जल प्रबन्धन का सर्वोत्तम व एकत्रि ढँग यही हो सकता है कि गाँवों में हुई वर्षा का पानी तालाबों में संग्रहित हो और उससे अधिक होने पर ढाल के मुताबिक आगे प्रवाहित हो जाए। छतों पर एकत्र पानी कूँओं में संग्रहित हो। नई और पुरानी तकनीकों का यह समिश्रण सम्भवतः अधिक कारगर होगा। नालियों का पानी सिंचाई में जाए या ऐसा कोई इंतजाम हो जिससे उसपर सूर्य की रोशनी अधिक से अधिक पड़े और गंदगी खाद में बदलता जाए। वर्षा की बूँदें जहाँ गिरे वहीं रोक लेना और संग्रहित जल का विभिन्न प्रयोजनों में उपयोग करना सर्वोत्तम जल-प्रबन्धन है। इसकी कई तकनीकें प्रचलित हैं। कुछ तकनीकें प्राचीन और परम्परासिद्ध हैं तो कुछ नई विकसित हुई हैं। संग्रह और वितरण की इन प्रणालियों में भूजल कुण्डों के पुनर्भरण का समावेश भी होता है जिसका उपयोग संकटकालीन अवस्थाओं में हो सकता है।
नलकूप या चापाकल की तकनीक आने के बाद धरती के भीतर से पानी निकालना आसान हो गया और भूजल के उपयोग का प्रचलन लगातार बढ़ता गया। इसका सामाजिक और राजनीतिक कारण भी था। समाज में सामुदायिकता का अभाव होने लगा था। सब अपने दरवाजे पर चापाकल चाहते थे। तालाब और कूँए जब समुदाय के उपयोग की वस्तु थे, समुदाय उनका देख-रेख करता था। निजी नलकूप आने पर ऐसा सम्भव नहीं था। फिर भी चापाकल मूलतः पेयजल स्रोत के तौर पर व्यवहृत थे। फसलों की सिंचाई के लिए नहर का सपना, उसकी असफलता इत्यादि कारणों से विभिन्न उपयोगों के वर्षाजल के संग्रह की घोर उपेक्षा हुई। भूगर्भीय जल भंडार को समृद्ध करने का मामला पूरी तरह छूट गया।
इसकी प्राचीन संरचनाएँ उपेक्षित होकर नष्ट होती गई। जल-निष्कर्षण बढ़ने और पुनर्भरण घटने के दुष्प्रभाव विभिन्न रूपों में प्रकट होने लगे। कई इलाकों में धरती की कोख के सूखने के लक्षण प्रकट होने लगे। तब पुनर्भरण की आवश्यकता और इसकी नई-नई तकनीकों की चर्चा आरम्भ हुई। लेकिन परम्परासिद्ध तकनीकों (तालाब, कूआँ जैसी संरचनाओं) की समुचित प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित किया जाना अभी बाकी है।
बिहार के बाढ़ग्रस्त जिलों में वर्षाजल संग्रह की दोनों प्रकार की तकनीकों के नमूने दिखते हैं। बाढ़ के दौरान पेयजल के तौर पर वर्षाजल का संग्रह कर इस्तेमाल करना आरम्भ हुआ। पालिथिन की चादरें तानकर उसपर वर्षाजल को एकत्र करना, उसे साफ बर्तन में रखना, उबालकर, छानकर पीना और दूसरे काम करना। हालाँकि वर्षाजल को उबालना-छानना भी आवश्यक नहीं होता क्योंकि संग्रह करने में थोड़ी सावधानी बरती जाए तो प्रदूषित होने की कोई सम्भावना नहीं होती। यह प्रणाली बाढ़ से घिरे घरों और उन पर आश्रय शिविरों के लिए भी कारगर साबित हुई जहाँ बाढ़ के कारण विस्थापित लोगों ने आश्रय लिया होता। दरअसल बाढ़ के दौरान पेयजल का संकट भयावह होता है। इसके प्रचलित स्रोत चापाकल बाढ़ में डूब जाते। पहले चापाकलों के ऊँचे प्लेटफार्म बनाए गए। पर पानी लेने वहाँ तक पहुँचना कठिन होता था।
