहा है डिस्चार्ज्ड या स्पेंट फ्यूल अमेरिका ने उसे वापस लेने या भारत को उसे दोबारा प्रोसेस करने की इजाजत देने से इनकार कर दिया है, “इनमें से कम से कम चार बड़े परमाणु बिजली संयंत्र समुद्र तट पर बनाए जा रहे हैं, क्योंकि संयंत्रों में कूलेंट के तौर पर समुद्री पानी का प्रयोग किया जाता है लेकिन देश के 612 तटीय जिलों में से कम से कम 241 में बाढ़, चक्रवात, भूकंप और भूस्खलन जैसी कई तरह की प्राकृतिक आपदाएं आ सकती हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि जैतापुर में भूकंप की ज्यादा आशंका है। 2008 में प्रस्तावित परियोजना स्थल से 25 किमी. पश्चिम में रिक्टर पैमाने पर 5 के भूकंप से खिड़कियां खड़खड़ाने लगी थीं। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बीएआरसी) में पूर्व वैज्ञानिक अधिकारी प्रदीप इंदुलकर का कहना है, भूकंपीय क्षेत्र की तीव्रता पहले जैसी बनी हुई है या बढ़ रही है, भले ही संयंत्र बड़े पैमाने पर भूकंप झेलने के लिए डिज़ाइन किए गए हों लेकिन रिएक्टर के जोड़ों से रिसाव का खतरा हमेशा रहेगा।”

मुंबई स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के निदेशक विवेक मोंटिरियो का कहना है कि जैतापुर में इस्तेमाल होने वाले ईपीआर के डिजाइन को परखा नहीं गया है और वह दोषपूर्ण है उनका कहना है, “अगर डिजाइन सुधारा नहीं गया तो रिएक्टर का कूलिंग सिस्टम ठीक से काम नहीं करेगा, कूलिंग सिस्टम विफलता से विकिरण शुरू हो जाएगा।” नवंबर में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और फिनलैंड के एटमिक रेगुलेटरी बोर्ड के संयुक्त बयान में इस रिएक्टर के डिजाइन पर संदेह जाहिर किया गया था, इंडिया टुडे को ई-मेल से भेजी प्रतिक्रिया में एक प्रवक्ता ने कहा कि ईपीआर (टीएम) रिएक्टर की सुरक्षा पर सवाल नहीं उठाया गया है और अरेवा फिलाहल “प्रत्येक देश में स्थानीय मानकों के अनुरूप बनाने के लिए नियमनकर्ताओं के साथ काम कर रही है”

लगता है, जापान की त्रासदी से भारतीय परमाणु उद्योग अपनी पटरी से नहीं हटने वाला, परमाणु ऊर्जा पर प्रति किलोवाट घंटे (केडब्ल्यूएच) पर 3-4 रु. लागत आती है जबकि सौर ऊर्जा पर प्रति केडब्ल्यूएच 20 रु. लागत आती है, इसकी वजह से वह ज्यादा आकर्षक विकल्प दिखता है और ऊर्जा के बाहरी स्रोतों पर निर्भरता घटती है। एईसी के पूर्व अध्यक्ष प्रो.एम.आर. श्रीनिवासन का कहना है कि बिजली की कमी वाले हमारे जैसे बड़ी आबादी वाले देश को परमाणु ऊर्जा के विकल्प को देखना होगा, “पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि भारत को परमाणु ऊर्जा को लेकर सावधान रहने की जरूरत है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि देश को अपनी नीति पलटने की जरूरत है, जापान की त्रासदी से परमाणु रिएक्टरों के आकार पर पुनर्विचार शुरू हो सकता है, डॉ. आयंगर चेताते हैं, “हमें 800 मेगावाट से सीधे 1,600 मेगावाट के रिएक्टर पर छलांग नहीं लगानी चाहिए, रिएक्टर जितने बड़े होंगे, समस्याएं उतनी होंगी।”

विशेषज्ञों का कहना है कि एईआरबी को परमाणु ऊर्जा संस्थान से स्वतंत्र करने की फौरी जरूरत है, गोपालकृष्णन का कहना है, “एईआरबी की स्वतंत्रता की कमी के कारण भारत में परमाणु सुरक्षा नजरअंदाज होती है” 1983 में गठित बोर्ड एईसी में जमा की गई परमाणु रिपोर्ट की जांच के लिए जिम्मेदार है, सामाजिक कार्यकर्ता सुरक्षा पर बहस की कमी के लिए भारतीय परमाणु संस्थान की गोपनीयता को दोषी मानते हैं, दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की निदेशक सुनीता नारायण कहती हैं, “हम संकट से निबटने की अपनी आंतरिक क्षमताओं या हमारे मौजूदा ढांचों की सुरक्षा के बारे में बहुत कम जानते हैं क्योंकि परमाणु विज्ञान संस्थान विचार-विमर्श से कतराता है, हमें परमाणु ऊर्जा पर खुली बहस करने की जरूरत है,” वे कहती हैं, “परमाणु वैज्ञानिकों का मानना है कि आप उनके साथ हैं या उनके खिलाफ कोई सवाल पूछने पर कहा जाता है कि इसका जवाब तकनीकी है और आप उसे समझ नहीं पाएंगी। दूसरा सवाल पूछिए तो आप से कह दिया जाएगा कि देश को परमाणु ऊर्जा की जरूरत है क्योंकि यह ऊर्जा का भूखा है, माना यह जाता है कि आप सवाल नहीं कर सकते क्योंकि तब आप परमाणु ऊर्जा के खिलाफ माने जाएंगे।”

