प्रदेश के दृश्य चित्रकारों का कला एवं पर्यावरण में सार्थक योगदान

Devlalikar
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मध्य प्रदेश प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण क्षेत्र है। प्राकृतिक दृश्यों की मनोरमता यहाँ के पर्यावरण में परिलक्षित होती है। एक दृश्य चित्रकार प्रकृति की गोद में पला बढ़ा। उसने सृष्टि के परिदृश्य का अवलोकन कर आत्मसात किया। अपने कैनवस पर रंगों से क्रीड़ा करते हुए प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को साकार किया। किसी भी दृश्य चित्रकार के लिये प्राकृतिक, सांस्कृतिक और कलात्मक पृष्ठ भूमि की आवश्यकता होती है। मध्य प्रदेश में सशक्त कलात्मक संस्कार व्याप्त हैं। यहाँ पर श्री दत्तात्रेय दामोदर और श्री एम.एस. भाण्ड दो सशक्त आधार स्तम्भ हुए, जिन्होंने कला का बिखा (वृक्ष) रोपा। श्री डी.डी. देवलालीकर ने इन्दौर में सन 1927 में कला का प्रारम्भ किया और श्री एम.एस. भाण्ड ने ग्वालियर में कला को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया।

मध्य प्रदेश में कला के संस्कार सदियों से व्याप्त रहे हैं। कला पर्यावरण में समय-समय पर अनेकों परिवर्तन हुए। प्रत्येक परिवर्तन नवीनता का सूचक है। कला इतिहास पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि उस समय भी श्रेष्ठ कलाकार थे, जिन्होंने दृश्य चित्रण किया। कला राज्याश्रयी होने से शासकों की रुचि सर्वोपरि रही और इस समय शबीह चित्र और आकृति मूलक चित्रण ही हुआ। दृश्य चित्रण केवल पृष्ठ भूमि में सहायक के तौर पर ही हुआ। अतः कहा जा सकता है कि वे दृश्य चित्रण से अनभिज्ञ नहीं थे। मध्य प्रदेश में मुगलों के आगमन से दृश्य कला में सौन्दर्यपूर्ण तत्वों की वृद्धि हुई। प्रकृति का निर्माण यथार्थवादी और अलंकारिक शैली के मिश्रण से हुई। यहाँ पर स्वतंत्रता से पूर्व होल्कर (मराठा) चन्देल, मुगल, परमार आदि शासकों का शासन रहा। मालवा क्षेत्र में माण्डव के स्थापत्य तथा मालवा कलम ने दृश्य चित्रकला में अपनी पहचान दिखाई। मिनियेचर के रूप में राग-रागिनी और ऋतु-चित्रण को चित्रकारों द्वारा बनाया गया। अध्ययन द्वारा ज्ञात हुआ कि मुगल, राजस्थानी और पहाड़ी शैली के शासक कई बार अपने साथ आखेट, युद्ध पर साथ ले जाते थे और चित्रकारों द्वारा विशेष घटनाओं का चित्र बनवाते थे। अतः बाहरी दृश्य चित्रण का प्रारम्भ तो उसी समय से हो गया था। इनमें भले ही बाहरी दृश्य कोई भी हो पर आत्मा तो भारतीय रही है।

धीरे-धीरे भारत से पारम्परिक शैलियों का ह्रास हुआ फिर चित्रकार अपनी आत्मिक शैली को लेकर अन्य स्थानों पर चले गये। चित्र शैली में महान परिवर्तन उस समय दिखा जब ब्रिटिश का भारत में प्रवेश हुआ। यह बड़ा संक्रमण काल है। पाश्चात्य कला शैली के चित्र भारत में आये, साथ ही भारतीय चित्रकारों से पाश्चात्य शैली में चित्र बनवाये जाने लगे। इस प्रकार यूरोप में कला आन्दोलनों का भी प्रभाव भारतीय कला पर पड़ा।

19वीं सदी के लगभग स्वतंत्र दृश्य चित्रण आरम्भ हो गया था। भारत में स्थापित प्रसिद्ध कला स्कूलों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा जैसे सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई, शान्ति निकेतन वेस्ट बंगाल आदि। यहाँ के पाठ्यक्रम में दृश्य चित्रण आवश्यक रूप से करवाया जाता था। मुम्बई में यथार्थवादी या प्रभाववादी शैली में चित्रण करते थे जो विशेष कर ओपेक पद्धति पर आधारित थी और शान्ति निकेतन में वॉश पद्धति पर चित्रण कराया जाता था। इन दोनों स्कूलों से विद्यार्थियों ने प्रशिक्षण लिया और देश के कोने-कोने में फैल गये।

मध्य प्रदेश में इन्दौर, ग्वालियर, जबलपुर, उज्जैन, भोपाल एवं धार कला के मुख्य केन्द्र रहे हैं। यहाँ से शिक्षित होने वाले विद्यार्थियों ने कला के नवीन आयामों को अपनाया। यहाँ के पाठ्यक्रम में दृश्य चित्रण की शिक्षा दी जाती थी। और यह आदत डलवायी गई की प्रकृति में सौन्दर्य की खोज की जाए। इसके लिये कला गुरू शिष्यों को मनोरम स्थलों पर ले जाते थे और साथ-साथ स्वयं भी चित्रण किया करते थे। अतः शिष्य प्रत्यक्ष देखते हुए, उन विधियों को स्वतः ही ग्रहण करता जाता था। अतः कला गुरुओं का शिष्य को दृश्य चित्रण की बारीकियों से अवगत कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। यहीं कला गुरुओं का उद्देश्य समाप्त नहीं होता बल्कि शिष्य द्वारा सृजित कृतियों के प्रदर्शन की व्यवस्था में सहयोग करने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

मध्य प्रदेश में कला गुरू श्री दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर का प्रमुख स्थान है, जिन्होंने इस प्रदेश में विधिवत कला पर्यावरण निर्मित किया। वे सृजनशील, प्रकृति प्रेमी और लोकप्रिय कलाकार रहे हैं। कला के क्षेत्र में एक कला गुरू, कलाकार और कला संस्थानों के संस्थापक के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जे.जे. स्कूल मुम्बई से कला-शिक्षा प्राप्त कर आप वापस इन्दौर आये। होल्कर शासक कला प्रेमी थे। उनसे कला संस्थान खोलने का आग्रह किया। सर जे.जे. स्कूल मुम्बई से अनुप्राणित यथार्थवादी दृष्टिकोण से जो जमीन तैयार हुई, उस जमीन पर मध्य प्रदेश में पहला बिखा (वृक्ष) इन्दौर में सन 1927 में स्कूल ऑफ आर्ट्स के रूप में विकसित हुआ।

धीरे-धीरे इसकी तैयार भूमि पर कला-रूपी पौध तैयार होने लगी। कला शिक्षा हेतु विद्यार्थियों को मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के पाठ्यक्रम अनुसार शिक्षा दी जाने लगी, क्योंकि कला संस्थान का उद्देश्य विद्यार्थियों को स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई की परीक्षा के लिये तैयार करना था। विद्यार्थियों को परीक्षा दिलाने हेतु वे स्वयं साथ जाते थे, जिससे विद्यार्थियों का आत्मबल बना रहता था। यही कारण था कि उनकी अध्यक्षता में शिष्य देश-विदेश में विख्यात हो सके। उनके शिष्यों में एन.एस. बेन्द्रे, देवकृष्ण, जयशंकर जोशी, मनोहर श्रीधर जोशी, विष्णु चिंचालकर, सोलेगाँवकर, देवयानी कृष्ण, लक्ष्मी शंकर राजपूत तथा मकबूल फिदा हुसैन प्रमुख हैं, जिन्होंने अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इस संस्था के अन्य प्रतिष्ठित कलाकार हैं, केवल कृष्ण, श्रेणिक जैन, आर.के. दुबे, एम.डी. सासवड़कर, बसन्त चिंचवड़कर, मीरा गुप्ता, गजेन्द्र, इस्माइल बेग तथा नलिनी चौंसालकर आदि।

कला गुरू देवलालीकर ने दृश्य कला के लिये बहुत प्रयास किये। आपका दृश्य चित्रण करवाये जाने का उद्देश्य था कि विद्यार्थियों को निसर्ग के सानिध्य में लाया जाए, जिससे वे उस स्पन्दन को महसूस कर सकें और अनुभूत होने के पश्चात ही दृश्य चित्रण करें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु वे विद्यार्थियों को मनोरम स्थलों पर ले जाकर चित्रण करवाते थे। सम्पूर्ण सृष्टि ही कक्षा रहती थी। विद्यार्थियों को सूर्योदय के समय प्रकाश में दृश्य चित्रण कराते थे और दोपहर में स्टिल लाइफ का प्रशिक्षण देते थे। आपने बदलते हुए प्रकाश की चमक और रंगों के अध्ययन पर बहुत बल दिया। सिर्फ दिन ही नहीं रात्रि में भी दृश्य चित्रण का अभ्यास कराया। इस प्रकार उनका उद्देश्य विभिन्न समयों में होने वाले रंगों की तान से भी अवगत कराना था। इस प्रकार प्रकाश के कारण रंग और रंगतों में होने वाले परिवर्तन का ज्ञान कराना था। यही नहीं समयानुकूल आधुनिक प्रयोगात्मक पद्धतियों के ज्ञान के लिये बम्बई ले जाते और प्रदर्शनियों का अवलोकन करवाते थे।

देवलालीकरदेवलालीकरश्री देवलालीकर कलाकार की भूमिका में कर्मठ सृजनशील और सभी शैलियों के समर्थक रहे हैं। वे प्रभाववादी शैली से अधिक प्रभावित हुए। यही कारण रहा कि वे अपनी निजी शैली नहीं विकसित कर पाये। उनका विषय के सम्बन्ध में यह मानना था कि- “मैं अपनी कला के द्वारा मानव जीवन में जो दिखाई देता है, उसी को चित्रित करने का प्रयत्न करूँगा। दिव्यत्व का बड़ा भाग धर्म में निहित है। सभी महान कलाकारों ने यथा जापान, पुराना चीन, ग्रीस, इटली के कलाकारों ने अपनी कला द्वारा धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में जो अलौकिक प्रसंग आये हैं, उन्होंने मुझे अभिभूत किया, वे ही बाद में मेरे विषय बन गये।”

आपने पुराख्यानों, रामायण तथा महाभारत के प्रसंगों वीर गाथाओं पर आधारित चित्रों का मिश्रित शैली में निर्माण कर अपना कौशल प्रदर्शन किया। आपके द्वारा आकृति मूलक चित्रों में दृश्य चित्रण यथोचित रूप में अवश्य रहता था। आप सधे हाथों से हल्के ब्रश स्ट्रोक से पृष्ठ भूमि को तो उभारते ही हैं, साथ ही ऐसा रंग संयोजन करते हैं कि समग्र कलाकृति रंग से सराबोर हो जाती है।

इन कलाकृतियों के माध्यम से उन्हें अनेकों पुरस्कारों से पुरस्कृत किया। विद्यार्थी कला में ही ‘मेयो-मेडल’ प्राप्त किया। मध्य भारत द्वारा ‘आर्ट्स अमेरिट्स’ उपाधि तथा यशवन्त राव होल्कर द्वारा ‘रायरतन’ की पद्वी कला के प्रति उत्कृष्ट योगदान को प्रदर्शित करती है।

अतः कहा जा सकता है कि कला जगत में आपने कला का पर्यावरण बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आप कला महाविद्यालयों के संस्थापक, एक अच्छे शिक्षक, कलाकार रहे हैं। जिन्होंने कला जगत का राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर के ख्यात चित्रकारों को तैयार किया।

मालवा क्षेत्र में दृश्य चित्रण के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट शैली बनाई उनमें महत्त्वपूर्ण हैं श्री एन.एस. बेन्द्रे, रजा, श्री डी.जे. जोशी, विष्णु चिंचालकर, चन्द्रेश सक्सेना, श्रेणिक जैन उज्जैन में दृश्य चित्रकार के रूप में पहचाने जाने वालों में डॉ. आर.सी. भावसार, श्री कृष्ण जोशी एवं शिव कुमारी जोशी आदि प्रमुख हैं।

श्री नारायण श्रीधर बेन्द्रे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार रहे हैं। आपने एक अच्छे शिष्य, एक चित्रकार, पत्रकार, ग्राफिक्स, सुयोग्य शिक्षक व निर्देशक के रूप में अपना योगदान दिया। इसके पीछे कला प्रेम, कर्मशिल, निष्ठा और कला के प्रति समर्पण भावना प्रधान रही है। आप मूलतः मध्य प्रदेश के इन्दौर से सम्बन्धित रहे हैं। वे विश्व स्तरीय ख्याति प्राप्त चित्रकार हैं, फिर भी बम्बई में रहते हुए मालवा क्षेत्र को कभी नहीं भूले। मालवा के ग्रामीण अंचलों में आकर स्वयं को सन्तुष्ट पाते हैं। मालवा के इन्दौर में चित्र कला का अध्ययन किया। दृश्य चित्रण की कला दृष्टि कला गुरू देवलालीकर ने दी। ‘आस-पास’ का परिवेश और वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य, जिसमें देवगराड़िया भी शरीक थी, ने नौजवान बेन्द्रे को अपनी तरफ खींचा और वे प्रकृति के वातावरण का लुत्फ उठाते हुए शुरुआती लैण्डस्केप बनाने लगे। इस समय उन्होंने अपने गुरू एवं साथियों के साथ प्रातः दोपहर, सांय एवं रात्रि के दृश्य चित्र बनाये। अध्ययन काल में ही उनके मन में यह विचार आया कि ऐसी चित्रकारी की जाए, जिससे रंगों को उनकी और अधिक महत्ता मिल सके। अतः इस विचार को ही अपना ध्येय मानकर चित्रकारी की और एक सफल चित्रकार के रूप में सफल रहे। उनकी अपनी पहचान रंगों से है।

