व्यवस्था के भीतर रहते हुए उसे बदलने के लिए इन कर्मवीरों को ऊर्जा मिलती है जुनून, लक्ष्य और दृढ़ता से। मिलिए इन 35 खामोश क्रांतिकारियों से ...
विशाल सरकारी तंत्र का एक पुर्जा होकर रह जाना बहुत आसान है। 4,500 से ज्यादा आइएएस अधिकारियों या 2,50,000 से ज्यादा निर्वाचित स्थानीय स्वशासन अधिकारियों में से किसी से भी पूछिए, लीक से हट कर, योजनाओं का कारगर बनाने की कोशिश करने या अभिनव योजनाएं शुरू करने के लिए विचारों और कर्म के एक मिश्रण की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर एक अजेय शक्ति को अड़ियल और गहरे धंसे हितों से टकराव में लाकर खड़ा कर देता है। अकेले आंकड़े ही हैरान कर देने वाले हैं। केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित 100 से ज्यादा योजनाएं हैं, जो 6,40,000 गांवों केलिए हैं। इनमें 40,100 करोड़ रु. की विशालकाय महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) से लेकर अब तक 28 योजनाओं को लागू कर चुके महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा तरुण उम्र की लड़कियों के सशक्तीकरण के लिए हाल ही में शुरू की गई 1,000 करोड़ रु. की राजीव गांधी योजना है।
दसवीं योजना के दस्तावेज में कानपुर के तत्कालीन मंडल आयुक्त ने ऐसी 167 योजनाओं की पहचान की थी, जो ब्लॉक सत्र पर चल रही हैं। उन्होंने महसूस किया कि प्रखंड विकास अधिकारी के लिए इतनी सारी योजनाओं के उचित क्रियान्वयन पर प्रभावी नजर रख पाना असंभव है। दस्तावेज में यह भी कहा गया है कि योजनाओं की संख्या कम करके 20 से 40 के बीच कर दी जाए, जिसमें किसी भी मंत्रालय को केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित तीन या चार से ज्यादा योजनाएं चलाने की अनुमति न दी जाए और किसी भी योजना के लिए आवंटन 100 करोड़ रु. वार्षिक से कम न हो। उसके बाद से केंद्र सरकार ने और योजनाएं शुरू कर दी हैं और ज्यादा अधिनियम पेश किए हैं। उदाहरण के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को देखिए, जिसके तहत प्रत्येक बच्चे को स्कूल ले जाने के लिए सरकार को 2,40,000 करोड़ रु. खर्च करने हैं या प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को देखिए, जिसमें सरकार को इस वर्ष अक्तूबर से गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले एक करोड़ पचास लाख परिवारों को 3 रु. की दर से सब्सिडी देकर अनाज देना है, जिस पर साल भर में अनुमानतः 80,000 करोड़ रु की अतिरिक्त लागत आएगी।
उन मसलों में से किसी पर सटीक आंकड़े पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, जो तुरंत कार्रवाई की मांग करते हैं। यहां तक कि विद्वान भी इस बात पर बाल की खाल निकालते रहते हैं कि गरीबी होती क्या है-10 रु. रोजाना या 20 रु. रोजाना। योजना आयोग आंकड़ा जारी करता है, जिस पर भोजन के अधिकार के कार्यकर्ता असहमत हैं। स्कूल से बाहर रह गए बच्चों की संख्या के बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़े पर शिक्षाविद् तर्क करते हैं। अक़सर इस बात को लेकर भ्रम रहता है कि यह जिम्मेदारी किसकी है। उदाहरण के लिए, शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है, जबकि स्वास्थ्य राज्य सूची में है, स्थानीय समस्याएं एकरूप समाधानों के वश की नहीं होती हैं। सबसे बड़कर, निहित स्वार्थ आर्थिक संपन्नता के समतुल्य सामाजिक विकास की राह में विशाल बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। ये निहित स्वार्थ कई बार राजनीतिक होते हैं, और बाकी बार नौकरशाही के होते हैं। सरकार सभी को समाहित करने वाले विकास की बात करती है और इसके लिए भारी-भरकम संसाधन भी लगाती है- इस वर्ष