परमाणु की दया पर

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डब्ल्यूएचओ का एक समझौता जो परमाणु विकिरण के दुष्प्रभावों की रिपोर्टिंग पर रोक की वजह बना

scan0008विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के जिनेवा स्थित मुख्यालय के सामने एक प्रदर्शनकारी हाथ में तख्ती लिये रोज सुबह आठ बजे से शाम छह बजे तक खड़ा रहता है। अप्रैल 2007 से 300 से ज्यादा आंदोलनकारियों ने बारी-बारी से इस विरोध-प्रदर्शन को जारी रखा। ये लोग एक अन्तरराष्ट्रीय अभियान ‘इंडिपेंडेंट डब्ल्यूएचओ-हेल्थ एंड न्यूक्लियर पॉवर’ से जुड़े हैं। इनकी माँग है कि दुनिया के प्रमुख स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ को संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) के साथ 1959 में हुए एक समझौते को समाप्त कर देना चाहिए। यह समझौता डब्ल्यूएचओ को परमाणु विकिरण से होने वाली बीमारियों की रिपोर्टिंग करने से रोकता है। इस तरह परमाणु विकिरण से लोगों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की पूरी जानकारी सामने नहीं आ पाती है।

इंडिपेंडेट डब्ल्यूएचओ ने अपने इस विरोध-प्रदर्शन को हिप्पोक्रेटिक विजिल यानी पाखंडियों की निगरानी नाम दिया है। इसकी वेबसाइट पर लिखा है कि स्वास्थ्यकर्मियों के लिये नैतिक नियम पाखंडियों ने ही बनाए हैं। लेकिन जब न्यूक्लीयर इंडस्ट्री के दुष्परिणामों से पीड़ितों के स्वास्थ्य को बचाने की बात आती है तो विश्व स्वास्थ्य संगठन इन नियमों की अनदेखी करता है। डब्ल्यूएचओ मुख्यालय के सामने यह अनूठा प्रदर्शन 26 अप्रैल, 2007 को चेर्नोबिल परमाणु आपदा की 21वीं वर्षगाँठ पर शुरू हुआ था। इंडिपेंडेट डब्ल्यूएचओ की वेबसाइट के मुताबिक, “डब्ल्यूएचओ ने चेर्नोबिल हादसे के पाँच साल बाद प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया था। इस आपदा से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की जानकारी को डब्ल्यूएचओ ने कभी सार्वजनिक नहीं किया।” आरोप है कि डब्ल्यूएचओ ने वर्ष 1995 और 2001 में चेर्नोबिल हादसे पर हुए इसके शिखर सम्मेलनों की कार्यवाही को भी प्रकाशित नहीं किया। आज भी डब्ल्यूएचओ चेर्नोबिल में मरने वाले लोगों की संख्या 50 से कम बताता है और बेलारूस, यूक्रेन और रूस में लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं को विकिरण के भय का परिणाम मानता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन वर्ष 2009 में न्यूयॉर्क एकेडमी ऑफ साइंसेस द्वारा प्रकाशित उस रिपोर्ट को भी मान्यता नहीं देता है, जिसमें चेर्नोबिल हादसे में मारे गए लोगों की संख्या लगभग दस लाख होने का अनुमान लगाया गया है।

आईएईए के साथ


वर्ष 1959 में आईएईए के साथ हुआ एक समझौता डब्ल्यूएचओ को चेर्नोबिल पर रिपोर्टिंग करने से रोकता है। इस समझौते के अनुच्छेद तीन के अनुसार, जब कभी दोनों में से कोई भी संगठन ऐसे विषय पर कार्यक्रम या गतिविधि शुरू करेगा, जिससे दूसरे संगठन का व्यापक हित जुड़ा है, तब पहला संगठन द्विपक्षीय सहमति से मामले को सुलझाने के लिये दूसरे के साथ विचार-विमर्श करेगा। इसी समझौते के चलते डब्ल्यूएचओ ने चेर्नोबिल हादसे पर जानकारियाँ दबाए रखीं।

