गोमुख के विशाल हिमखण्ड का एक हिस्सा टूटकर हाल ही में भागीरथी, यानी गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। हिमालय के हिमखण्डों का इस तरह से टूटना प्रकृति का अशुभ संकेत है। इन टुकड़ों को गोमुख से 18 किलोमीटर दूर गंगोत्री के भागीरथी के तेज प्रवाह में बहते देखा गया।
गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के वनाधिकारी ने इस हिमखण्ड के टुकड़ों के चित्र लिये और टूटने की पुष्टि की। ग्लेशियर वैज्ञानिक इस घटना की पृष्ठभूमि में कम बर्फबारी होना बता रहे हैं। इस कम बर्फबारी की वजह धरती का बढ़ता तापमान बताया जा रहा है।
यदि कालान्तर में धरती पर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही और ग्लेशियर क्षरण होने के साथ टूटते भी रहे तो इनका असर गंगा नदी के अस्तित्व पर पड़ना तय है, क्योंकि गंगा केवल गोमुख से निकलने वाली जलधारा मात्र नहीं है। गरमाती पृथ्वी की वजह से हिमखण्डों के टूटने का सिलसिला आगे भी जारी रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे कई लघु द्वीपों और समुद्रतटीय शहर डूबने लग जाएँगे। साफ है, हिमखण्ड का टूटना प्रलय की खतरनाक चेतावनी है। बहरहाल इस संकेत से सचेत होने की जरूरत है।
अब तक हिमखण्डों के पिघलने की जानकारियाँ तो आती रही हैं, किन्तु किसी हिमखण्ड के टूटने की घटना अपवादस्वरूप ही सामने आती है। हालांकि कुछ समय पहले ही आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों की ताजा अध्ययन रिपोर्ट से पता चला था कि ग्लोबल वार्मिंग से बढ़े समुद्र के जलस्तर ने प्रशान्त महासागर के पाँच द्वीपों को जलमग्न कर दिया है। यह अच्छी बात थी कि इन द्वीपों पर मानव बस्तियाँ नहीं थीं, इसलिये दुनिया को विस्थापन और शरणार्थी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।
दुनिया के नक्शे से गायब हुए ये द्वीप थे, केल, रेपिता, कालातिना, झोलिम एवं रेहना। पापुआ न्यू गिनी के पूर्व में यह सालोमन द्वीप समूह का हिस्सा थे। पिछले दो दशकों में इस क्षेत्र में समुद्र के जलस्तर में सालाना 10 मिली की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है। ग्रीनलैंड के पिघलते ग्लेशियर समुद्री जलस्तर को कुछ सालों के भीतर ही आधा मीटर तक बढ़ा सकते हैं। साफ है, बदलते पर्यावरण का यह भयावह संकेत बता रहा है कि हमें एक ऐसी दुनिया में जीने की तैयारी कर लेनी चाहिए, जहाँ सब-कुछ हमारे प्रतिकूल होगा।
गोमुख के द्वारा गंगा के अवतरण का जलस्रोत बने हिमालय पर जो हिमखण्ड हैं, उनका टूटना भारतीय वैज्ञानिक फिलहाल साधारण घटना मानकर चल रहे हैं। उनका मानना है कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखण्डों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखण्ड टूटने लग गए। अभी गोमुख हिमखण्ड का बाईं तरफ का एक हिस्सा टूटा है।
उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग की आँच ने भी हिमखण्डों को कमजोर करने का काम किया है। आँच और धुएँ से बर्फीली शिलाओं के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलती चली गई। इस कारण दरारें भर नहीं पाईं। अब वैज्ञानिक यह आशंका भी जता रहे हैं कि धुएँ से बुना कॉर्बन यदि शिलाओं पर जमा रहा तो भविष्य में नई बर्फ जमना मुश्किल होगी। हालांकि भोजवासा में तीन वैज्ञानिकों का एक दल पहले से ही इन हिमखण्डों के अध्ययन में लगा है। लेकिन वह यह अनुमान लगाने में नाकाम रहा कि हिमशालाओं में पड़ी दरारें, इन्हें पृथक भी कर सकती हैं।
हिमालयी हिमखण्ड का टूटना तो नई बात है, लेकिन इनका पिघलना नई बात नहीं है। शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखण्ड पिघलकर नदियों की अवरिल जलधारा बनते रहे हैं। लेकिन भूमण्डलीकरण के बाद प्राकृतिक सम्पदा के दोहन पर आधारित जो औद्योगिक विकास हुआ है, उससे उत्सर्जित कार्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता को बढ़ा दिया है।
एक शताब्दी पूर्व भी हिमखण्ड पिघलते थे, लेकिन बर्फ गिरने के बाद इनका दायरा निरन्तर बढ़ता रहता था। इसीलिये गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रवाह बना रहा। किन्तु 1950 के दशक से ही इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रतिवर्ष घटना शुरू हो गया था। 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई इसके बाद से गंगोत्री के हिमखण्ड प्रत्येक वर्ष 5 से 20 मीटर की गति से पिघल रहे हैं।
कमोबेश यही स्थिति उत्तराखण्ड के पाँच अन्य हिमखण्ड सतोपंथ, मिलाम, नीति, नंदादेवी और चोराबाड़ी की है। भारतीय हिमालय में कुल 9,975 हिमखण्ड हैं। इनमें 900 उत्तराखण्ड के क्षेत्र में आते हैं। इन हिमखण्डों से भी ज्यादा नदियाँ निकली हैं, जो देश की 40 प्रतिशत आबादी को पेय, सिंचाई व आजीविका के अनेक संसाधन उपलब्ध कराती हैं। किन्तु हिमखण्डों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा तो देश के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह इस 50 करोड़ आबादी को रोजगार व आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके?