वैसे भूजल स्तर लबालब भरे होने से साधारण चापाकलों के पानी में बाढ़ का पानी मिला होता। वह जमा पानी सड़ता और गंदा होता जाता। आश्रय स्थलों के पास पेयजल के लिए अगर नए चापाकल गाड़े जाते तो उनसे गंदा पानी निकलता। ऐसे समय में पॉलिथिन की जिन चादरों से बने तम्बूओं में लोग आश्रय लेते थे, उन पर गिरी वर्षा की बूंदों को एकत्र कर पेयजल के तौर पर इस्तेमाल करने का उपाय सामने आया। बाद में इस तकनीक का थोड़ा विस्तार हुआ और वर्षाजल का संग्रह करने के लिए पॉलिथिन और बांस के सहारे बनी कूंडियों का इस्तेमाल किया जाने लगा।
आपातकालीन व्यवस्था के तौर पर वर्षाजल का संग्रह किया जाता। बाद में पक्के मकानों की छत पर गिरे पानी को कंक्रिट की बनी टंकियों में एकत्र करने की कोशिशें भी आरम्भ हुई। पलसाहा गाँव (मुरौना प्रखंड, सुपौल जिला) में एक मंदिर की छत के पानी को एकत्र करने की सूंदर व्यवस्था जीपीएसवीएस व वेल्ट हंगर हिल्फे के सौजन्य से हुई है। वर्षाजल संग्रह की इस प्रणाली की ग्रामीण क्षेत्र में उपयोगिता विचारणीय है। इस ‘संग्रह’ के उपयोग की कोई व्यवस्थित प्रणाली विकसित नहीं हुई है।
तालाब और कूआँ वर्षाजल के संग्रह और उपयोग की बेहतरीन और परम्परासिद्ध तकनीकें हैं। तालाबों में एकत्र जल भूमिगत कूंडों से सीधे सम्पर्क के कारण सदा तरोताजा बना रहता है और सूर्य ताप के प्रभाव में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों का स्वतः उपचार कर स्वयं को शुद्ध और स्वच्छ बनाए रखता है। इनमें एकत्र जल रिस-रिसकर भूजल-कूंडों को भरता है। तालाबों का भू-जलकूंडों से सम्पर्क दोतरफा लाभदायक होता है। तालाबों से कई प्रयोजन सिद्ध होते थे। वर्षा जल इनमें संचित होता था। बाढ़ आने पर वह पानी पहले तालाबों को भरता था। गाँव और बस्ती डूबने से बच जाते थे। अगर कभी बड़ी बाढ़ आई और गाँव में पानी भर गया तो तालाबों के पाट, घाट मवेशियों और मनुष्यों के आश्रय स्थल होते थे। अगर बाढ़ नहीं आई तो अगले मौसम में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होता था। तालाबों में पानी आने और निकलने के रास्ते बने होते जो मवेशियों के पानी पीने और नहाने आने-जाने के मार्ग भी होते।
वर्षाजल संग्रह की नई प्रणालियों के प्रचलन से जागरुकता आई है। वर्षाजल शुद्ध और साफ है, इसे लोग समझ गए हैं। वर्षाजल के संग्रहण में तालाब और कूँओं का होना सबसे उपयोगी है, इसे समझने और समझाने की जरूरत है। यह ग्रामीण इलाकों में समन्वित जल प्रबंधन का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है। तालाबों से सिंचाई के लिए पानी निकालने की कई तकनीकें प्रचलित थी। इसकी कई तकनीकें और उपकरण प्रचलित थे। करीन तो अब विलुप्त हो गए हैं। करीन मिथिलांचल में प्रचलित ऐसी तकनीक थी जिसका जोड़ शायद अन्यत्र नहीं मिलता। करीन अब विलुप्त प्रायः है, नई पीढी के लोगों ने उसे देखा भी नहीं होगा। पर बीस-तीस साल पहले यह पूरे मिथिलांचल में तालाब से सिंचाई करने का सबसे अधिक प्रचलित उपकरण था। बड़े खेतों की सिंचाई में इसका उपयोग होता था। यह काठ का