![धान की रोपाई करते किसान](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%88%20%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%87%20%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8_3.jpg?itok=Rmfi34tl)
भारत में परिष्कृत प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कम होने के कारण अधिकतर फसलों की पैदावार का स्तर वैश्विक औसत की तुलना में कम रहा है। सिंचाई और प्रौद्योगिकी विषयक प्रगति तक किसानों की पहुँच का विस्तार करना खेती की उत्पादकता बढ़ाने का सर्वाधिक कारगर उपाय है। पुख्ता सिंचाई व्यवस्था से फसल सघनता, जिसे तकनीकी भाषा में ‘वर्टिकल इंटेंसिफिकेशन’ कहा जाता है, बढ़ाई जा सकती है।अधिकतर किसानों का यह विचार है कि ‘बिन पानी सब सून’। आज से सदियों पहले 371 ईसा पूर्व में कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा था कि “खेती को पूरी तरह वर्षा पर नहीं छोड़ा जा सकता, ऐसा करना प्रकृति के साथ जुआ खेलना है।” उसके बाद सभ्यता के करीब 2400 वर्षों और आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास के 70 वर्षों में भारत में मात्र 45 प्रतिशत खेती योग्य भूमि के लिये सिंचाई की पुख्ता व्यवस्था हो पाई है। उत्पादन के उच्चतर और सुनिश्चित-स्तर के लिये सिंचाई का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। जिला-स्तर के आँकड़ों से पता चलता है कि 2011 और 2012 के दो वर्षों में व्यापक वर्षा-आधारित स्थितियों की तुलना में व्यापक सिंचित स्थितियों वाले जिलों में सभी फसलों की उत्पादकता 1.6 गुना अधिक थी। भारत आज खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है, परन्तु भारतीय खेती के लिये “अत्यधिक भूमि और अत्यधिक जल का इस्तेमाल किया जा रहा है, बल्कि अक्षम उपयोग किया जा रह है।” भारत में परिष्कृत प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कम होने के कारण अधिकतर फसलों की पैदावार का स्तर वैश्विक औसत की तुलना में कम रहा है।
सिंचाई और प्रौद्योगिकी विषयक प्रगति तक किसानों की पहुँच का विस्तार करना खेती की उत्पादकता बढ़ाने का सर्वाधिक कारगर उपाय है। पुख्ता सिंचाई व्यवस्था से फसल सघनता, जिसे तकनीकी भाषा में ‘वर्टिकल इंटेंसिफिकेशन’ कहा जाता है, बढ़ाई जा सकती है। फसल की जरूरत के मुताबिक सिंचाई जल उपलब्ध न हो पाने के कारण फिलहाल, देश की कृषि भूमि का 76 प्रतिशत हिस्सा उत्पादक अवधि में बंजर रहता है। सिंचित क्षेत्रों में भी, पर्याप्त और वहनीय सिंचाई व्यवस्था वर्ष भर उपलब्ध नहीं रहती है। सिंचाई की पुख्ता व्यवस्था होने पर, किसान अधिक मूल्य देने वाली फसलें उगाने की ओर प्रवृत्त होंगे, जिससे उनकी आमदनी बढ़ेगी। नीति आयोग के आँकड़ों के अनुसार एक हेक्टेयर प्रमुख फसल क्षेत्र को फलों, सब्जियों, फूलों, वाणिज्यिक फसलों आदि अधिक मूल्य देने वाली फसलों में रूपान्तरित करने से सकल आमदनी को 1,01,608 रुपये तक बढ़ाया जा सकता है। इसकी तुलना में प्रमुख फसलों के उत्पादन से सकल आमदनी मात्र रुपये 41,169 प्रति हेक्टेयर होती है। इस तरह किसानों की आय में 2.47 गुना बढ़ोत्तरी की जा सकती है।