उन्होंने चित्रों में अनेक शैलियों को अपनाया है। बेन्द्रे ने कैनवास पर पतले रंगों को फैलाकर, बहाकर और उन्हें कहीं-कहीं मिश्रित कर अनूठा प्रभाव उत्पन्न किया है। आपने प्वाइन्टेलिज्म पर आधारित अनेकों कलाकृतियाँ बनाई हैं। प्रारम्भिक दृश्य चित्रों में चमकदार मालवा के रंगों का प्रयोग किया किन्तु बाद के चित्रों में मधुर सौम्य रंग अपनाये। वैसे तो आपने सभी विधाओं आकृति संयोजन, स्टिल लाइफ आदि के चित्र बनाये। आकृतियाँ मूर्ति कला से प्रभावित दिखाई देती हैं। आपकी आकृतियों में अमृता शेरगिल के चित्रों सी सरलता दर्शित है। दृश्य चित्रों में सौम्य रंग होते हैं, जिसमें असीम गहराई तक डूबा जा सकता है। उनकी बिन्दुवादी शैली नवीनता और आकर्षण उत्पन्न करती है। उनके द्वारा सृजित आकृतियाँ लम्बी और नाक रहित होती है।

1934 में कश्मीर गये वहाँ लगभग तीन महीने सैलानी बनकर रहे। वहीं पर आर्टिस्ट कम जर्नलिस्ट की नौकरी की। यहाँ रहकर हजारों दृश्य बनाये। अब उन्हें लगा कि यहाँ रहकर कला की दुनिया से अलग हो रहे हैं अतः वे पुनः मुम्बई आये और फ्रीलांस आर्टिस्ट की तरह कार्य करने लगे। आपने फिल्म जगत में भी कार्य किया। शान्ति निकेतन में भी चित्रकारी करने का मौका मिला। आपने ग्राफिक और सिरेमिक का भी प्रशिक्षण लिया। सबसे अधिक चित्रकारी ही भायी जिसे आप अन्त तक करते रहे।

चित्रकारी के उद्देश्य से आपने अनेकों जगहों का भ्रमण किया। कैम्पों में भी सिरकत की। मध्य प्रदेश की सबसे खूबसूरत जगह माण्डव के अनेक स्वरूपों को चित्रांकित किया।

सन 1950 में महाराजा सियाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में ललित कला संकाय के रीडर और चित्रकला विभाग के अध्यक्ष और ललित कला संकाय डीन के रूप में भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आपने योग्य शिक्षक के रूप में विद्यार्थियों को कला की बारीकियों से परिचित कराया। आपके शिष्यों में ज्योति भट्ट, त्रिलोक कौल, शान्ति दवे, जी.आर. सन्तोष, रतन परिमू, गुलाम मोहम्मद शेख आदि मूर्धन्य चित्रकार रहे हैं। बड़ौदा में रहकर अनेकों प्रयोगात्मक शैलियों में चित्र बनाये। 1978 में कला में खैरागढ़ यूनिवर्सिटी में चित्रकला विषय के प्राध्यापक पद पर भी कार्य किया। कला की समझ बढ़ाने के उद्देश्य से अनेक स्थानों का भ्रमण किया। 1947 में अमरीका गये। भारत, हॉलैण्ड के अनेकों प्रमुख स्थानों का भ्रमण किया।

चित्रकार की सफलता तभी है, जब वह अपने सृजन कार्य को प्रदर्शित कर सके। अतः आपने भारत के प्रमुख स्थानों, गुलमर्ग, मुम्बई, इन्दौर के साथ ही चेकोस्लोवाकिया, टोरण्टो, यूगोस्लाविया, पोलैण्ड, न्यूयार्क आदि में चित्र प्रदर्शित किये।

आपकी कला साधना के कारण आपको अनेकों सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए। इन्दौर में 1944 में साहित्य सभा में अभिनन्दन एवं 1984 में कम्यून संस्था द्वारा सम्मानित किया गया। 1946 में आर्ट सोसायटी ऑफ इण्डिया मुम्बई द्वारा ‘पटेल ट्रॉफी’ प्रदान की गई। इसके अलावा आपको स्वर्ण पदक, रजत पदक के साथ ही अनेकों पुरस्कार प्राप्त हुए। आपकी अनेकों कृतियाँ महत्त्वपूर्ण स्थानों पर संग्रहित हैं।

श्री बेन्द्रे ने सृजनात्मक कार्यों से कला पर्यावरण निर्मित किया और दृश्य चित्रों में पर्यावरण को संवारने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आपके सृजन कार्यों ने मध्य प्रदेश की भूमि को विश्व में सम्मानित किया। आप रंगों और रंगतों के विशेषज्ञ होने के कारण आपको ‘रंगों का चित्रकार’ Colourist कहा गया।

देवलालीकर के शिष्यों में हुसैन और रजा ऐसे चित्रकार हैं जिनकी शिक्षा तो मध्य प्रदेश में हुई पर वे विदेश में जाकर बस गये। वहीं की नागरिकता ग्रहण की। अध्ययन के दौरान दोनों ने ही दृश्य चित्रों का अप्रतिम संसार रचा। हुसैन शिक्षा अधूरी छोड़कर मुम्बई कला नगरी जा बसे। आपने गुजरात के दृश्य चित्रों को अपने कैनवास पर स्थान दिया। जल रंगों में भी दृश्य चित्रण प्रभाववादी शैली में बहुतायत से किया। आप अपने सृजन कार्यों के कारण ‘पद्मश्री’ और ‘पद्म भूषण’ सम्मान से सम्मानित किये गये। आप ‘प्रोग्रेसिव- आर्टिस्ट’ ग्रुप के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। इस ग्रुप में सूजा, आरा, रजा, हुसैन और गायतोंडे थे। मकबूल फिदा हुसैन गहरे बुलन्द रंग आघातों के कारण पहचाने जाते हैं। वे प्राचीन भारतीय सौन्दर्यबोध और गाँव में बिखरी परम्परागत ग्रामीण कला के प्रति पर्याप्त रूप से सजग थे। उनकी सरलीकृत रेखाएँ और सुर्ख रंगों के टुकड़े बशौली शैली की याद दिलाते हैं। आपने स्वच्छन्दतापूर्वक कार्य किया किसी एक शैली में बंधकर नहीं रहे। आपने पर्यावरण का एक घटक ‘अश्व’ को चित्रण के लिये चुना और चित्रों की एक सीरिज बनाई। आप भारतीय कला जगत में सबसे चर्चित कलाकार रहे।

सैयद हैदर रजा का मध्य प्रदेश के चित्रकार के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुम्बई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से डिप्लोमा किया। आपके सैरा चित्र अंग्रेज चित्रकार वाल्टर लंगहैयर से प्रभावित थे। मुम्बई में अनेकों सैरा चित्र बनाये। बाम्बे आर्ट सोसायटी द्वारा स्वर्ण पदक भी प्राप्त हुआ। श्री रजा प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप के सदस्य भी रहे। 1950 में फ्रांस में पुरस्कृत होने के पश्चात फ्रांस आये और पेरिस में अपने सृजन कार्य करने लगे। यहाँ पर भी आपने दृश्य चित्र बनाये, फिर आपनी निजी बिम्बात्मक शैली में चित्रण कार्य किया। ‘बिन्दु’ शृंखला में रहस्यात्मकता और दार्शनिकता एवं वैज्ञानिकता के दर्शन होते हैं। आपका लगाव मध्य प्रदेश की धरती से रहा है। इसका स्पष्ट उदाहरण मध्य प्रदेश का रजा पुरस्कार रहा है, जिसमें युवा चित्रकार की कृतियों को पुरस्कृत किया जाता है।

इसके अलावा रजा फाउण्डेशन भी बना, जिसमें अखिल भारतीय स्तर का एक लाख रुपए प्रदान किया जाता है। अतः युवा चित्रकारों के लिये कला क्षेत्र में विशेष प्रयास है।

मध्य प्रदेश के दृश्य चित्रकारों में श्री डी.जे. जोशी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। श्री देवलालीकर के पश्चात इस विधा में आपने सर्वाधिक कार्य किया और यहाँ की धरती पर रहकर ही कलात्मक कार्य करते रहे। मालवा के दृश्य चित्र ही आपकी पहचान स्वयं की विशिष्ट शैली के कारण बनी। श्री डी.जे. जोशी को कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने के लिये मध्य प्रदेश शासन ने रूपंकर कला के लिये ‘शिखर सम्मान’ से सम्मानित किया।

प्रभाववादी शैली में बने दृश्य चित्र ही आपकी पहचान बने। कला सृजन में आपने मध्य प्रदेश के चित्रों में निमाड़ की आकृतियाँ, विशुद्ध दृश्य चित्र और मूर्तिकला निर्माण भी की। धार के श्री रघुनाथ फड़के से आपने मूर्तिकला का प्रशिक्षण प्राप्त किया। सभी विधाओं में दक्ष होने के बाद भी चित्रकला में दृश्य चित्रण करना आपको अच्छा लगा। देवलालीकर ने दृश्य चित्रण को आकृति संयोजन के परिप्रेक्ष्य में बनाया था। डी.जे. जोशी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने पाश्चात्य शैली के प्रभाववाद को अपनाया और तेल रंग के माध्यम से बिना मिलाये रंगों से कलाकृति बनाई। आपने मालवा के इन्द्रधनुषी चटख रंगों का प्रयोग दृश्य चित्र में किया। आपने विशुद्ध दृश्य चित्रों में प्रकृति एवं पर्यावरण के सभी तंत्रों को चित्रों में उकेरा। उन्होंने चित्रों में भूमि जल, वनस्पति को विशेष महत्व दिया। जल की महत्ता दर्शाने के लिये धार्मिक स्थानों का चित्रण किया। जल, मन्दिर और वास्तु पर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश ने चित्र के सौन्दर्य को बढ़ा दिया। इस प्रकार ‘प्रकाश’ महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में सामने आया। बोल्ड ब्रश स्ट्रोक से त्रिआयामी प्रभाव लाने का प्रयास किया। धार्मिक स्थान उज्जैन, ओमकारेश्वर, महेश्वर तथा नेमावर के अनेकों दृश्य चित्र बनाये और धार्मिक पर्यावरण प्रस्तुत किया।

श्री डी.जे. जोशी के कला शिक्षक और प्राचार्य के रूप में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अपनाई। आपने श्री डी.डी. देवलालीकर के कार्यों को आगे बढ़ाया। आप ललित कला मन्दिर और लक्ष्मी कला भवन, धार में प्राचार्य के पद पर रहते हुए कला के विद्यार्थियों को स्वयं अपनी राह बनाने के लिये प्रोत्साहन दिया और चित्रण से सम्बन्धित दिशा निर्देश भी दिये। आपके शिष्यों में पुरातत्वविद श्री वाकणकर, श्री श्रेणिक जैन, श्री चन्द्रेश सक्सेना, श्री जय सिंह, श्री करण सिंह जैसे विशिष्ट कलाकार सम्मिलित हैं। आपके शिष्यों ने कला कर्म करते हुए मध्य प्रदेश को उच्च स्तर तक लाने का प्रयास किया।

मूर्तिकार के रूप में शहर का वातावरण कलात्मक बनाया। सीमेंट, प्लास्टर ऑफ पेरिस, काँसे और पेपरमेशी में ढली मूर्तियाँ शहर के प्रमुख स्थानों पर लगी हैं, जिनमें घुड़सवार झाँसी की रानी, महावीर प्रसाद द्विवेदी (काँसा), पुलिस शहीद स्मारक, नेहरू प्रतिमा, अहिल्याबाई, निराला, के.सी. नायडू (सीमेंट), यशवन्त राव होल्कर (काँसा), पण्डित माखन लाल चुतर्वेदी तथा मालवी देहाती आदि मूर्तियाँ प्रमुख हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्री देवकृष्ण जटाशंकर जोशी ने अपने कलात्मक कार्यों से एक अच्छे (दृश्य चित्रकार, मूर्तिकार), कला गुरू, सौन्दर्यपूर्ण दृष्टि विशेषज्ञ के रूप में कला जगत को महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आपकी कृतियाँ अनेक स्थानों पर संग्रहित हैं। एक कलाकार के रूप में अनेकों प्रदर्शनियों में अपनी कृतियों को प्रदर्शित किया और अनेक कृतियाँ पुरस्कृत भी हुईं।

जहाँ श्री डी.जे. जोशी प्रभाववादी शैली में तेल माध्यम से कृतियाँ बना रहे थे, वहाँ श्री विष्णु चिंचालकर प्रकृति में से नये मुहावरों की खोज में लगे हुए थे। निसर्ग के समीकरण और विश्लेषण से बिम्बात्मक रहस्यों की खोज कर रहे थे। आपकी पहचान ‘गुरूजी’ के रूप में है। इसका एक कारण यह था कि आपका जन्म 05 सितम्बर, 1917 को हुआ। मध्य प्रदेश के कला जगत में आपने अपनी पहचान निसर्ग से प्राप्त बेकार समझी जाने वाली वस्तुओं से कलाकृति निर्माता के रूप में बनाई। आपका मानना है कि प्रकृति ने बनाया है वह सब कला ही है। प्रकृति के प्रतिबिम्ब पूरी तरह से चित्र हैं। ये प्रतिबिम्ब घर के कोने में रखी वस्तुओं में दिखाई देते हैं। द्वार पर लगा एक वन का दृश्य पेड़ के तने से बना स्टूल तथा अलमारी में रखी ‘West to best’ कलात्मक रूप आकर्षित करते हैं। ललित कला स्कूल, इन्दौर के चार प्रमुख स्तम्भ माने जाते थे। श्री डी.जे. जोशी, श्री एन.एस. बेन्द्रे, मकबूल फिदा हुसैन और श्री विष्णु चिंचालकर। यह समय एक ऐसा सन्धि काल था जहाँ नया आकार ग्रहण करने को उतावला था और पुराना वर्चस्व जमाने के लिये संघर्षरत था। अध्ययन पूर्ण होने पर सभी अपनी-अपनी राह पर चले गये। डी.जे. जोशी और विष्णु चिंचालकर ने इन्दौर में रहकर ही सृजन कार्य किया। यहाँ एक ‘फ्राइडे ग्रुप’ की रचना की जिसके संस्थापक सदस्य श्री विष्णु चिंचालकर, रामजी वर्मा, दादा खोत, सातपुते, राहुल बारपुते, चिन्तामन बांकर, रथीन मित्रा, प्रभाकर चतुर्वेदी और ताराचन्द आदि सदस्य थे। बाद में श्री डी.जे. जोशी भी सदस्य बने। यह ग्रुप अधिक समय नहीं चला। इसी समय आपके मस्तिष्क में कलात्मक सृजन के प्रति नवीन योजनाएँ बनीं। राहुल बारपुते के साथ आप इस कला यात्रा में निकल गये। कुमाऊँ, रामखेत, चम्बल बाँध और बनारस की यात्रा की। इस समय आपने जलरंगों में कार्य किया। इस समय के चित्रों से आपको बहुत उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं।