पतला, लंबा नावनुमा उपकरण होता है जिसे रस्सी और बांस के सहारे तालाब के किनारे लगाया जाता है। बैलेंस-पुली तकनीक से इसके एक सिरे को पानी में डाला जाता और फिर निकालने पर दूसरे सिरे से पानी उलीचा जाता है। अब नलकूप लगाने वाले कारीगर लगभग उसी तकनीक का इस्तेमाल नलकूप लगाने में करते हैं। जब अपेक्षाकृत कम पानी की जरूरत हो तो बांस की टोकरी में रस्सी बाँधकर उपकरण बनाया जाता है जिसे दो आदमी मिलकर पकड़ते और झटके से पानी उलीचते। यह पानी मोरियों के सहारे खेतों में पहुँचा दिया जाता। बाद में जब डीजल पम्प आए तो उन पम्पों से भी पानी निकाला जाने लगा। यह नलकूप से पानी निकालने की अपेक्षा हर हाल में सस्ता होता है। सूर्य की रोशनी और हवा के सम्पर्क से तालाब का पानी अधिक गुणवत्तापूर्ण होता है।
कूँओं का उपयोग यद्यपि सीमित प्रयोजनों से होता था। पहले इसे पेयजल का बेहतरीन स्रोत माना जाता था। भूगर्भीय जल-कूंडों से सम्पर्कित होने से इसका जल तरोताजा बना रहता है। आज जब भूजल में आयरन, फ्लोराईड, आर्सेनिक इत्यादि हानिकर रसायन निकलने लगे हैं, तब उनके निराकरण का उपाय खोजना पड़ता है। बिहार के लाखों लोग भूजल के दूषण से हुई बीमारियों से पीड़ित हो गए हैं। गंगा नदी के दोनों किनारों पर 1001 बसावटों के भूजल में आर्सेनिक की बहुलता है। राज्य के पठारी क्षेत्रों के 11 जिलों की 2691 बसावटों के भूजल में फ्लोराईड और कोसी प्रक्षेत्र के 9 जिलों में 10,844 बसावटों के भूजल में लौह की मात्रा मान्य मात्रा से अधिक है। वर्ष 2012-13 में आर्सेनिक प्रभावित गाँवों में 26 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ, फ्लोराईड प्रभावित 43 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ और आयरन प्रभावित 185 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ चालू की गई। इस साल लक्ष्य आर्सेनिक-786, फलोराइड-1507 और आयरन प्रभावित 3807 बसावटों का था। बिहार सरकार ने प्रति व्यक्ति 40 लीटर पेयजल उपलब्ध कराने का मानदंड तय किया है।
प्रत्येक 250 की आबादी और 500 मीटर की दूरी पर जलापूर्ति स्रोत की व्यवस्था की जानी है। इस वर्ष विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत 16,813 चापाकलों का निर्माण हुआ। विभिन्न प्रकार के (85$39$40) 164 नलकूप लगाए गए। प्रदेश में पेयजल व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए 55 हजार 240 चापाकल लगाया जाना है। हालाँकि अभी भी बिहार के केवल चार फीसद आबादी को पाइपलाइनों से जलापूर्ति हो पाती है। जिसे बढ़ाकर 12 वीं पंचवर्षीय योजना में 10 फीसद करने का लक्ष्य रखा गया है। भूजल के दोहन को बढ़ाने की इन योजनाओं के बीच भूजल के पुनर्भरण की योजना को ‘विज्ञापन वाली लड़कियों की भाषा में, ‘ढूँढते रह जाओगी’ जैसी हालत है।
