कातोविसे के बाद पेरिस समझौता ‘स्व-निर्धारित’ प्रक्रियाओं तथा कार्बन बाजारों तक ही सीमित होकर रह गया है। इसलिये यूएनएफसीसीसी अब मात्र ऐसा मंच रह गया है, जो मात्र सूचनाएँ एकत्र भर करेगा। उसके पास जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये वैश्विक स्तर पर सामूहिक कार्रवाई को आगे बढ़ाने की शक्ति नहीं रह गई है। ऐसी स्थिति में उसकी भूमिका पर ही सवाल उठ खड़े हुए हैं।
एक तरफ राहत यह है कि सब कुछ तय हो गया है। हमारे पास नियम पुस्तिका है, जो ‘पेरिस समझौते’ को मूर्ताकार करती है। दूसरी तरफ, कड़वी सच्चाई है कि हम गहरे संकट में हैं। पेरिस नियम पुस्तिका जलवायु परिवर्तन में बदलाव के मद्देनजर पूरी तरह अपर्याप्त है। मैं कातोविसे, पोलैंड से अभी-अभी लौटा हूँ, जहाँ यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के प्रतिनिधियों का 24वां सम्मेलन कॉप-24 (सीओपी 24) सम्पन्न हुआ है। बातचीत तय से ज्यादा समय तक खिंची। लेकिन इस प्रकार के विलम्ब के पीछे हमेशा ही कोई वाजिब कारण नहीं होते; कुछ निहितार्थ भी होते हैं। कुछ शक्तिशाली देश उन्हें ज्यादा समय तक खींच ले जाते हैं।छोटे/विकासशील देशों की ओर से आए प्रतिनिधि इससे उकता जाते हैं। चूँकि ये वार्ताकार दबाव को नहीं झेल पाते नतीजतन एक कमजोर समझौता शक्ल अख्यितार कर लेता है। यही कुछ कातोविसे में हुआ। पहले सप्ताह में अमेरिका, रूस, कुवैत और सऊदी अरब-जो जीवाश्म ईधन का इस्तेमाल करने वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं ने बातचीत को जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकार पैनल की अन्तरराष्ट्रीय समझौतों में 1.5 डिग्री सेल्सियस की ग्लोबल वॉर्मिंग सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट आईपीसी को सराहने या उस पर विशेष टिप्पणी करने सम्बन्धी मुद्दे पर उलझाए रखा। आईपीसीसी को सराहने का अर्थ होता कि इस रिपोर्ट के निष्कर्षो को सदस्य देशों ने मंजूर कर लिया है और इसके निष्कर्षों से संचालित होंगे। लेकिन ‘विशेष टिप्पणी’ का अर्थ होता कि रिपोर्ट का अस्तित्व तो मान लिया है, पर उनकी इच्छा होगी तो इसकी सिफारिशों को मानेंगे या नहीं मानेंगे। सीओपी-24 में इन दोनों शब्दों को मंजूर नहीं किया गया। तमाम अस्पष्ट से शब्द इस्तेमाल किये ताकि आईपीसीसी रिपोर्ट को परे धकेला जा सके। इसका अर्थ हुआ कि सीओपी-24 उत्सर्जन में कटौती करने के लिये देशों को तैयार करने की दिशा में कुछ नहीं कर सकी। इसलिये सीओपी-24 को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट के निष्कर्षों के मद्देनजर नाकामी के लिये याद रखा जाएगा।
समझौता पहले से कहीं ज्यादा हल्का
जलवायु सम्बन्धी विमर्श से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति पहले से ही वाकिफ था कि ‘पेरिस समझौता’ अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकेगा। लक्ष्य यह कि वैश्विक औसत तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना और ऐसे प्रयास सिरे चढ़ाए जाएँ ताकि तापमान में वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने पाए। लेकिन बहुधा देशों की कम होती रुचि को देखते हुए तय हुआ कि तापमान को कम रखने की वैश्विक प्रक्रिया में तमाम देशों को लामबन्द तो रखा ही जाए। ऐसी स्थिति में ‘पेरिस समझौते’ की नियम पुस्तिका को इतना सशक्त तो होना ही चाहिए था कि समझौते पर सहमति जता चुके देशों को जवाबदेह बनाए रखे। दुर्भाग्य से नियम पुस्तिका ने ‘पेरिस समझौते’ को पहले से कहीं ज्यादा हल्का कर दिया है।
‘पेरिस समझौते’ की तमाम खासियतें रही हैं। एक तो यह है कि कौन-से देश अपने स्तर पर फैसला कर सकते हैं। उदाहरण के लिये ये देश फैसला कर सकते हैं कि उत्सर्जन कम करने के लिये वे क्या करना चाहते हैं। उनके उपायों को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित सहयोग (नेशनली डिटरमाइंड कॉन्ट्रिब्यूशंस-एनडीसी) कहा जाता है। दूसरी तरफ ऐसे देश हैं, जो समझौते के नियमों से बंधे हैं। इनके दायित्व खासा कम हुए हैं। ‘पेरिस समझौते’ के तहत देशों के लिये जरूरी था कि एनडीसी की प्रगति सम्बन्धी जानकारी पेश करें। कातोविसे में विकासशील देशों को कुछ रियायतें दी गईं। उन देशों को जिनके पास सूचनाओं को एकत्रित करके उनका विश्लेषण करने की क्षमता कम है। अलबत्ता, उनके लिये अपने स्तर पर किये जाने वाले उपायों की बाबत अपनी तरफ से मुहैया कराई जाने वाली जानकारी की गुणवत्ता और मात्रा को बेहतर करने की समय-सीमा रखी जाएगी। कहना यह कि जब विकासशील देशों ने पारदर्शिता पर सहमति दी तो विकसित देशों ने अपने वित्तीय योगदान के चलते समूचे फ्रेमवर्क को ही हल्का कर डाला।