के केंद्रीय बजट में गरीबी से लड़ने के लिए 1,35,000 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है- लेकिन कभी-कभी ये बातें या तो कोरा चुनावी नारा होती हैं या अकर्मण्य अफसरों के लिए पैसा कमाने का अगाध खजाना बनती हैं। यहां तक कि मनमोहन सिंह की बनाई सर्वश्रेष्ठ योजनाएं भी अटकती-छटपटाती रहती हैं। मनरेगा को देखिए, जैसा कि नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय के फेलो वी. कृष्ण अनंत इंगित करते हैं, इसमें मांगे जाने पर रोजगार उपलब्ध न करा सकने पर अधिकारियों को, यहां तक कि जिलाधीश को भी दंडित करने का प्रावधान है। लेकिन किसी अधिकारी को दंडित किए जाने का एक भी उदाहरण उन्हें नहीं पता है। इसी प्रकार, सूचना के अधिकार का अधिनियम बनने के बाद से सुप्रीम कोर्ट स्वयं अपने समक्ष एक वादी की हैसियत में है, जिसने स्वयं को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रहने की छूट मांगी हुई है। यही हालत नौकरशाही की है। अनंत कहते हैं, “जो राजनीतिक वर्ग 2005 में सूचना का अधिकार लाया था, वह अब इस विचार को इसके निष्कर्ष तक पहुंचाने के प्रति उत्सुक नहीं है और नौकरशाही और न्यायपालिका के दबाव के आगे झुकने के लक्षण दिखा रहा है।”
हर समाधान के लिए एक समस्या है। लेखक गुरचरण दास बताते हैं, “भारत में समस्या वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की नहीं है, समस्या कामकाज करने की है। हम सभी को पता है कि समस्याएं क्या हैं। लेकिन समाधान किसी के पास नजर नहीं आता है। प्रश्न यह नहीं है कि क्या करना है, बल्कि यह है कि कैसे करना है।”
आगामी कुछ पृष्ठों में पाठक इसी ‘कैसे’ का उत्तर पाएंगे। कैसे एक पुलिस अधिकारी एन. दिलीप कुमार ने व्यापक भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए स्टिंग ऑपरेशनों का इस्तेमाल किया। कैसे एक रोशनी देवी ने परंपराओं से बंधे हरियाणा के एक गांव का मुकाबला करने की हिम्मत हासिल की, अपने पद का अपमान करने के लिए एक व्यक्ति को जेल भिजवा दिया और शराबखोरी पर काबू पाने के लिए शराब की तीन दुकानें बंद करवा दीं। कैसे एक आइएएस अधिकारी की पत्नी परवीन अमानुल्लाह सूचना के अधिकार की कार्यकर्ता बन गई, उसने सूचना के अधिकार की 600 से ज्यादा याचिकाएं दायर कर दीं, जिसने कभी-कभी अपने पति को भी असुविधाजनक स्थिति में डाल दिया। और कैसे एक आइएएस अधिकारी अनिल स्वरूप ने बीमा कंपनियों, राज्य सरकारों, निजी अस्पतालों और केंद्र सरकार को जोड़कर 30 रु. में एक स्मार्ट कार्ड तैयार किया, जो असंगठित क्षेत्र के लोगों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करेगा।
अक़सर जीवन की गुणवत्ता सुधारने या बेमानी खर्च को रोकने के लिए सिर्फ छोटा-सा रद्दोबदल करना पड़ता है। रिग्निज सैंफेल को देखिए, इस आइएएस अधिकारी ने उत्तरप्रदेश के ग्रामीणों के साथ मिलकर पिरामिड के आकार का एक हैंडपंप डिजाइन किया, जो बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भी पीने का सुरक्षित पानी उपलब्ध कराएगा।
ये स्त्रियां या पुरुष कोई सुपर हीरों नहीं हैं, न ही ये हवा में उड़ने वाले योद्धा हैं। ये व्यवस्था के भीतर के ही लोग हैं, जिन्होंने सुनिश्चित किया कि व्यवस्था काम करे। आइएएस अधिकारियों, सरपंचों, कार्यकर्ताओं चंद नेताओं वाले कुल 35 कर्मवीरों के इस मिले-जुले समूह ने दिखाया है कि सर्वश्रेष्ठ तरीके अक़सर लीक से हट कर होते हैं। इन नायकों ने इस बात का इंतजार नहीं किया कि सभी को समाहित करने वाला प्रशासन इन्हें समाहित करेगा। वे खुद निकल पड़े और उन्होने उस हर मौके का इस्तेमाल किया, जिससे यह दिखाया जा सके कि वे आम आदमी हैं, लेकिन कुछ हट के। जैसे पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद का 17 साल का बाबर अली, जिसका छोटा-सा घर दोपहर का स्कूल बन जाता है या 42 वर्षीय डॉ. प्रभु दास जो केरल के पलक्कड जिले के आदिवासीबहुल अगाली ब्लॉक में 1995 में एक मेडिकल अफसर की हैसियत से आए थे, जब वहां सिर्फ दो बिस्तरों वाला एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था और अब वे वहां 54 बिस्तरों वाले अस्पताल के अधीक्षक हैं, जहां रोजाना 280 मरीजों को देखा जाता है।