पेयजल में कूँओं का इस्तेमाल करने में केवल एक ध्यान रखने की जरूरत होती है। इसमें गंदा पानी नहीं जाए। केवल वर्षा का शुद्ध जल ही एकत्र हो, इसके खास इंतजाम किए जाते थे। ऊँचा जगत बनता था। उसकी नियमित मरम्मत की जाती थी। कई जगहों पर उसे ढंककर रखा जाता। इसका इंतजाम न हो तब भी कूँओं को साफ रखने का ध्यान समाज रखता था। बचपन से ही कूँओं को गंदा नहीं करने की आदत डाली जाती थी। इसके अलावा नीम के पत्ते या चूना डालकर कीटाणु रहित बनाए रखने के इंतजाम भी किए जाते थे। परन्तु पानी निकालने में आमतौर पर बाल्टी-डोरी का व्यवहार ही होता है। कूँओं के अधिक गहरा होने पर चरखी भी लगाई जाती है। फिर भी पानी निकालना अपेक्षाकृत कठिन होने से सिंचाई आदि कामों के लिए इनका उपयोग कम ही होता है। सब्जी इत्यादि की खेती में जिसमें बहुत कम मात्रा में, परन्तु निरंतर सिंचाई की जरूरत होती है, उनमें भले कूँओं का उपयोग होता था। कई जगह सिंचाई के लिए कच्चे कूँए भी खोदे जाते थे। उनकी सफाई हर साल कर ली जाती थी। हालाँकि गाँवों में अब कूँओं की मरम्मत करने में कुशल कारीगर मिलना कठिन होता जा रहा है। यह खतरनाक स्थिति है। वैसे कारीगरों को खोजना और नए कारीगर तैयार करना आवश्यक है।
आयरन की अधिकता से पेयजल को मुक्त करने के लिए जीपीएसवीएस के कार्यक्षेत्र में मटका फिल्टर को प्रचलित हुआ है। कुओं के पानी को मटका फिल्टर छानकर इस्तेमाल करने का चयन हो जो भूगर्भ के पुनर्भरण हो सकेगी। जिससे भूजल में आयरन का प्राकृतिक और स्थाई निराकरण हो सकेगा अन्यथा बाकी चापाकलों से भी लौह प्रभावित जल निकलने लगेगा। परन्तु यह समझने और समझाने की जरूरत है कि भूजल में आयरन, आर्सेनिक, फ्लोराइड और दूसरे जहरीले पदार्थों का रसायनिक या यांत्रिक इंतजाम करने के बजाए भूगर्भ के पुनर्भरण का इंतजाम करना अनिवार्य है। वर्षाजल संग्रहण के लिए बनी टंकियों को भूगर्भ के पुर्नभरण की प्रणाली में बदला जा सकता है। खूले कुँए बनाए जा सकते हैं जिसके पानी को धूप और हवा मिलती रहे।
वर्षाजल संग्रह की नई प्रणालियों के प्रचलन से जागरुकता आई है। वर्षाजल शुद्ध और साफ है, इसे लोग समझ गए हैं। वर्षाजल के संग्रहण में तालाब और कूँओं का होना सबसे उपयोगी है, इसे समझने और समझाने की जरूरत है। यह ग्रामीण इलाकों में समन्वित जल प्रबंधन का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है। बेलही गाँव के तालाब में बाढ़ और वर्षा आस-पास के खेतों से होकर प्रवेश करें, इसके लिए साईफन लगाया गया है। इस प्राचीन पोखर की जीवंतता देखते बनती है। गाँव के स्त्री-पुरुषों का दैनिक स्नान इसमें होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में नालियों से घरेलू उपयोग से निकले गंदा पानी का उपयोग सब्जी आदि की खेती में बेहतरीन ढँग से हो सकता है। गिदहा गाँव में इसका नमूना दिखा। इस घर को सब्जी खरीदना नहीं पड़ता। विभिन्न मौसमों की सब्जियाँ इस छोटे से कोला (कीचेन गार्डेन) से निकल जाती है। केवल बीज डालना होता है। और घर के आस-पास को साफ रखने के बहाने इसमें निराई-गुड़ाई हो जाती है।