यही वह समय था जब आपने कला तथा पर्यावरण को पहचाना और प्रकृति रूपी पगडण्डी का मार्ग चुना। उनका मानना था कि पगडण्डी हम खुद बनाते हैं, जिसमें प्राकृतिक चीजों का सानिध्य प्राप्त होता है। वहाँ उन्हें झाड़ी, झकड़ी, तने, वृक्षों की छाल और बहुत सी चीजें मिल जाती हैं, जिनसे वे कलाकृतियाँ निर्मित करते थे। जब वे स्वयं बनाई पगडण्डी पर आगे बढ़ते थे तो उनके कन्धे पर एक झोला लटका होता था। रास्ते में जो भी चीजें मिलती उन्हें अपने उस झोले में डालते जाते थे, जिनमें सीप, आम की गुठलियाँ, जाली, शंख, पत्तियाँ, टहनियाँ, मेवे के खोल, वृक्ष की जड़ें, तार की जालियाँ, नरेठी और भी अन्य वस्तुएँ संरक्षित होती थीं। आपने अनेकों प्रयोग किये। सूखी पत्तियों को इस तरह संयोजित करते थे कि वह सहज ही किसी दृश्य चित्र में परिणित हो जाता था। मकड़ी का जाला कागज पर इस प्रकार रखते कि वह अमूर्त चित्रण बन जाता। कपड़ों के टुकड़े पॉलीथिन, टूथपेस्ट की ट्यूब जैसी चीजों से आकृति निर्माण कर देते थे।

अतः चित्रकार की भूमिका में आपने दो प्रकार के कला सृजन किया शास्त्री विधि और प्राकृतिक सानिध्य जिसमें सहज-सुलभ साधन प्रकृति से लिये थे।

राष्ट्रीय स्टेडियम, दिल्ली की मंच सज्जा के लिये झाड़ू, चटाई एवं बास्केट आदि का प्रयोग किया। जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने काफी सराहा। 1979 में बच्चों, अध्यापकों और पालकों का कला दृष्टि देेने के लिये एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। बच्चों के प्रशिक्षित करने के लिये बच्चों के कॉलम ‘खेल-खेल में’ एक सराहनीय कदम था। यही आर्ट कॉलम बाद में पुस्तक रूप में आया। आपने कई कहानियों का इलस्ट्रेशन तैयार किया। चर्चित पुस्तक ‘खिलते अक्षर खिलते फूल’ बच्चों के लिये लिखी।

पर्यावरण संरक्षण बाबा आम्टे ने भी आपको प्रभावित किया। उनसे प्रेरित होकर बीमार और कोढ़ी व्यक्तियों की सेवा की। वहाँ उपलब्ध Parallelism- work में आने वाले व्यर्थ पदार्थ से कला का संरक्षण भी किया। प्रत्येक 26 जनवरी के दिन बाबा आम्टे के साथ नर्मदा नदी के तट पर अवश्य जाते थे। इस प्रकार पर्यावरण की सुरक्षा के लिये आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

1984 में आपको मध्य प्रदेश के महत्त्वपूर्ण ‘शिखर सम्मान’ से सम्मानित किया गया। गुरूजी के रूप में सम्मानित व्यक्ति में मध्य प्रदेश को कला की विशिष्ट ऊँचाइयों तक पहुँचाया। प्रकृति के रूप की दृष्टि प्रदान की। पर्यावरण को संरक्षित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बच्चों के रोचक साहित्य निर्माण इलस्ट्रेशन, डिमाँस्ट्रेशन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बच्चों को प्राकृतिक ऊर्जा से अवगत कराया। एक सफल चित्रकार के रूप में लगन से कलाकर्म में लगे रहे। एक शिक्षक के रूप में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यही कारण है कि आपकी प्रशंसा कला जगत में होती रही और आपको अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं।

मध्य प्रदेश के दृश्य चित्रकारों में श्री चन्द्रेश सक्सेना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। एक दृश्य चित्रकार के रूप में कला और पर्यावरण के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कलागुरू श्री डी.जे. जोशी एक अच्छे दृश्य चित्रकार थे। उनके श्रेष्ठतम शिष्यों में चन्द्रेश सक्सेना का भी नाम आता है। आपमें उपलब्ध विलक्षणता के दर्शन दृश्य चित्रों में होते हैं। आपकी कला शिक्षा मुम्बई और शान्ति निकेतन दोनों जगह हुई। मुम्बई में श्री अहिवासी और शान्ति निकेतन में नन्दलाल बोस दोनों से शिक्षा ग्रहण की, लेकिन वे उन शैलियों में कभी बंधकर नहीं रहे। उनके अपने रंग और पद्धतियों ने निजी शैली विकसित की। वह बड़ी ही विलक्षण थी। शान्ति निकेतन के आने के पश्चात माण्डव के मनमोहक चित्रों को बनाया। इन दृश्य चित्रों के माध्यम से वहाँ की ऐतिहासिक इमारतें, खण्डहर, सफेद इमली के वृक्ष, स्मारक, लहराती हुई सड़कों एवं वनस्पति को अतीत का स्थायित्व रंगों द्वारा प्रदान किया। माण्डव में रहकर वहाँ की भूमि, आबो-हवा और ग्रामीण अंचलों को निहारा और चित्रों में परिणित किया। यही नहीं ग्रामीण अंचलों का अवलोकन कर वहाँ की कला पर अंग्रेजी में शोध पत्र लिखा। वह एक विचारशील और क्रियाशील कलाकार थे। चिन्तन में उनकी दुनिया कुछ अलग ही थी। उनके रंगों के संयोजन विशेष किस्म के थे। इन पर शैलोज मुखर्जी का प्रभाव था।

चन्द्रेश सक्सेना द्वारा रचित चित्र में हरे वृक्ष कब लाल, नारंगी, जामनी में परिवर्तित हो जाते। उनके दृश्य चित्रों में हरा रंग अल्पतम ही होता था। ओजपूर्ण रंग और Forcefully brush strokes आपकी पहचान है। आपके दृश्य चित्रों में ऊर्जा, आवेग, आक्रामकता और ताजगी है। पर्यावरणीय तत्व में मालवा की भूमि का चित्रण ग्रामीण दृश्य, माण्डव के स्थल, मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक स्थलों में दर्शित है। दूर तक फैले मैदान पर सरसराती सड़कें, ऊबड़-खाबड़ जमीन अनेक रंगों में दर्शित है। धार्मिक स्थल जैसे उज्जैन के मन्दिर के घाट, जल महल में जल की हलचल आपके स्वभाव के अनुरूप दिखाई देती है। चित्र में व्याप्त पीड़ा नारंगी रंग ऊष्मा (अग्नि) का द्योतक है। उनके ब्रशाघातों में वायु का प्रभाव दिखाई देता है। आकाश तत्व विविधता के साथ चित्रित है। कहीं क्षितिज रेखा सतह के ऊपरी हिस्से में चली जाती है। आकाश अधिकांशतः नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कभी वह प्रकाशयुक्त पीलापन लिये होता है, कभी जामुनी, सफेद आभायुक्त तो कभी लाल सफेद ब्रशाघातों से निर्मित होता था। आपने दृश्य चित्रण के लिये Brown Paper का भी प्रयोग किया। कई स्थानों पर ब्राउन पेपर को रंग रहित ही छोड़ देते थे। इस प्रकार श्री चन्द्रेश सक्सेना ने प्रकृति को अपनी दृष्टि से देखा और विभिन्नता पूर्ण कला पर्यावरण निर्मित किया। कहीं दृश्य चित्र विशुद्ध बने हैं, तो कहीं मानवों का हस्तक्षेप ऐतिहासिक और धार्मिक स्थापत्य की उपस्थिति में दिखाई देता है। इन चित्रों के माध्यम से कला का विस्तार प्रमाणित होता है। आपने निमाड़ और मालवा क्षेत्र को चित्रों के माध्यम से जिया है। खाली जगहें बड़े चौगान फैला आकाश यह सब अवकाश के प्रति ललक उत्पन्न करता है।

एक चित्रकार के रूप में चन्द्रेश जी की कला एक ऐसे कलाकार की है, जिसके सामने सृजन का अनन्त आकाश खुला था। वे रंग प्रयोग नहीं करते थे। वे रंगों सम्भावनाओं का विस्तार करते थे। उनके चित्रों में रंग अपना स्थान बदलते हुए नये समीकरण बनाते थे। वे कई मायनों में विलक्षण थे। रंग-योजन, चित्र संयोजन तथा दृश्य में काट-छाँट इतनी तेजी से करते थे। वे मानो दृश्य में से ही नया दृश्य निकाल रहे हों।

अनवरत कार्य करना उनकी प्रकृति थी, एक कैनवास पूर्ण होने पर दूसरे पर कार्य करने की विलक्षणता आपमें थी। ऐसे अवसर आपके साथियों और शिष्यों को प्राप्त हुए। उनके भीतर छुपे हुए शिक्षक ने चित्रकार को छोड़ दिया और विद्यार्थियों की भलाई के लिये समर्पित हो गये। आप एक जिम्मेदार शिक्षक और प्रशासक भी रहे। ललित कला केन्द्र, इन्दौर में प्राध्यापक और प्राचार्य के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वे अपने विद्यार्थियों के साथ तय स्थल पर जाते थे और विद्यार्थियों को वहीं प्रशिक्षण देते थे। विद्यार्थियों के साथ कठोर व्यवहार भी करते थे। उन्हें अनुशासन में रहकर काम करना बहुत पसन्द था। वे अपने साथी अध्यापकों और विद्यार्थियों से भी इस बात की अपेक्षा करते थे। 1953 में ललित कला संस्थान, इन्दौर में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। इसके अलावा ग्वालियर में भी अध्यापन कार्य कराया।

1982 तक सेवा पश्चात सेवानिवृत्त हुए। कला प्राचार्य और शिक्षक के रूप में आपने महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पूर्ण लगन के साथ निभाई। इसके अलावा कस्तूरबा ग्राम राष्ट्रीय स्मारक न्यास, इन्दौर से जुड़े और केन्द्रीय प्रशिक्षण संस्थान के सांस्कृतिक निदेशक के पद पर कार्य किया। कला के विकास के लिये अनेक कला यात्राएँ भी की। सृजन कार्यों से आपको पुरस्कारों और सम्मानों से सुशोभित किया गया।

अतः आपके कलात्मक जीवन पर समग्र दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि आपने कला-पर्यावरण के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कला शिक्षक, प्राचार्य, निदेशक और प्रमुख रूप से विशिष्ट शैली के दृश्य चित्रकार के रूप में मध्य प्रदेश की धरती की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी।

इन्दौर के चितेरों में जाना-पहचाना नाम श्रेणिक जैन का है, जो निसर्ग से जुड़कर सौन्दर्यपूर्ण प्राकृतिक चित्रण कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के दृश्य चित्रकारों में आपका नाम प्रमुखता से लिया जाता है। आधुनिक अमूर्तता की गिरफ्त में कला समय होने पर भी आपने आज भी निसर्ग से प्रेम छोड़ा नहीं। आज भी दृश्य चित्रण जैसी कला को जीवित रखा हुआ है। उनके झिलमिलाते रंगो वाले दृश्य चित्र आज भी आकर्षित कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश में कला जगत के विकास में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान है। आप अपने जीवन से जद्दोजहद करते हुए कला की शिक्षा जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट का डिप्लोमा 1957 में किया। वहाँ पर श्री अहिवासी ने प्रकृति से सीखने के लिये प्रेरित किया। अतः आप एक दृश्य चित्रकार बन गये। काफी समय मुम्बई में फ्रीलांस कार्य किया। 1966 में P.S.C (Public Service Commission) से चयनित होकर कला निकेतन, जबलपुर में प्राध्यापक के पद पर रहकर शिक्षा के लिये योगदान दिया। शासकीय ललित कला संस्थान में प्राचार्य के रूप में सेवाएँ प्रदान की और एक योग्य प्रशासक की भूमिका अदा की। विद्यार्थियों के विकास के लिये अनेक सराहनीय कार्य करते हुए 1993 में सेवानिवृत्त हुए। कलाकार शासकीय सेवा से भले ही सेवानिवृत्त हो जाएँ, पर कलात्मक कार्यों से नहीं। आपने कार्यों की विशिष्टता के लिये मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन, भारत सरकार से प्रतिमाह नगर राशि छात्र वृत्ति के रूप में 2 वर्ष तक प्राप्त किये। गुरू कोरान्ने, श्री मुरलीधर जी अहिवासी, श्री गोधने जी और पलसीकर के मार्गदर्शन से ही आपकी कला में निखार आया। इन कलात्मक कार्यों के कारण ही 1957 में कोलकाता में स्वर्ण पदक, 1958 में अमृतसर में रजत पदक, राजस्थान सरकार द्वारा नकद पुरस्कार प्राप्त हुआ। मध्य प्रदेश को रिप्रजेंट करते हुए 1952 में अन्तरराष्ट्रीय रेडक्रॉस सोसायटी, टोरंटो कनाडा की प्रदर्शनी में 64 राष्ट्रों के साथ हिस्सेदारी में श्रेष्ठ पुरस्कार मिला। आपने अनेकों एकल और सामूहिक प्रदर्शनियाँ की तथा कैम्पों में हिस्सा लिया। 1992-93 में मध्य प्रदेश सरकार की ओर से ‘शिखर सम्मान’ प्राप्त हुआ।