भले ही सामाजिक क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी में सरकार नई अवधारणाओं के साथ प्रयोग करे, भले ही कामकाज निगरानी और आकलन व्यवस्था जैसी नई प्रणालियों के साथ प्रयोग किए जाएं, जिनमें प्रत्येक विभाग को एक रिजल्ट फ्रेमवर्क दस्तावेज तैयार करना होता है, प्रशासन चलाने के लिए जुनूनी सिरफिरों की ही जरूरत होती है, रोबोटों की नहीं। कल्याणकारी राज्य सिमटता जा रहा है, लेकिन एक नई व्यवस्था भी आकार ले रही है, जिसमें झरीना विट्टल के नेतृत्वकारी गुणों की जरूरत होगी। मॉकिन्से की यह भागीदार मानती हैं कि कल का नेता इसी व्यवस्था का होगा, लेकिन वह इसे चुनौती देने में समर्थ होगा और इसके लिए जरूरत होगी महत्वाकांक्षा और उद्येश्यपरकता की; स्पष्ट प्राथमिकताओं और निश्चित ध्येय के साथ लक्ष्य की; उस स्पष्टता की, जो सभी पहलुओं को समझने में सक्षम हो; तत्परता की जिसके साथ जुड़ी होती है बातें कम और काम ज्यादा करने की मानसिकता और दृढ़ता की, योजना पर डटे रहने की।
लेकिन जैसा कि अनंत कहते हैं, गरीबी को प्रश्रय देनेवाले ठेकेदार-नेता-अपराधी सांठगांठ में खराब सड़कें और टूटे-फूटे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अच्छी से अच्छी योजनाओं के बाद भी बरकरार रह सकते हैं। ऐसे में पैदल सैनिकों और कर्मवीरों को खोजना सरल है। इस लड़ाई से जो नदारद हैं वे नेता हैं।
विशाल सरकारी तंत्र का एक पुर्जा होकर रह जाना बहुत आसान है। 4,500 से ज्यादा आइएएस अधिकारियों या 2,50,000 से ज्यादा निर्वाचित स्थानीय स्वशासन अधिकारियों में से किसी से भी पूछिए, लीक से हट कर, योजनाओं का कारगर बनाने की कोशिश करने या अभिनव योजनाएं शुरू करने के लिए विचारों और कर्म के एक मिश्रण की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर एक अजेय शक्ति को अड़ियल और गहरे धंसे हितों से टकराव में लाकर खड़ा कर देता है। अकेले आंकड़े ही हैरान कर देने वाले हैं। केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित 100 से ज्यादा योजनाएं हैं, जो 6,40,000 गांवों केलिए हैं। इनमें 40,100 करोड़ रु. की विशालकाय महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) से लेकर अब तक 28 योजनाओं को लागू कर चुके महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा तरुण उम्र की लड़कियों के सशक्तीकरण के लिए हाल ही में शुरू की गई 1,000 करोड़ रु. की राजीव गांधी योजना है।
दसवीं योजना के दस्तावेज में कानपुर के तत्कालीन मंडल आयुक्त ने ऐसी 167 योजनाओं की पहचान की थी, जो ब्लॉक सत्र पर चल रही हैं। उन्होंने महसूस किया कि प्रखंड विकास अधिकारी के लिए इतनी सारी योजनाओं के उचित क्रियान्वयन पर प्रभावी नजर रख पाना असंभव है। दस्तावेज में यह भी कहा गया है कि योजनाओं की संख्या कम करके 20 से 40 के बीच कर दी जाए, जिसमें किसी भी मंत्रालय को केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित तीन या चार से ज्यादा योजनाएं चलाने की अनुमति न दी जाए और किसी भी योजना के लिए आवंटन 100 करोड़ रु. वार्षिक से कम न हो। उसके बाद से केंद्र सरकार ने और योजनाएं शुरू कर दी हैं और ज्यादा अधिनियम पेश किए हैं। उदाहरण के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को देखिए, जिसके तहत प्रत्येक बच्चे को स्कूल ले जाने के लिए सरकार को 2,40,000 करोड़ रु. खर्च करने हैं या प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को देखिए, जिसमें सरकार को इस वर्ष अक्तूबर से गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले एक करोड़ पचास लाख परिवारों को 3 रु. की दर से सब्सिडी देकर अनाज देना है, जिस पर साल भर में अनुमानतः 80,000 करोड़ रु की अतिरिक्त लागत आएगी।
