प्रकाश की गति से फैलता अंधेरा


वैमनस्य ने भेस बदल लिया है। घृणा ने अपना वाहन बदला है। ये सब भी ‘स्मार्ट’ बनते जा रहे हैं। नई संचारक्रांति घृणा के तीर बड़ी तेजी से फेंकती है। प्रकाश की गति से अंधेरा फैलाते हैं हमारे नए स्मार्ट फोन।

आज हमारे समाज का संभ्रांत वर्ग आयात किए पेट्रोल से विदेशी गाड़ियों में घूमना ही विकास समझता है। विकास का एक और मानक है निर्यात। और भारत का सबसे बड़ा कृषि निर्यात अब मांस बन चुका है। पहले ये बासमती चावल हुआ करता था। अब ये निर्यात भैंस के मांस का होता है, जिसे अन्तरराष्ट्रीय बाजार में गोमांस की ही श्रेणी में रखा जाता है। हाल ही में व्यापार मंत्रालय ने इस पर आपत्ति उठाई थी कि चीन ने भारत से भैंस के मांस का निर्यात करने पर रोक लगा रखी है।

इतनी नई बात नहीं है ये। वैमनस्य ने आस्था और विश्वास का रूप न जाने कब से लिया है, बार-बार, समय-समय पर। इसका ठीक निदान न होने का परिणाम दंगा-फसाद भी हो जाता है। संचार क्रांति भी अफवाह फैलाने में बहुत काम आती है। स्मार्टफोन दंगे फैलाने वालों के लिये किसी भी असले से ज्यादा ताकत रखते हैं। साधारण, ठीक-ठाक लोगों को बरगला कर उन्हें एक क्रुद्ध भीड़ बना देना किसी भी तलवार या बम से ज्यादा ताकत रखता है। सीरिया में इस्लामी राज्य चलाने वाले इसी का सहारा लेते हैं और साधारण मुसलमानों को आत्मदाही सैनिक बना देते हैं। हिन्दूओं को भड़का कर भीड़ बनाने के लिये भी संचार के साधन बहुत काम आते हैं। किसी मोबाइल फोन का सन्देश उसे भेजने वाले से उसके सत्यापन के सवाल नहीं करता। मोबाइल फोन का कोई धर्म नहीं होता, उसके साॅफ्टवेयर में सुबुद्धि के लिये कोई ‘एप्लिकेशन’ नहींहोता।

डिजिटल वैमनस्य के इस माहौल में गाय का विशेष महत्व है। ये बहुत पुराना नहीं है और भारत में गाय की पुरानी पवित्रता से एकदम अलग है। ये महत्व राजनीतिक है और इसका जन्म अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हुआ था, 1857 के गदर के बाद। चाहे आप उसे गदर कहें या क्रांति, उसके कई कारण थे, जिनमें एक था एनफील्ड राइफल में इस्तेमाल होने वाले कारतूस। सैनिकों को शक था कि कारतूसों में इस्तेमाल होने वाली चिकनाई में गाय और सुअरों की चर्बी मिली हुई है। हिन्दू और मुसलमान सैनिकों ने साथ में बगावत की। जिन बहादुरशाह जफर को बागियों ने अपना राजा माना था उन्होंने गोहत्या पर पाबंदी जारी की।

इसके 20-30 साल के भीतर हालात इतने बदल गए कि 1880 के दशक में गोहत्या को लेकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे शुरू हो गए। छोटे-बड़े रूप में ये फसाद बंबई से लेकर रंगून तक फैल गए। तरह-तरह के इतिहासकारों ने इन दंगों को अपनी-अपनी तरह से समझा है। कुछ का कहना है गोरक्षिणी सभाओं के अभियानों में स्थानीय राजनीतिक समीकरण मिलते गए। कई तरह के लोगों की अंग्रेजी शासन से कई तरह की शिकायतें थीं। गोरक्षा एक चुंबक की तरह इन्हें जोड़ता गया और देखते-देखते उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम दंगों का रूप ले लिया।

