परियोजनाओं के समर्थन का ‘खेल’

विजय बहुगुणा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनते ही अपने एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है। उनके साथ उन लोगों की एक बड़ी जमात जुट गई है जो सत्ता के आसपास रहकर अपने हित साधने में लगी रहती है। विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला था तो उनके विरोधियों को शंका थी कि उन्हें प्रदेश का मुखिया बनाने में इन्हीं लोगों का हाथ है। विजय बहुगुणा ने जिस तत्परता से जलविद्युत परियोजनाओं की वकालत शुरू की है तथा उसके बिना विकास को बेमानी कहा है, उससे कई तरह की शंकाओं का पैदा होना लाजमी है। बांधों के पक्ष में प्रायोजित प्रदर्शन किए जाने लगे हैं। इस बात को समझा जाना चाहिए कि आखिर अचानक इन सब लोगों का जलविद्युत परियोजनाओं से मोह क्यों जाग गया।

आँख मूंदकर परियोजनाओं के समर्थन में उतर गए इन बुद्धिजीवियों को यह समझना होगा कि फलिंडा, देवसारी, सिंगोली-भटवाड़ी परियोजनाओं से प्रभावित दर्जनों गाँवों के लोग आज भी अपने गाँवों को बचाने के संघर्ष में लगे हुए हैं। जबकि यह परियोजनाएँ भी कोई बड़े बाँध नहीं हैं। लेकिन जिस तरह से ‘रन आफ द रिवर’ के नाम से इन गाँवों में स्थानीय शासनतंत्र के साथ मिलकर कंपनियाँ ग्रामिणों को धोखा दे रही हैं, उससे यह आक्रोश उपजा है।

उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं के सवाल पर चल रहा आंदोलन अब दो हिस्सों में बँट गया है। जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रहे लोग एक तरफ और जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थक दूसरी ओर। नए मुख्यमंत्री ने गंगा-भागीरथी में निर्माणाधीन, बंद पड़ी तीन परियोजनाओं पाला मनेरी, मनेरी भाली और भैंरोघाटी को खोलने का समर्थन क्या किया, कांग्रेस से रिश्ता बना कर अपना हित साधने की फिराक में लगी एक पूरी जमात ही इन परियोजनाओं के समर्थन में उतर आई है। देहरादून में बाकायदा तीन परियोजनाओं को खोलने के लिए धरना-प्रदर्शन भी हो चुका है। समर्थन की आहट पाते ही पहाड़ों के सारे ठेकेदार सक्रिय हो गए और हफ्ते भर के भीतर ही उत्तरकाशी, चमोली और रुद्रप्रयाग से बाँधों के समर्थन में जनता के प्रदर्शन की खबरें मिलने लगी। असल में इस मामले को हवा 17 अप्रैल को तब मिली, जब गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की बैठक में एक बार फिर इन बंद पड़ी परियोजनाओं के बारे में कोई फैसला नहीं हो पाया।

यह बात ठीक है कि सिर्फ आस्था के नाम पर ऊर्जा की जरूरतों और बिजली उत्पादन को रोकना सही नहीं है, लेकिन रातोंरात बाँधों के समर्थन में उतर आए इन बुद्धिजीवियों या कवियों को क्या कहा जाए जो न सिर्फ कुछ साल पहले तक अपनी कलम से बाँधों के खिलाफ आग उगल रहे थे, बल्कि बाँधों के खिलाफ उपजे हर आंदोलन में बराबर के भागीदार थे। बाँधों की पैरोकारी कर रहे इन ज्ञानियों ने चारधाम यात्रा को रोकने तक का ऐलान कर दिया है। इस अभियान ने बिजली व्यवसाय से करोड़ों कमा रही ऊर्जा कंपनियों के कर्ताधर्ताओं को भी सक्रिय कर दिया है। समाचार पत्रों का व्यवसायी मस्तिष्क भी अचानक बाँधों के पक्ष में ही हो चला है। राज्य और केन्द्र सरकारें चुपचाप बाँधों के समर्थन में और विरोध में उतर रहे समाजसेवियों की लड़ाई के मजे ले रही है।

एक ओर गंगा में बन रहे बाँधों का विरोध अनशन, धरने और प्रदर्शनों के साथ ही न्यायालय में भी मामले चल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ अन्य समाजसेवी खुलकर प्रस्तावित बाँधों के समर्थन में आ गए हैं। रूलेक संस्था और एक अन्य संगठन जनमंच बांधों के समर्थन में खुल कर उतरे हैं। ‘जनमंच’ ने मुख्यमंत्री से मिलकर बांधों के समर्थन का ऐलान कर बाँधों की मुखालफत करने वाले संतों को उत्तराखंड में प्रवेश न करने देने का ऐलान कर दिया है। जनमंच ने तो बाकायदा सुरेश भाई, विमल भाई और डॉ. रवि चोपड़ा जैसे पर्यावरणकर्मियों पर विदेशी पैसे से बांध विरोधी आंदोलन चलाने का आरोप तक लगा दिया है। उसका कहना है कि इसकी जानकारी खुफिया एजेंसियों को भी है।

गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की 17 अप्रैल की बैठक में बंद पड़ी परियोजनाओं को खोलने के संबंध में फैसला न हो पाने की आलोचना करते हुए बाँधों के समर्थक कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री साधु संतों के दवाब में कोई निर्णय नहीं ले पाए। रुलेक और जनमंच 2008 में केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय के आदेश पर एनटीपीसी द्वारा गठित एक कथित विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों का हवाला दे रहे हैं। भारत सरकार के तत्कालीन ऊर्जा सचिव अब्राहम के नेतृत्व में गठित इस समिति में केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण, केन्द्रीय जल प्राधिकरण, केन्द्र जल एवं ऊर्जा शोध केन्द्र, राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संसाधन, अंतरराष्ट्रीय सिंचाई एवं निकासी प्राधिकरण, सिंचाई विभाग उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड के अधिकारी शामिल थे। इनके अलावा समिति में राजेन्द्र सिंह, प्रो. जीडी अग्रवाल व डा. रवि चोपड़ा को भी शामिल किया गया।

