विश्व मानवाधिकार दिवस, 10 दिसम्बर पर विशेष
मनुष्य और प्रकृति का वैसे तो चोली दामन का साथ है पर वर्तमान में मनुष्य प्रकृति के साथ अपने स्वार्थवश क्रूर हो गया है। कारण इसके मानवकृत आपदाएँ सर्वाधिक बढ़ रही है। अर्थात् विश्व मानव अधिकार दिवस की महत्ता तभी साबित होगी जब मनुष्य फिर से प्रकृति प्रेमी बनेगा। ऐसा अधिकांश लोगों का मानना है।
यहाँ हम उत्तराखण्ड राज्य में जो मानवकृत आपदाएँ घटित हो रही हैं उसका जिक्र करने जा रहे हैं कि किस तरह आपदाओं के कारण मानवाधिकारों का हनन हो रहा है।
प्राकृतिक आपदाओं से मानवाधिकारों के हनन के लिये उत्तरकाशी शहर में गंगा किनारे बसे बाल्मीकी समुदाय के 65 परिवार ही काफी हैं।
साल 2010 और 2013 में भागरथी में भयंकर बाढ़ आई तो मनेरी भाली जलविद्युत परियोजना के जलाशय ने पहले कुछ समय तक इस बाढ़ के पानी को रोके रखा किन्तु बाढ़ का रुख इतना भयावह था कि वह झील को लाँघते हुए मनेरी के बाद तबाही मचानी शुरू कर दी जिसके सर्वाधिक शिकार उत्तरकाशी शहर में गंगा किनारे बसे बाल्मीकी समुदाय के 65 परिवार हुए।
इस आपदा ने उनके आशियाने तबाह किये, परन्तु उनके पुनर्वास पर कोई भी सरकार अब तक आगे नहीं आई। रूद्रप्रयाग जनपद के अगस्तमुनी विकासखण्ड के अर्न्तगत डमार गरणचौंरी गाँव के आवासीय मकान सहित सम्पूर्ण मूलभूत की आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी 2013 की आपदा की भेंट चढ़ी। ये गाँव भी विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना की सुरंग के ऊपर बसा है।
इस गाँव के पुनर्वास और विस्थापन की ना तो सरकार के पास कोई ठोस योजना है और ना ही परियोजना बनाने वाली कम्पनी इनके सुरक्षा की बात करती है। आपदा से प्रभावित लोगों ने जब अपनी समस्या का आवेदन पत्र अपने नज़दीकी उपजिलाधिकारी कार्यालय में प्रस्तुत किया तो जाँच करने आये स्थानीय राजस्व पुलिस ने कोई आकलन नहीं किया है ना ही राजस्व पुलिस ने ऐसे परिवारों की सूची सरकार तक नहीं पहुँचाई।
ऐसे परिवारों को राजस्व पुलिस ने दो टूक शब्दों में कहा कि जब दुबारा आपदा आएगी तो उन्हें वे पूर्ण आपदग्रस्त की श्रेणी में रखा जाएगा। ऐसी कई कहानियाँ आपदाग्रस्त क्षेत्रों में सुनने व देखने को मिलती है।
राजस्व पुलिस ऐसा कहने पर चूकती भी नहीं कि उन्हें सरकार द्वारा बताया गया कि आपदाग्रस्त लोगों की कम-से-कम सूची बनाई जाये ताकि मुआवज़े देने में सरकार को सरलता हो सके।
इस तरह आपदा से जो जान-माल की क्षति हुई सो अलग है परन्तु मानवाधिकारों का जो हनन स्पष्ट रूप में सामने आ रहा है उस पर तनिक भी राज्य का मानवाधिकार आयोग कुछ कहने के लिये आगे नहीं आया और ना ही आपदा राहत के काम करने वाले सरकारी कर्मियों का दिल पसीजा।
ऐसा वाकाया तब सामने आया जब यह संवाददाता केदारनाथ घाटी, गंगा घाटी और पिथौरागढ़ के धारचूला में आपदा प्रभावितों का सर्वेक्षण करने वाले स्थानीय राजस्व पुलिस से आपदा पीड़ितों की समस्या जानना चाह रहे थे। राजस्व पुलिस के कई कर्मचारियों ने नाम ना छपवाने बाबत यह बात कही।
उल्लेखनीय हो कि प्राकृतिक आपदा के कारण हताहत की तस्वीर सबके सामने है मगर मानवाधिकारों का हनन की फेहरिस्त लम्बी है। ताज्जुब हो कि इधर सरकारी फरमान है कि पुनर्वास और मुआवजा के लिये कम-से-कम लोगों की सूची बनाई जाये तो उधर इस फरमान के कारण गरीब और दलित परिवार सूची से ही गायब हो गए।
इसी तरह आपदा से जर्जर व आड़े-तिरछे पड़े एवं भयंकर दरारनुमा आवासीय भवन पूर्ण क्षतीग्रस्त की श्रेणी में नहीं आये हैं। यही नहीं मानवता ने इतनी हद पार की दी कि आपदा से प्रभावित अधिकांश दलित परिवारों को किराए के मकान इसलिये नहीं मिल पाये कि वे अछूत हैं। यानी आपदा के बाद जाति आधारित आपदा के भी शिकार होना पड़ा।
