डॉ. अनिल जोशी, अमर उजाला, 02 अप्रैल 2020
स्पेन हो या फ्रांस या फिर इंग्लैंड, इनमें सिर्फ कोरोना ने ही बड़ी मार नहीं मचाई है, बल्कि अब लॉकडाउन के कारण एक नई समस्या उभर के सामने आ रही है। घर से बाहर निकलने की आदत, तफरीबाजी पर प्रतिबंध लगने के कारण लोगों को अवसाद ने घेर लिया है। यह मानसिक बीमारी इन्हीं देशों में नहीं बल्कि सभी जगह तेजी से फैल रही है। इसमें भय भी जुड़ा है। स्वाभाविक ही है कि घूमने फिरने के आदी लोगों को यह बंधन मानसिक रूप से कदापि स्वीकार नहीं हो सकते इसलिए अवसाद उन्हें घेर रहा है।
अवसाद की भयावता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस दौरान कुछ आत्महत्याएं भी हुई। बेरोजगारी व विकल्प के अभाव ने भी लोगों को अवसाद में धकेल दिया असल में अवसाद उस वर्ग को ज्यादा पीड़ित करता है, जहां भोगवादी सभ्यता चरम पर होती है क्योंकि यही आदत का हिस्सा बन जाती है और इसका अभाव अवसाद को जन्म देता है। अवसाद मूल रूप से मानसिक रोग के रूप में उनको ज्यादा चपेट में ले लेता है जो एक खास जीवनशैली के आदि होते हैं और उसी के असंतुलन को स्वीकार नहीं कर पाते हैं.
दुनिया भर में लॉकडाउन कुछ दिन की कहानी नहीं है बल्कि एक लंबी अवधि का प्रयोग होता है ताकि घटना की पुनरावृत्ति ना हो सके।वर्तमान में लॉकडाउन में ज्यादा प्रतिबंध लगाए गए हैं जिसमें आइसोलेशन के कारण एकाकीपन को झेलना पड़ता है। निश्चित रूप से यह स्थिति कुछ हद तक अपने देश में भी पैर पसारेगी, लेकिन इस देश में परंपराएं और संस्कृति गहरी पैठ बनाए हुए हैं और इसलिए अवसाद इस देश को ज्यादा नहीं घेर पाएगा।
एक बात तो है कि इस विकट स्थिति में भारत के पास दुनिया को सिखाने के लिए बहुत कुछ है। पहला और सबसे महत्वपूर्ण यह कि देश ऐसे अफसरों पर धैर्य नहीं खोता। यहां परहेज भय से उतना नहीं जुड़ता जितना कि दायित्व जुड़ा होता है। इस अवसर पर भयभीत ना होना वैसे तो ठीक नहीं है, पर आत्मशक्ति इस तरह की महामारी में एक बड़ा रोल अदा करती है। दूसरी बड़ी बात, जिस तरह अपने देश में जीवनशैली है, उसमें आत्मबल के अलावा प्रतिरोधक शक्ति बहुत मायने रखती है और यह गुण देश के अधिसंख्यक समाज का हिस्सा है। यह अध्ययन के बाद सामने आया है कि अभी तक कोरोना के संक्रमित 2% लोगों को ही वेंटिलेटर की आवश्यकता पड़ी है, जबकि 98% लोग इस बीमारी से शारीरिक कष्टों से गुजरे। अब तक की रिपोर्ट यह बताती है कि संक्रमित लोगों की संख्या दूसरे देश की तुलना में अपने देश में कम है। जहां पिछले 10-15 दिनों में अन्य देशों में खासतौर पर इटली, अमेरिका और फ्रांस, जहां संक्रमित लोगों की संख्या हजारों लाखों पहुंची है, वहीं अपने देश में यह अभी काबू में है। यह तथ्य कई बातों की तरफ इशारा करता है। पहला यहां समाज सामूहिक निर्णय पर निर्भर करता है। दूसरा यह सामाजिक व्यवस्था को कमजोर नहीं कर पाता और तीसरा यहां का बहुसंख्यक समाज भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही भोजन ग्रहण करता है।
इन सबके अलावा इस देश की योग और संस्कृति जो शारीरिक और मानसिक शक्ति का स्रोत है, इस तरह के आप गांव में एक बड़े कवच का काम करती है। यही कारण है कि हमारे भीतर सहनशीलता ऐसे अवसरों में कूट-कूट कर भरी होती है। यही अब समय है कि हम दुनिया को अपनी जीवनशैली में ढालें ना कि उनकी शैली के आगे माथा टेक दें। आज देखिए दुनिया में इस आपदा के दौरान भारतीय भोजन और उसकी जीवनशैली की चर्चा जोरों पर है।
अब इसमें योग हो या फिर मेडिटेशन इसे ही विश्व को समझना और समझाना होगा, पर उससे पहले हमें अपने घर में अपनी संस्कृति और परंपराओं का सम्मान करना होगा। यह तो तय है कि विदेश और विदेशी तौर-तरीके हमने अपनाएं जरूर हैं पर उनमें सहज व सामूहिक स्वीकार्यता दिखाई नहीं देती। इस महामारी में हमारी नजर दुनिया की इस बीमारी के खिलाफ लड़ाई के तौर तरीकों से ज्यादा हमारी दृष्टि अपनी परंपराओं व प्रकृति के अंदर खोजनी होगी। प्रकृति से छेड़छाड़ का कारण कोरोना है और इसको हराने के रास्ते भी प्रकृति से ही मिलेंगे इसलिए यह जरूरी है कि इस महामारी से बचने के लिए प्रभु और प्रकृति दोनों का वंदन करें।
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