जापानी मीडिया का मानना है कि इसी समझौते ने डब्ल्यूएचओ को वर्ष 2011 में फुकुशिमा नाभिकीय आपदा के प्रभाव का जायजा लेने से रोक दिया था। जापानी और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया ने आईएईए, फुकुशिमा प्रशासन और फुकुई परफेक्चर्स के बीच हुए एक ऐसे समझौते की जानकारी भी दी है, जिसमें गोपनीयता का प्रावधान है। इस प्रावधान के अनुसार, सभी पक्ष ऐसी जानकारियों की गोपनीयता सुनिश्चित करेंगी, जिन्हें अन्य पक्षों ने प्रतिबंधित या गोपनीयता करार दिया है।

डब्ल्यूएचओ का रुख आईएईए के प्रति हमेशा से लचीला नहीं रहा है। माना जाता है कि दोनों संस्थाओं के बीच हुआ समझौता दो विरोधाभासी घटनाओं का नतीजा था: अमेरिकी सरकार का ‘एटम फॉर पीस’ कार्यक्रम और नाभिकीय विकिरण के भय के कारण हुईं डब्ल्यूएचओ की दो बैठकें। वर्ष 1956 में अपने जिनेवा मुख्यालय में बुलाई गई डब्ल्यूएचओ की पहली बैठक में नोबेल पुरस्कार विजेता आनुवांशिकी विज्ञानी हरमन जे. मुलर ने रेडिएशन के दीर्घकालीन दुष्परिणामों के बारे में बताते हुए कहा कि वैज्ञानिकों के पास भावी पीढ़ियों को विकिरण के खतरे से बचाने के लिये कोई जानकारी ही नहीं है। इस बैठक में एक चेतावनी जारी की गई: “हमारी संतान का जीवन, स्वास्थ्य और भावी पीढ़ियों का सुसंगत विकास आनुवांशिक विरासत से निर्धारित होता है। विशेषज्ञों के तौर पर, हम यह स्वीकार करते हैं कि तेजी से विकसित होती एटमिक इंडस्ट्री और विकिरण स्रोतों की वजह से भावी पीढ़ियों के स्वास्थ्य को खतरा पैदा हो गया है… हम यह भी मानते हैं कि मनुष्यों में आ रहे नए बदलाव उनके साथ-साथ उनकी भावी संतानों के लिये भी खतरनाक हैं।”

उसी साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शांतिपूर्ण परमाणु गतिविधियों से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले सम्भावित प्रभाव पर विचार-विमर्श के लिये मनोचिकित्सकों का एक सम्मेलन भी आयोजित किया। इस सम्मेलन में शामिल हुए मनोचिकित्सकों ने कहा कि शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिये हो रही नाभिकीय गतिविधियाँ भी आम लोगों में तनाव पैदा कर सकती हैं, क्योंकि इनका सम्बन्ध आणविक हथियारों से है।

इतिहासकारों रिचर्ड जी. हेवलेट और जैक एम हॉल ने अपनी पुस्तक एटम फॉर पीस एंड वार-1953 टू 1961 में दर्शाया है कि आईएईए अमेरिका के ‘एटम फॉर पीस’ अर्थात ‘शांति के लिये परमाणु’ कार्यक्रम का ही परिणाम है। पुस्तक के अनुसार, सन 1952 में नवम्बर की एक धुँध वाली सुबह यूएस एटॉमिक एनर्जी कमीशन के तत्कालीन सेक्रेटरी रॉय बी. स्नेप यूएस आर्मी के जनरल डवाइट डी. आइजनहॉवर से मिलने गए, जो हफ्ते भर पहले ही अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे।