आपने कला और पर्यावरण के लिये सदैव सहयोगी रुख अपनाया। चित्रों के माध्यम से स्मृतियों को चिरस्थाई बनाया। आपके दृश्य चित्र दो प्रकार के बने होते हैं- 1. प्रत्यक्ष देखकर और 2. काल्पनिक।

कला जगत को अपनी विशिष्ट शैली से अवगत कराया। जिसमें सतह पर रेखांकन पश्चात रंगों को फैला देते थे इसमें कैनवास पर ऑयल की अधिक मात्रा मिलाकर कहीं-कहीं फोन से अनावश्यक रंग निकालकर रंगों को मद्धिमता प्रदान करते थे। जिससे वे सुरम्य बन जाते थे फिर दृश्य चित्र में स्थापत्य को स्थापित कर महत्त्वपूर्ण बनाते थे। आपके चित्रों में भी मालवा का रूप अपनी अलग धुन लेकर प्रतिबिम्बित होता है। आकाश को छूते विशाल पर्वत-शृंखला, उस पर मानव की जिद के प्रमाण स्थापत्य रूप आकाश से बातें करते गुम्बद, मीनारें प्रेक्षक के सामने एक तन्द्रामय, रूमानी माहौल पैदा करती है जिसमें दर्शक प्रफुल्लित हो उठता है। वृक्ष, पहाड़ और अट्टालिकाएँ हैं। यहाँ वृक्ष, बकरियाँ मनुष्य हैं। मनुष्य के द्वारा फैलाया अनर्गल प्रलाप, प्रदूषण तथा दूषित पर्यावरण इनके चित्रों में नहीं दिखता। अतः उनके चित्रों में पर्यावरण का उल्लासित स्वरूप दर्शक के सामने दिखाई देता है। अतः चित्रकार के रूप में पर्यावरण को संरक्षित किया है।

अतः कहा जा सकता है कि श्री श्रेणिक जैन ने अपने चित्रों द्वारा कला और पर्यावरण दोनों को ही संरक्षित किया है।

मालवा क्षेत्र में उज्जयिनी कला के लिये प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। इसे पहले ‘अवन्ति’ नाम से जाना जाता था और वर्तमान में उज्जैन नाम से प्रसिद्ध है जो पूर्व में मालवा की राजधानी रही है। यहाँ का इतिहास कलात्मक, साहित्य और धार्मिक दृष्टि से ऊँचाई के सर्वोच्च शिखर पर है। विक्रमादित्य के शासन में अनेक विद्वान, चित्रकार, मूर्तिकार, शिल्पकार मौजूद थे। कालिदास का महत्व अतुलनीय है। इन्होंने चित्रात्मक साहित्य की रचना की। इनका साहित्य दृश्य चित्रण से भरपूर है। यही कारण है कि श्री वाकणकर के प्रयासों से कालिदास समारोह में उनके महाकाव्यों पर आधारित चित्र प्रदर्शनी की जाती है, जिसमें पारम्परिक विधियों पर आधारित चित्र और मूर्तिकला प्रदर्शित कर श्रेष्ठ कृति को पुरस्कृत किया जाता है।

उज्जैन की कला जागृति में श्री वाकणकर जी का अमूल्य योगदान है। आपने श्री डी.जे. जोशी से कला की शिक्षा प्राप्त की जो मूर्धन्य दृश्य चित्रकार थे। दृश्य चित्रकार चन्द्रेश सक्सेना और माधवगिरी आपके मित्र थे। सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई से डिप्लोमा किया और वापस उज्जैन आ गये। यहाँ आकर कला स्कूल खोलने का विचार आया। अतः आपने श्री जगमोहन आर्टिस्ट, मास्टर मदनलाल जी एवं कोरान्ने साहब से सम्पर्क किया। सन 1953 में ‘भारतीय कला भवन’ प्रारम्भ किया। अकादमिक अध्ययन इसी स्कूल से प्रारम्भ हुआ। श्री सचिदा नागदेव और जाटवा इस स्कूल के विद्यार्थी रहे हैं। इस प्रकार उज्जैन में कला पर्यावरण विकसित हुआ। मुजफ्फर, कुरैशी, रहीम गुट्टीवाला, मोहनलाल, झाला, श्री नगजीराम, डॉ. रामचन्द्र भावसार, शिवकुमारी रावत (जोशी) और अनेक विद्यार्थी जुड़ते गये।

श्री वाकणकर जी ने अध्ययन और अध्यापन के दौरान अकादमिक पाठ्यक्रमानुसार दृश्य चित्रण सहित अन्य विषयों का भी अध्ययन किया, लेकिन आपकी रुचि पुरातत्वीय होने से आप अपने शिष्यों और साथियों के साथ प्राकृतिक स्थानों पर भ्रमण के लिये अक्सर जाते थे। इस प्रकार आपका महत्त्वपूर्ण कार्य प्राकृतिक गुफाएँ खोजने का रहा और पर्यावरण के नजदीक आये। आपके साथ आपके शिष्य और साथी भी होते थे। सचिदा नागदेव आपके प्रिय शिष्यों में से थे और आपने श्री वाकणकर के साथ रह कर प्रागैतिहासिक चित्रों के स्केचेज तैयार किये। वाकणकर जी ने कला पर्यावरण को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

उज्जैन की कला के विकास में एम.एस. भाण्ड एवं मास्टर मदनलाल जी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिन्होंने कलाकार तैयार किये। मदनलाल की स्मृति में ‘निलय स्कूल’ स्थापित किया। चित्रकला में शिक्षित होकर डॉ. रामचन्द्र भावसार, डॉ. श्रीकृष्ण जोशी एवं डॉ. शिवकुमारी जोशी जैसे दृश्य चित्रकार उज्जैन में सृजन कार्य हेतु क्रियाशील रहे। उज्जैन में श्री चिन्तामण खांडिलकर ने माधव महाविद्यालय में चित्रकला विषय प्रारम्भ करवाया। जिससे उज्जैन में बी.ए. और एम.ए. कक्षाओं में चित्रकला विषय का अध्यापन कार्य आरम्भ हुआ।उज्जैन कला और साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। इसका कारण यहाँ की धार्मिक और सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का होना है। यहाँ क्षिप्रा नदी का प्रवाह और तटों पर निर्मित मन्दिर, मठों तथा मालवा के आकर्षक रंगों के परिधान पहने जनमानस ने दृश्य चित्रकारों को चित्रण के लिये प्रेरित किया।

डॉ. रामचन्द्र भावसारडॉ. रामचन्द्र भावसारडॉ. रामचन्द्र भावसार चित्रकला की सभी विधाओं के ज्ञाता हैं। दृश्य चित्रण और व्यक्ति चित्रण दोनों में समानाधिकार है। आप दृश्य चित्रकार के रूप में जाने जाते हैं। आप बहुआयामी कला के धनी होने के कारण समाज के बाह्य पर्यावरण को सुसज्जित करते रहे हैं। आप एक अच्छे मूर्तिकार हैं। अतः आपके द्वारा सृजित मूर्तिकला ने उज्जैन और अन्य प्रमुख स्थानों को सुशोभित किया है।

जिससे सुरम्य वातावरण निर्मित हुआ है। आप एक अच्छे कलाकार (चित्रकार और मूर्तिकार), एक योग्य कला शिक्षक, निदेशक के रूप में रहे हैं।

कला शिक्षक के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। पुस्तकों के प्रति रुचि और कलात्मक प्रयोगों ने शिष्यों को आकर्षित किया। सेन्ट्रल स्कूल, इन्दौर में शिक्षक के पद पर आपकी नियुक्ति हुई। वहाँ आप अधिक समय तक नहीं रह सके, क्योंकि इसी समय मध्य प्रदेश शासन के माध्यमिक शिक्षा मंडल ने आदर्श विद्यालय (Model School) प्रारम्भ किया। उज्जैन के श्री लालगे साहब को चित्रकला विषय के अध्यापक की नियुक्ति के अधिकार दिये। अतः आपको योग्य मानकर मॉडल स्कूल के शिक्षक के रूप में नियुक्त किया। यहाँ भोपाल के सुरम्य वातावरण को चित्रित किया। विद्यार्थियों को चित्रकला की शिक्षा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1970 में माधव कॉलेज में व्याख्याता के पद पर आये। तब से सेवानिवृत्ति तक इसी महाविद्यालय में अध्यापन का कार्य किया और शिष्यों की लम्बी शृंखला तैयार की। आपने शिष्यों को पारदर्शी-अपारदर्शी दोनों माध्यमों में अभ्यस्त कराया। आपको कला शिक्षक के रूप में ऑल इण्डिया समर स्कूल टीचर के रूप में बुलाया। म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन, उज्जैन द्वारा 2002 में ‘Best Teacher’ के रूप में और मधुवन संस्था द्वारा 1990 में श्रेष्ठ कलाचार्य के रूप में सम्मानित किये गये।

आपने एक सफल दृश्य चित्रकार के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आपने सिर्फ मालवा ही नहीं बल्कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक दृश्य चित्रों की मनोरम झांकी प्रस्तुत की। आप दृश्य चित्रों के सिद्धहस्त कलाकार हैं। इसके लिये आपको स्केच करने की आवश्यकता नहीं होती, सीधे रंगों से चित्र निर्माण करते हैं। मात्र 20 या 30 मिनट में एक मनोरम दृश्य चित्र तैयार हो जाता है। आपके दृश्य चित्रों में उज्जैन कुम्भ स्नान के दृश्य, मन्दिरों के दृश्य, घाट, कश्मीर की सुरम्य पहाड़ियाँ, नेपाल के दृश्य चित्र ग्रामीण दृश्य आदि मिलते हैं। आपके मूर्तिकार होने से समाज को एक यह फायदा भी हुआ कि आपने शहर के सौन्दर्यीकरण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्रांगण में 9 फीट की ऊँचाई वाली विक्रमादित्य की प्रतिमा शोभायमान है। डॉ. विश्वेश्वर की पी.डब्ल्यू.डी. उज्जैन माधव कॉलेज में 9 फीट ऊँची विवेकानन्द प्रतिमा, महात्मा गाँधी की प्रतिमा भोपाल में, पुलिस मेस में सरस्वती प्रतिमा तथा 13 फीट ऊँची आदिवासी प्रतिमा दजला देवरा बाँध पर अवस्थित है जो बाह्य परिवेश को कलात्मक बना रही है। इसके अलावा पर्यावरण को सौन्दर्यपूर्ण बनाने का सन्देश देते हुए आपके चित्र अनेकों प्रमुख स्थानों पर लगे हुए हैं। बी.एस.एफ. दिल्ली, बिरला ग्राम नागदा, महाकौशल कला परिषद रायपुर, पुलिस हेडक्वार्टर भोपाल, भारत भवन, भोपाल, ललित कला अकादमी नई दिल्ली, यूनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, जयपुर में चित्र संग्रहित है।

आपने एक दृश्य चित्रकार के रूप में वर्तमान पीढ़ी को प्राकृतिक सौन्दर्य की महत्ता से अवगत कराया। आज भी वे कई महाविद्यालयों में की जाने वाली कार्यशालाओं में डिमॉन्स्ट्रेशन देते आ रहे हैं। साथ ही कई आर्टिस्ट कैम्प में हिस्सा लेकर अमूल्य कृतियों को प्रदान किया। आपने दर्शक को चित्रों के माध्यम से प्रकृति से रूबरू करवाया।

उज्जैन के कला परिदृश्य में दृश्य चित्रण के क्षेत्र में डॉ. शिवकुमारी जोशी एवं डॉ. श्री कृष्ण जोशी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। डॉ. शिवकुमारी जोशी एक उत्साही महिला कलाकार के रूप में जानी जाती हैं। आपने एक कला विद्यार्थी के रूप में वाकणकर जी से चित्रकला, श्री यावलकर जी और श्री फड़के साहब से मूर्तिकला का प्रशिक्षण प्राप्त किया। वाकणकर जी अपने विद्यार्थियों को अजन्ता, बाघ जैसे कला मंडपों में ले जाते थे। उस समय आप भी साथ होती थीं। दृश्य चित्रकार के रूप में आपने इन्दौर, ओमकारेश्वर, महेश्वर तथा धार आदि स्थानों पर जाकर वहाँ के दृश्यों का चित्रण किया। वे दृश्य चित्रण के लिये नेपाल, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, जमनोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार, मसूरी, शिमला, चंडीगढ़, बनारस, देहरादून, आगरा, कोटा, बूँदी, जयपुर, जोधपुर, पुदुच्चेरी, महाबलीपुरम, कान्हेरी, माण्डव तथा कन्याकुमारी आदि स्थानों पर गई। यहाँ के मनोरम दृश्यों का सृजन किया और दृश्य कलाकार के रूप में प्रदर्शनी लगाई।

स्वतंत्र चित्रकार होने के साथ ही आपका महत्त्वपू्र्ण योगदान एक शिक्षक और प्राध्यापक के रूप में रहा। आप बी.एड. कर चुकी थीं और हायर सेकण्डरी की व्याख्याता के रूप में सेवा की। इसके पश्चात अलीगढ़ से एम.ए. किया और स्नातकोत्तर कॉलेज में व्याख्याता के पद पर कार्य किया। इसके पश्चात उज्जैन के माधव कॉलेज में व्याख्याता पद को सुशोभित किया। इस समय विद्यार्थियों को चित्रकला के लिये जागृत किया और कालिदास प्रदर्शनी के लिये चित्र बनाने के लिये प्रेरित किया। इस प्रकार प्रयोगात्मक और सैद्धान्तिक का समन्वयात्मक रूप दिखाई दिया। आपने तीन छात्रों को शोध-प्रबन्ध के लिये भी निर्देशित किया। वे अस्वस्थ होने पर भी कला कार्य में सक्रिय हैं।

