आज के भूमण्डलीकरण के दौर में प्राकृतिक आपदा की बारम्बारता में तीव्रता से वृद्धि हो रही है। क्योंकि कहीं-न-कहीं मानव और पर्यावरण का सम्बन्ध विच्छेद होता जा रहा है। हालाँकि मानव व पर्यावरण का अटूट रिश्ता है, जिसका सन्तुलन बना रहना हमारे लिये अति आवश्यक है। अगर सन्तुलन, असन्तुलन में परिवर्तित होता है तो कहीं-न-कहीं यह प्राकृतिक आपदा को आमन्त्रण देने जैसा है। जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों-लाखों जीव-जन्तु काल के ग्रास में समा जाते हैं। वह भी एक पल में, जैसे उत्तराखण्ड की केदारनाथ त्रासदी, 2013, भूकम्प-सुनामी-2004, उत्तराखण्ड के जंगल में आग लगना 2016 और गुजरात में बाढ़ के कारण शेरों की मृत्यु 2016 आदि
गत महीने के प्रथम सप्ताह में राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में पर्यावरणीय आपातकाल जैसी भयावह दशा ने सबको सोचने के लिये मजबूर कर दिया है कि हर एक साँस की कीमत क्या होती है? और चेन्नई की बाढ़ ने हर एक शुद्ध जल के बूँद की कीमत क्या होती है? ये दोनों घटनाएँ और साथ ही साथ दूसरी प्राकृतिक आपदाएँ भी हमारे लिये अतिशीघ्र चिंतन और मनन का प्रमुख विषय है। अगर देरी होती है तो हम लोग 1 अरब 25 करोड़ लोगों को न तो फेसमास्क और ना ही ऑक्सीजन की बोतल दे पाएँगे। अगर हम लोग बाजार से खरीद भी लेते हैं तो पेड़-पौधे और जीव-जन्तु कहाँ से खरीदेंगे और कौन इनको उपलब्ध कराएगा, जोकि कोरी कल्पना से परे है।दुनिया भर में जैविक प्रजातियों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। जिसके प्रमुख कारण जैविक छितराव, प्रवास, जनांकिकीय प्रभाव, जनसंख्या आकार, अन्तःप्रजनन अवसाद आदि है।
यह सब प्राकृतिक तत्वों में पर्यावरण प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं, जोकि विकासवाद और भौतिकवाद के स्वरूप से जुड़ा है, जिससे कि जैव विविधता पर खतरा साबित होता जा रहा है। यद्यपि जैव विविधता एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है जो हमें सुरक्षा और शांति प्रदान करती है और इनकी मोटी-मोटी संख्या लगभग 20 लाख के आस है और सभी की महत्त्वपूर्ण सहभागिता है, चाहे चिड़िया हो या हाथी जैसा जानवर। यह सब खाद्य श्रृंखला का उचित तालमेल बनाये रखते हैं। इसी तरह से जैव विविधता विलुप्त होती रही है तो एक दिन प्राकृतिक आपदा चरम सीमा तक पहुँच जाएगी, जो पृथ्वी का सर्वनाश होने जैसा होगा, जिसकी हमने कल्पना तक नहीं की होगी। जिसका वर्तमान उदाहरण नेपाल में तीव्रगति का भूकम्प है, जिसके एक झटके में 9000 लोग मृत और 22000 लोग घायल हो गए।
मानव के विकासवाद की दौड़ में हम सब इस वास्तविक प्रकृति को भूल गए हैं, जैसे शेर की दहाड़, हाथी की मस्ती भरी चाल, हिरनों का कुलाचे, खरगोश की धवल काया और फुर्ती, पक्षियों का कलरव और कोयल की मधुर कूक, मैना की बातें, पपीहे की चाल हमें एक अलग दुनिया का आभास कराती है। जिसकी तुलना वर्तमान की प्रकृति से कोसों दूर हो चुकी है। इस दौर में, क्योंकि मानव जाती ने इन सब की आवाज को छीन लिया है, सिर्फ अपनी लालसा के कारण और यही लालसा प्राकृतिक आपदा का कारण बनती जा रही है।
