आज समाज जिस विकास के पीछे भाग रही है वह बस एक दिखावा मात्र है। उससे कितने नुकसान होने की आशंका उसका कोई अंदाजा नहीं है। जिस पदार्थ या भौतिक अवस्था में कोई विकास है ही नहीं, उस पर टिके परिवर्तन को विकास कहना सबसे बड़ा भ्रम है। पदार्थ या भौतिक वस्तुओं के एक रूप को नष्ट करके दूसरे में परिवर्तित करने पर ही आज का समस्त विकास टिका है। इसी विकास के भ्रम के बारे में व्याख्या करते पवन कुमार गुप्त।
आज के युग में हर प्रकार के नेतृत्व को विकास और उससे जुड़ी तमाम मान्यताओं के खोखलेपन और विसंगतियों को उजागर करना चाहिए। भ्रम टूटता है तो कष्ट होता ही है, इसलिए कितना ही बुरा क्यों न लगे, लोगों को शिक्षित करने की जरूरत है, स्कूल में बैठा कर नहीं, उनके अंदर के विवेक को जगा कर। एक चीज को खत्म करके दूसरी वस्तु बनाने को विकास कहना भ्रम फैलाता है। हमें समझना होगा कि अगर शहरों की चकाचौंध बढ़ती है तो अन्य स्थानों की दुर्गति अनिवार्य है। परिवर्तन विकास नहीं होता।
डॉक्टर सुशीला नैयर ने महात्मा गांधी से चालीस के दशक में एक बार पूछा था कि बापू, आपने ऐसा क्या किया कि भारत के गिरे-पड़े, दीन-हीन, लाचार लोगों में शक्ति आ गई, वे उठ खड़े हुए? गांधीजी का उत्तर था कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, पर हां, जो बात भारत के जनसाधारण के मन में थी, उसे व्यक्त जरूर किया। गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में और अन्य जगह भी कई बार तीन बातों पर जोर दिया है- जनसामान्य का दुख, ऐसे दर्द और कुंठाएं जो वे व्यक्त नहीं कर पाते उन्हें व्यक्त करना, उनमें सही विचार पैदा करना और इनको हिम्मत से कह पाना, भले ही वह सच कड़वा क्यों न हो। ये तीन बातें वे पत्रकारिता के लिए ही नहीं, राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करने वालों और धार्मिक लोगों के लिए भी जरूरी मानते थे। सच्चाई और साहस को गांधीजी ने हमेशा ऊंचा स्थान दिया है।
अभी हाल में एक पुरानी किताब हाथ लगी। कृष्ण सिंह चावड़ा की लिखी किताब है। नाम है ‘अंधेरी रात के तारे’। शायद चावड़ा जी ने यही एक किताब लिखी। वे घुमक्कड़ आदमी थे। गजब की पैनी दृष्टि रखते थे। इस किताब का इतिहास रोचक है। दरअसल, ये उमाशंकर जोशी के मित्र थे। जोशी जी उन दिनों अहमदाबाद से एक पत्रिका ‘संस्कृति’ नाम से निकालते थे। शाम के वक्त कुछ मित्रगण ‘संस्कृति’ के दफ्तर में बैठ कर गप-शप करते और वहीं चावड़ा जी अपने अत्यंत रोचक संस्मरण सुनाते रहते। जोशी जी ने एक दिन प्रस्ताव रखा कि क्यों न इन संस्मरणों को लिपिबद्ध करके पत्रिका में छापा जाए। कुछ टालमटोल के बाद प्रस्ताव मान लिया गया। यह पुस्तक उन संस्मरणों का संकलन है। पढ़ने लायक पुस्तक है। ऐसी किताबें कम ही देखने को मिलती हैं। संस्मरणों की विविधता, सहजता, सच्चाई और चावड़ा जी की पैनी दृष्टि और भारत के बारे में उनकी समझ की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता। उम्मीद करता हूं कि किसी प्रकाशक की नजर इस किताब पर पड़ेगी और यह दोबारा छपेगी। किताब में गांधीजी के भी कई प्रसंग हैं। एक प्रसंग गांधीजी द्वारा इंदौर में बुलाए गए साहित्य सम्मेलन का भी है, जिसमें उन्होंने भारतीय साहित्यकारों को काफी खरी-खोटी सुनाई थी। साहित्यकार सहम-से गए थे। पर चावड़ा जी की पुस्तक से पता चलता है कि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने साहस करके गांधीजी के सामने साहित्यकारों की तरफ से दो टूक बात रखी। हालांकि उनकी बात में एक प्रकार से गांधीजी के वक्तव्य का विरोध था, पर गांधीजी ने उनकी सच्चाई और हिम्मत की सराहना की।