भागीरथी में आवश्यक, स्थाई व नैसर्गिक जलप्रवाह एवं अन्य तकनीकी मुद्दों की पड़ताल करने के लिए गठित इस समिति ने सुझाव दिए कि यदि केन्द्र सरकार लोहारी नागपाला योजना को पुनः आरम्भ करती है तो वे लोहारी नागपाला बाँध में मछलियों के स्थान परिवर्तन को सुसाध्य बनाने हेतु समुचित कदम उठाएँगे। पाला मनेरी और भैरोंघाटी योजना के अधिकारी मत्स्यपालन हेतु उचित स्थान विशेषज्ञों से चिन्हित करवा कर उन गतिविधियों को आरम्भ करेंगे। लोहारीनाग पाला योजना अधिकारी ऐसे स्थानों पर घाटों का निर्माण करवाएगी, जहाँ सड़क नदी के फिराव और बिजली घर के पास होगी, ताकि स्नान की उचित व्यवस्था हो सके। यहाँ उचित तकनीकों द्वारा लघु बाँध बनाए जाएँगे, जहाँ गले तक गहरा पानी घाटों के सामने रोकने का प्रावधान होगा।

पहाड़, पर्यावरण तथा लोगों के लिए खतरा साबित होते बांधपहाड़, पर्यावरण तथा लोगों के लिए खतरा साबित होते बांधनालोना, पाला बांध के प्रवाह की ओर (लोडगाड संगम के समीप) घाट बनेंगे। इनके अलावा यदि आवश्यक हुआ तो जिला प्रशासन द्वारा कहे जाने पर योजना अधिकारी उनका भी निर्माण करेंगे। घाटों का रखरखाव राज्य सरकार द्वारा योजना अधिकारियों से प्राप्त धनराशि से होगा। योजना अधिकारी परियोजना क्षेत्र में श्मशान घाटों का भी निर्माण करके जिला अधिकारियों को हस्तांतरित कर देगी। नदी को प्रदूषण एवं गंदगी से बचाने के लिए उत्तराखंड सरकार किसी भी नई रिहायशी योजना को नदियों के साथ वाली सड़कों के आसपास मंजूरी नहीं देगी, जिसकी नालियाँ सीधी भागीरथी नदी में गिरती हों। भैरों घाटी, लोहारीनाग पाला और पाला मनेरी योजना अधिकारी एक-एक धर्मशाला गंगोत्री राज्य मार्ग पर बनवाएँगे और उत्तराखंड शासन को रखरखाव व चलाने हेतु दे देंगे। तीनों परियोजनाओं के अधिकारी प्रदेश में आ रहे तीर्थ यात्रियों के लिये अपने क्षेत्र में राज मार्ग पर नियमित दूरियों पर शौचालय, पीने के पानी आदि की सुविधाएँ उपलब्ध करवाएँगे। भागीरथी नदी में प्रदूषण कम करने के लिए सीवर प्रशोधन संयंत्र बनाया जाएगा।

सरकारी अधिकारियों की भरमार वाली इस विशेषज्ञ समिति के इन सुझावों को पढ़ने पर साफ हो जाता है कि परियोजनाओं के केन्द्र में आम आदमी कहीं नहीं है। यह भी कि किस तरह से परियोजना के अधिकारी और विशेषज्ञ भी जनता को पटाकर योजना बना लेना चाहते हैं। वहीं बाँधों के समर्थन में उतरे अवधेश कौशल के तर्क तो और भी बचकाने हैं। उनका कहना है कि गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए सरकार को चाहिए कि वह गोमुख से लेकर हरिद्वार तक विद्युत शवदाह गृहों का निर्माण करे। इससें गंगा की धारा प्रदूषण मुक्त अविरल बहेगी और शवदाह की लकड़ी भी बचेगी। पर्यावरण सुरक्षित रहेगा और गाँव के लोगों को अपने जीवनयापन और खाना बनाने के लिए लकड़ी भी मिलेगी।

आँख मूंदकर परियोजनाओं के समर्थन में उतर गए इन बुद्धिजीवियों को यह समझना होगा कि फलिंडा, देवसारी, सिंगोली-भटवाड़ी परियोजनाओं से प्रभावित दर्जनों गाँवों के लोग आज भी अपने गाँवों को बचाने के संघर्ष में लगे हुए हैं। जबकि यह परियोजनाएँ भी कोई बड़े बाँध नहीं हैं। लेकिन जिस तरह से ‘रन आफ द रिवर’ के नाम से इन गाँवों में स्थानीय शासनतंत्र के साथ मिलकर कंपनियाँ ग्रामिणों को धोखा दे रही हैं, उससे यह आक्रोश उपजा है। बाँधों के समर्थन में सुगबुगाहट शुरू होते ही ठेकेदारों ने इशारा मिलने पर कंपनियों के वाहनों में ग्रामीणों को भरकर समर्थन का ड्रामा शुरू करा दिया। यह संदेह उठना स्वाभाविक है कि इन कथित बुद्धिजीवियों की यह चिंता कहीं किसी आयोग, परिषद या संस्थान में पाँच साल का जुगाड़ बनाने के लिए तो नहीं है।

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