प्रकृति और मानव के बीच सामंजस्य बनाने की जरूरत है

हिमालय दिवस, 9 सितंबर 2011 को दिल्ली के आईआईसी में अगाथा संगमा (ग्रामीण विकास राज्य मंत्री, भारत सरकार) के दिए गए वक्तव्य पर आधारित आलेख यहां प्रस्तुत है।

अगर हमें हिमालयी क्षेत्रों को उनके मूल प्रकृति के साथ ही रखना है तो हमें अपने आंदोलनों में उन लोंगों को शामिल करना होगा जो वहां रहते हैं, जिनके आजीविका के साधन हिमालय क्षेत्र पर निर्भर हैं, तभी हम ‘नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन’ के अंतर्गत हिमालयी क्षेत्रों में स्थिर रोजगार स्थापित कर सकते हैं। मुझे लगता है कि यह सफल भी होगा। मेरे राज्य में कुछ ऐसी जगह हैं जिसे संरक्षित क्षेत्र कह सकते हैं। इन क्षेत्रों में कोई भी व्यक्ति किसी जानवर को नहीं मार सकता और न ही पेड़-पौधों को कोई नुकसान पहुंचा सकता है। इस तरह के विचार हमारे लोगों में होने चाहिए कि हम अपनी प्राकृतिक धरोहरों को संभाल कर रखें, उस पर अनावश्य हस्तक्षेप न करें। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम हिमालय को सुरक्षित व संरक्षित रख पायें। मेरा मानना है कि हमें सबसे पहले हिमालय के ऐतिहासिक महत्व को समझना बहुत जरूरी है।

भारत में अगर पर्यावरण को लेकर हुए आंदोलनों को देखेंगे तो 1973 में जो चिपको आंदोलन हुआ था वह आंदोलन पर्यावरण के आंदोलनों को परिलक्षित करता हैं। आज देश में जो भी नीतियां बन रही हैं उस पर तो हम खूब चर्चा करते हैं लेकिन ऐतिहासिक रूप से हमें यह समझने की जरूरत है कि हमारे लोग पहले से ही पर्यावरण को लेकर संवेदनशील और जागरूक रहे हैं। बड़ी बात ये है कि पर्यावरण को लेकर जो जागरूकता आई वो सर्वप्रथम हिमालयी क्षेत्रों के लोगों में ही आई। यह बात इस ओर सोचने को इंगित करता है कि हमें हिमालय और हिमालयी समाज को हमेशा केंद्र में रखकर ही पर्यावरण के बारे में विचार करना चाहिए।

केंद्र सरकार में होने के नाते मुझे कई पर्यावरणविदों ने कहा कि हम कैसे हिमालय को लेकर सांसदों का ध्यान इस ओर केंद्रित कर सकते हैं? इस पर मैं कहना चाहुंगी की इस ओर पहल करते हुए हमने हिमालयी राज्यों के सांसदों का एक फोरम बनाया था लेकिन अब तक एक ही बार हमारी मीटिंग हुई है और इस सत्र में भी हम मीटिंग नहीं कर पाए। पर्यावरण को लेकर सचेत और पूरी निष्ठा से काम कर रहे अनिल जोशी जी ने मुझे एक साल की मोहलत दी है कि इस दिशा में मैं प्रयास करूं।

मेरी कोशिश है कि हमारा फोरम सक्रिय रूप से काम करे और पर्यावरण के प्रति जागरूकता की ओर बढ़े। सांसदों का मानना है कि हिमालय जैसे विषय पर केन्द्र ज्यादा रूचि नहीं दिखाता। मैं आप लोगों से कहना चाहुंगी कि हाल-फिलहाल अन्ना हजारे के आंदोलन में लोगों ने सक्रिय और निःस्वार्थ भाव से भागीदारी की। यह ऐसा मुद्दा है जिसे लेकर लोगों में आक्रोश है और यही कारण है कि लोगों ने एकता दिखाकर अन्ना हजारे जी के आंदोलन को देशव्यापी बनाया। मैं आपका ध्यान अपने क्षेत्र में एक ऐसी लड़की की ओर ले जाना चाहती हूं जो पिछले 11सालों से एक एक्ट को खत्म करवाने के लिए अनशन पर है। उनका नाम है इरोम शर्मिला।

आप लोगों में से कुछ ने यह नाम सुना होगा या कुछ ने नहीं भी सुना होगा। वो एएफएसपीए को खत्म करने की मांग कर रही हैं। 11 साल कम नहीं होते। उन्होंने 11 सालों से कुछ नहीं खाया, कुछ नहीं पीया लेकिन आज भी उनका जो संघर्ष है वो अकेला संघर्ष है। आज भी वो अस्पताल में हैं। उनका अनशन तोड़ने के लिए उन्हें जबरदस्ती खिलाने की कोशिश की जाती है। उन्हें नाक के माध्यम से लिक्वीड दिया जा रहा है। बड़ी अजीब बात है कि उनके संर्घष को आज तक कोई तवज्जो नहीं दी गई और नहीं उनके संघर्ष को वो ताकत और परिणाम मिला जो अन्ना हजारे जी को 12 दिन में मिल गया। यह शायद इसलिए है कि उन्होंने जो आंदोलन शुरू किया वो दिल्ली में दबाव नहीं बना पाया जैसा कि अन्ना जी के आंदोलन ने बनाया।

