प्रदूषण रहित विकास का उपाय

अंधाधुंध विकास से सिमटते प्राकृतिक स्रोत
अंधाधुंध विकास से सिमटते प्राकृतिक स्रोत


ऊँची जीवन शैली और अधिक खपत यदि प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाने के साथ की जाए तो वह लोगों की सेहत सुधारने के साथ ही आर्थिक विकास को भी गति देती है।

हमारे देश में प्रदूषण किस खतरनाक स्तर तक पहुँच गया है, इसका अन्दाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहरों में से 14 भारत में हैं। राजधानी दिल्ली की हालत भी इस मोर्चे पर बेहद खराब है। वायु प्रदूषण से मुख्य नुकसान जनता के स्वास्थ्य को होता है। कई ऐसी बीमारियाँ हो जाती हैं जिससे लोगों की कार्य क्षमता में गिरावट आती है। अस्थमा जैसे रोग उन्हें जकड़ लेते हैं। सेहत के मोर्चे पर इस नुकसान का मूल्यांकन करना मुश्किल काम है। अर्थशास्त्रियों ने इसके लिये एक उपाय निकाला है। उन्होंने लोगों से पूछा यदि उनकी उम्र एक वर्ष और अधिक बढ़ जाए तो इसके एवज में वे कितनी रकम अदा करने को तैयार होंगे।

इसके बाद उन्होंने अनुमान लगाया कि वायु प्रदूषण के नियंत्रण से लोगों की औसत आयु में कितना सुधार होता है। लोगों द्वारा बताई गई लाभ की राशि, जनता की तादाद और प्रदूषण के प्रभाव की कुल गणना से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि प्रदूषण नियंत्रण का स्वास्थ्य पर कितना लाभ होगा। इस लाभ को ध्यान में रखते हुए अर्थशास्त्रियों ने देखा कि प्रदूषण नियंत्रण में कितना खर्च आता है। प्रदूषण नियंत्रण का लाभ अधिक और खर्च कम हो तो इसे लागू कर देना चाहिए। इस दृष्टि से कुछ अध्ययन भी हुए हैं।

बिल एंड मेलिंडा गट्स फाउंडेशन द्वारा भारत के तापीय बिजली संयंत्रों में फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन तकनीक लगाकर वायु प्रदूषण पर नियंत्रण करने का अध्ययन किया गया। उन्होंने पाया कि यदि ये उपकरण दादरी बिजली संयंत्र में लगा दिए जाते हैं तो लागत कि तुलना में जन स्वास्थ्य का लाभ छह गुना अधिक होगा। ऊँचाहार तापीय बिजली संयंत्र में लागत की तुलना में जन स्वास्थ्य का यह लाभ चार गुना अधिक होगा। इसी प्रकार यूरोपीय देशों की प्रमुख संस्था ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट की ओर से किया गया अध्ययन यह कहता है कि यदि वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने की समग्र नीति समस्त यूरोप में लागू कर दी जाए तो लागत की तुलना में लाभ बीस गुना अधिक होगा।

जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट मैनेजमेंट में प्रकाशित शंघाई के तापीय बिजली संयंत्र के अध्ययन में पाया गया कि लागत की तुलना में लाभ 5.6 गुना होगा। इन अध्ययनों से स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण के नियंत्रण से लाभ अधिक और उसकी लागत कम है। इन उपकरणों को लगाने से इन देशों का विकास हुआ है। फिर भी बड़ी पहेली यही है कि यदि इनसे लाभ अधिक और इनकी लागत कम है तो फिर इन उपकरणों को लगाने में दिक्कत क्या है?

इस पहेली का हल हमें बांग्लादेश के एक अध्ययन से मिलता है। ढाका के चारों ओर तमाम ईंट भट्ठे हैं जिनसे वायु प्रदूषित होती है। कोपनहेगन कन्सेंसस सेंटर द्वारा इन भट्टों से होने वाले वायु प्रदूषण पर नियंत्रण का आकलन कराया गया तो यह पाया कि इनमें नई तकनीक लगाने से जनता को 444 करोड़ टका का स्वास्थ्य लाभ होगा जबकि ईंट भट्ठा मालिकों को 390 करोड़ टका की लागत आएगी और इस तरह समाज को 54 करोड़ टका शुद्ध लाभ होगा। इसमें समस्या यही है कि लाभ किसी दूसरे व्यक्ति को होगा और लागत किसी दूसरे द्वारा वहन की जाएगी। इस कवायद का लाभ जनता को होगा जबकि खर्च ईंट भट्ठा मालिकों को करना होगा। जनता के पास कोई अधिकार नहीं है कि वह ईंट भट्ठा मालिकों को प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाने का आदेश दे सके। इसलिये यह काम सरकार को ही करना होगा।