कृषि पैदावार में कम और अस्थिर वृद्धि गम्भीर चिन्ता का विषय है और इससे किसानों की आय पर विपरीत असर पड़ता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन-एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आँकड़ों से पता चलता है कि प्रमुख व्यवसाय के रूप में कृषि कार्यों में लगे 20 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवारों की आमदनी गरीबी-रेखा से भी नीचे थी और झारखंड जैसे कुछ राज्यों में तो 45.3 प्रतिशत परिवार ऐसे थे जिनकी आमदनी गरीबी-रेखा से नीचे थी। पिछली कृषि क्रान्ति की प्रौद्योगिकियाँ निवेश-आधारित थी, जिनका लाभ भारत में समूचे कृषि परिदृश्य को नहीं पहुँचा। इसके अलावा खेतों का औसत आकार घट रहा है, कृषकों में 67 प्रतिशत सीमान्त किसान हैं, खेती और गैर-खेती आय के बीच अन्तराल बढ़ता जा रहा है, ग्रामीण युवाओं की आकांक्षाएँ बढ़ रही हैं, जोखिम कम करने और सूखा, बाढ़, लू/शीत लहर और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली फसल हानि की भरपाई के लिये संस्थागत व्यवस्थाएँ पर्याप्त नहीं हैं। सरकार इस बात का निरन्तर संज्ञान ले रही है कि कृषक समाज में निरन्तर असन्तोष बढ़ रहा है और वह एक प्रभावकारी प्रशामक नीति तैयार करने की इच्छुक है।भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 28 फरवरी, 2016 को बरेली में एक किसान रैली में कहा था कि उनका सपना है कि 2022 तक, जब देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा होगा, किसानों की आमदनी को दोगुना किया जा सके। इसके लिये यह जरूरी है कि अगले 7 वर्षों में वार्षिक वृद्धि दर 10.4 प्रतिशत पर पहुँचाई जाए, जो एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। इतनी ऊँची विकास-दर हासिल करने के लिये अनिवार्य महत्त्वपूर्ण घटकों में फसल और मवेशी उत्पादकता में वृद्धि करना, उत्पादन की लागत में कमी लाने के लिये संसाधनों का अधिक सक्षम इस्तेमाल करना, फसल सघनता को वर्तमान 140 प्रतिशत से बढ़ाकर 153 प्रतिशत पर पहुँचाना और साथ ही उच्च मूल्य वाली फसलों का क्षेत्र 1.675 करोड़ हेक्टेयर से बढ़ाकर 2.640 करोड़ हेक्टेयर तक पहुँचाना, आदि शामिल हैं। इन सभी उपायों को एक मुकाम तक पहुँचाने में अधिकाधिक खेतों को सिंचाई की कवरेज के अन्तर्गत लाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका है और अनुमानों से पता चलता है कि सकल सिंचित क्षेत्र वर्तमान 9.26 करोड़ हेक्टेयर से 2022 में बढ़कर 11.04 करोड़ हेक्टेयर पर पहुँचाने की आवश्यकता होगी, अर्थात इसमें हर वर्ष 25 लाख हेक्टेयर की वृद्धि करनी होगी। सिंचित क्षेत्र कवरेज में ऐसी अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी के लिये ‘वर्तमान गति से काम करना’ पर्याप्त नहीं होगा और बेहतर समाभिरूपता तथा अधिक धन आवंटन के साथ कुछ नए कार्यक्रम अमल में लाने होंगे।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई)
बावजूद इसके कि भारत में राष्ट्रीय-स्तर पर प्रचुर मात्रा में जल संसाधन उपलब्ध हैं (आकृति-1), देश की सिंचाई व्यवस्था अनेक समस्याओं से घिरी हुई है, जिनमें सृजित सिंचाई क्षमता (इरिगेशन पोटेंशियल क्रिएटिड-आईपीसी) और इस्तेमाल की गई सिंचाई क्षमता (इरिगेशन पोटेंशियल यूटिलाइज्ड-आईपीयू) (आकृति 2) के बीच भारी अन्तर; भूमिगत जल पर अत्यधिक निर्भरता (आकृति 3), जिसकी परिणति भूमिगत संसाधनों के अत्यधिक दोहन और ज्यादातर भू-भागों में भू-जलस्तर में गिरावट के रूप में होती है; जल संसाधनों के विकास का अभाव; और गाँवों में बिजली न होने की समस्या; तथा मानसून के दौरान पूर्वी क्षेत्र में आने वाली बाढ़; खेती और अन्य सभी क्षेत्रों में पानी के किफायती उपयोग/जल उत्पादकता में कमी; कानूनी कमजोरियाँ और जल नीतियों का आधे-अधूरे मन से कार्यान्वयन; और जल संसाधनों से सम्बन्धित विभिन्न कार्यक्रमों के बीच समाभिरूपता का अभाव शामिल है।