मैं ये भी कहना चाहूंगी कि इरोम शर्मिला जिस मुद्दे को लेकर संघर्षरत हैं वो बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। एएफएसपीए मानवाधिकार का हनन करता है। इस एक्ट की आड़ में लोगों को बेवजह सताया जा रहा है। अन्ना हजारे जी और इरोम शर्मिला का जो आंदोलन है वो दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण है लेकिन इरोम का आंदोलन इसलिए किसी मुकाम पर नहीं पहुंचा कि वह नेशनल फिगर नहीं है और वह नार्थ ईस्ट में ऐसी जगह आंदोलनरत हैं जहां उसे मीडिया भी सपोर्ट नहीं करता। मेरे ख्याल से अगर हम इस मुद्दे को हिमालय के प्रति जागरूकता या लोगों में संवेदना से जोड़ कर देखें तो यही समझ में आता है कि हिमालय को लेकर जो बहस है वो आम तौरपर हिमालय तक ही सीमित है।

इस मुद्दे को हम अभी तक व्यापक स्तर पर नहीं ले जा पाए हैं। हमें केंद्र में बहस संचालित करनी पड़ेगी तभी हम कुछ सार्थक कर पाएंगे। जोशी जी ने जो रिर्पोट मुझे दी है उससे एक आशा भी जगती है कि आज हिमालय दिवस देश के कई राज्यों में मनाया जा रहा है। इसमें मीडिया भी सहयोग कर रहा है। मेरा मंत्रालय ग्रामीण विकास मंत्रालय है। हम आमतौर से ग्रामीण क्षेत्रों पर केंद्रित योजनाओं पर ही काम करते हैं।

यह मंत्रालय उन इलाकों को चिन्हित करता है जहां ग्रामीण ढ़ांचागत विकास कम है। हम अपने मंत्रालय के माध्यम से सिर्फ रेगुलर स्कीम को ही वहां तक ले जा पाते हैं जैसे पीएमजीएसवाई, जो रूरल कनेक्टिविटी के लिए होता है या ग्रामीण स्वास्थ्य या स्वच्छता। मेरी जानकारी के अनुसार हमारे मंत्रालय में एक नई स्कीम जोड़ी गई है ‘नेशनल रूरल लाइवलिहुड मिशन’ यह बहुत ही महत्वपूर्ण स्कीम है। इससे हिमालयी क्षेत्रों को खासकर फायदा होगा।

मैं एक किताब पढ़ रही थी जो राम चंद्र गूहा ने लिखा है। उसमें उन्होंने एक ऐनोलाॅजी ड्रॉ बनाया है। इसके माध्यम से उन्होंने उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी देशों और भारत के पर्यावरण और पर्यावरण को लेकर हुए आंदोलनों की तुलनात्मक समीक्षा की है। किताब के अनुसार उत्तरी अमेरिका में पर्यावरणीय आंदोलन इस दर्शन के आधार पर होता है कि प्रकृति को यह अधिकार है कि वह अपने लिए जीवित रहे। उसे खुद को स्वस्थ्य रखने का अधिकार है।

इसीलिए उत्तरी अमेरिका में बड़े-बड़े राष्ट्रीय पार्क बनाए गए हैं जहां जानवरों और पेड़-पौधें को संरक्षित रखा जाता है। उनके आंदोलनों में प्रकृति केंद्र में रहती है। वहीं भारत में हम पर्यावरण को हमेशा लोगों की आजीविका से जोड़ कर देखते हैं। अगर हमें हिमालयी क्षेत्रों को उनके मूल प्रकृति के साथ ही रखना है तो हमें अपने आंदोलनों में उन लोंगों को शामिल करना होगा जो वहां रहते हैं, जिनके आजीविका के साधन हिमालय क्षेत्र पर निर्भर हैं, तभी हम ‘नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन’ के अंतर्गत हिमालयी क्षेत्रों में स्थिर रोजगार स्थापित कर सकते हैं। मुझे लगता है कि यह सफल भी होगा।

प्रकृति और लोगों की आजीविका जो प्रकृति पर निर्भर है उसके बीच हमेशा एक तरह का अंतरद्वंद बना रहता है। यह एक तरह से प्रकृति और मानव के बीच झगड़े जैसा है। इसलिए यह जरूरी है कि दोनों में सामंजस्य बनाने की कोशिश हो और तभी हम दोनों को एक साथ जोड़कर आंदोलन खड़ा कर पाएंगे जो दोनों के बीच भाईचारा का भाव पैदा करता हो न की दुश्मनी का। मैंने कई केंद्रों को स्थापित करने की कोशिश की है जिसमें हम ग्रामीण आजीविका के साधनों का विकास करेंगे और ये ग्रामीण आजीविका के साधन स्थिर होते हैं। इसमें प्रकृति को नुकसान नहीं होता। वन क्षेत्रों को केन्द्र में रखकर हमने खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने के लिए ईकाइयोंको स्थापित किया है। क्योंकि जो भी वन उत्पादन होता है वो आमतौर पर लोगों द्वारा अनदेखाकर दिया जाता है।

(हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2011 को दिल्ली के आईआईसी में दिए गए वक्तव्य पर आधारितआलेख)

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