जापान में जो कुछ हुआ है उसके बाद से चिंता और भी बढ़ गई है कि परमाणु संस्थान, जो पहले से अपनी कार्यशैली को गोपनीय रखता है, निजी उद्योग के साथ मिलने पर और ज्यादा समस्यामूलक हो गया है, श्री नारायण का कहना है कि, ‘जापान में चिंता है कि इस उद्योग ने दुर्घटना के बारे में लोगों को पर्याप्त जानकारी नहीं दी। भारत में हम परमाणु क्षेत्र में बड़े उद्योग की भागीदारी वाली नई व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।’

फुकुशिमा ने परमाणु हादसे से निबटने की भारत की तैयारी से जुड़ा एक सवाल और खड़ा कर दिया है, विकिरण अगर सभी परमाणु संयंत्रों के 5 किमी. के दायरे में बने ‘स्टर्लाइज्ड जोन’ से परे चला गया तब क्या होगा। परमाणु और विकिरण से जुड़ी आपातकालीन परिस्थितियों पर भारत की प्रतिक्रिया में कई कमियां हैं हालांकि एक चौंकाने वाले सरकारी अध्ययन में इन खामियों को बताया गया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने 2009 में कमी का विश्लेषण कर उसमें 12 महत्वपूर्ण खामियों को दर्ज किया था। ये ऐसी खामियां हैं जो सात में से किसी परमाणु संयंत्र में दुर्घटना की घड़ी में राहत कार्य को गंभीर रूप से बाधित कर सकती हैं।

एनडीएमए ने ये खामियां पायीं- विकिरण से पड़े जख्मों को ठीक करने के लिए प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी, परमाणु संयंत्रों के पास आपातकालीन शरणस्थलों और कैंपिंग सुविधाओं की कमी, भोजन और पानी के वैकल्पिक स्रोतों की पहचान न होना, सबसे पहले प्रतिक्रिया जताने वालों के रूप में होमगार्डस, पुलिस और नागरिक रक्षा स्वयंसेवियों की अपर्याप्त भूमिका और अपर्याप्त आपात् कार्यवाही केंद्र।

इस दस्तावेज में कहा गया है, “निगरानी उपकरण और कर्मचारियों के सुरक्षा कवच का भंडार छोटा है, परमाणु हादसे से निपटने की खातिर क्षमता बढ़ाने के लिए उसे बड़ा करने की जरूरत है, “यह विश्लेषण एनडीएमए की ओर से तैयार रिपोर्ट परमाणु और रेडियोधर्मी आपात् परिस्थितियों के प्रबंधन का हिस्सा था। यह रिपोर्ट बीएआरसी, डीएई, गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय से चुने गए 20 सदस्यीय शीर्ष समूह ने तैयार की थी। यह भारत का इकलौता एक दस्तावेज है जिसमें परमाणु दुर्घटना परमाणु हमले या किसी आतंकवादी द्वारा डर्टीबम से हमले की स्थिति से निबटने का विश्लेषण किया गया है। यह रिपोर्ट धूल चाट रही है।

पिछले साल पश्चिम दिल्ली के एक कबाड़ी बाजार में एक पुराने गामा रेडिएटर से कोबाल्ट - 60 रिसने की वजह से एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और पांच लोग जख्मी हो गए थे, इस पर सबसे पहले कार्यवाही करने वाले पुलिसवालों को कुछ भी मालूम नहीं था, डॉक्टर विकिरण के लक्षणों की पहचान नहीं कर पाए थे। यह भारत में रेडियोधर्मी घटना के प्रति भारत की सुस्त प्रतिक्रिया का एक बहुत छोटा-सा नमूना था।

अभी तक सिर्फ 10 नेशनल डिजास्टर रेस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) बटालियन तैयार की गई है, जिसमें 8,000 लोग हैं, बीएआरसी की ओर से प्रशिक्षित ये जवान गृह मंत्रालय के अधीन काम करते हैं, दिल्ली, पुणे, एर्णाकुलम और कोलकाता में तैनात इन बटालियनों के पास परमाणु दुर्घटना की स्थिति से निबटने के लिए बुनियादी उपकरण हैं, यह जापान जैसे बड़े परमाणु हादसे से निबटने के लिए नाकाफी है।

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