कृषि सिंचाई क्षेत्र में ऊपर वर्णित अनेक समस्याओं का समाधान करने और 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिये ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’ नाम का एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भारत सरकार ने शुरू किया है। इस कार्यक्रम के दो प्रमुख लक्ष्य हैं- “हर खेत को पानी” और “प्रति बूँद अधिक फसल”, ताकि जल की उत्पादकता बढ़ाई जा सके। इस योजना की प्रमुख विशेषताएँ आगे दी गई हैं (आकृति-4)।
इस कार्यक्रम के प्रमुख लक्ष्य हासिल करने के लिये नदी सम्पर्क परियोजना का तीव्र कार्यान्वयन, प्रत्येक गाँव में कम-से-कम एक जल-संग्रह ढाँचे का निर्माण, लम्बित सिंचाई परियोजनाओं को तेजी से पूरा करना और ‘प्रति बूँद अधिक फसल’ का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों का व्यापक विस्तार करना, जैसे कार्यों को आधार बनाया गया है। पीएमकेएसवाई का स्वरूप और उससे सम्बन्धित प्रमुख घटक तालिका-1 में दिए गए हैं।
पीएमकेएसवाई का दृष्टिकोण
एआईबीपी के अन्तर्गत राष्ट्रीय परियोजनाओं सहित पहले से जारी बड़ी और मध्यम आकार की सिंचाई परियोजनाओं को तेजी से पूरा करना।
वर्षाजल का कारगर प्रबन्धन और जलसंभर-आधारित परिष्कृत मृदा एवं जल संरक्षण गतिविधियाँ।
सूक्ष्म सिंचाई कार्यक्रमों, जल निकायों की मरम्मत, अनुरक्षण और जीर्णोद्धार तथा नवीकरण के जरिए नए जल संसाधन विकसित करना और हर खेत को पानी के अन्तर्गत वर्षाजल संरक्षण के अतिरिक्त ढाँचों का निर्माण।
‘प्रति बूँद अधिक फसल’ का लक्ष्य हासिल करने के लिये ड्रिप्स, स्प्रिंकलर्स, पिट्स, रेन-गंस जैसे सक्षम जलवाहक और सटीक जल अनुप्रयोगों का इस्तेमाल।
तालिका-1 : पीएमकेएसवाई के घटक और आवंटन (2016-17) |
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पीएमकेएसवाई के घटक |
मंत्रालय/विभाग |
भौतिक लक्ष्य (लाख हेक्टेयर) |
लक्षित परिव्यय (करोड़ रुपये में) |
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2015-20 |
2015-16 |
2015-20 |
2015-16 |
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त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम |
जल संसाधन मंत्रालय- आरडी और जीआर |
7.5 |
1.2 |
11,060 |
1000 |
हर खेत को पानी |
21.0 |
2.8 |
9050 |
1000 |
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प्रति बूँद अधिक फसल |
ए एंड सी विभाग |
100.0 |
5.0 |
16300 |
1800 |
जलसम्भर विकास |
भूमि सुधार विभाग |
11.5 |
4.4 |
135900 |
1500 |
कुल |
50,000 |
5300 |