फिर भी समस्या यही है कि यदि सरकार ईंट भट्ठा मालिकों को ऐसे उपकरण लगाने को मजबूर करती है तो उनकी लागत 390 करोड़ टका से बढ़ जाएगी। उन्हें इस लागत को वसूल करने के लिये ईंट के दाम में वृद्धि करनी पड़ेगी। ईंट के दाम बढ़ाकर उन्हें इस रकम को जनता से वसूल करना होगा। जनता को एक तरफ 390 करोड़ टका ईंट के अधिक दाम के रूप में देेने होंगे और दूसरी तरफ 444 करोड़ टका स्वास्थ्य लाभ के रूप में उन्हें बचेंगे। जाहिर है कि जनता इस प्रकार के प्रदूषण उपकरण को लगाने को स्वीकार करेगी, क्योंकि उसे 54 करोड़ टका शुद्ध लाभ होगा। लेकिन जनता के पास कोई अधिकार न होने से यह कार्य जनता द्वारा नहीं किया जा सकता और सरकार इन्हें लगाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है। सरकार की इस विफलता के कारण ढाका की वायु प्रदूषित है और जन स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। यह स्थिति कुछ वैसी ही है कि परिवार का नटखट बच्चा यदि गलत कार्य करे तो पूरे परिवार का नुकसान होता है। इसलिये बच्चे पर नियंत्रण करना ही पड़ता है। यह जिम्मेदारी परिवार के मुखिया की बनती है। इसी प्रकार अपने देश में इस जिम्मेदारी का निर्वाह न करने के कारण वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।

सरकार का ध्यान जनता को सीधे राहत पहुँचाने पर अधिक रहता है जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराने की ओर। मंशा सही होते हुए भी यह दोहरे घाटे का सौदा है। एक तरफ प्रदूषण नियंत्रण जैसी सेवाएँ जो केवल सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा सकती हैं, वे पीछे रह जाती हैं। दूसरी तरफ जनता को घटिया गुणवत्ता की सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ दी जाती हैं जिससे उनका दोबारा नुकसान होता है जैसे सरकारी स्कूलों का कार्य बच्चों को फेल करना अधिक और पास करना कम रह गया है।

प्रदूषण का नियंत्रण न होने का एक स्पष्टीकरण यह दिया जाता है कि हमारे जीवन स्तर में वृद्धि हो रही है, आर्थिक विकास हो रहा है और हमारी खपत बढ़ रही है। इस खपत के बढ़ने से वायु प्रदूषित हो रही है। जैसे हम बिजली की अधिक खपत कर रहे हैं तो तापीय बिजली संयंत्र ज्यादा लग रही हैं और उनसे धुआँ अधिक निकल रहा है। यह सही नहीं है। सच यह है कि विश्व के सबसे अधिक साफ हवा वाले शहर ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, फिनलैण्ड, कनाडा और स्वीडन में स्थित हैं। इन सभी देशों के नागरिकों की औसत खपत भारत से बहुत अधिक है। फिर भी इनके शहरों की हवा साफ है। इसका कारण यह है कि इन्होंने खपत बढ़ाने के साथ-साथ फैक्ट्रियों पर भी नियंत्रण किया। फैक्ट्रियों को वायु प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाने के लिये मजूबर किया। इन उपकरणों को लगाने से वास्तव में इन देशों का विकास हुआ है।

ऊँची जीवन शैली और अधिक खपत यदि प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाने के साथ की जाए तो वह आर्थिक विकास को भी गति देती है। देश में वायु प्रदूषण की समस्या का कारण मुख्य रूप से सरकार की उदासीनता है। सरकार प्रदूषण करने वालों को इसके लिये मजबूर नहीं कर पा रही है कि वे प्रदूषण नियंत्रण वाले उपकरण लगाएँ। अदालती दखल भी इसमें अवरोध बनता है। न्यायालयों के हस्तक्षेप से कभी-कभी सुधार होता है, लेकिन दूसरी ओर सरकारें महसूस करती हैं कि उनकी जवाबदेही अब समाप्त हो गई है। इसलिये सरकार को चाहिए कि ऐसी नौबत ही न आने दे कि न्यायालयों को दखल देने की जरूरत पड़े। साथ-ही-साथ न्यायालयों को भी सरकार को उसके दायित्व से मुक्त नहीं करना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं।)

 

 

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