डॉ. श्री कृष्ण जोशी दृश्य चित्रण के क्षेत्र में विशेष सक्रिय रहे हैं। आपके दृश्य चित्र पारदर्शी जल रंग में विशेष महत्व रखते हैं। मध्य प्रदेश और अन्य स्थानों के दृश्य चित्र सृजन कर आपने सौन्दर्यपूर्ण कलात्मकता के कला रसिकों को परिचित कराया। आपके लिये एक वृक्ष भी महत्त्वपूर्ण होता था उसे छाया प्रकाश के सुन्दर समन्वय और आकर्षक रंग योजना से दृश्य चित्र में परिवर्तित कर देते हैं। आपको पर्यावरण से बहुत लगाव था। आपने प्रकृति के सुन्दरतम रूप से चित्रों के माध्यम से अवगत कराया। इसके लिये आपने अनेकों यात्राएँ की। आपने छोटे आकार (¼ साइज) में स्थल चित्रण करना पसन्द किया। आप एक अच्छे कला शिक्षक रहे हैं। प्रारम्भ में स्कूल के विद्यार्थियों को शिक्षित किया और 09 नवम्बर, 1981 से 2005 तक माधव महाविद्यालय, उज्जैन में व्याख्याता पद पर रहकर सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। आप सेवानिवृत्त होने के पश्चात भी विद्यार्थियों को कला की शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। आपने अनेकों कला प्रदर्शनियाँ आयोजित की हैं। विक्रम विश्वविद्यालय में चित्रकला विषय में पीएच.डी. जमा करने वाले प्रथम छात्र रहे हैं। वर्तमान में भी आप अपने निवास पर विद्यार्थियों को कला की शिक्षा प्रदान करते हुए सक्रिय हैं।

आधुनिकता से ओत-प्रोत परिवेश में जहाँ अमूर्तकला कला पर्यावरण में अपना वर्चस्व बनाये हुए है वहीं श्री भैरोलाल सिंह रोड़िया और श्री लक्ष्मण सिंह रोड़िया दृश्य चित्रण कर रहे हैं और साथ ही दृश्य कला में रुचि लेने वाले विद्यार्थियों को तैयार कर रहे हैं। दृश्य चित्रकारों का उद्देश्य ही यह है कि अनन्त प्रकृति में से सौन्दर्य पूर्ण अंशों का चित्रण कर स्वयं और दर्शक आनन्दित हों।

दृश्य कला का प्रभाव सिर्फ महानगरों में ही नहीं, बल्कि शुजालपुर जैसी साधारण जगह पर भी हुआ। शुजालपुर के सत्यव्रत विनयेन्द्र सिंह देशमुख एक ऐसे कलाकार हैं। जिन्हें कला से अतीव प्रेम था। वे कर्म किये जाने में विश्वास रखते थे, उन्हें किसी प्रकार के सम्मान प्राप्त करने में रुचि नहीं थी। कला के प्रति चेतना बचपन से ही थी। आपका सम्बन्ध बड़ौदा से होने के कारण राजा रवि वर्मा के चित्रों से प्रेरणा पाई। उनके चित्रों की अनुकृति की शिक्षा के लिये शान्ति निकेतन गये। वहाँ की वाश-शैली से पारंगत होकर चित्रण कार्य करते रहे। आपके चित्रों में प्रभावपद दिखाई देता है। चित्रण में परिप्रेक्ष्य में पूरा ध्यान रखा गया है। स्वतंत्र रूप से आपने दृश्य चित्रण किया। आप जिज्ञासु और अध्ययनशील कलाकार थे अतः आपके ग्रन्थालय में कलात्मक पुस्तकें विद्यमान थीं। आपने अनेक कला मन्दिरों के भ्रमण किये। नन्दलाल बसु, अवनीन्द्र नाथ तथा रामकृष्ण आदि से मिले। अतः श्री सत्यव्रत देशमुख जी स्वछन्द रूप से चित्रण करते रहे। सक्रिय कलाकार रह कर कला पर्यावरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मध्य प्रदेश देवास जिला भी कलात्मक गतिविधियों से सम्पन्न रहा है। यहाँ अफजल पठान, प्रभु जोशी जैसे प्रमुख दृश्य चित्रकारों ने कला जगत में अपना स्थान बनाया। अफजल पठान ने देवास में रहते हुए अपने काम को न केवल राष्ट्रीय स्तर की ऊँचाई दी, बल्कि पूरी कला जगत को एक नई दिशा और नई ऊर्जा देने का काम किया है। इस कार्य में परिपक्वता एवं प्रवाह तब आई जब आपने कला शिक्षक के रूप में सेवाएँ दीं। मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग से चयनित होकर शासकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय, इन्दौर में व्याख्याता पद पर आये। यहाँ पर आपने अजन्ता के चित्रों से महाविद्यालय की दीवारों को सुशोभित किया। इसके पश्चात आपका स्थानान्तरण देवास के शासकीय के.पी. कॉलेज में हुआ। यहाँ पर आपको यहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य से सरोकार हुआ और आपने अनेकों दृश्य चित्र बनाये। दृश्य चित्रकार के रूप में आप अधिक संवेदनशील रहे हैं। आपने देवास के अधिकांशतः स्थलों को चित्रांकित किया। दृश्य चित्रों में भी मालवा के रंगों और रंगतों को अभिव्यक्त किया। पर्यावरण के सभी तत्व इनके चित्रों में दिखाई दते हैं। नदियों सरोवर का जल, आकाश का विस्तार, मालवा भूमि का ग्रन्थ और वनस्पतियों की हरितिमा स्वच्छ परिवेश दर्शाती है। उनके दृश्य चित्रण में ग्राम्य जीवन की छवियाँ दिखाई देती हैं। वह देवास को ही अपना सब कुछ मानते थे। श्री अफजल के दृश्य चित्र पर्यावरण संरक्षण का सन्देश प्रसारित करते हैं।

विष्णु चिंचालकर आरम्भिक दिनों में देवास में ही रहते थे, बाद में वे इन्दौर आये। श्री रतनलाल शर्मा भी दृश्य चित्रण के लिये जाने जाते थे। अफजल ने भी इन्हें अपना गुरू माना है। विष्णु चिंचालकर के शिष्य श्री मधुकर शिन्दे लगातार दृश्य चित्रण में विस्तार दे रहे हैं। इस प्रकार देवास की दृश्य चित्रण कला में देवास के चित्रकारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। देवास के चित्रकार श्री प्रभु जोशी ने प्रकृति को निजी दृष्टि से निहारा और विशिष्ट शैली में चित्रण किया। आप एक अच्छे समीक्षक के रूप में भी जाने गये हैं। आपने जल रंग स्याही और मिश्रित रंगों में दृश्य चित्र बनाये हैं। रंगों के बहाव और बीच में Bubbles का होना आपकी निजी शैली प्रकट करता है। आपके चित्र में अवकाश का भी उतना ही महत्व है जितना रूपाकारों का। चित्रों के माध्यम से पर्यावरणीय समस्त तत्वों को लिया है।

जबलपुर के दृश्य चित्रकारों में श्री राममनोहर सिन्हा और श्री अमृतलाल वेगड़ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। श्री राममोहर सिन्हा जी ने चीन और भारत की समन्वयवादी शैली अपनाई, जबकि श्री अमृतलाल वेगड़ ने प्रारम्भिक चित्र वाश शैली में बनाये और बाद में ‘कोलाज’ जैसे विशिष्ट माध्यम को अपनाया और दृश्य चित्रण किया। आप दोनों ही नर्मदा प्रेमी रहे हैं। नर्मदा के सौन्दर्यात्मक रूपों को अभिव्यक्त किया है।

श्री अमृतलाल वेगड़ साधारण से दिखने वाले लेकिन असाधारण कार्यों को करने वाले व्यक्ति हैं। जिन्होंने मध्य प्रदेश के कला समाज और साहित्यिक गतिविधियों को प्रभावित ही नहीं किया, बल्कि पर्यावरण के प्रति चिन्तन के लिये अग्रसर किया। आप एक अच्छे चित्रकार और साहित्यकार हैं। दोनों ही स्थितियों में आपका एक ही उद्देश्य रहा है, नर्मदा सौन्दर्य इसकी पूर्ति के लिये आपने नर्मदा परिक्रमा की। नर्मदा के अनेक रूपों के दर्शन किये। जिसमें सौन्दर्य भी था और विरूपण भी। नर्मदा के प्रवाह के साथ चलते-चलते कभी आनन्दित हुए और कभी उसके दूषित किये गये जल को देख आँसू भी बहाये। इस परकम्मा का उद्देश्य सांस्कृतिक रहा है। पर्यावरणीय संरक्षकों के प्रति चिन्तनशील कलाकार ने अपने रेखांकनों और कोलाज में नर्मदा सौन्दर्य को तो दर्शाया ही है। साथ ही उसके किनारे बसे जन-मानस की स्थितियों को भी अनेक रूपों में दिखाने का प्रयास किया है। अपने पारिवारिक जीवन से संघर्ष करते जनमानस, जिसमें दो जून की रोटी के लिये नर्मदा तट पर नाई, तिलक लगाते साधू, चूड़ी बेचने वाले नाविक आदि की छोटे-छोटे व्यवसायों में लगे लोगों को दर्शाया है। आपने चित्रकार और साहित्यकार दोनों ही रूपों को बराबरी का स्थान दिया।

एक ओर नर्मदा यात्रा के रेखांकन और कोलाज बनाये, वहीं दूसरी ओर सौन्दर्य की नदी नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा तथा अमृतस्य नर्मदा आदि पुस्तकों का सृजन भी किया इनमें यात्रा वृतान्त का वर्णन है। जहाँ लेखनी मूक हो जाती है वहाँ चित्रों का सृजन होता है। उनका मानना है कि नर्मदा परिक्रमा से ही उनके चित्रों और लेखों को आकार मिला, इस दौरान ही प्रकृति से धार्मिक प्रेम हुआ। इस परकम्मा को उन्होंने अकेले ही आस्वादन नहीं किया, बल्कि उनके साथ उनकी पत्नी कान्ताबेन, विद्यार्थी और कभी-कभी अनेकों कार्य किये हैं। कभी चित्रों के माध्यम से सन्देश देकर, कभी साहित्य रचना कर तो कभी सकर्म भी। जैसे तीरे-तीरे नर्मदा नामक पुस्तक के पृष्ठ भाग में लिखा ही नहीं बल्कि भविष्य की आकांक्षा व्यक्त की है-

“अगर सौ या दो सौ साल बाद किसी को एक दम्पत्ति नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे, पति के हाथ में झाड़ू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी खुरपी, पति घाटों की सफाई करता हो और पत्नी कचरे को ले-जाकर दूर फेंकती हो और दोनों वृक्षारोपण भी करते हों तो समझ लीजिए कि वे हम ही हैं- कान्ता और मैं।”यह वक्तव्य पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाये जाने के लिये प्रेरित करता है, जिस प्रकार उन्होंने प्रदूषण रहित वातावरण बनाने के लिये रास्ते में आई झाड़ी-झंकाड़ी को साफ कर पौधा रोपण किया, कचरे को साफ किया उसी प्रकार जन-मानस को भी नर्मदा के जल और आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए।

इस प्रकार वे एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी पहचाने जाते हैं। आप पर्यावरणीय संगठन से भी सम्बद्ध रहे हैं। समाचार पत्रों में आपकी सक्रियता के प्रमाण मिलते हैं। आपके द्वारा सृजित लेख और पुस्तक के मुख-पृष्ठ प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें समकालीन कला, समावर्तन, दैनिक भास्कर आदि प्रमुख हैं।

प्रतिभा इण्डिया दिल्ली के जर्नल्स Archaic river and the old Traveller में भी प्रकाशित हुआ। आपके द्वारा बनाये गये रेखांकनों का प्रकाशन आदिवासी और लोक कला परिषद, भोपाल द्वारा Sketch from the river Narmada में हुआ है। आपके द्वारा सृजित कोलाज और रेखांकन अनेकों पत्र पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके हैं।

एक चित्रकार के रूप में नाश माध्यम में दृश्य चित्र बनाये साथ ही कोलाज विधा में भी दृश्य चित्रण किया, जो आपको अन्य सभी कलाकारों से अलग पहचान दिलाता है। कोलाज में वाश पद्धति, ओपेक, लिनोकट और तेल रंग के चित्रों को आभास दिखाने में महारत हासिल है। चित्रकार कोलाजिस्ट और लेखक के रूप में मध्य प्रदेश के लिये एक महत्त्वपूर्ण योगदान है, जिसके लिये आपको शिखर सम्मान, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, गुजराती साहित्य पुरस्कार दिल्ली, वीरेन्द्र तिवारी स्मृति, शंकरदयाल ‘सृजन सम्मान’ भोपाल, महापण्डित राहुल सांत्कृत्यायन और विद्या और निवास मिश्र स्मृति सम्मान से नवाजा गया है।

अतः आप मध्य प्रदेश के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक हैं, जिन्होंने कला और पर्यावरण के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आज भी आप सृजन कार्य में निरन्तर लगे हुए हैं।

मध्य प्रदेश जबलपुर में चित्रकारी के क्षेत्र में एक और परिचित नाम है, वह है श्री राम मनोहर सिन्हा, वह भी नर्मदा प्रेमी। नर्मदा का सुन्दर वातावरण उन्हें बहुत भाता था।

राम मनोहर सिन्हाराम मनोहर सिन्हाश्री राम मनोहर सिन्हा मध्य प्रदेश के मूर्धन्य कलाकारों में से है, जिन्होंने कलात्मक पर्यावरण को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आपने एक अन्तरराष्ट्रीय चित्रकार, निपुण कला शिक्षक, प्राचार्य के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