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत सिंचाई आपूर्ति श्रृंखला के एक सिरे से दूसरे सिरे तक समाधान पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है और यह कार्य जल-संसाधनों के विकास, सक्षम वितरण नेटवर्क और खेत-स्तरीय प्रबन्धन में सुधार एवं पानी के किफायती इस्तेमाल के जरिए पूरा किया जाता है। कार्यक्रम का कार्यान्वयन अत्यन्त महत्वाकांक्षी तरीके से किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत (i) आईएएस और आईएफएस अधिकारियों में पीएमकेएसवाई और ‘जिला सिंचाई योजना’ तैयार करने सम्बन्धी दिशा-निर्देशों के बारे में जागरुकता पैदा करने के लिये कार्यशालाएँ आयोजित की गईं, (ii) क्षमता निर्माण और प्रयोगात्मक प्रशिक्षण के लिये भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आईसीएआर, एनआईआरडी, सीडब्ल्यूसी/एनडब्ल्यूडीए जैसे संगठनों और अन्य स्वयंसेवी संगठनों के साथ ज्ञान भागीदारी विकसित की गई, (iii) जिला सिंचाई योजना (डीआईपी)- जो इस कार्यक्रम का मूलाधार है, को विकसित करने के लिये कृषि मंत्रालय ने एक प्रारूप तैयार किया और उसे विभिन्न पक्षों के साथ साझा किया। इन जिला सिंचाई योजनाओं पर राज्य और केन्द्रीय-स्तर पर समन्वय समिति द्वारा विचार किया जाएगा ताकि उनका अनुमोदन और समीक्षा की जा सके, (vi) प्रथम चरण में मार्च 2020 तक पूरी किए जाने के लिये 99 एआईबीपी परियोजनाओं की पहचान की गई, (v) कार्यक्रम के लिये धन की व्यवस्था नाबार्ड के जरिए उपलब्ध कराई जाएगी, लघु सिंचाई के लिये 500 करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि निर्धारित की गई है।
प्रधानमंत्री कार्यालय और नीति आयोग द्वारा कार्यक्रम के कार्यान्वयन की नियमित और नीति आयोग द्वारा कार्यक्रम के कार्यान्वयन की नियमित रूप से समीक्षा की जाती है और 30 मार्च, 2017 को पिछली समीक्षा के दौरान प्रधानमंत्री ने विभिन्न सरकारी विभागों, कृषि विज्ञान केन्द्रों और कृषि विश्वविद्यालयों के बीच समाभिरूपता की आवश्यकता पर बल दिया था ताकि इन परियोजनाओं के कमान क्षेत्रों में कारगर फसल पद्धतियाँ और पानी के किफायती इस्तेमाल की व्यवस्था का विकास किया जा सके। उन्होंने अधिकारियों का आह्वान किया था कि वे पीएमकेएसवाई के लिये एक व्यापक और समग्र विजन तैयार करने के लिये काम करें। उन्होंने अन्तरिक्ष अनुप्रयोगों सहित नवीनतम उपलब्ध प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की आवश्यकता पर भी बल दिया ताकि सिंचाई परियोजनाओं की प्रगति पर निगाह रखी जा सके।
केन्द्र सरकार की नेक नीयत और युक्तिसंगत धन आवंटन और नाबार्ड के जरिए संवितरण के बावजूद यह कार्यक्रम कुछ अधिक प्रगति नहीं कर पाया है। इसके पीछे अनेक कारण हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं : (i) जिला और राज्य-स्तर पर रुचि कम होना, (ii) जिला-स्तर पर एक ऐसी नवीन और किफायती जिला सिंचाई योजना तैयार करने में अक्षमता, जो वास्तव में जिले से सम्बन्धी मुद्दों का समाधान कर सके (iii) विभिन्न सम्बद्ध विकास विभागों के बीच तालमेल और समाभिरूपता का अभाव, (iv) जिला/राज्यस्तर पर कार्यक्रम के अन्तर्गत उपलब्ध धन से अधिक धन आवंटन की आकांक्षाएँ।अतः यह अनिवार्य है कि राज्य और जिले सर्वाधिक नवीन और सम्भावनशील उपायों का चयन करें, जो अगले 5-7 वर्षों में उस समय वांछित परिणाम दे सकें, जहाँ प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दोगुना करने का वायदा किया है। अन्तरराष्ट्रीय जल प्रबन्धन संस्थान और कई अन्य सम्बद्ध पक्षों ने पीएमकेएसवाई की जिला सिंचाई योजनाओं में निम्नांकित सम्भावनाशील उपायों की पहचान की है:
पीएमकेएसवाई के सफल कार्यान्वयन और किसानों की आय दोगुनी करने के लिये प्रस्तावित उपाय
