प्रलय की ओर दौड़ता सभ्यता रथ


समूची सभ्यता टैकनॉलॉजी के रथ पर सवार है। विकास का यह रथ तेज और तेज गति से दौड़ लगा रहा है। सभ्यता भी इस दौड़ का अभी तो आनन्द ले रही है, पर साथ ही भावी संकेतों को देखकर अपने अस्तित्व रक्षा के लिये चिन्तातुर भी है।

.पिछले महीने उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अकस्मात अंधेरा छा गया। सब कामकाज अचानक रुक गया। उस अंधियारे का एकमात्र कारण पर्यावरण के प्रकोप को माना गया। उधर तमिलनाडु का चेन्नई शहर भारी वर्षा के कारण बाढ़ में डूब गया। बताया गया कि सौ साल बाद ऐसी स्थिति पैदा हुई। टेलीविजन चैनलों पर चेन्नई बाढ़ के दृश्य देखकर दिल काँप उठता था। इस बाढ़ में मरने वालों की संख्या 269 बतायी गयी। वास्तविकता में इससे कहीं अधिक हो सकती है। इस भारी वर्षा एवं बाढ़ का कारण भी पर्यावरणीय प्रकोप को ही माना जा रहा है।

दिल्ली में प्रदूषण के कारण लोग साँस नहीं ले पा रहे हैं। बच्चों के लिये स्वास्थ्य की चिन्ता पैदा हो गयी है। भविष्य को लेकर न्यायालय भी खासा सक्रिय है। मीडिया में दिल्ली के प्रदूषण को लेकर चर्चा छिड़ी ही रहती है। हर कोई चिन्ता जताता है, उपाय सुझाता है, पर उस पर अमल कैसे हो इसका व्यावहारिक मार्ग नहीं दिखता। प्रदूषण को रोकने के लिये सरकार की कोशिश है कि सड़कों पर कारों की संख्या कम हो, ताकि उनसे फैलने वाला प्रदूषण कुछ कम हो। इसके लिये दिल्ली सरकार ने एक नया फार्मूला निकाला है। इसके अनुसार अगले साल की पहली तारीख से दिल्ली में एक दिन केवल सम और दूसरे दिन केवल विषम नम्बर प्लेट वाली कारें सड़कों पर दौड़ सकेंगी। पर इस फार्मूले की व्यावहारिक कठिनाईयाँ सामने आयीं तो सरकार उसका विकल्प ढूँढने की कोशिश कर रही है। दिल्ली के राजघाट और बदरपुर थर्मल पॉवर प्लांट को भी बंद किया जा रहा है। यह सब इसलिये ताकि पर्यावरण सुरक्षित रहे और हम साँस ले सकें।

अस्थिर और अनिश्चित पर्यावरण का संकट केवल भारत पर ही नहीं, पूरे विश्व पर मंडरा रहा है। चीन में पहली बार वायु प्रदूषण को रोकने के लिये गम्भीर कदम उठाये गये। स्कूलों को बंद कर दिया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने चेतावनी दी है कि वैश्विक उष्णता (ग्लोबल वार्मिंग) बढ़ती जा रही है। लेकिन उन्हें संतोष है कि दिल्ली में हवा की स्थिति बीजिंग से कहीं अधिक खराब है। विश्व में पर्यावरण संकट को हल करने का उपाय खोजने के लिये पेरिस में विश्व पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया। वहाँ सभी राष्ट्रों ने पर्यावरण के क्षरण के बारे में चिन्ता तो जताई किन्तु इसके लिये जिम्मेदार कौन, पहल कौन करे, इसे लेकर भारी बहस खड़ी हो गयी। विश्व अमीर अर्थात विकसित और गरीब अर्थात विकासशील या अविकसित राष्ट्रों में बँट गया।