आपने शान्ति निकेतन में अध्ययन किया उसके पश्चात 1957 में भारत सरकार की छात्रवृत्ति पर बीजिंग में चीनी चित्रण का अध्ययन किया। अतः इनकी चित्रकला पर चीनी पद्धति का प्रभाव दर्शित है। आपने भारतीय दृश्यों को चीनी पद्धति (वाश-टेक्नीक) से बनाया है। इस साधना साध्य कला का अभ्यास किया। चीन से वापस आने के पश्चात शान्ति निकेतन में शिक्षक के रूप में दस वर्ष तक कार्य किया। 1962 में वे शासकीय कला महाविद्यालय, जबलपुर में प्राचार्य पद पर पदस्थ हुए। आप 1975 में इन्दिरा कला संगीत महाविद्यालय के कला संकाय के डीन (अधिष्ठाता) रहे। आपके निर्देशन में अनेक छात्रों ने शोध कार्य कर विद्यावाचस्पति की उपाधि प्राप्त की। 1986 में शासकीय ललित कला संस्थान, जबलपुर के संस्थापक सदस्य रहकर निदेशक के पद पर कार्य किया। आपके महत्त्वपूर्ण कार्यों में भारत के संविधान की हस्तलिखित मूल प्रति को अलंकृत करने में सहयोग प्रदान करना है। संविधान की इस प्रति के प्रत्येक पृष्ठ को हाथों से अलंकृत किया है। कलात्मक परिवेश को संवारने के लिये शहीद स्मारक जबलपुर की चित्र सज्जा का कार्य किया। यहाँ दो mural बनाये- रानी दुर्गावती की शस्त्र पूजा और 1942 की अगस्त क्रान्ति।

आपकी अपनी निजी शैली कला जगत में तभी स्थान बना पाई जब आपने चीनी और भारतीय शैली की मिली-जुली समन्वयात्मक शैली अपनाई। इसकी पुष्टि आपके द्वारा बनाये गये दृश्य चित्रों से होती है। दृश्य चित्रों में भेड़ाघाट, नर्मदा जल के अनेकों रूप नर्मदा में खिले कमल, नदी में नाव, हालिहॉक, सफेद कुमुदनी उल्लेखनीय उदाहरण हैं। दृश्य चित्र विशिष्ट पद्धति के कारण ही प्रसिद्ध है, जिसमें केलीग्राफी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। आपने सिर्फ भारत ही नहीं चीन और इंग्लैण्ड में भी चित्र बनाये और अनेकों प्रदर्शनियाँ की। आपने अन्तरराष्ट्रीय कला जगत में स्वयं को स्थापित किया। आपके कार्यों से आपको कलाश्री की उपाधि प्राप्त हुई और मध्य प्रदेश शासन ने शिखर सम्मान से सम्मानित किया। मध्य प्रदेश की धरती ऐसे मूर्धन्य कलाकार को पाकर धन्य हुई।

जबलपुर के एक और चित्रकार श्री हरि भटनागर हैं, जिन्हें उनके कार्यों की वजह से ‘तुलसी सम्मान’ प्राप्त हुआ। आपका प्रारम्भिक जीवन संघर्षमय रहा फिर भी कला के प्रति अगाध प्रेम बना रहा। आपकी घुमक्कड़ प्रवृत्ति ने आपकी कल्पनाशीलता को और अधिक परिपक्व बना दिया। आप सृजनशील कलाकार, योग्य व्याख्याता, सक्षम प्राचार्य एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देकर मध्य प्रदेश को गौरवान्वित कर रहे हैं। एक कला शिक्षक के रूप में पॉलिटेक्निक कॉलेज, जबलपुर से सेवाएँ शुरू की।। पी.एस.सी. करने के पश्चात आपको जबलपुर और बाद में ग्वालियर का प्राचार्य पद प्राप्त हुआ। शासकीय माधव संगीत महाविद्यालय, ग्वालियर का संयुक्त भार भी सम्भाला। 1989 में कला निकेतन, जबलपुर में प्राचार्य पद सम्भाला। आपकी प्रशासनिक दक्षता के कारण सेवानिवृत्ति के पश्चात 2 वर्ष और बढ़ाये गये।

प्राचार्य पद की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन करने के पश्चात भी आपने अन्तर के कलाकार से समझैता नहीं किया। वह निरन्तर कलात्मक कार्यों में संलग्न रहे। जब भी उन्हें समय मिलता वे ए-4 साइज के टाइपिंग पेपर में स्केचेज बनाते रहते। प्रारम्भिक दौर में यथार्थवादी शैली में दृश्य चित्रांकन किये। ग्वालियर में अमलतास के वृक्षों ने आपको बहुत आकर्षित किया। अतः उसके अनगिनत स्वरूपों को चित्रित किया। ग्रामीण दृश्यों ने विशेष प्रभावित किया। अतः आपके द्वारा सृजित चित्रों में गाँव की झोपड़ियाँ, विभिन्न क्रिया-कलापों में संलग्न मानवाकृतियाँ, पगडंडियाँ तथा विभिन्न प्रकार के वृक्ष सम्मिलित होते थे। आपकी अपनी कला दृष्टि के कारण चित्र का अपना ही विशिष्ट संयोजन होता था। 1970 में आपके चित्रों के स्वरूप में परिवर्तन दिखाई देता है अब आपने कैनवस के साथ ही एल्युमिनियम फॉइल का प्रयोग किया। इस प्रकार एम्बोस शैली में चित्र बनाये। वह मात्र रिलीफ नहीं है क्योंकि इसमें मनमोहन रंग भी आवश्यकतानुसार उभारे गये हैं, इसलिये श्री हरि भटनागर का मानना है कि ये चित्र हैं। चित्रों को वे विभिन्न विभक्तियों से संयोजित करते हैं। आज के प्रयोगधर्मी युग में यह विशिष्ट शैली ही आपकी पहचान है। आपने अपने सृजन की अनेकों एकल और सामूहिक प्रदर्शनियाँ की। राष्ट्रीय कैम्पों में हिस्सेदारी की। आपकी विशेषता यह भी है कि आप अच्छे चित्रकार ही नहीं शिक्षक भी हैं, इस नाते से आपने अनेकों शिष्यों को कला का आधारभूत ज्ञान ही नहीं कराया, बल्कि कला जगत में ऊँचाईयों को छूने के लिये भी प्रेरित किया।

आपके अनेकों शिष्य शासकीय सेवा के अच्छे पदों पर पदस्थ हैं। आपने अनेक सेमीनारों में हिस्सा लिया। आकाशवाणी से वार्ताएँ प्रसारित हुईं, अनेक कला पत्रिकाओं में चित्र एवं रेखांकन प्रकाशित हुए। कई स्थलों पर आपने डिमॉन्स्ट्रेशन दिये। आपकी कला परख के कारण कई समितियों में जूरी मेम्बर रह चुके हैं। आप कलात्मक ही नहीं सामाजिक पर्यावरण को सुधारने का भी प्रयास कर रहे हैं। चित्रों से सामाजिक पर्यावरण को सौन्दर्यपूर्ण बना रहे हैं, तो सम्बन्धों को सौन्दर्यपूर्ण बनाने के लिये एनजीओज चला रहे हैं। आपकी इन्ही विशेषताओं के आधार पर आपके व्यक्तिगत और कृतित्व पर लघु शोध और पी.एच.डी. कार्य किये जा चुके हैं।

अतः आपने मध्य प्रदेश के कलात्मक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है और नई पीढ़ी को तैयार करने के लिये भरसक प्रयास किया है। आज भी कलात्मक गतिविधियों में निरन्तर संलग्न हैं।

इनके अलावा श्री भगवानदास गुप्ता और श्री कामता सागर भी कलात्मक पर्यावरण को संजोने व संवारने में प्रयासरत हैं। श्री भगवान दास गुप्ता श्री राम मनोहर सिन्हा जी से प्रभावित हुए। अतः आपने प्राकृतिक दृश्यों को चित्रों में स्थान दिया। आपका आत्मीय व्यवहार योग्य शिक्षक की श्रेणी में खड़ा करता है। आपने अपने चित्रों में बाटिक चित्रों को महत्व दिया। आपके बहुत से चित्रों को प्रदर्शनी में पुरस्कृत किया जा चुका है। आपकी सृजन शीलता को अनेक स्थानों पर सम्मानित किया गया है जिसमें रोटरी क्लब, जबलपुर ऑल इण्डिया आर्ट एंड क्राफ्ट सोसायटी दिल्ली, संस्कार भारतीय, लखनऊ और स्वराज भवन, भोपाल आदि प्रमुख हैं।

जबलपुर का परिदृश्य सौन्दर्यपूर्ण है क्योंकि वहाँ नर्मदा का प्रवाह है, जो संगमरमर को भेदता हुआ प्रवाहित होता है। यह प्रवाह ही यहाँ के कलात्मक पर्यावरण को बनाने में अनुकूल है। यहाँ के पर्यावरण से प्रभावित होकर कलाकारों ने कलात्मक कार्यों में वृद्धि की है और राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलवाई है।

इन्दौर, उज्जैन, ग्वालियर, धार और जबलपुर में कला संस्थान होने से कला का माहौल बना रहा। भोपाल में प्रारम्भिक दौर मेें नवाबी शासन था अतः कलात्मक गतिविधियाँ कमतर ही थीं। कला का उपयोग वास्तुकला के अलंकरण के रूप में किया। महिला नवाब सुल्तान जहाँ के समय कला के क्षेत्र में समृद्धि देखने को मिली। इन्होंने तमकीन, मोहम्मद खान, अब्दुल हलीम अंसारी को कला के क्षेत्र में प्रोत्साहित किया। स्वतंत्रता से पूर्व दृश्य चित्रण में तमकीन मोहम्मद खान, अब्दुल हलीम अंसारी के अलावा अय्यूब, मो.जफर, इलियास हारून और सगीरजमा भी इस कार्य में संलग्न थे। अब्दुल हलीम अंसारी, भोपाल के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुम्बई से शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने भोपाल के अधिकांश स्थलों का चित्रण किया। तमकीन मोहम्मद खान ने कुदसिया बेगम के संरक्षण में चित्रकारी का शौक पूरा किया। आपकी शिक्षा इन्दौर के डेली कॉलेज में हुई। मोहम्मद अय्यूब ने अपनी सेवाएँ 1949 में हमीदियार बॉयज हायर सेकेण्डरी स्कूल, भोपाल में एक ड्राइंग टीचर के रूप में दीं। हारून ने अधिकांशतः माइन्ड स्केप ही बनाये हैं। सगीरजमा एक ऐसा नाम है जिन्होंने विपरीत परिस्थिति में भी ब्लैक एंड व्हाइट में चित्र बनाये। अतः नवाब कालीन दृश्य चित्रकारों ने कार्य कर भोपाल के कला पर्यावरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इलियास हारून ने माइन्ड स्केप चित्र बनाकर लोगों को आकर्षित किया। अतः रियासत कालीन कलाकारों ने दृश्य चित्रण करने में उल्लेखनीय कार्य किया है और चित्रण के सिद्धान्तानुसार सटीक बैठते हैं।

1947 में रिसायत विलीन होने के पश्चात यह क्षेत्र मध्य प्रदेश के अन्तर्गत आया। इस परिवर्तन के प्रभाव चित्रकारों पर भी दिखाई देता है। पहले चित्रकार हू-ब-हू आकृतियाँ बनाने में पारंगत थे। अब इसमें तकनीक और रंगों में भी परिवर्तन देखने को मिला। इस तरह आधुनिकता का समावेश हुआ। राजधानी भोपाल में अन्य क्षेत्रों से चित्रकार आकर निवास करने लगे।

वरिष्ठतम चित्रकार स्व. श्री सुशील पाल 1949 में बैरागढ़ रिफ्यूजी कैम्प में आये। आपने शान्ति निकेतन से डिप्लोमा किया। आपके सम्बन्ध प्रमोद रंजन और नन्दलाल बोस से होने से कला की बारीकियों से परिचित हुए। आपने पश्चिमी कला का गहन अध्ययन किया। आपके चित्र भी पश्चिमी शैली से प्रभावित जान पड़ते हैं।

आपने कलात्मक कार्यों से चीफ कमिश्नर श्री विश्वनाथन भगवान दास सहाय, शंकर दयाल शर्मा तथा बैनर्जी साहब को प्रभावित किया। इन्होंने जहाँगीरिया स्कूल, शाहजहाँनाबाद में शिक्षक पद और बेसिक ट्रेनिंग भोपाल में लेक्चरर के पद पर रहकर विद्यार्थियों को कला की शिक्षा दी। सन 1961 में शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय, भोपाल में श्री शंकर दयाल शर्मा द्वारा चित्रकला विभाग का उद्घाटन हुआ तो विभागाध्यक्ष तौर पर महत्त्वपूर्ण पद पर पदासीन हुए। यहाँ पर कला गुरू के रूप में अनेक शिष्यों को तैयार किया। बहुत से शिष्य शासकीय उच्च पदों पर पदासीन रहे। कुछ स्वतंत्र चित्रण कार्य कर रहे हैं। अतः विद्यार्थियों को कलात्मक पहलुओं से अवगत कराना तथा दिशा-निर्देश देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उस समय भोपाल में महारानी लक्ष्मी बाई ही एक ऐसा कॉलेज था जहाँ चित्र कला विषय में स्नातक तथा स्नातकोत्तर की शिक्षा दी जाती थी।

आप एक अच्छे दृश्य चित्रकार रहे हैं आपने भोपाल के अनेकों स्थलों के दृश्य चित्र सृजित किये तथा पचमढ़ी की दृश्य सीरीज चित्रित की। शिमला के दृश्य और हिमालय के विभिन्न स्वरूपों का चित्रण किया है। चित्रों में कोलकाता, नेपाल, भोपाल, पचमढ़ी आदि स्थानों का चित्रण किया। इन चित्रों की प्रदर्शनी भी आयोजित की। इस महत्त्वपूर्ण योगदान के लिये आपको ब्रॉन्ज मेडल, रजत पदक और भी कई पुरस्कार प्राप्त हुए। भोपाल में आधुनिक युग का सूत्रपात आपने ही किया। पश्चिमी शैली में बोल्ड ब्रश स्ट्रोक लगाकर स्वयं भी चित्र बनाये और विद्यार्थियों को भी दृश्य स्थल पर ले जाकर चित्र बनवाये। साथ ही दृश्य चित्रण के नियम जैसे परिप्रेक्ष्य, लयात्मकता, रंगों का संयोजन, आकृति संयोजन आदि से अवगत कराया। कार्य की निरन्तरता कला कार्य के लिये आवश्यक है इससे विद्यार्थी परिचित हुए। आपके द्वारा सृजित चित्र आशुतोष म्यूजियम ऑफ इण्डियन आर्ट, स्टेट आर्ट गैलरी ग्वालियर, शिक्षा मंडल अजमेर, रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन आदि अनेक स्थानों पर संग्रहित हैं।