जल प्रबन्धन का सर्वोत्तम व एकत्रि ढँग यही हो सकता है कि गाँवों में हुई वर्षा का पानी तालाबों में संग्रहित हो और उससे अधिक होने पर ढाल के मुताबिक आगे प्रवाहित हो जाए। छतों पर एकत्र पानी कूँओं में संग्रहित हो। नई और पुरानी तकनीकों का यह समिश्रण सम्भवतः अधिक कारगर होगा। नालियों का पानी सिंचाई में जाए या ऐसा कोई इंतजाम हो जिससे उसपर सूर्य की रोशनी अधिक से अधिक पड़े और गंदगी खाद में बदलता जाए। ऐसी व्यवस्था के संकेत वेल्ट हंगरफिल्ड के सहयोग से हुए कामों में स्पष्ट दिखते हैं।
नलकूप या चापाकल की तकनीक आने के बाद धरती के भीतर से पानी निकालना आसान हो गया और भूजल के उपयोग का प्रचलन लगातार बढ़ता गया। इसका सामाजिक और राजनीतिक कारण भी था। समाज में सामुदायिकता का अभाव होने लगा था। सब अपने दरवाजे पर चापाकल चाहते थे। तालाब और कूँए जब समुदाय के उपयोग की वस्तु थे, समुदाय उनका देख-रेख करता था। निजी नलकूप आने पर ऐसा सम्भव नहीं था। फिर भी चापाकल मूलतः पेयजल स्रोत के तौर पर व्यवहृत थे। फसलों की सिंचाई के लिए नहर का सपना, उसकी असफलता इत्यादि कारणों से विभिन्न उपयोगों के वर्षाजल के संग्रह की घोर उपेक्षा हुई। भूगर्भीय जल भंडार को समृद्ध करने का मामला पूरी तरह छूट गया।
इसकी प्राचीन संरचनाएँ उपेक्षित होकर नष्ट होती गई। जल-निष्कर्षण बढ़ने और पुनर्भरण घटने के दुष्प्रभाव विभिन्न रूपों में प्रकट होने लगे। कई इलाकों में धरती की कोख के सूखने के लक्षण प्रकट होने लगे। तब पुनर्भरण की आवश्यकता और इसकी नई-नई तकनीकों की चर्चा आरम्भ हुई। लेकिन परम्परासिद्ध तकनीकों (तालाब, कूआँ जैसी संरचनाओं) की समुचित प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित किया जाना अभी बाकी है।
बिहार के बाढ़ग्रस्त जिलों में वर्षाजल संग्रह की दोनों प्रकार की तकनीकों के नमूने दिखते हैं। बाढ़ के दौरान पेयजल के तौर पर वर्षाजल का संग्रह कर इस्तेमाल करना आरम्भ हुआ। पालिथिन की चादरें तानकर उसपर वर्षाजल को एकत्र करना, उसे साफ बर्तन में रखना, उबालकर, छानकर पीना और दूसरे काम करना। हालाँकि वर्षाजल को उबालना-छानना भी आवश्यक नहीं होता क्योंकि संग्रह करने में थोड़ी सावधानी बरती जाए तो प्रदूषित होने की कोई सम्भावना नहीं होती। यह प्रणाली बाढ़ से घिरे घरों और उन पर आश्रय शिविरों के लिए भी कारगर साबित हुई जहाँ बाढ़ के कारण विस्थापित लोगों ने आश्रय लिया होता। दरअसल बाढ़ के दौरान पेयजल का संकट भयावह होता है। इसके प्रचलित स्रोत चापाकल बाढ़ में डूब जाते। पहले चापाकलों के ऊँचे प्लेटफार्म बनाए गए। पर पानी लेने वहाँ तक पहुँचना कठिन होता था।
वैसे भूजल स्तर लबालब भरे होने से साधारण चापाकलों के पानी में बाढ़ का पानी मिला होता। वह जमा पानी सड़ता और गंदा होता जाता। आश्रय स्थलों के पास पेयजल के लिए अगर नए चापाकल गाड़े जाते तो उनसे गंदा पानी निकलता। ऐसे समय में पॉलिथिन की जिन चादरों से बने तम्बूओं में लोग आश्रय लेते थे, उन पर गिरी वर्षा की बूंदों को एकत्र कर पेयजल के तौर पर इस्तेमाल करने का उपाय सामने आया। बाद में इस तकनीक का थोड़ा विस्तार हुआ और वर्षाजल का संग्रह करने के लिए पॉलिथिन और बांस के सहारे बनी कूंडियों का इस्तेमाल किया जाने लगा।