यदि हम अपने संसाधनों की स्थिति को देखें तो भयावह तस्वीर उभरती है। हमारे देश का आधे से अधिक स्थान (59 प्रतिशत) भूकम्प के खतरे में है। 95 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ की चपेट में आती है। जिससे सैकड़ों साधनहीनों को प्राण गँवाने पड़ते हैं। आँधी, तूफान, चक्रवात और सुनामी के विनाश को भी इसमें शामिल कर दिया जाए तो तस्वीर काफी बदरेंग नजर आने लगती है।
जैसे केदारनाथ त्रासदी, जून 2013, इस त्रासदी के बाद हमारे जेहन में कई सवाल उठते हैं कि आखिर इतनी बड़ी भयावह घटना कैसे हो गई, क्यों न हम लोग इसका पूर्वानुमान लगा पाये, हालाँकि इसका धार्मिक कारण बताते हैं कि श्रीमद्भागवत के अनुसार उत्तराखण्ड के 16 शक्तिपीठों में धारी माता भी एक हैं। बाँध निर्माण के लिये 16 जून की शाम को 6 बजे धारी देवी की मूर्ति विस्थापित की गई और ठीक दो घंटे के बाद यह त्रासदी प्रारम्भ हो गई, इसका मतलब यह तो आस्था से जुड़ी हुई धारणा है। इस आस्था का प्राकृतिक सम्पदा के साथ अटूट रिश्ता है, जिसके बिखराव का परिणाम हमारे सामने है। इस घटना के परिणामस्वरूप लगभग 5000 लोगों की जाने गईं।
इस त्रासदी के कारण अप्राकृतिक विकासात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देना, बेतरतीब शैली में निर्मित सड़कें, राज्य में जलाशयों का निर्माण, नदियों के नाजुक किनारों पर आवासों का निर्माण और सबसे बड़ा कारण 70 विद्युत परियोजना के लिये किए गए विस्फोटों से असन्तुलन पैदा होना था। जिसके परिणाम भूस्खलन और बाढ़ का आना हुआ। हाल ही में उत्तराखण्ड के जंगल में 3000 एकड़ भूमि पर आग लग गई जोकि 90 दिनों तक जलती रही, जिसके परिणामस्वरूप 3000 एकड़ की जैव विविधता का विनाश हो गया।
गुजरात के सौराष्ट्र में इसी वर्ष बाढ़ आने के कारण लगभग 10 शेर, 90 हिरण, 1600 नील गायें आदि इस बाढ़ में बह गए जिसके परिणामस्वरूप गिर अभ्यारण्य में खाद्य श्रृंखला पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। आजकल पशुओं को दी जाने वाली डाइक्लोफेनिक दवा के कारण आज प्रकृति के सफाईकर्मी गिद्ध हमारे बीच से गायब होते जा रहे हैं। जिसके कारण पर्यावरणीय बीमारियों का आना जाना लगा हुआ है।
साथ-ही-साथ घटती मधुमक्खियों की संख्या भी हमारे लिये चेतावनी है। इसके घटने का प्रमुख कारण संचार प्रौद्योगिकी की तरंगदैर्ध्य है। जिसके कारण अपने आवास को नहीं ढूँढ पाते हैं और इसका महत्व जैव विविधता में बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन्हीं के बारे में आइंस्टीन ने कहा था। धरती से मधुमक्खियों की समाप्ति का अर्थ है मानव प्रजाति का उन्मूलन।
प्राकृतिक आपदा का सीधा सम्बन्ध प्रकृति के छेड़छाड़ से जुड़ा है। अगर प्रकृति के साथ खिलवाड़ होता है तो प्रकृति का रौद्र रूप प्रकट होता है जो धरती पर एक तांडव सा दृश्य पैदा करता है। और तमाम जीव-जन्तु के लिये हानिकारक साबित होता है।