अब चूँकि जिन्हें थोड़ा बहुत आपदा राहत मिली थी उन्होंने या तो राजस्व पुलिस को घूस दी या वे खुद में जनप्रतिनिधि रहे हैं। भूमिहीन होने के कारण भी आपदा प्रभावित लोग दूसरी जगह भी भवन नहीं बना पा रहे हैं। वे आज भी न्याय की आस लगाए बैठे हैं।
1. बाँध, आपदा से प्रभावितों का दर्द एक बार जब मानवाधिकार आयोग के समक्ष ‘आपदा के अनुभव और सीख’ पर जन सुनवाई का आयोजन हुआ तो तत्काल राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष रहे जस्टिस राजेश टंडन बताते हैं कि आपदा के दौरान मानवाधिकार उल्लंघन की लिखित शिकायत पर ही आयोग संज्ञान ले सकता है। इन्हीं दिनों ‘आपदा पर उत्तराखण्ड की आवाज’ विषय को लेकर एक गोष्ठी आयोजित हुई। इस दौरान कहा गया कि राज्य में आई आपदा के लिये सरकार आज भी गम्भीर नहीं है। निर्मित और निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाओं के कारण आई प्राकृतिक आपदा ने जो कहर बरपाया उससे कम-से-कम सरकार को सबक सीखना चाहिए था। कहा कि मा. सर्वोच्च न्यायलय ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा उत्तराखण्ड सरकार को यह हिदायत दी थी कि वह राज्य में नई जलविद्युत परियोजनाओं के लिये पर्यावरण की स्वीकृति जारी ना करें और राज्य सरकार यह मालूम करे कि आपदा में बाँधों की क्या भूमिका रही। साथ ही राज्य के प्रतिनिधियों, भारतीय वन्यजीव संस्थान, केन्द्रीय विद्युत अथॉरिटी, केन्द्रीय जल आयोग एवं अन्य विशेषज्ञों को शामिल करते हुए एक विशेषज्ञ दल गठित करें। ताकि समय रहते राज्य भविष्य में आपदा से उभर पाये। जबकि सरकार उल्टे राज्य में नई-नई जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिये ज़मीन तैयार कर रही है। यहाँ स्पष्ट नजर आ रहा है कि मानवाधिकारों का हनन किस तरह से हो रहा है जो इस तकनीकी युग में सवाल खड़ा करता है।
2. अकेले उत्तराखण्ड राज्य के 10 हजार से भी अधिक लोग आपदा में जान गवाँ बैठे हैं तथा 20 हजार हेक्टेयर से भी अधिक कृषि भूमि तबाह हुई है। ब्रिटेन के उच्चायुक्त जेम्स बीमन के अनुसार उनके देश के 100 से भी अधिक परिवारों ने उनसे सम्पर्क किया है कि उत्तराखण्ड में 2013 की आपदा के समय उनके परिजन थे। जिनका अब तक कोई पता नहीं चल पा रहा है। कुछ मामले ऐसे भी नजर आये हैं कि बेटा केदारनाथ में मरा, बहू मुआवजा लेकर माईके चली गई और बूढे माँ-बाप दर-दर की ठोकरे खाने को आज भी मजबूर हैं।
3. राज्य में आपदा न्यूनीकरण, प्रबन्धन तथा निवारण अधिनियम में आपदाओं की सूची में जल तथा जलवायु, भूगर्भिक हलचल, दुर्घटना, जैविकीय आपदाओं को सूचीबद्ध किया गया है। उदाहरणस्वरूप वनों का अंधाधुंध कटान और पहाड़ों पर बनाई गई अवैज्ञानिक तरीके से सुरंगें इसका जीता जागता एक कारण है। जहाँ-जहाँ सुरंगें अत्यधिक बनी वहाँ-वहाँ पिछले 10 वर्षों से लोग प्राकृतिक आपदा का दंश झेल रहे हैं। सुरंग भी ऐसी जगह बनाई जा रही है जो जोन पाँच में आता है। यहाँ निर्माण करने वाली कम्पनियाँ लोगों को रोज़गार का सपना दिखाकर अनियोजित तरीके से पहाड़ों का सीना चीरने में तनिक भी संकोच नहीं करती। सवाल यह है कि जो गाँव सुरंगों के ऊपर बसे हैं क्या वे नौ रिक्टर स्केल का भूकम्प झेल सकते हैं? हालात इस कदर है कि वैज्ञानिक इस तरह के दावे कभी भी नहीं करते, क्योंकि उन्हें भी प्रकृति मात्र एक उपभोग की वस्तु दिखाई देती है।
4. प्रख्यात भू-गर्भवेता डा. के.एस. वल्दिया के अनुसार राज्य में निर्माणाधीन सभी जल विद्युत परियोजनाएँ संवेदनशील फाल्ट लाईनों के ऊपरी चट्टानों पर बन रही है। वैज्ञानिकों की सलाह को राज्य सरकार नजरअन्दाज कर रही है। यह भी मानवाधिकारों के हनन पर प्रश्नचिन्ह है।
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Post By: RuralWater