आपातकालीन व्यवस्था के तौर पर वर्षाजल का संग्रह किया जाता। बाद में पक्के मकानों की छत पर गिरे पानी को कंक्रिट की बनी टंकियों में एकत्र करने की कोशिशें भी आरम्भ हुई। पलसाहा गाँव (मुरौना प्रखंड, सुपौल जिला) में एक मंदिर की छत के पानी को एकत्र करने की सूंदर व्यवस्था जीपीएसवीएस व वेल्ट हंगर हिल्फे के सौजन्य से हुई है। वर्षाजल संग्रह की इस प्रणाली की ग्रामीण क्षेत्र में उपयोगिता विचारणीय है। इस ‘संग्रह’ के उपयोग की कोई व्यवस्थित प्रणाली विकसित नहीं हुई है।
तालाब और कूआँ वर्षाजल के संग्रह और उपयोग की बेहतरीन और परम्परासिद्ध तकनीकें हैं। तालाबों में एकत्र जल भूमिगत कूंडों से सीधे सम्पर्क के कारण सदा तरोताजा बना रहता है और सूर्य ताप के प्रभाव में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों का स्वतः उपचार कर स्वयं को शुद्ध और स्वच्छ बनाए रखता है। इनमें एकत्र जल रिस-रिसकर भूजल-कूंडों को भरता है। तालाबों का भू-जलकूंडों से सम्पर्क दोतरफा लाभदायक होता है। तालाबों से कई प्रयोजन सिद्ध होते थे। वर्षा जल इनमें संचित होता था। बाढ़ आने पर वह पानी पहले तालाबों को भरता था। गाँव और बस्ती डूबने से बच जाते थे। अगर कभी बड़ी बाढ़ आई और गाँव में पानी भर गया तो तालाबों के पाट, घाट मवेशियों और मनुष्यों के आश्रय स्थल होते थे। अगर बाढ़ नहीं आई तो अगले मौसम में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होता था। तालाबों में पानी आने और निकलने के रास्ते बने होते जो मवेशियों के पानी पीने और नहाने आने-जाने के मार्ग भी होते।
वर्षाजल संग्रह की नई प्रणालियों के प्रचलन से जागरुकता आई है। वर्षाजल शुद्ध और साफ है, इसे लोग समझ गए हैं। वर्षाजल के संग्रहण में तालाब और कूँओं का होना सबसे उपयोगी है, इसे समझने और समझाने की जरूरत है। यह ग्रामीण इलाकों में समन्वित जल प्रबंधन का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है। तालाबों से सिंचाई के लिए पानी निकालने की कई तकनीकें प्रचलित थी। इसकी कई तकनीकें और उपकरण प्रचलित थे। करीन तो अब विलुप्त हो गए हैं। करीन मिथिलांचल में प्रचलित ऐसी तकनीक थी जिसका जोड़ शायद अन्यत्र नहीं मिलता। करीन अब विलुप्त प्रायः है, नई पीढी के लोगों ने उसे देखा भी नहीं होगा। पर बीस-तीस साल पहले यह पूरे मिथिलांचल में तालाब से सिंचाई करने का सबसे अधिक प्रचलित उपकरण था। बड़े खेतों की सिंचाई में इसका उपयोग होता था। यह काठ का पतला, लंबा नावनुमा उपकरण होता है जिसे रस्सी और बांस के सहारे तालाब के किनारे लगाया जाता है। बैलेंस-पुली तकनीक से इसके एक सिरे को पानी में डाला जाता और फिर निकालने पर दूसरे सिरे से पानी उलीचा जाता है। अब नलकूप लगाने वाले कारीगर लगभग उसी तकनीक का इस्तेमाल नलकूप लगाने में करते हैं। जब अपेक्षाकृत कम पानी की जरूरत हो तो बांस की टोकरी में रस्सी बाँधकर उपकरण बनाया जाता है जिसे दो आदमी मिलकर पकड़ते और झटके से पानी उलीचते। यह पानी मोरियों के सहारे खेतों में पहुँचा दिया जाता। बाद में जब डीजल पम्प आए तो उन पम्पों से भी पानी निकाला जाने लगा। यह नलकूप से पानी निकालने की अपेक्षा हर हाल में सस्ता होता है। सूर्य की रोशनी और हवा के सम्पर्क से तालाब का पानी अधिक गुणवत्तापूर्ण होता है।