आपको कलात्मक योगदान के लिये शिखर सम्मान राजा रामदेव पद ब्रॉन्ज मेडल, रजत पत्र, Kamalyar Junge Silver medal आदि प्रशस्तियाँ प्रदान की गई हैं। इस प्रकार आप मध्य प्रदेश के मूर्धन्य कलाकारों में से एक थे, जिन्होंने भोपाल में कला का वातावरण निर्मित किया।

ग्वालियर से भोपाल आये श्री लक्ष्मण भाण्ड का मध्य प्रदेश की कला विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। 1951 में ग्वालियर में कलात्मक कार्यों के लिये ‘कल्चरल सोसायटी’ बनी जो ग्वालियर मेले में चित्रों की प्रदर्शनी लगाती थी, जिसमें श्री रूद्रहंजी, श्री एल.एस. राजपूत, श्री शान्ति भूषण, श्री विमल कुमार और श्री उमेश कुमार के साथ आपका भी महत्त्वपूर्ण योगदान था। आपने भोपाल में कला स्कूल खोलने में बहुत प्रयास किया। सन 1964 में ‘आर्ट स्कूल’ भोपाल की स्थापना की। यह मुकुन्द सखाराम भाण्ड की स्मृति में बनाई गई। इसमें 60 विद्यार्थियों ने शिक्षण प्राप्त किया, जिनमें डॉ. मंजूषा गांगुली, डॉ, सुषमा श्रीवास्तव, श्री विनय सप्रे एवं श्रीमती शोभा घारे प्रमुख हैं।

एक चित्रकार के रूप में श्री लक्ष्मण भाण्ड ने राग-रागनियों पर आधारित चित्र बनाये, जिसमें रागों के अनुरूप दृश्य चित्र होते थे और उसी के अनुरूप रंग संयोजन भी। रागानुसार ही रंगों का मनमोहक प्रयोग हुआ है। रंग बहाकर उसमें ही विभिन्न आकृतियों को बनाना कला पद्धति में शामिल है। आपके चित्रों में धनात्मक शैली दिखाई देती है। आपने कला चिन्तक, इतिहासकार, कवि, साहित्यकार, कार्टूनिष्ट और पत्रकारिता में भी अपना योगदान दिया। आपने पर्यावरण विभाग में जन सम्पर्क अधिकारी के पद पर रहकर ‘बाघ की आत्म की कथा’ और ‘तितलियाँ’ सचित्र पुस्तकें छपवाई। शरद जोशी द्वारा निकली पत्रिका ‘नव लेखन’ का कलापक्ष भी आपने ही लिखा। ‘ग्वालियर कलम’ आपकी उल्लेखनीय पुस्तकों में से एक है।

इस प्रकार आपने अपने कार्यों से कलात्मक विकास और पर्यावरण संरक्षण की ओर प्रयास कर जनमानस को अवगत कराया। भोपाल में श्री डी.डी. धीमान का कला पर्यावरण बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कला गुरू प्रो. चन्द्रेश सक्सेना जो कि दृश्य चित्रकार के रूप में जाने जाते हैं, आपके कलागुरू रहे हैं। अतः आपकी कला पर श्री चन्द्रेश सक्सेना और श्री डी.जे. जोशी जी का प्रभाव था। पर्यावरणीय तत्वों का प्रभाव भी आपके चित्रों पर पड़ा ही है। आपके चित्रों में आकार और रंगों की व्याप्तता यह सिद्ध करती है कि पृथ्वी के चारों ओर सूर्य भ्रमण करता है तो वह वस्तु समूह के रंगों को प्रभावित करता है यदि वातावरण में वायु न होती तो रंगों का संवाद न होता जैसे चित्र में लाल, नारंगी और पीले रंग उष्णता (अग्नि या उष्मा) का आभास कराते हैं वहीं हरे-नीले रंग शीतलता का प्रतीक हैं।

भूमि का रंग भी पर्यावरण से प्रभावित दिखाई देता है। जल के पास या बारिश के दिनों में भूमि हरीतिमा युक्त होती है। वहीं गर्मी में धूसर रंगत की। अतः कहा जा सकता है कि आपके चित्रों में पर्यावरणीय तत्वों का समावेश है। आपने पर्यावरण संरक्षण के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। चित्र ही नहीं वास्तविक रूप से भी। चित्र और मूर्त रूप में एक सामंजस्य की स्थिति दिखाई देती है। वृक्ष आपके मित्र हैं, आपका मानना है कि वृक्ष निःस्वार्थ मित्र हैं, वह सबको देते ही हैं। बचपन से वृक्ष लगाने की प्रवृत्ति आपमें है। बचपन में आपने आम, जामुन अन्य फल और पुष्पों के वृक्षों का चित्र बनाया और बड़े होने पर निवास करते हुए आस-पास उन्हीं वृक्षों को रोपित भी किया जो बड़े होकर फल-फूल रहे हैं। इससे अनेक प्रकार के पक्षी यहाँ आकर चहचहाते हैं, कोयल की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। जहाँ चारों ओर सीमेंट के जंगल पनप रहे हैं वहीं आपकी विचारधारा वातावरण को हरियाली से परिपूर्ण बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे प्राण वायु शुद्ध हो सके। वहीं प्राण का संचार आप अपने दृश्य चित्रों में करते हैं।

आपके चित्रों में प्राकृतिक रंगों के संयोजन में सामंजस्य स्पष्टता और प्रवाह दर्शित है। आप जब इन्दौर के ललित कला संस्थान में पढ़ते थे तो वहाँ के आस-पास के परिवेश, वास्तु कलाओं को स्थान देते थे। किसी भी दृश्य चित्रकार को Outdoor Study बहुत आवश्यक है, जब आपने महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय, भोपाल में चित्रकला विषय के प्राध्यापक पद पर सेवाएँ दी उस समय आप विद्यार्थियों को चित्रण हेतु कॉलेज से बाहर ले जाते थे और विद्यार्थियों से चित्रण करवाते थे। इस प्रकार दृश्य चित्रण में विद्यार्थी लगातार मेहनत कर अभ्यस्त होकर पर्यावरण को सौन्दर्यपूर्ण बनाते हैं।

आपका एक महत्त्वपूर्ण योगदान बच्चों की पुस्तकों को अलंकृत बनाना है। आपने पाठ्य पुस्तक निगम की पुस्तकों में इलस्ट्रेशन बनाये। आपके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी अनेकों शासकीय सम्मानित जगहों पर हैं। आप केन्द्रीय बोर्ड चयन कमेटी, अनेकों विश्वविद्यालयीन अध्ययन बोर्ड कमेटी के सदस्य रहे हैं। अतः मध्य प्रदेश में भोपाल के कला विकास एवं पर्यावरणीय विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अतः आपको ‘नगर सम्मान’ और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

भोपाल के अलाउद्दीन खाँ कला परिषद, भारत भवन बनने में कलात्मक जीवन में जागृति आई। उज्जैन, ग्वालियर से कुछ चित्रकार भोपाल आये और यहीं बस गये। यहीं रहकर चित्रकारी का कार्य किया, जिनमें जी.एल. चौरागड़े, श्री एल.एन. भावसार तथा सचिदा नागदेव आदि भोपाल भूमि पर आये।

श्री प्रभाकर घारे, श्री विनय सप्रे भी दृश्य चित्रण में उल्लेखनीय कार्य करते थे। श्री डॉ. राधाकृष्णन वेलुरी ने अन्य कलाकारों के सहयोग से Rhythem Art Society का गठन किया, जिसका उद्देश्य कलाकारों द्वारा सृजित की गई कृतियों का प्रदर्शन कर एक कलात्मक माहौल बनाना था। 90 के दशक तक चित्रकारों द्वारा दृश्य चित्रण अधिक किया जाता था। बाद में जो चित्रकार दृश्य चित्रण कर रहे थे वे उस विधा में कार्य करते रहे। इस कला धारा में नवोन्मेषित कलाकार पूरी तरह शामिल नहीं हुए। अधिकांशतः आधुनिकता की अमूर्तता की राह पर चल पड़े।

इन परिस्थितियों में वरिष्ठतम चित्रकारों ने दृश्य चित्रण को जीवित रखा। श्री जी.एल. चौरागड़े ‘पारदर्शी जल रंगों के जादूगर’ के रूप में पहचाने जाते हैं। राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत चित्रकार एक योग्य शिक्षक के रूप में सम्मान पाते हैं। शिक्षक के रूप में 1966 में जे.आर. दासी गर्ल्स हायर सेकेण्डरी स्कूल, रायपुर में ड्राइंग और 1972 में शासकीय कमला नेहरू स्कूल, भोपाल में अपनी सेवाएँ प्रदान की। इनसे शिक्षित विद्यार्थी संयोजन हो या दृश्य कला दोनों के आधारभूत सिद्धान्तों में पारंगत होते हैं। आपके द्वारा शिक्षित कुछ विद्यार्थी शासकीय सेवारत हैं, तो कुछ विद्यार्थी स्वतंत्र रूप से कलात्मक कार्य कर रहे हैं। योग्य चित्रकार बनाने में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान है।

एक दृश्य चित्रकार के रूप में पर्यावरण के तत्वों को चित्रित किया। घर स्कूल और समाज को सौन्दर्यपूर्ण चित्रों से सजाया। श्री चौरागड़े सर दृश्य चित्रण के प्रति सचेत रहे हैं। उन्हें ग्रामीण अंचल में बहुत प्रभावित किया। वे जहाँ भी रहे दृश्यांकित करते रहे। जब वे मुम्बई परीक्षा के लिये जाते थे तो उनका निवास समुद्र किनारे था। समुद्र का अथाह जल प्रवाह आती और विलीन होती लहरें पाल वाली नावें एक आकर्षण उत्पन्न करती हैं। जब वे भोपाल में आ गये तो भोपाल के सुन्दरतम स्थलों का चित्रांकन किया। छोटा तालाब, बड़ा तालाब, केरवा डैम, एम.वी.एम, कॉलेज का दृश्य आदि बनाये। विद्यार्थियों को अनेकों डिमॉन्स्ट्रेशन दिया, जिसमें दृश्य चित्रण विधान को समझाया। आपके दृश्य चित्रों में आकर्षण बिन्दु अवश्य होता है। दृश्य रेखांकन से प्रारम्भ होकर रंगों के त्रिआयामी प्रयोग से सजीव हो उठता है। उन्होंने जल रंग, तेल रंग, पेस्टल, पेन्सिल सभी का उपयोग कर चित्र बनाये हैं और अनेकों एकल एवं सामूहिक राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शनियाँ लगाई हैं।

आपके चित्रों की ख्याति देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी है। कनाडा, अमरीका, इंग्लैण्ड आदि देशों में आपके द्वारा बनाये गये चित्रों की ख्याति फैली है। आपकी एक और कृति ‘मयूराकृति ईजल’ है, जिसे आपने स्वयं बनाया है। यह सर्वसुविधा रख-रखाव तथा प्रकाश व्यवस्था युक्त है। इसे ऊपर नीचे किसी भी दिशा में घुमाया जा सकता है। इसमें रंग रखने की तथा बड़े-से-बड़ा ड्राइंग बोर्ड रखने की व्यवस्था है।

आपके सराहनीय कार्यों में सफल एकल और सामूहिक प्रदर्शनियाँ हैं। आपके चित्र और चित्रण शैली शोधार्थियों के लिये शोध का विषय हैं, जिस पर दो महाविद्यालयीन छात्राओं ने लघु शोध लिखे हैं। आगे भी शोध कार्य करने की सम्भावनाएँ हैं। आपकी बायोग्राफी ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, इंटरनेशनल वॉल्यूम 1 एंड 2 में 1988 एवं लेरनेड एशिया भाग 1, 1992 शिक्षा के क्षेत्र में कौन क्या? रिफेसिमेंटो इंटरनेशनल नई दिल्ली में प्रकाशित हो चुकी है। आपको राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनेकों पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। चित्रों के संग्रह देश-विदेशों में हैं। कला शिक्षक क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान यह है कि 31 वर्षों के सम्पूर्ण शिक्षण कार्यकला का हायर सेकेण्डरी बोर्ड परीक्षा फल 100 प्रतिशत रहा और 21 छात्राएँ मेरिट में आई हैं। आपके उत्कृष्ट कार्यों के लिये कलाकारों, साहित्यकारों, आई.ए.एस. अधिकारियों एवं अनेक सम्मानित व्यक्तियों से प्रशंसा पत्र प्राप्त हो चुके हैं। आपने अनेकों एकल व सामूहिक प्रदर्शनियाँ लगाई हैं।

आपके द्वारा दृश्य चित्रकार के रूप में अनेक कैम्पों में हिस्सेदारी की है और प्रशंसा पाई है। दृश्य चित्रण के लिये चित्र जगत में राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कलाकार बने हैं। वर्तमान में वे भोपाल में न रहकर रायपुर और बालाघाट में रह रहे हैं। आज भी वे सृजन कार्य में व्यस्त हैं।

डॉ. एल.एन. भावसार प्रमुख दृश्य चित्रकारों में से हैं, जिन्होंने दृश्य चित्रकार के रूप में पर्यावरण को चित्रित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। पर्यावरण के तत्व जल, भूमि, आकाश, अग्नि और वायु का चित्रण समुचित रूप से किया है। जल आपका प्रिय विषय है उसके अनेक रूपों का चित्रण देखने को मिलता है। आप जल के चितेरों के रूप में देश-विदेश में ख्याति प्राप्त कलाकार हैं। जल के कारण चित्रों में लयात्मकता के दर्शन होते हैं। जल की गहराई जल का छिछलापन, स्वच्छ जल, लहराता पानी, डोला पानी, स्थिर जल आपकी चिन्तन दृष्टि का परिणाम है। जल झरने के रूप में दूधिया रंग ग्रहण करता है, शान्त जल काँच के समान सतह बनाता है, जिसमें आस-पास के रूपों का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। प्रवाहित नदियों के जल का सौन्दर्य अपना है, पहाड़ों के बीच से मैदानों में नदी का सौन्दर्य अलग होता है। यही बात वायु के प्रवाह के कारण या फिर वर्षा के गिरने से होती है।