उन मसलों में से किसी पर सटीक आंकड़े पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, जो तुरंत कार्रवाई की मांग करते हैं। यहां तक कि विद्वान भी इस बात पर बाल की खाल निकालते रहते हैं कि गरीबी होती क्या है-10 रु. रोजाना या 20 रु. रोजाना। योजना आयोग आंकड़ा जारी करता है, जिस पर भोजन के अधिकार के कार्यकर्ता असहमत हैं। स्कूल से बाहर रह गए बच्चों की संख्या के बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़े पर शिक्षाविद् तर्क करते हैं। अक़सर इस बात को लेकर भ्रम रहता है कि यह जिम्मेदारी किसकी है। उदाहरण के लिए, शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है, जबकि स्वास्थ्य राज्य सूची में है, स्थानीय समस्याएं एकरूप समाधानों के वश की नहीं होती हैं। सबसे बड़कर, निहित स्वार्थ आर्थिक संपन्नता के समतुल्य सामाजिक विकास की राह में विशाल बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। ये निहित स्वार्थ कई बार राजनीतिक होते हैं, और बाकी बार नौकरशाही के होते हैं। सरकार सभी को समाहित करने वाले विकास की बात करती है और इसके लिए भारी-भरकम संसाधन भी लगाती है- इस वर्ष के केंद्रीय बजट में गरीबी से लड़ने के लिए 1,35,000 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है- लेकिन कभी-कभी ये बातें या तो कोरा चुनावी नारा होती हैं या अकर्मण्य अफसरों के लिए पैसा कमाने का अगाध खजाना बनती हैं। यहां तक कि मनमोहन सिंह की बनाई सर्वश्रेष्ठ योजनाएं भी अटकती-छटपटाती रहती हैं। मनरेगा को देखिए, जैसा कि नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय के फेलो वी. कृष्ण अनंत इंगित करते हैं, इसमें मांगे जाने पर रोजगार उपलब्ध न करा सकने पर अधिकारियों को, यहां तक कि जिलाधीश को भी दंडित करने का प्रावधान है। लेकिन किसी अधिकारी को दंडित किए जाने का एक भी उदाहरण उन्हें नहीं पता है। इसी प्रकार, सूचना के अधिकार का अधिनियम बनने के बाद से सुप्रीम कोर्ट स्वयं अपने समक्ष एक वादी की हैसियत में है, जिसने स्वयं को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रहने की छूट मांगी हुई है। यही हालत नौकरशाही की है। अनंत कहते हैं, “जो राजनीतिक वर्ग 2005 में सूचना का अधिकार लाया था, वह अब इस विचार को इसके निष्कर्ष तक पहुंचाने के प्रति उत्सुक नहीं है और नौकरशाही और न्यायपालिका के दबाव के आगे झुकने के लक्षण दिखा रहा है।”
हर समाधान के लिए एक समस्या है। लेखक गुरचरण दास बताते हैं, “भारत में समस्या वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की नहीं है, समस्या कामकाज करने की है। हम सभी को पता है कि समस्याएं क्या हैं। लेकिन समाधान किसी के पास नजर नहीं आता है। प्रश्न यह नहीं है कि क्या करना है, बल्कि यह है कि कैसे करना है।”