प्राकृतिक आपदा को हम लोग रोक नहीं सकते हैं, लेकिन पूर्वानुमान, प्रबंधन और उपचार कर सकते हैं जिससे मानव व पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सकता है। यह प्राकृतिक आपदा आपस में एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं, जैसे भूकम्प सुनामी लाता है (2004 हिंद महासागर, जिसके परिणामस्वरूप 14 देशों में लगभग 2.29 लाख लोगों की जानें गईं।) सूखा सीधा अकाल लाता है जो त्रिकाल में परिवर्तित हो सकता है (विक्रम सम्वत 1956), चक्रवाती तूफान (कैटरीना 2005) और यह कहीं निश्चित भू-भाग पर घटित नहीं होता है यह तो घटना इण्डोनेशिया के तट से प्रारम्भ होती है और तबाही भारत में मचाती है। इसी तरह से अनेक उदाहरण हैं जो कि मानव जाति के लिये ब्लैक होल साबित हुए हैं जैसे-
1. गुजरात का भूकम्प (2001) ने हमारे गणतंत्र दिवस की खुशियों को रोक दिया था, पूरा का पूरा कच्छ जिला ध्वस्त हो गया था।
2. सुनामी (2004) से लाखों लोगों की जाने गईं।
3. मुम्बई की बाढ़ (2005) ने पूरे आर्थिक राजधानी को झकझोर दिया था।
4. कोसी की बाढ़ (2008), जिसे बिहार का शोक कहा जाता है। कुशहा बाँध टूटने से सैकड़ों गाँव तबाह हो गए।
5. लेह में बादल फटना (2010), जिसके कारण सैकड़ों लोगों की जानें गईं।
तालिका 1 में वर्णित प्राकृतिक आपदाओं ने भयावह दृश्य पैदा किया जोकि कहीं-न-कहीं हमें झकझोर देता है। आखिर सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? और अब क्या कर सकते हैं? हाँ, पहले दो प्रश्नों का जवाब देना थोड़ा कठिन है लेकिन अब क्या करना चाहिए? जिसके चिंतन की आवश्यकता है जोकि बेहतर प्रबन्धन का विषय है।
अगर हम इन सबको गहरी नजर से देखें तो कहीं-न-कहीं मानव गतिविधियों ने अति कर दी जिसके परिणामस्वरूप तबाही का मंजर देखना पड़ रहा है और इसका एक ही विकल्प है सतत पोषणीय आपदा प्रबंधन जोकि इस प्रकार है:-
आपदा के पूर्वानुमान से लेकर, घटना के दौरान और घटना के उपरान्त किया गया प्रबंधन प्राकृतिक आपदा प्रबंधन कहलाता है।
आपदा के उपरान्त प्रबंधन को तीन प्रकार से संचालित किया जा सकता है।
1. मानव शक्ति : बचाव दल की टीम और स्थानीय लोगों के सामंजस्य से साथ ही जिला आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा उचित तालमेल बैठा कर उपचार किया जा सकता है।
2. उपकरण : आजकल सूचना प्रौद्योगिकी में थर्मल इंफ्रारेड कैमरे की सहायता से, ड्रोन से, हेलिकॉप्टर से, टेलीकम्यूनिकेशन और यातायात के तीव्र साधनों का उपयोग करके प्रबन्धन किया जा सकता है। (बायोराडार, सेटेलाइट, गूगल मैप)
3. परम्परागत ज्ञान से : प्राकृतिक आपदा का प्रबन्धन करने के लिये जरूरतमंदों को सामग्री उपलब्ध कराई जाए ताकि अपना बचाव खुद कर सके। जैसे ट्यूबों का बाढ़ के दौरान, भूकम्प आने के पूर्व जीव-जन्तु की हलचल।
इसमें प्रमुख रूप से प्राथमिक उपचार होता है जिसके लिये हमें एक फॉर्मूला उपयोग करना चाहिए
क. खतरे की जाँच करें।
1. आपको
2. अन्य को
3. पीड़ित को
ख. प्रतिक्रिया की जाँच करें।
1. क्या पीड़ित सचेत है?
2. क्या पीड़ित असचेत है?
ग. वायुमार्ग की जाँच करें।
1. क्या वायुमार्ग में कोई रुकावट तो नहीं है?
2. क्या वायुमार्ग खुला है?
घ. श्वांस की जाँच करें।
1. क्या छाती ऊपर-नीचे हो रही है?
2. क्या आप पीड़ित की श्वास को सुन रहे हैं?
ड़. संचरण की जाँच करें।
1. क्या आप नाड़ी देख सकते हैं?
2. क्या आपको जीवित होने का असर दिखाई देता है?