‘पेरिस समझौते’ में विकसित देशों ने विकासशील देशों को 2020 तक हर साल 100 बिलियन डॉलर की इमदाद मुहैया कराने पर सहमति दी थी। नियम पुस्तिका को परिभाषित करना था कि ‘वित्त’ से क्या तात्पर्य था। यह भी तय करना था कि इसे किस प्रकार से समीक्षित किया जाएगा। कातोविसे इस बाबत नियमों को खासा हल्का कर दिया गया है। पहली बात तो यह कि विकसित देशों के पास अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये तमाम विकल्प हैं कि वित्तीय माध्यमों-रियायती और गैर-रियायती ऋण, सार्वजनिक और निजी स्रोतों से अनुदान एवं सहायता-में से किनका इस्तेमाल करें। दूसरी बात यह कि वित्तीय सहयोगों की रिपोर्टिंग सम्बन्धी नियमों और पर्याप्तता सम्बन्धी नियमों को शिथिल कर दिया गया। विकसित देश का यह सिलसिला जारी रहने वाला है कि वे मनचाहे वित्तीय संसाधन मुहैया करा सकते हैं और इस बाबत उनकी कोई ठोस जवाबदेही तय करने का कोई तौर-तरीका नहीं है।
सीधे-सीधे कोई प्रगति नहीं
वैश्विक अवलोकन (जीएसटी) पेरिस समझौते का एक महत्त्वपूर्ण पहलू था। इसके बल पर सदस्य देशों को प्रोत्साहित किया जा सकता है। प्रस्ताव किया गया था कि वैश्विक प्रगति का आकलन किया जाएगा। अवरोधों को जाना जाएगा और तदनुसार सिफारिशें की जाएँगी। लेकिन अब इस प्रक्रिया को गैर-नीतिक प्रक्रिया में बदल दिया गया। कहना यह कि अब यह प्रक्रिया न तो कोई सिफारिश देगी और न ही कोई स्पष्ट नीति ही सुझाएगी। नतीजा यह होगा कि बिना किसी स्पष्ट सिफारिश तमाम तकनीकी जानकारी एकत्रित की जाएगी। लेकिन ये वित्त सम्बन्धी कोई उत्साह नहीं जगा पाएगी। ‘पेरिस समझौता’ दो या अधिक देशों के बीच उत्सर्जन कारोबारी बाजारों (जैसे ईयू एमिशंस ट्रेडिंग सिस्टम) को मंजूरी देता है और साथ ही सभी देशों के लिये एकीकृत बाजार (जो क्योटो प्रोटोकाल की स्वच्छ विकास प्रक्रिया का अनुवर्ती है) की भी। लेकिन कातोविसे में गैर-बाजार प्रक्रियाओं के मद्देनजर सीधे-सीधे कोई प्रगति दिखाई नहीं दी।
अभी तक बनाए गए तमाम नियमों से संकेत मिलता है कि बीते समय की जो समस्याएँ थीं, वे अभी भी कायम हैं। जैसे कि नियम पुस्तिका में भिन्न बाजारों के लिये भिन्न नियम हैं। ये नियम भी अपारदर्शी हैं और इनके चलते उत्सर्जन की कमी में कोई प्रगति सम्भव नहीं। इसी प्रकार, व्यापार उन क्षेत्रों के लिये भी अनुमत कर दिया गया जो देश के उत्सर्जन लक्ष्यों के तहत नहीं आते। इतना ही नहीं, बाजार तंत्र के अनेक तकनीकी मुद्दों को 2019 में होने वाली आगामी सीओपी के लिये टाल दिया गया है।
कातोविसे के बाद ‘पेरिस समझौता’ ‘स्व-निर्धारित’ प्रक्रियाओं तथा कार्बन बाजारों तक ही सीमित होकर रह गया है। इसलिये यूएनएफसीसीसी अब मात्र ऐसा मंच रह गया है, जो मात्र सूचनाएँ एकत्र भर करेगा। उसके पास जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये वैश्विक स्तर पर सामूहिक कार्रवाई को आगे बढ़ाने की शक्ति नहीं रह गई है। ऐसी स्थिति में यूएनएफसीसीसी की भूमिका पर ही सवाल उठ खड़े हुए हैं। कहना यह कि तमाम देश मनमर्जी के मालिक हैं। लेकिन यह स्थिति वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचा नहीं रख पाएगी। इसलिये हमारे लिये जरूरी है कि ‘पेरिस समझौते’ की खामियों को जल्द से जल्द दुरुस्त करें। क्या इन खामियों को क्षेत्रीय मंचों के जरिए दुरुस्त किया जा सकेगा? क्या हम कोई ऐसी तकनीक अपना पाएँगे जो समूचे विश्व में मौजूद तकनीकों की तुलना में कायाकल्प कर देने वाली साबित हो? या कि हम यह करें कि ‘पेरिस समझौते’ को ही समाप्त कर दें और नए सिरे से अपने प्रयास आरम्भ करें। आने वाला समय इन सवालों का जवाब देगा।
(लेखक, सीएसई, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।)
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