कूँओं का उपयोग यद्यपि सीमित प्रयोजनों से होता था। पहले इसे पेयजल का बेहतरीन स्रोत माना जाता था। भूगर्भीय जल-कूंडों से सम्पर्कित होने से इसका जल तरोताजा बना रहता है। आज जब भूजल में आयरन, फ्लोराईड, आर्सेनिक इत्यादि हानिकर रसायन निकलने लगे हैं, तब उनके निराकरण का उपाय खोजना पड़ता है। बिहार के लाखों लोग भूजल के दूषण से हुई बीमारियों से पीड़ित हो गए हैं। गंगा नदी के दोनों किनारों पर 1001 बसावटों के भूजल में आर्सेनिक की बहुलता है। राज्य के पठारी क्षेत्रों के 11 जिलों की 2691 बसावटों के भूजल में फ्लोराईड और कोसी प्रक्षेत्र के 9 जिलों में 10,844 बसावटों के भूजल में लौह की मात्रा मान्य मात्रा से अधिक है। वर्ष 2012-13 में आर्सेनिक प्रभावित गाँवों में 26 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ, फ्लोराईड प्रभावित 43 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ और आयरन प्रभावित 185 मिनी जलापूर्ति योजनाएँ चालू की गई। इस साल लक्ष्य आर्सेनिक-786, फलोराइड-1507 और आयरन प्रभावित 3807 बसावटों का था। बिहार सरकार ने प्रति व्यक्ति 40 लीटर पेयजल उपलब्ध कराने का मानदंड तय किया है।
प्रत्येक 250 की आबादी और 500 मीटर की दूरी पर जलापूर्ति स्रोत की व्यवस्था की जानी है। इस वर्ष विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत 16,813 चापाकलों का निर्माण हुआ। विभिन्न प्रकार के (85$39$40) 164 नलकूप लगाए गए। प्रदेश में पेयजल व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए 55 हजार 240 चापाकल लगाया जाना है। हालाँकि अभी भी बिहार के केवल चार फीसद आबादी को पाइपलाइनों से जलापूर्ति हो पाती है। जिसे बढ़ाकर 12 वीं पंचवर्षीय योजना में 10 फीसद करने का लक्ष्य रखा गया है। भूजल के दोहन को बढ़ाने की इन योजनाओं के बीच भूजल के पुनर्भरण की योजना को ‘विज्ञापन वाली लड़कियों की भाषा में, ‘ढूँढते रह जाओगी’ जैसी हालत है।
पेयजल में कूँओं का इस्तेमाल करने में केवल एक ध्यान रखने की जरूरत होती है। इसमें गंदा पानी नहीं जाए। केवल वर्षा का शुद्ध जल ही एकत्र हो, इसके खास इंतजाम किए जाते थे। ऊँचा जगत बनता था। उसकी नियमित मरम्मत की जाती थी। कई जगहों पर उसे ढंककर रखा जाता। इसका इंतजाम न हो तब भी कूँओं को साफ रखने का ध्यान समाज रखता था। बचपन से ही कूँओं को गंदा नहीं करने की आदत डाली जाती थी। इसके अलावा नीम के पत्ते या चूना डालकर कीटाणु रहित बनाए रखने के इंतजाम भी किए जाते थे। परन्तु पानी निकालने में आमतौर पर बाल्टी-डोरी का व्यवहार ही होता है। कूँओं के अधिक गहरा होने पर चरखी भी लगाई जाती है। फिर भी पानी निकालना