तालिका 1 : दुनिया की सबसे भयावह प्राकृतिक आपदाएँ | |||
घटना | वर्ष | देश | प्रभावित आबादी |
शाक्सी भूकम्प | 1556 | चीन | 8-30 लाख |
कलकत्ता तूफान | 1737 | भारत | 3 लाख |
ह्वांगहो की बाढ़ | 1887 | चीन | 9-20 लाख |
भारतीय तूफान | 1839 | भारत | 3 लाख |
चीन की बाढ़ | 1931 | चीन | 10-40 लाख |
स्रोत : Source : &https://en.wikipedia.org/wiki/List_of_natural_disasters_by_death_toll |
आपदा का प्रबंधन किसी एक कंट्रोलरूम से नहीं किया जा सकता है इसके लिये तो सबका साथ, सबका बचाव वाला व्यवहार और सहभागिता व सहयोग चाहिए जो केन्द्र से लेकर गाँव तक होना चाहिए। हमारे यहाँ आपदा प्रबन्धन गृह मंत्रालय, भारत सरकार देखता है जोकि इस तरह कार्यत है।
1. | राष्ट्रीय | नोडल मंत्रालय |
2. | राज्य | राहत और पुनर्वास प्रभाग |
3. | अपदा प्रबन्धन विभाग | |
4. | जिला | जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय |
5. | खण्ड | पंचायत समिति का कार्यालय |
6. | गाँव | ग्रामीण आपदा प्रबंधन समिति |
प्राकृतिक आपदा | गृह मंत्रालय |
सूखा | कृषि मंत्रालय |
हवाई दुर्घटना | नागरिक विमानन मंत्रालय |
रेल दुर्घटना | रेल मंत्रालय |
रासायनिक आपदाएँ | गृह मंत्रालय |
जैविक आपदा | गृह मंत्रालय |
नाभिकीय | गृह मंत्रालय |
महामारियाँ | स्वास्थ्य मंत्रालय आदि। |
उपसंहार
इसके सैकड़ों उदाहरण हैं कि प्राकृतिक आपदा के आने के पीछे प्राकृतिक आवास विखण्डन करना, एक कारण है जिससे जीव-जन्तु विलुप्त हो जाते हैं। हम सबको पता है इस पृथ्वी पर हर एक जीव की बड़ी कीमत है और उस कीमत की भरपाई हम किसी और जीव से नहीं कर सकते यह एक खाद्य श्रृंखला की तरह कार्य करती है जिसके टूटने पर सब कुछ अव्यवस्थित हो जाता है। हमें इस श्रृंखला को बचाए रखना है ताकि इसका अन्य जीव-जन्तु पर प्रभाव न पड़े और धीरे-धीरे आपदा में परिवर्तित न हो।
हम सबको विकास भी करना है लेकिन विकास सतत पोषणीय होना चाहिए न कि असतत पोषणीय, यह हमारे लिये कड़ी चुनौती है कि किस तरीके से विकास और पर्यावरण में तालमेल बैठाया जाए कि ताकि आपदा का सामना हमें ना करना पड़े और अगर पड़े तो किस तरीके से उसका प्राकृतिक उपचार किया जाए ताकि मानव पर कम-से-कम नकारात्मक असर पड़े। अब हमें मानवीय गतिविधि पर ब्रेक लगाना होगा ताकि प्रकृति, प्रकृति ही रहे न कि प्रकृति को अप्राकृतिक बना दिया जाए जिसके परिणाम चिटी से लेकर मनुष्य तक को भोगने पड़े क्योंकि प्राकृतिक संसाधन एक ईश्वरीय देन है जिसका रूप हमेशा से शाश्वत रहा है और यह रूप हमारे लिये अतुलनीय है जिसकी हमें आदर और सत्कार करते रहना चाहिए।
संदर्भ
1. http://worldanimalnews.com/forgotten&victims&natural&disasters&wildlif//
2. http://indianeXkpress.com/articl//india/india&news&india/asiatic&lionlioness&stranded&dead/3. http://www.jantajanardan.com/NewsDetails/25104/kedarnathdevastation&by&the&river&a&year&later.htm
4. http://en/wikipedia.org/wiki/National_Disaster_Management_Authority_(india)
5. http://rashtra&kinkar.blogspot.com/2015/04/blog&post_27.html
6. https://en.wikipedia.org/wiki/List_of_natural_disasters_by_death_toll
7. https://hindi.indiawaterportal.org/node/49623
लेखक परिचय
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग में सीनियर रिसर्च फेलो हैं। राजस्थान बाघ गलियारे में मानव-वन्य जीवन संघर्ष विषय पर शोध कर रहे हैं। सम्बन्धित विषयों पर नियमित लेखन। ईमेलः bhanwarsa28@gmail.com
/articles/parakartai-aura-insaana-kae-baica-sangharasa