देश-भर में यह भारी उथल-पुथल का समय था। जिस तरह कुछ हिन्दू संस्थाएं रेल गाड़ियों और संचार के डाक और तार जैसे नए साधनों का प्रयोग कर हिन्दू समाज को संगठित करने की कोशिश कर रही थीं ठीक वैसा ही कुछ मुसलमान समाज में भी हो रहा था। गंगा-जमुना के बीच के इलाके में इसके कम-से-कम दो रूप उभर कर आए। कुछ लोगों को परंपरा में ही आशा दिखी, और उन्होंने दारुल उलूम की स्थापना देवबंद कस्बे में सन 1866 में की। कुछ और थे जिन्हें तरक्की का रास्ता अंग्रेजी शिक्षा में दिखा, और उन्होंने अलीगढ़ में आधुनिक शिक्षा का काॅलेज बनाया, जिसे आज अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के नाम से जाना जाता है।

गाँधी विचार के इतिहासकार धर्मपाल ने उस समय हुए दंगों को थोड़ी अलग नजर से परखा। सन 2002 में उनकी आखिरी किताब छपी जिसके हिंदी अनुवाद का शीर्षक है ‘भारत में गोहत्या का अंग्रेजी मूल’। श्री धर्मपाल ने काफी सारी ऐतिहासिक सामग्री निकाली जिसकी ओर इसके पहले बहुत ध्यान नहीं गया था। इसमें उस समय के सरकारी कागजात तो हैं ही, अंग्रेज शासकों का पत्रा-व्यवहार भी है। इस किताब से पता चलता है कि कई प्रमुख मुसलमान व्यक्ति ही नहीं, पारसी और सिख लोग भी इस दौर की गोहत्या रोकने की मुहिम का हिस्सा थे।

श्री धर्मपाल का कहना है कि व्यापक तौर पर गोहत्या करना और गोमांस खाना उन मुसलमानों का काम नहीं था जो भारत में पश्चिम और मध्य एशिया से आए। वहाँ गाय की कुरबानी का सवाल ही नहीं उठता था। जहाँ इस्लाम का उदय हुआ और जहाँ से फैलता हुआ वह भारत की ओर आया वहाँ किसी तरह की संख्या में गाय-बैल थे ही नहीं। वहाँ के लोगों को बकरे और भेंड़ का मांस खाने की आदत थी, और ईद जैसे विशेष अवसरों पर ऊंटों की कुरबानी भी दी जाती थी।

यहाँ उस समय रहने वाले लोगों और बाहर से आए लोगों में स्वाभाविक होड़ थी। श्री धर्मपाल कहते हैं कि गोहत्या हारे लोगों का अपमान करने का एक तरीका था। लेकिन जल्दी ही कई मुसलमान शासकों ने भी गोहत्या पर पाबंदी लगानी शुरू कर दी। कई दूसरे इतिहासकारों ने भी इस पर ध्यान दिलाया है कि मुगल वंश के जनक बाबर ने गोहत्या पर रोक लगाई थी।

ऐसा भी कहा जाता है कि इब्राहिम लोधी को पानीपत के युद्ध में हराने के बाद बाबर का पहला निर्णय गोहत्या पर बंदी थी, क्योंकि वो भारत के लोगों का मन जीतना चाहते थे। इन बातों के प्रमाणों को लेकर कुछ इतिहासकारों में मतभेद भी हैं, लेकिन ये आम तौर पर माना जाता है कि कई मुस्लिम शासकों ने गोहत्या पर पाबंदी लगाई थी।

श्री धर्मपाल ने लिखा है कि सन 1200 से सन 1700 के बीच में गोहत्या पर जानकारी और शोध की कमी है।लेकिन उन्हें इसमें लेशमात्रा संशय नहीं है कि गोमांस का व्यापक इस्तेमाल अंग्रेज शासकों ने ही शुरू किया था। क्योंकि पश्चिम और मध्य एशिया से आए लोगों कि तुलना में इंग्लैंड से आए लोगों को गाय का मांस खाने की आदत थी। 1857 की बगावत के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी को हटा कर अंग्रेज सरकार ने भारत पर सीधा राज जमाया, तो उसका भारतीय सैनिकों पर भरोसा घट चुका था। उसने सेना में अंग्रेज सैनिकों की तादाद तेजी से बढ़ा कर दुगुनी कर दी। इनकी तैनाती उत्तर भारत में ज्यादा थी और इन सैनिकों को गोमांस खाने की आदत थी।