बढ़ते तापमान को रोकना अकेले भारत के बस की बात नहीं है, बावजूद हम अपने हिमखण्डों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक रोक सकते हैं। पर्यटन के रूप में मानव समुदायों की जो आवाजाही बढ़ रही है, उस पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा वाकई हम अपनी बर्फीली शिलाओं को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो हमारी ज्ञान परम्परा में हिमखण्डों के सुरक्षा के जो उपाय उपलब्ध हैं, उन्हें भी महत्त्व देना होगा।बढ़ते तापमान के चलते आर्कटिक से भी हिमखण्डों के पिघलने और बर्फ के कम होने की खबर आई है। यूएस नेशनल एंड आइस डाटा सेंटर ने उपग्रह के जरिए जो चित्र हासिल किये हैं, उनसे ज्ञात हुआ है कि 1 जून 2016 तक यहाँ 11.1 मिलियन वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ थी, जबकि पिछले इसी समय तक यहाँ औसतन 12.7 मिलियन वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ थी। 1.6 मिलियन वर्ग किमी क्षेत्र में यह जो समुद्री बर्फ कम हुई है, यह क्षेत्रफल यूके को 6 मर्तबा जोड़ने के बाद बनने वाले क्षेत्रफल के बराबर है।
पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के आसपास के इलाकों को आर्कटिक कहा जाता है। इस क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का कुछ हिस्सा, डेनमार्क का ग्रीनलैंड, रूस का एक हिस्सा, संयुक्त राज्य अमेरिका का अलास्का, आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड शामिल हैं। भारत से यह इलाका 9,863 किमी दूर है। रूस के उत्तरी कोस्ट में समुद्री बर्फ लुप्त हो रही है।
इस क्षेत्र में समुद्री गर्मी निरन्तर बढ़ने से अनुमान लगाया जा रहा है कि कुछ सालों में यह बर्फ भी पूरी तरह खत्म हो जाएगी। कैम्ब्रिज विवि के पोलर ओशन फीजिक्स समूह के मुख्य प्राध्यापक पीटर वैडहैम्स का दावा है कि आर्कटिक क्षेत्र के केन्द्रीय भाग और उत्तरी क्षेत्र में बर्फ अगले साल तक पूरी तरह गायब हो जाएगी। अभी तक आर्कटिक में 900 घन किमी बर्फ पिघल चुकी है। वैज्ञानिक ब्रिटेन और अमेरिका में आ रही बाढ़ों का कारण इसी बर्फ का पिघलना मान रहे हैं।
यदि यहाँ की बर्फ वाकई खत्म हो जाती है तो दुनिया भर में तापमान तेजी से बढ़ जाएगा। मौसम में कई तरह के आकस्मिक बदलाव होंगे। जैसे कि हम उत्तराखण्ड में बादलों के लगातार फटने और हिमखण्डों के टूटने की घटनाओं के रूप में देख रहे हैं। मौसम में परिवर्तन की यही आकस्मिक घटनाएँ प्रलय के खतरनाक संकेत हैं।
बढ़ते तापमान को रोकना अकेले भारत के बस की बात नहीं है, बावजूद हम अपने हिमखण्डों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक रोक सकते हैं। पर्यटन के रूप में मानव समुदायों की जो आवाजाही बढ़ रही है, उस पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा वाकई हम अपनी बर्फीली शिलाओं को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो हमारी ज्ञान परम्परा में हिमखण्डों के सुरक्षा के जो उपाय उपलब्ध हैं, उन्हें भी महत्त्व देना होगा।
हिमालय के शिखरों पर रहने वाले लोग आजादी के दो दशक बाद तक बरसात के समय छोटी-छोटी क्यारियाँ बनाकर पानी रोक देते थे। तापमान शून्य से नीचे जाने पर यह पानी जमकर बर्फ बन जाता था। इसके बाद इस पानी के ऊपर नमक डालकर जैविक कचरे से इसे ढक देते थे। इस प्रयोग से लम्बे समय तक यह बर्फ जमी रहती थी और गर्मियों में इसी बर्फ से पेयजल की आपूर्ति की होती थी। इस तकनीक को हम ‘वाटर हार्वेस्टिंग‘ की तरह ‘स्नो हार्वेस्टिंग’ भी कह सकते हैं।
फिलहाल हमारी चिन्ता गंगा की सफाई को लेकर तो है, लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में सोचने की जरूरत है कि गंगा का मतलब केवल गोमुख से गंगा सागर तक बहने वाली वाली जलधारा तक सीमित नहीं है। इससे जुड़े सारे हिमनद, हिमखण्ड, इनसे निकली नदियाँ, भूजल एवं अन्य कई जलस्रोत मिलकर जीवनदायी पवित्र गंगा नदी का अस्तित्व निर्माण करते हैं। इनमें एक भी जलस्रोत नष्ट हुआ तो गंगा समेत हिमालय से निकलने वाली अन्य नदियाँ भी सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाएँगी। बहरहाल हिमखण्ड के टूटने से प्रलय का जो संकेत मिला है, उसे गम्भीरता से लेने की जरूरत है।
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Post By: RuralWater