इस बैठक में निर्वाचित राष्ट्रपति ने बताया कि उनकी बात मोनसेंटो केमिकल कम्पनी के अध्यक्ष चार्ल्स ए. थॉमस से हुई है, जिनका सुझाव है कि प्राइवेट इंडस्ट्री को परमाणु रिएक्टर बनाने चाहिए जो व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये बिजली और हथियारों के लिये प्लूटोनियम तैयार कर सकें। एक महीने के भीतर अमेरिकी प्रशासन ने आइजनहॉवर के प्रसिद्ध भाषण के साथ एटम फॉर पीस कार्यक्रम का ऐलान कर दिया। अमेरिका के इस कदम का तत्कालीन सोवियत संघ (यूएसएसआर) तथा कुछ अन्य देशों ने विरोध किया। लेकिन ‘एटम फॉर पीस’ कार्यक्रम ने न्यूक्लीयर एनर्जी को बढ़ावा देने के लिये संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में एक नई अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी (आईएईए) के गठन की भूमिका तैयार कर दी।

वर्ष 1957 में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने न्यूक्लीयर एनर्जी के प्रभावों पर अध्ययन के लिये मनोचिकित्सकों की बैठक बुलाई थी, उसी साल आईएईए का गठन हुआ। अमेरिका के परमाणु कार्यक्रम विरोधी कार्यकर्ता हेलेन कल्दीकॉट के अनुसार, वह आख़िरी मौका था जब डब्ल्यूएचओ न्यूक्लीयर एनर्जी के खिलाफ खड़ा हुआ था। संयुक्त राष्ट्र की दो संस्थाएँ परस्पर विरोधी कार्य नहीं कर सकती हैं। कल्दीकॉट कहते हैं, “दोनों संस्थाओं के बीच वर्ष 1959 में हुए समझौते के अनुसार, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य सम्बन्धी किसी भी अनुसंधान या रिपोर्ट की पूर्वानुमति का अधिकार न्यूक्लीयर पॉवर इंडस्ट्री की हिमायती संस्था आईएईए को दे दिया।”

आईएईए के साथ


आज 30 देशों में कुल 450 परमाणु ऊर्जा रिएक्टर हैं 16 देशों में 60 नए परमाणु संयंत्र बनाए जा रहे हैं। विश्व में वर्ष 1945 से 2013 के बीच लगभग 1,25,000 परमाणु हथियार बनाए गए हैं। ‘एटम फॉर पीस’ से सम्बन्धित कार्यक्रमों के तहत अमेरिका 30 देशों को 25 टन से अधिक अत्यंत परिष्कृत यूरेनियम बाँट चुका है। सोवियत संघ ने भी ऐसा ही कार्यक्रम शुरू कर 11 टन अत्यंत परिष्कृत यूरेनियम का निर्यात किया है।

आज भी विकिरण के दुष्प्रभावों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है जबकि बिजली की कमी से जूझ रहा भारत और अधिक रिएक्टर पाना चाहता है। सितम्बर, 2014 में यह संदेश तब अपने चरम पर पहुँच गया, जब भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग ने परमाणु ऊर्जा केन्द्रों के आस-पास कैंसर और मौतों से सम्बन्धित तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने के लिये मीडिया समूहों की आलोचना की। मुम्बई के एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा सूचना के अधिकार के तहत माँगी गई जानकारी के बाद खबरें आईं कि वर्ष 1995 से 2014 के बीच देश भर में परमाणु ऊर्जा केन्द्रों के आस-पास 2600 लोग कैंसर के कारण मर चुके हैं। परमाणु ऊर्जा विभाग ने इन आँकड़ों को चुनौती देते हुए कहा कि 1995 से 2014 के बीच परमाणु केन्द्रों के आस-पास कैंसर सम्बन्धी कारणों से 152 से अधिक लोगों की मौत नहीं हुई। इस मुद्दे पर अब भी काफी संदेह है।

ऐसी स्थिति में डब्ल्यूएचओ अहम भूमिका निभा सकता था, बशर्ते आईएईए के साथ समझौते की वजह से उस पर रोक न लगी होती।

पर्यावरण के इतिहास पर सीएसई से वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तक ‘Environmental History Reader’ का अनुवादित अंश

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