उनके लिये कई विशाल और व्यवस्थित कसाईखाने खुलने लगे जिनमें हर साल हजारों की संख्या में गाय-बैल काटे जाते थे। जब यह विषय हिन्दू-मुस्लिम दंगों का कारण बन चुका था तब 8 दिसम्बर 1893 को इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया ने भारत में अपने वायसराय लैंसडाउन को एक चिट्ठी लिखी। उसमें जो लिखा था उसका अनुवाद कुछ ऐसा हैः ‘हालांकि गोहत्या रोकने के लिये हो रहे आंदोलन की जिम्मेदारी मुसलमानों को दी जा रही है, लेकिन सच तो ये है कि इसका निशाना हम, यानी अंग्रेज सरकार हैं, जो अपनी सेना के लिये मुसलमानों की तुलना में कहीं ज्यादा गाय मारते हैं।’

ये घटनाएं एक ऐसे समाज में हो रही थीं जिसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैलों पर चलती थी। चाहे खेत जोतने के लिये हो या बैलगाड़ी से यातायात के लिये, चाहे तिलहन से तेल निकालना हो या चूना पीसना हो, गुड़ बनाना हो, हर काम में बैल लगते थे। बैलों का महत्व कई मायनों में गाय से ज्यादा था। ये बात मुसलमान शासकों को भी पता थी। बल्कि ऐसी गाय की नस्लें आज भी भारत में हैं जिन्हें तैयार करने का धन मुसलमान शासकों ने दिया था और जिन्हें तैयार करने में मुसलमान प्रशासकों की ही मुख्य भूमिका थी। हैदराबाद के निजाम की शान ‘देवणी’ नस्ल के बैल थे। इस नस्ल को तैयार करने वाले पशु चिकित्सक का नाम मुंशी अब्दुल रहमान बताया जाता है।

आज भी देवणी नस्ल के सुंदर गाय-बैल मराठवाड़ा के लातूर जिले में किसानों में बहुत प्रिय हैं। दक्षिण की ‘अमृत महल’ नाम की नस्ल के कायल लोगों में टीपू सुल्तान का नाम प्रमुख है। राजस्थान में राठी नस्ल की गाय मुख्यता मुसलमान परिवारों में ही रखी जाती थी, जहाँ उन्हें बाहर वालों की नजर तक से दूर रखा जाता था। आज से 200-300 साल पहले जब भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता था, तब उसकी समृद्धि बैलों के बल से ही थी, चाहे राजा हिन्दू हो या मुसलमान। और ये बात हिन्दू राजा भी जानते थे और मुसलमान भी। ऐसे समाज में जब बड़ी संख्या में गाय-बैल कटने लगे, तो केवल लोगों की धार्मिक भावनाएं ही आहत नहीं होती थीं। अकाल और अंग्रेजों के लगान से दबे लोगों के लिये गाय-बैल चले जाना दरिद्रता का रास्ता था, लुटने का रास्ता था।

लुटे हुए लोगों का हताश और फिर क्रोधित होना, एक-दूसरे से शत्रुता करना कोई अपवाद नहीं है। शायद ये कहना गलत नहीं होगा कि जो लोग गोहत्या को लेकर आज तक दंगे-फसाद कर रहे हैं उन्होंने अपनी परास्त मानसिकता और उससे निकलने वाला गुस्सा छोड़ा नहीं है। वैसे भी ‘गुस्सा’ अरबी भाषा का शब्द है और हमारे यहाँ फारसी के रास्ते आया है। इसके मूल अर्थ का अनुवाद है ‘दिल टूटना’, ‘अवसाद’ या ‘संताप’।