पिछले वर्ष हुए जन आंदोलन ने जनसामान्य के दर्द और कुंठा को मुखरित किया, नहीं तो जितना बड़ा जन-समर्थन मिला वह असंभव था। पर इस पीड़ा और कुंठा के दो पक्ष हैं। एक पक्ष तो वर्तमान व्यवस्था और शासन प्रणाली, जो हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली है, से जुड़ा है। दूसरे पक्ष का ताल्लुक जनसामान्य में बड़े पैमाने पर फैली उन मान्यताओं से है जिन्हें आधुनिक शब्दावली में ‘विकास’ कहते हैं। इस दूसरे पक्ष पर कोई भी असरदार टिप्पणी नहीं होती। लगता है आंदोलन के शीर्ष पर बैठे लोग भी इन मान्यताओं पर चोट करने से बचते हैं। शायद उन्हें लगता हो कि अगर ‘विकास’ पर चोट करेंगे तो आंदोलन से जुड़ा जनसामान्य उनसे दूर हो जाएगा। यहीं इन लोगों को महात्मा गांधी को समझने और उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत है। देश में जो आंदोलन पिछले सालों में हुए हैं उनके नेतृत्व में निष्ठा और ईमानदारी दिखती है, नहीं तो जनसाधारण उनसे जुड़ता नहीं। व्यवस्था से टक्कर लेने में साहस चाहिए, पर उससे कहीं बड़ी हिम्मत अपने ही लोगों के भ्रमों और गलत मान्यताओं को तोड़ने के लिए चाहिए।
बहुत-से लोग यह तो मानते हैं कि महात्मा गांधी की अंग्रेजों से कोई दुश्मनी नहीं थी, उनके स्वतंत्रता के मायने अलग थे, जो अंग्रेजों को यहां से भगाने तक सीमित नहीं थे। गांधीजी इस पर भी राजी थे कि अंग्रेज चाहें तो यहां रहें, पर अपना रवैया बदल कर। लेकिन स्वतंत्रता से उनका क्या अर्थ था, इस पर अधिक चर्चा नहीं होती। महात्मा गांधी देश के सामान्यजन में ईश्वर के प्रति पहले से विद्यमान आस्था को जगा कर उसे साहसी और स्वतंत्र बनाने के लिए प्रयासरत थे। सही मायने में स्वतंत्रता का अर्थ समझने और समझाने की कोशिश कर रहे थे। उनके लिए वांछित स्वतंत्रता से उनकी सभी बातें जुड़ जाती हैं- अपनी वासनाओं को नियंत्रण में रखने से लेकर सादगी और सौंदर्य भरा जीवन जीने और अपने आसपास से अपनी जरूरतें पूरी करने तक। आधुनिक सभ्यता की उनकी आलोचना स्वतंत्रता के उनके इसी आशय से जुड़ती है।
आधुनिकता का भ्रम दिखावे में है- चाहे वह भौतिक वस्तुओं के जरिए हो या शब्दों के जरिए, चाहे राजनीतिक दृष्टि से सही लगने वाले विचारों या अवधारणाओं का हो, सभी की ताकत (या चकाचौंध) दिखावे में है, बाहरी आवरण में है। विकास की अवधारणा बहुत नई है। इसी प्रकार समाज को पहले विभिन्न प्रकार से तोड़ना, द्वेष फैलाना, आक्रोश पैदा करना और फिर उन टूटे हुए समूहों के बीच समानता लाने के लिए नए-नए विचार लाना, जो दिखने में अति लुभावने लगते हैं, पर उनकी आत्मा या तो खोखली है या अनेक विसंगतियों से भरपूर- यह भी बहुत पुराना नहीं है। महात्मा गांधी किसी भी प्रकार के बाहरी आवरण, चकाचौंध और दिखावे में नहीं फंसते। वे हर चीज की तह में जाकर उसकी आत्मा को देखने का प्रयास करते हैं, क्योंकि जो जैसा दिखता है, जरूरी नहीं कि वैसा ही हो। दिखना और लगना दोनों ‘होने’ से भिन्न हो सकता है, बल्कि अक्सर होता भी है। अच्छा दिखने और अच्छा लगने वाला भोजन, स्वास्थ की दृष्टि से भी अच्छा हो, जरूरी नहीं।
आधुनिक सभ्यता बहिर्मुखी है। इसमें सही करने के लिए भी बाहरी सत्ता से गुहार लगाने की प्रथा बन गई है और गलत को सही करने के लिए भी। अपने अंदर झांकने, अपनी मान्यताओं को जांचने की जरूरत ही जैसे नहीं रह गई है। इस प्रकार की मनोदशा सामाजिक कमजोरी का परिणाम है। महात्मा गांधी इसलिए समाज को सशक्त करने के प्रयास में दिखते हैं। सच्चाई और शक्ति में एक संबंध है और इस संबंध को समझते हुए गांधीजी समाज को शिक्षित करने का प्रयास कर रहे थे। इस प्रयास में अगर कठोर और कड़वी बात भी कहनी पड़े तो वह श्रेयस्कर होती है। आज के युग में हर प्रकार के नेतृत्व को विकास और उससे जुड़ी तमाम मान्यताओं के खोखलेपन और विसंगतियों को उजागर करना चाहिए। भ्रम टूटता है तो कष्ट होता ही है, इसलिए कितना ही बुरा क्यों न लगे, लोगों को शिक्षित करने की जरूरत है, स्कूल में बैठा कर नहीं, उनके अंदर के विवेक को जगा कर। यह लोक शिक्षण है। जिस पदार्थ या भौतिक अवस्था (पठार, खनिज, पहाड़, मिट्टी आदि) में कोई विकास है ही नहीं, उस पर टिके परिवर्तन को विकास कहना सबसे बड़ा भ्रम है। पदार्थ या भौतिक वस्तुओं के एक रूप को नष्ट करके दूसरे में परिवर्तित करने पर ही आज का समस्त विकास टिका है। एक चीज को खत्म करके दूसरी वस्तु बनाने को विकास कहना भ्रम फैलाता है। हमें समझना होगा कि अगर शहरों की चकाचौंध बढ़ती है तो अन्य स्थानों की दुर्गति अनिवार्य है। परिवर्तन विकास नहीं होता।
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