एनजीटी को पता है कि वह सीमित संसाधनों में पूरे देश में पर्यावरण पर प्रभावी निगरानी तब तक नहीं रख सकती, जब तक कि पहले से बनी संस्थाएँ इसके लिये ठीक ढंग से काम नहीं करती हैं। राज्यों में गठित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मजबूत बनाने के लिये एनजीटी ने पहल करते हुये सभी राज्यों को आदेश दिया कि वे बोर्ड में पूर्णकालिक अध्यक्ष की नियुक्ति करें। वैसे तो पर्यावरण की चिंता के लिये राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड का देश में काफी समय से गठन हो चुका है। समय-समय पर अदालतें भी पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर महत्त्वपूर्ण फैसला देती रही हैं लेकिन सात साल पहले गठित नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) देश में पर्यावरण की रक्षा को लेकर सबसे सक्रिय संस्था बन चुकी है। पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर एनजीटी की सक्रियता के चलते राजधानी दिल्ली सहित देश के तमाम मुद्दों पर सरकार व पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड को कड़े फैसले लेने पड़े। अब एनजीटी राज्यों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को भी मजबूती देने के लिये कड़े कदम उठा रहा है। हाल ही में उसने 10 राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्षों को उनके पदों से हटाने का आदेश जारी कर खलबली मचा दी है, जहाँ इन पदों पर मनमाने तरीके से अफसरों की नियुक्ति की गई थी।
पर्यावरण पर न्यायिक संगठन
पर्यावरण के मुद्दों की सुनवाई के लिये अलग से न्यायिक संगठन बनाने वाला भारत दुनिया का तीसरा देश था। संसद ने सन 2010 में विधिवत बिल पास कर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के गठन के लिये कानून पारित किया था। तब तक आॅस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड ही दो देश थे, जहाँ इस तरह का संगठन था। पर्यावरण के मुद्दों पर फैसला लेने के लिये स्वतंत्र न्यायिक तंत्र बनाने का प्रस्ताव जून 1992 में रियो डि जेनेरियो में संयुक्त राष्ट्रसंघ के सम्मेलन में लिया गया था। विकास और पर्यावरण के मुद्दे पर आयोजित इस सम्मेलन में शामिल भारत ने भी इस फैसले पर अमल का भरोसा दिया था।
सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल पर्यावरण से जुड़े मामलों में देश की सर्वाधिकार प्राप्त संस्था है। उसके फैसले केन्द्र व राज्य सरकार दोनों पर लागू होते हैं। फैसलों से असहमत होने पर 90 दिन के अंदर सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ चुनौती दी जा सकती है। पर्यावरण से जुड़े ऐसे किसी भी मुद्दे को जिसका आम लोगों के जीवन पर नकारात्मक असर पड़ रहा हो या पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुँच रही हो, तो एनजीटी में शिकायत की जा सकती है। यह शिकायत संस्था के अलावा किसी व्यक्ति के द्वारा भी की जा सकती है।
कड़े फैसलों से जगी उम्मीद
पर्यावरण की रक्षा को लेकर कई कड़े फैसले लेने के कारण नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल लगातार चर्चा में बना हुआ है। यूपीए सरकार के समय झारखंड में केंद्र की अनुमति के बावजूद एनजीटी ने दो कोल ब्लाॅकों के आवंटन को निरस्त कर दिया। इन कोल ब्लाॅकों के कारण वन क्षेत्र को नुकसान हो रहा था। सरकार ने विशेषज्ञ समिति के सुझाव की अनदेखी कर दोनों कोल ब्लॉक आवंटित किये थे। इसी तरह यमुना नदी को लेकर एनजीटी ने कई कड़े फैसले लिये। दिल्ली से दोनों दिशा में लगभग 52 किमी नदी क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने के लिये दिल्ली व यूपी सरकार को जरूरी कदम उठाने का आदेश दिया है। पिछले साल नदी के डूब क्षेत्र में आर्ट आॅफ लिविंग के कार्यक्रम आयोजन पर भी एनजीटी ने काफी कड़ा रुख अख्तियार किया था।
दूसरी संस्थाओं को मजबूती
एनजीटी को पता है कि वह सीमित संसाधनों में पूरे देश में पर्यावरण पर प्रभावी निगरानी तब तक नहीं रख सकती, जब तक कि पहले से बनी संस्थाएँ इसके लिये ठीक ढंग से काम नहीं करती हैं। राज्यों में गठित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मजबूत बनाने के लिये एनजीटी ने पहल करते हुये सभी राज्यों को आदेश दिया कि वे बोर्ड में पूर्णकालिक अध्यक्ष की नियुक्ति करें। इसके लिये उसने मानक भी तय कर दिये। ज्यादातर राज्यों ने जब कार्रवाई नहीं की तो पिछले हफ्ते 8 जून को 10 राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्षों को उनके पद से हटाने का आदेश जारी कर दिया। दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के अनुरोध पर इन्हें नई गाइडलाइन के तहत बोर्ड के नये अध्यक्ष की नियुक्ति के लिये तीन महीने की मोहलत मिली है। यदि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रोफेशनल तरीके से काम करने लगे तो तमाम शिकायतों को निस्तारण राज्य स्तर पर ही संभव हो जाएगा।
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