आज चाहे किसी भी दल की सरकार हो, उसे इस पर जोर देना जरूरी लगता है खेती में औद्योगिक यंत्र का इस्तेमाल कैसे बढ़े। खेती में बैलों और दूसरे पशुओं का उपयोग पिछड़ेपन की निशानी मान लिया गया है। हर राजनीतिक दल चीख-चीख कर जिस विकास का वादा कर रहा है उसकी खेती में न तो पशुओं की आवश्यकता है और न उन किसानों की ही जो आज भी पशुओं पर आधारित हैं।

हमारे आत्मविश्वास को फिर से पाने के तरीकों पर भी सवाल उठने चाहिए। आज हमारे समाज का संभ्रांत वर्ग आयात किए पेट्रोल से विदेशी गाड़ियों में घूमना ही विकास समझता है। विकास का एक और मानक है निर्यात। और भारत का सबसे बड़ा कृषि निर्यात अब मांस बन चुका है। पहले ये बासमती चावल हुआ करता था। अब ये निर्यात भैंस के मांस का होता है, जिसे अन्तरराष्ट्रीय बाजार में गोमांस की ही श्रेणी में रखा जाता है। हाल ही में व्यापार मंत्रालय ने इस पर आपत्ति उठाई थी कि चीन ने भारत से भैंस के मांस का निर्यात करने पर रोक लगा रखी है।

आज चाहे किसी भी दल की सरकार हो, उसे इस पर जोर देना जरूरी लगता है खेती में औद्योगिक यंत्र का इस्तेमाल कैसे बढ़े। खेती में बैलों और दूसरे पशुओं का उपयोग पिछड़ेपन की निशानी मान लिया गया है। हर राजनीतिक दल चीख-चीख कर जिस विकास का वादा कर रहा है उसकी खेती में न तो पशुओं की आवश्यकता है और न उन किसानों की ही जो आज भी पशुओं पर आधारित हैं।

आज से कई साल पहले विनोबा भावे ने कहा था कि उन्हें गाय के विरोध में भैंस नहीं, मनुष्य ही दिखता है। ‘यदि मनुष्य अपने भोग-विलास पर संयम नहीं रखेगा, भोगविलास में ही आनंद मानेगा, तो मानवता के विकास के स्थान पर मानव संख्या बढ़ती जाएगी। फिर वह हर प्राणी के साथ झगड़ा करेगा।’ उन्होंने ये तब ही कह दिया था कि अगर ट्रैक्टर ही चलाना है तो फिर बैलों को कटने से कोई बचा नहीं सकता।

गोहत्या पर राजनीतिक तिकड़म बहुत होती है, उसके पीछे जो कारण हैं उन पर बात जरा कम होती है। उन कारणों पर हर दल में एकदम सहमति है। विकास के लिये हर रोज और ज्यादा भोगविलास जरूरी है ये हर दल कहता है। हर दल के लिये आर्थिक विकास की वृद्धि दर से बड़ा कोई मंत्र नहीं है। हर कोई मतदाता को ज्यादा विकास, और ज्यादा भोगविलास के नारे से लुभाना चाहता है। कड़वे बयानों की राजनीति में कोई संयम की बात नहीं करता।

लालच की अगर कोई देवी होती तो वह सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती, तीनों पर आज भारी पड़ती। तृष्णा की इस देवी का अगर कोई विकास नाम का जीवनसाथी होता तो वो ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों पर भारी पड़ता। कई धार्मिक चैनलों से उसके भोगविलास के प्रवचन चैबीसों घंटे प्रसारित होते।

विशाल आश्रमों में तृष्णादेवी और विकासदेव की पूजा करने वाले धर्माचार्य नवधनाढ्य लोगों को ध्यान-समाधि में नए-से-नए भोगविलास को साधने की शिक्षा देते। बद्रीनाथ और केदारनाथ से भी ऊँचा विकासनाथ का एक भव्य मंदिर होता, फिर चाहे उस में दिव्यता दो कौड़ी की भी न हो।