(1) भू-जल के विकास और लिफ्ट-सिंचाई कार्यक्रमों के लिये सहायता। उपेक्षित किसान परिवारों को लक्षित सहायता उपलब्ध कराना ताकि वे कुओं/ट्यूबवेल और लिफ्ट सिंचाई योजनाओं का निर्माण कर सकें।
(2) मध्य प्रदेश, गुजरात और आन्ध्र प्रदेश की नीतियों क अनुसरण करते हुए व्यस्तता के समय अर्थात फसल मौसम के अवसर पर वहनीय लागत पर विद्युत आपूर्ति सुनिश्चित करना।
(3) उच्च या छिछले जलस्तर वाले इलाकों में विशेषकर ग्रिड-रहित इलाकों में सौर ऊर्जा सिंचाई सहकारी संस्थाओं को सहायता प्रदान करना।
(4) विशेष रूप से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में लघु सिंचाई परियोजनाओं को सहायता देना ताकि ड्रिप्स और स्प्रिंकलर्स की संस्थापना की जा सके।
(5) मौजूदा बड़ी और मध्यम सिंचाई स्कीमों में आईपीसी-आईपीयू यानी सृजित सिंचाई क्षमता और प्रयुक्त सिंचाई क्षमता के बीच अन्तराल कम करना, वैज्ञानिक रोस्टरों के जरिए सिंचाई आवंटन करना और स्थगित मरम्मत कार्यों को तत्काल पूर्ण करना।
(6) पानी की क्षति रोकने और एक समान आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये भूमिगत पाइप्ड सम्प्रेषण नेटवर्क में रूपान्तरण के लिये सहायता करना।
(7) तेलंगाना के काकातिया मिशन का अनुसरण करते हुए - तालाबों की गाद नियमित रूप से साफ करने, अतिक्रमण हटाने और आपूर्ति चैनलों को भूमि में दबाते हुए तालाबों और भूमिगत जलवहन प्रणालियों का संयुक्त प्रबन्धन।
(8) भूमिगत जल संरक्षण और पुनर्भरण, शॉफ्ट पुनर्भरण, ट्यूबवेलों के पुनर्भरण, कुओं और तालाबों के अन्तःस्रवण, ‘सिंचाई के लिये बाढ़ के पानी का भूमिगत संग्रह’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सामान्य और मौसमी बाढ़ का उपयोग पुनर्भरण के लिये करने जैसी गतिविधियों को प्रोत्साहित करना।
(9) परिसम्पत्ति विकास, स्वामित्व और दीर्घकालिक रख-रखाव के लिये समुदायों के समावेशन के जरिए जलसम्भर उपचार।
(10) कृषि वानिकी, चारा, सब्जियों और पुष्प खेती के लिये उप-नगरीय गन्दे जल से सिंचाई को बढ़ावा देना।
(11) सिक्किम के ‘धर्म विकास’ कार्यक्रम का अनुसरण करते हुए - उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, सिक्किम और पूर्वोत्तर राज्यों जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में झरनों के जीर्णोद्धार पर विशेष बल देना।
(12) परम्परागत पर्वतीय जल प्रबन्धन प्रणालियों और प्रमाणित पद्धतियों जैसे बहुद्देश्यीय जल उपयोग प्रणालियों, जिनमें जल का इस्तेमाल घरेलू और लघु कृषि/मवेशी के लिये संयुक्त रूप से होता है, उच्च-वर्षा वाले क्षेत्रों में जल्लौंद प्रणाली, बाँस ड्रिप प्रणाली, जाबो प्रणाली और देशी ज्ञान आधारित अन्य पद्धतियों को बहाल करने में मदद करना।
(13) महिलाओं और बालिकाओं पर विशेष बल देते हुए, जो परम्परागत रूप से जल उपलब्ध कराने के लिये जिम्मेदार होती हैं, सभी कार्यक्रमों में सामुदायिक भागीदारी और सामाजिक समावेशन सुनिश्चित करना।
(14) पहले से जारी कार्यक्रमों जैसे मनरेगा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, पूर्वोत्तर भारत में हरित क्रान्ति लाना और राष्ट्रीय लघु सिंचाई मिशन के साथ समाभिरूपता और तालमेल कायम करना।
लेखक परिचय
लेखक अन्तरराष्ट्रीय जल प्रबन्धन संस्थान, नई दिल्ली में वैज्ञानिक एमेरिटस (जल संसाधन) हैं। ई-मेल : b.sharma@cgiar.org
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