आपका एक प्रिय विषय और रहा है वह है तालाब का, जिसमें आप एक बीच में पुल बनाते हैं जो छोटे और बड़े तालाब को विभक्त करता है। Cobalt और White के मिश्रित टोन से पहाड़ और आकाश का चित्रण करते हैं। पहाड़ी के पास क्षितिज रेखा के पास Flak White से बादलों का चित्रण करते हैं। कभी कपासी बादल उड़ते हुए गतिशील होते हैं और एक नाटकीय प्रभाव छोड़ते हैं। अतः आकाश तत्व भी शान्त, स्वच्छ, स्वच्छन्द वृक्षों की टहनियों और पत्तियों से आवृत्त दिखाई देता है। भूमि का अंकन भी विभिन्न रूपों में दिखाई देता है, जिस पर मानव पशु-पक्षियों का चित्रण किया है। एक चित्र में विपरीत प्रवृत्तियों वाले पशु- पक्षियों को चित्रित किया है, जैसे साँप, मोर, हिरण, हाथी और मानवाकृतियों का काल्पनिक अंकन किया है। आपके द्वारा सृजित दृश्य चित्र हों या संयोजन मालवा के मौलिक रंगों का समावेश चित्र में आकर्षण बढ़ा देता है। दृश्य चित्रण में प्रवीण अन्तरराष्ट्रीय कलाकार ने बनारस, अजन्ता, एलोरा, एलीफेण्टा, पुदुच्चेरी, महाबलीपुरम, कन्याकुमारी, जयपुर, कोटा आदि स्थानों का भ्रमण कर कलात्मकता को अधिक विकसित किया। आप धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति है। अतः आपके चित्रों में उज्जैन, ओमकारेश्वर, महेश्वर ऋषिकेश, बनारस आदि स्थानों के दृश्य चित्रण अधिक हैं।

आपके दृश्य चित्र अनेक महत्त्वपूर्ण स्थानों पर संग्रहित हैं, जैसे देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय इन्दौर में नेपाल, काठमाण्डू, कन्याकुमारी के दृश्य चित्र संग्रह में होकर वहाँ का सौन्दर्य बढ़ा रहे हैं।

आपका मध्य प्रदेश के लिये सबसे बड़ा योगदान शिष्यों को तैयार करना रहा है। आपने शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इन्दौर, शासकीय एम.एल.बी. कॉलेज ,भोपाल और शासकीय हमीदिया कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, भोपाल में व्याख्याता और विभागाध्यक्ष के रूप में सेवाएँ प्रदान कीं। यहाँ पर आने से आपने शिष्यों को लाभान्वित किया। आप विद्यार्थियों को डिमॉन्स्ट्रेशन देते हैं, जिससे विद्यार्थी उन श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात करते जाते हैं। विद्यार्थियों को दृश्य चित्रण के लिये स्टूडियों से बाहर ले जाते हैं। आपने शिष्यों का एक समूह बनाया है जो चित्रण कार्य करते हैं और प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार शिष्यों की एक लम्बी शृंखला तैयार हो गई है।

आपके चित्रों में प्रकृति की शीतलता है तो सूर्य सी उष्णता भी है। यदि दृश्य चित्र शीतल रंग में बनाया है तो मानवाकृतियों के परिधान उष्ण रंगों में बनाकर आकर्षक दृश्यात्मकता उपस्थित करते हैं। आपने परिप्रेक्ष्य सिद्धान्तों का पालन किया। आपके चित्र अनेक चित्र अनेक शासकीय, अशासकीय स्थानों पर संग्रहित हैं और नीरस स्थान को भी सौन्दर्य पूर्ण बना रहे हैं। इन्हीं विशिष्ट कार्यों से आपको ‘मानव रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया। कलात्मक सृजन कार्यों में साहित्यिक योगदान भी है आपने अनेक सेमीनारों में अपने वक्तव्य दिये हैं और विशिष्ट अतिथि और निर्णायकों के रूप में बुलाये जाते हैं।

इस प्रकार कला और पर्यावरण के विकास में अनुशासनात्मक रूप से सहयोग प्रदान किया है। आपके निर्देशन में शोधार्थियों ने शोध कार्य पूर्ण किया है।

भोपाल के ख्यात कलाकार श्री सचिदा नागदेव दृश्य चित्रण के लिये प्रसिद्ध हैं। पुरातत्वविद श्री वाकणकर के सानिध्य में रहकर आपने कला के लिये भ्रमण की शिक्षा प्राप्त की। सचिदा ने देश-विदेश की यात्राएँ कला सन्दर्भों में अकेले ही की। कश्मीर यात्रा एक अविस्मरणीय रंग यात्रा के रूप में सचिदा के दृश्यों में संग्रहित है। वे देश भर में इन यात्राओं के जरिये स्थानीय जनजातियों के रीति-रिवाजों का विस्तृत अध्ययन कर अपने रंग वर्धन को पुष्ट बनाया। कन्याकुमारी हो या दक्षिण से लद्दाख के दुर्ग क्षेत्र, पंजाब हो या गढ़वाल की प्राकृतिक छटाएँ। सबको अपने कैनवस पर सुन्दर रंग संघातों द्वारा जीवित रखने की दक्षता भी सचिदा नागदेव ने दिखाई। यूरोप में अपने चित्रों को बेचकर यात्राओं का अबाध सिलसिला जारी रखा।

ओसाका इंटरनेशनल त्रिनाले 90 में उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार 15 लाख जापानी येन का प्राप्त कर सचिदा नागदेव ने मध्य प्रदेश को अन्तरराष्ट्रीय नक्शे पर पहुँचाया। साथ ही कला जगत को स्तरीय मानदण्डों पर अपनी ‘बोल्ड’ और चटख रंगों के जरिये एक निश्चित जगह दिलाई। आपकी कला परम्परागत शैली तो थी ही और बाद के अमूर्तवादी चित्र भी कहीं-न-कहीं परम्परावादी शैली से ही सम्बन्धित हैं। अमूर्त चित्रों में भी दृश्य चित्रों का आभास होता है। आपने मुम्बई के ‘ओल्ड होमेज’ वृद्धाश्रम और अस्पताल के लिये 60 चित्र बनाकर सामाजिक योगदान दिया। इनके चित्रों में मोर, चिड़िया, स्त्री की आकृतियाँ मनमोहक छाप छोड़े जाती हैं। आपके चित्रों में चाँद-सूरज जैसे ग्रहों का चित्रण आसमान का विस्तार उसमें चिड़ियों का प्रवेश वातावरणीय प्रभाव स्पष्ट करता है।

आपका महत्त्वपूर्ण योगदान कला शिक्षक के रूप में भी रहा है। श्री लालगे साहब के आग्रह पर आप भोपाल के मॉडल स्कूल में चित्रकला विषय के शिक्षक बने और यहीं से सेवानिवृत्त हुए। मॉडल स्कूल एक केन्द्र रहा और सारी दुनिया उनकी कलाकर्म का क्षेत्र। इस प्रकार श्री नागदेव जी ने कला पर्यावरण को अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक विस्तार दिया है। 1968 में भीमबेटका के भ्रमण के दौरान एक अंग्रेज से कैमरा प्राप्त हुआ तबसे उन्हें फोटोग्राफी का शौक भी जागृत हुआ। वे आकर्षक स्थलों और वस्तुओं के फोटोग्राफ लेते हैं और उन्हें अपनी कल्पना के अनुरूप चित्रों में स्थान देते हैं। विभिन्न स्थानों पर आपके सृजित चित्रों का संग्रह समाज के लिये सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

प्रदेश के सफल चित्रकारों की श्रेणी में प्रदेश ही नहीं पूरे देश के लिये आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

सचिदा नागदेव और सुरेश चौधरी ने साथ-साथ कला का एक नवरूप रचा। अशोक बाजपेयी के प्रोत्साहन से इन्होंने मुक्तिबोध की कविताओं को आधार बनाकर बड़े-बड़े फलक रचे। श्री सुरेश चौधरी का कला जगत में मूर्धन्य चित्रकार के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान है। नैसर्गिक सौन्दर्य को आपने दृश्य चित्रों के रूप में साकार किया। आपके चित्रों में पर्यावरणीय तत्व नवीनतम रूप में दिखाई देते हैं। इनमें रंगों का माधुर्य लयात्मकता, गतिशीलता, बोल्ड स्ट्रोक के माध्यम से दिखाई देती है। आज आधुनिक परिवेश में जहाँ पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है जनमानस प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे में आपके आधुनिक दृश्य चित्र आगाह कर रहे हैं कि वृक्षों का नष्ट होना, फैक्ट्रियों का बढ़ना प्राण वायु के लिये खतरा बनायेगा। श्री सुरेश चौधरी का कला क्षेत्र प्रारम्भ में इन्दौर और बाद में भोपाल रहा। भोपाल के सौन्दर्यपूर्ण स्थलों को चित्रों के रूप में संरक्षित किया।

आपने प्रकृति के घटक अश्व की एक शृंखला तैयार की, जिससे उन्हें मध्य प्रदेश के हुसैन की संज्ञा दी गई। इसी प्रकार प्रथम पूज्य ‘गणेश’ शृंखला, Wave Series भी तैयार की। आपने अपने कलात्मक कार्यों में भोपाल की ख्याति अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाई। श्री सुरेश चौधरी के अलावा भोपाल में अन्य कलाकार कला पर्यावरण के निर्माण में अपनी भूमिका अदा कर रहे थे, जिनमें विनय सप्रे पारदर्शी जल रंगों में कार्य कर रहे हैं। आप बाल भवन भोपाल में चित्रण सिखा कर शिष्य तैयार करते रहे यहीं से वे रिटायर भी हुए। यहाँ डॉ. मंजूषा गांगुली कोलाज में कार्य कर रही हैं। आपने नागालैण्ड की यात्रा के दौरान कोलाज विधा में उल्लेखनीय दृश्य चित्र बनाये और Silky Mountain नामक प्रदर्शनी में एलियांस फ्रांसिस गैलरी में प्रदर्शित किये। ये उल्लेखनीय कोलाज दृश्य चित्रों में बटर पेपर और पत्रिकाओं के ग्लेज्ड पेपर पर इस्तेमाल कर विशिष्ट प्रभाव दिया गया था। भोपाल के उल्लेखनीय कलाकारों में डॉ. सुषमा श्रीवास्तव, श्रीमती शोभा घारे का नाम प्रमुखता से आता है, जिन्होंने कला के विकास में सहयोग प्रदान किया।

कला से परिपूर्ण क्षेत्र ग्वालियर में कला का बीजारोपण श्री मुकुन्द सखाराम भाण्ड ने किया। श्री देवलालीकर ने ललित कला संस्थान, ग्वालियर का प्रारम्भ किया। इसके पश्चात इस विकास कार्य में अन्य कलाकार जुड़ते चले गये। रूद्रहंजी, एल.एस. राजपूत, हरि भटनागर, प्रभात नियोगी, विमल कुमार, विश्वामित्र वासवाणी, उमेश कुमार एवं देवेन्द्र जैन आदि कलाकार ग्वालियर की कला के विकास में क्रियाशील रहे। जिन्होंने कला पर्यावरण को जीवन्त बनाये रखा। मुकुन्द सखाराम भाण्ड ने कला में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। वे देश की क्रान्ति में अप्रत्याशित रूप से चित्र के माध्यम से सम्मिलित रहे। चित्रकला के क्षेत्र में सामाजिक विचारों वाले चित्र बनाये।

श्री एल.एस. राजपूत ने अपनी चित्रकला में पारदर्शी और अपारदर्शी दोनों प्रकार के चित्र बनाये। आप पारदर्शी रंगों के साथ सफेद रंग का विशेष प्रयोग किया करते थे। प्रारम्भिक समय में आपने दृश्य चित्रण अधिक बनाये हैं। इसके पश्चात आपकी कला अमूर्तन की ओर मुड़ गई। श्री देवलालीकर, श्री एल.एस. राजपूत और श्री मुकुन्द सखाराम भाण्ड ने पारम्परिक शैली के साथ ही दृश्य चित्रण कला का ललित कला संस्थान में शिष्यों से बनवाया। एल.एस. राजपूत जी ने कला और पर्यावरण के विकास में एक चित्रकार और कला शिक्षक के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किये। आप सदैव कला के प्रति समर्पित रहे हैं। इनके बाद ग्वालियर में श्री हरि भटनागर ने भी शिष्यों को पारंगत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। देवेन्द्र जैन भी एक प्रख्यात चित्रकार हैं, जिन्होंने कला के विकास में पूरा योगदान दिया। आपने राष्ट्रीय स्तर पर अपना योगदान दिया।

1. अग्रवाल डॉ. गिर्राज किशोर- आधुनिक भारतीय चित्रकला- संजय पब्लिकेशन आगरा, 2009- पृष्ठ-23
2. समाचार पत्र- दैनिक भास्कर- 30 नवम्बर, 1986, पृष्ठ-9
3. ललित कला संग्रह, भारत भवन, भोपाल के ब्रोशियर से साभार
4. ब्रोशिय- रूपंकर ललित कला संग्रह भारत भवन, भोपाल
5. ललित-चित्रावण मालवा में कला- अंक 5 इन्दौर
6. डॉ. श्री कृष्ण जोशी के साक्षात्कार के आधार पर
7. ललित चित्रावण इन्दौर- अंक 5- 2003- पृष्ठ-44
8. वेगड़ अमृतलाल- तीरे-तीरे नर्मदा- का बाह्य अन्तिम पृष्ठ
9. साक्षात्कार दिनाँक 27.06.11 के आधार पर
10. नव भारत- 27 अक्टूबर, 1997
11. श्री जी.एल. चौरागड़े द्वारा प्रदत्त बायोडाटा
12. साक्षात्कार के आधार पर- 20.06.2000 पर
13. कला दीर्घा- अक्टूबर 2004, वर्ष-5 अंक-9, पृष्ठ-13
14. समकालीन कला 2002, अंक-22, ललित कला अकादमी का प्रकाशन- पृष्ठ-40


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