ऐसे में गाय की दिव्यता का क्या होगा? वैसे ही पुराने संस्कृत साहित्य को जानने वाले बताते हैं कि उसमें पशुओं की ही नहीं, गाय की बलि का भी उल्लेख मिलता है। ब्राह्मणों और ऋषियों द्वारा गोमांस खाने की बात भी मिलती है। जो गुस्साए हुए लोग प्राचीन सभ्यता का खम ठोंकते हैं, उसे वापस लाने की कसम खाते हैं, वे इन उल्लेखों से बचते-फिरते हैं। या तो उन्हें नकारते हैं, या उन्हें अपने विरोधियों की गलतफहमी बता देते हैं। विनोबा ऐसी बातों से भी डर के भागने वाले नहीं थे।

गीता-प्रवचन में वे बता गए हैं कि बलि दिए हुए पशुओं का ही मांस खाना संयम का सूचक भी माना जा सकता है, ताकि हर कोई हर कहीं मांस न खाता रहे। लेकिन बाद में शायद यज्ञ में मांस खाना सामान्य-क्रम बन गया था। जो चाहता, यज्ञ करता और मांस खाता। तब भगवान बुद्ध ने कहा कि तुम्हें मांस खाना हो तो खाओ, परंतु भगवान का नाम लेकर मत खाओ। इन दोनों का हेतु एक ही था। हिंसा पर अंकुश रहे, गाड़ी किसी-न-किसी तरह संयम के मार्ग पर आये।

इतना ही नहीं, विनोबा इसके आगे गएः ‘संसार के इतिहास में अकेले भारतवर्ष में ही यह महान प्रयोग हुआ। करोड़ो लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया। आज हम मांस नहीं खाते, इसमें हमारा बड़प्पन नहीं है। पूर्वजों की पुण्याई से हम इसके आदी हो गए हैं। परंतु पहले के ऋषि मांस खाते थे, ऐसा यदि हम पढ़ें या सुनें, तो हमें आश्चर्य मालूम होता है। ”क्या बकते हो? ऋषि मांस खाते थे? कभी नहीं।“ परंतु मांसाशन करते हुए उन्होंने संयम कर के उसका त्याग किया, इसका श्रेय उन्हें ही है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम आज उनसे बड़े हो गए हैं। उनके अनुभव का लाभ हमें अनायास ही मिल गया है। हमें उनके इस अनुभव का विकास करना चाहिए। सत्य का क्षितिज विशाल करते जाना चाहिए।’

विनोबा के कथन से एक बात तो साफ हो जाती है। गोहत्या सामाजिक विषय है। कानून बनाने से और अफवाह फैला कर दंगा-फसाद करने से विषैली राजनीति को बल जरूर मिलेगा, लेकिन गाय-बैलों को बचाया कतई नहीं जा सकेगा। ये बात गाँधीजी ने आजादी के 20 दिन पहले भी कही थी। 25 जुलाई 1947 को वे दिल्ली में प्रार्थना के बाद बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि भारत में गोहत्या बंदी पर कोई कानून नहीं बनाया जा सकता है। वे गाय की सेवा करने के लिये प्रतिबद्ध थे और उन्होंने जोर देकर कहा कि हिन्दूओं के लिये गोहत्या प्रतिबंधित है। लेकिन उनका धर्म सारे-के-सारे भारतीय लोगों का धर्म कैसे हो सकता है? ये तो उनके साथ जबरदस्ती होगी जो हिन्दू नहीं हैं, जबकि हम बार-बार कहते आ रहे हैं कि धर्म के नाम पर किसी के साथ ऐसा नहीं किया जाएगा। हिन्दूओं का ये मानना सरासर गलत है कि अब भारत केवल हिन्दूओं का देश हो गया है।

चाहे अहिंसा और गोमांस-त्याग का मूल कितना भी अलग क्यों न रहा हो, आचरण में दोनों एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। गोरक्षा के नाम पर होने वाली हिंसा बरगलाई हुई भीड़ का वहशीपन हो सकता है। चुनावी राजनीति का पांसा भी। लेकिन ये कतई गोरक्षा का हिन्दू कर्म नहीं हो सकता। ये कहना गलत नहीं होगा कि वह गोहत्या जैसा ही जघन्य पाप है। या शायद उससे भी ज्यादा बड़ा पाप।

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