सच तो यह है कि समूची सभ्यता टैकनॉलॉजी के रथ पर सवार है। विकास का यह रथ तेज और तेज गति से दौड़ लगा रहा है। सभ्यता भी इस दौड़ का अभी तो आनन्द ले रही है, पर साथ ही भावी संकेतों को देखकर अपने अस्तित्व रक्षा के लिये चिन्तातुर भी है। सारे राष्ट्र, वे चाहे गरीब हों या अमीर, विकसित हों या अविकसित, विकास का एक ही मॉडल सामने रख रहे हैं- टैकनॉलॉजी द्वारा प्रदत्त सभी सुविधाओं को जल्द से जल्द कैसे प्राप्त किया जाय। वास्तविकता यह है कि सभ्यता और टैकनॉलॉजी का अभिन्न सम्बन्ध है। टैकनॉलॉजी ही सभ्यता का शरीर बनाती है। और टैकनॉलॉजी का जन्म मनुष्य की देश-काल पर विजय पाने की इच्छा में से हुआ है। अग्नि नामक ऊर्जा और पहिये के आविष्कार के साथ यह यात्रा प्रारम्भ हुई। यह निरन्तर आगे बढ़ रही है। इसकी गति भी उतरोत्तर तेज होती जा रही है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हम गर्व करते थे कि असली भारत गाँवों में बसा है। गाँधीजी ने आह्वान किया कि गाँवों की ओर लौट चलो। 1945 में स्वतन्त्रता के द्वार पर पहुँचकर स्वाधीन भारत की विकास यात्रा का अपना चित्र अपने राजनैतिक उत्तराधिकारी जवाहर लाल नेहरू को सौंपते हुए गाँधी जी ने एक पत्र में लिखा कि भावी भारत शहरों में नहीं गाँवों में रहेगा, महलों में नहीं झोंपड़ियों में रहेगा।

पर जवाहर लाल नेहरू जी ने यह विकास पथ स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि गाँव जड़ता और पिछडे-पन में डूबे हुये हैं। हमें पश्चिमी की औद्योगिक सभ्यता को अपनाना ही होगा। और उन्होंने उसी दिशा में विकास की आधारशिलाएँ रखीं। परिणाम है कि आज गाँवों का शहरीकरण हो गया। ग्रामीण लोग भी टैकनॉलॉजी द्वारा प्रदत्त शरीर सुख और मनोरंजन की सभी आधुनिक सुविधाएँ अपने घरों में चाहते हैं। क्या विकास की इस दिशा को बदलना सम्भव है? विकास का यह मॉडल सभ्यता को आत्मनाश की ओर ले जा रहा है। क्लब ऑफ रोम की कम्यूटर स्टडी ने 1972 में ही निष्कर्ष निकला था कि जनसंख्या वृद्धि और उपयोग के कृत्रिम साधन बढ़ने के साथ साथ कृषि का नाश होगा जिससे सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ेगा। तभी से इस विषय पर विश्वव्यापी बहस तो चल रही है।

सभ्यता और मानव जाति को बचाने की छटपटाहट भी झलक रही है। पर टैकनॉलॉजी के रथ पर सवार सभ्यता उसी दिशा में दौड़ती जा रही है। क्या उसे पीछे लौटाना सम्भव है? इसके लिये हम में से प्रत्येक को अपनी जीवन शैली में आमूलचुल परिवर्तन लाना होगा। क्या हम उसके लिये तैयार हैं? इन प्रश्नों का उत्तर बाहर नहीं, हमारे भीतर है। हम स्वयं से पूछें। या हम यह मानकर चलें कि सभ्यता की यात्रा चक्रीय होती। उसका प्रत्येक चक्र अपनी पूर्णता पर पहुँचकर आत्मनाश को प्राप्त होकर अगले चक्र का आरम्भ बिन्दु बन जाता है। पुराणों में सत्य, त्रेता, द्वापर और कलयुग की चक्रीय व्यवस्था शायद इसी का वर्णन करती है। इसलिये सभ्यता का प्रत्येक चक्र का समापन प्रलय पर होता है। क्या सभ्यता का वर्तमान चक्र भी प्रलय के द्वार पर पहुँच चुका है। हमें अपने से यह पूछने की आवश्यकता है कि वह प्रलय अभी कितनी दूर है।

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