अपेक्षाकृत कठिन होने से सिंचाई आदि कामों के लिए इनका उपयोग कम ही होता है। सब्जी इत्यादि की खेती में जिसमें बहुत कम मात्रा में, परन्तु निरंतर सिंचाई की जरूरत होती है, उनमें भले कूँओं का उपयोग होता था। कई जगह सिंचाई के लिए कच्चे कूँए भी खोदे जाते थे। उनकी सफाई हर साल कर ली जाती थी। हालाँकि गाँवों में अब कूँओं की मरम्मत करने में कुशल कारीगर मिलना कठिन होता जा रहा है। यह खतरनाक स्थिति है। वैसे कारीगरों को खोजना और नए कारीगर तैयार करना आवश्यक है।
आयरन की अधिकता से पेयजल को मुक्त करने के लिए जीपीएसवीएस के कार्यक्षेत्र में मटका फिल्टर को प्रचलित हुआ है। कुओं के पानी को मटका फिल्टर छानकर इस्तेमाल करने का चयन हो जो भूगर्भ के पुनर्भरण हो सकेगी। जिससे भूजल में आयरन का प्राकृतिक और स्थाई निराकरण हो सकेगा अन्यथा बाकी चापाकलों से भी लौह प्रभावित जल निकलने लगेगा। परन्तु यह समझने और समझाने की जरूरत है कि भूजल में आयरन, आर्सेनिक, फ्लोराइड और दूसरे जहरीले पदार्थों का रसायनिक या यांत्रिक इंतजाम करने के बजाए भूगर्भ के पुनर्भरण का इंतजाम करना अनिवार्य है। वर्षाजल संग्रहण के लिए बनी टंकियों को भूगर्भ के पुर्नभरण की प्रणाली में बदला जा सकता है। खूले कुँए बनाए जा सकते हैं जिसके पानी को धूप और हवा मिलती रहे।
वर्षाजल संग्रह की नई प्रणालियों के प्रचलन से जागरुकता आई है। वर्षाजल शुद्ध और साफ है, इसे लोग समझ गए हैं। वर्षाजल के संग्रहण में तालाब और कूँओं का होना सबसे उपयोगी है, इसे समझने और समझाने की जरूरत है। यह ग्रामीण इलाकों में समन्वित जल प्रबंधन का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है। बेलही गाँव के तालाब में बाढ़ और वर्षा आस-पास के खेतों से होकर प्रवेश करें, इसके लिए साईफन लगाया गया है। इस प्राचीन पोखर की जीवंतता देखते बनती है। गाँव के स्त्री-पुरुषों का दैनिक स्नान इसमें होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में नालियों से घरेलू उपयोग से निकले गंदा पानी का उपयोग सब्जी आदि की खेती में बेहतरीन ढँग से हो सकता है। गिदहा गाँव में इसका नमूना दिखा। इस घर को सब्जी खरीदना नहीं पड़ता। विभिन्न मौसमों की सब्जियाँ इस छोटे से कोला (कीचेन गार्डेन) से निकल जाती है। केवल बीज डालना होता है। और घर के आस-पास को साफ रखने के बहाने इसमें निराई-गुड़ाई हो जाती है।
जल प्रबन्धन का सर्वोत्तम व एकत्रि ढँग यही हो सकता है कि गाँवों में हुई वर्षा का पानी तालाबों में संग्रहित हो और उससे अधिक होने पर ढाल के मुताबिक आगे प्रवाहित हो जाए। छतों पर एकत्र पानी कूँओं में संग्रहित हो। नई और पुरानी तकनीकों का यह समिश्रण सम्भवतः अधिक कारगर होगा। नालियों का पानी सिंचाई में जाए या ऐसा कोई इंतजाम हो जिससे उसपर सूर्य की रोशनी अधिक से अधिक पड़े और गंदगी खाद में बदलता जाए। ऐसी व्यवस्था के संकेत वेल्ट हंगरफिल्ड के सहयोग से हुए कामों में स्पष्ट दिखते हैं।
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