आगामी कुछ पृष्ठों में पाठक इसी ‘कैसे’ का उत्तर पाएंगे। कैसे एक पुलिस अधिकारी एन. दिलीप कुमार ने व्यापक भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए स्टिंग ऑपरेशनों का इस्तेमाल किया। कैसे एक रोशनी देवी ने परंपराओं से बंधे हरियाणा के एक गांव का मुकाबला करने की हिम्मत हासिल की, अपने पद का अपमान करने के लिए एक व्यक्ति को जेल भिजवा दिया और शराबखोरी पर काबू पाने के लिए शराब की तीन दुकानें बंद करवा दीं। कैसे एक आइएएस अधिकारी की पत्नी परवीन अमानुल्लाह सूचना के अधिकार की कार्यकर्ता बन गई, उसने सूचना के अधिकार की 600 से ज्यादा याचिकाएं दायर कर दीं, जिसने कभी-कभी अपने पति को भी असुविधाजनक स्थिति में डाल दिया। और कैसे एक आइएएस अधिकारी अनिल स्वरूप ने बीमा कंपनियों, राज्य सरकारों, निजी अस्पतालों और केंद्र सरकार को जोड़कर 30 रु. में एक स्मार्ट कार्ड तैयार किया, जो असंगठित क्षेत्र के लोगों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करेगा।
अक़सर जीवन की गुणवत्ता सुधारने या बेमानी खर्च को रोकने के लिए सिर्फ छोटा-सा रद्दोबदल करना पड़ता है। रिग्निज सैंफेल को देखिए, इस आइएएस अधिकारी ने उत्तरप्रदेश के ग्रामीणों के साथ मिलकर पिरामिड के आकार का एक हैंडपंप डिजाइन किया, जो बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भी पीने का सुरक्षित पानी उपलब्ध कराएगा।
ये स्त्रियां या पुरुष कोई सुपर हीरों नहीं हैं, न ही ये हवा में उड़ने वाले योद्धा हैं। ये व्यवस्था के भीतर के ही लोग हैं, जिन्होंने सुनिश्चित किया कि व्यवस्था काम करे। आइएएस अधिकारियों, सरपंचों, कार्यकर्ताओं चंद नेताओं वाले कुल 35 कर्मवीरों के इस मिले-जुले समूह ने दिखाया है कि सर्वश्रेष्ठ तरीके अक़सर लीक से हट कर होते हैं। इन नायकों ने इस बात का इंतजार नहीं किया कि सभी को समाहित करने वाला प्रशासन इन्हें समाहित करेगा। वे खुद निकल पड़े और उन्होने उस हर मौके का इस्तेमाल किया, जिससे यह दिखाया जा सके कि वे आम आदमी हैं, लेकिन कुछ हट के। जैसे पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद का 17 साल का बाबर अली, जिसका छोटा-सा घर दोपहर का स्कूल बन जाता है या 42 वर्षीय डॉ. प्रभु दास जो केरल के पलक्कड जिले के आदिवासीबहुल अगाली ब्लॉक में 1995 में एक मेडिकल अफसर की हैसियत से आए थे, जब वहां सिर्फ दो बिस्तरों वाला एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था और अब वे वहां 54 बिस्तरों वाले अस्पताल के अधीक्षक हैं, जहां रोजाना 280 मरीजों को देखा जाता है।
भले ही सामाजिक क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी में सरकार नई अवधारणाओं के साथ प्रयोग करे, भले ही कामकाज निगरानी और आकलन व्यवस्था जैसी नई प्रणालियों के साथ प्रयोग किए जाएं, जिनमें प्रत्येक विभाग को एक रिजल्ट फ्रेमवर्क दस्तावेज तैयार करना होता है, प्रशासन चलाने के लिए जुनूनी सिरफिरों की ही जरूरत होती है, रोबोटों की नहीं। कल्याणकारी राज्य सिमटता जा रहा है, लेकिन एक नई व्यवस्था भी आकार ले रही है, जिसमें झरीना विट्टल के नेतृत्वकारी गुणों की जरूरत होगी। मॉकिन्से की यह भागीदार मानती हैं कि कल का नेता इसी व्यवस्था का होगा, लेकिन वह इसे चुनौती देने में समर्थ होगा और इसके लिए जरूरत होगी महत्वाकांक्षा और उद्येश्यपरकता की; स्पष्ट प्राथमिकताओं और निश्चित ध्येय के साथ लक्ष्य की; उस स्पष्टता की, जो सभी पहलुओं को समझने में सक्षम हो; तत्परता की जिसके साथ जुड़ी होती है बातें कम और काम ज्यादा करने की मानसिकता और दृढ़ता की, योजना पर डटे रहने की।
लेकिन जैसा कि अनंत कहते हैं, गरीबी को प्रश्रय देनेवाले ठेकेदार-नेता-अपराधी सांठगांठ में खराब सड़कें और टूटे-फूटे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अच्छी से अच्छी योजनाओं के बाद भी बरकरार रह सकते हैं। ऐसे में पैदल सैनिकों और कर्मवीरों को खोजना सरल है। इस लड़ाई से जो नदारद हैं वे नेता हैं।
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