पराली न जलाने का लिया प्रण, बने प्रेरणास्रोत

गुरबचन सिंह
गुरबचन सिंह

बुर्ज देवा सिंह गाँव के 57 वर्षीय किसान गुरबचन अपने भाई गुरदेव के साथ मिलकर खेती करते आ रहे हैं। इन्होंने अपनी 40 एकड़ जोत में दो दशक पूर्व ही पराली न जलाने का प्रण लेकर एक मिसाल पेश किया है।

पराली जलाने से बढ़ता वायु प्रदूषणपराली जलाने से बढ़ता वायु प्रदूषण (फोटो साभार - हिन्दुस्तान टाइम्स)पिछले साल जब गुरबचन सिंह के बेटे की शादी निश्चित हुई तो इन्होंने होने वाली बहु के माता-पिता से साफ कह दिया था कि उनकी तरफ से कोई बारात नहीं आएगी। वे नहीं चाहते थे कि उनके होने वाले समधी-समधन पर बारात का स्वागत करने के लिये आर्थिक दबाव पड़े। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने अपनी होने वाली वधु के पिता सतनाम सिंह के सामने एक अन्य शर्त भी रखा। शर्त थी कि उन्हें खेतों में धान की पराली को जलाना बन्द करना होगा। सतनाम सिंह इस बात के लिये झटके में तैयार हो गए।

गुरबचन सिंह का मानना है कि यदि इस प्रथा पर अंकुश लगाना है तो इसकी शुरुआत खुद उन्हें अपने परिवार से करनी होगी। सतनाम सिंह से पराली न जलाने पर ली गई सहमति से दो फायदे हुए। पहला, शादियों में होने वाले अनावश्यक खर्च पर रोक लगी और दूसरा पराली न जलाने वालों की फौज में एक अन्य किसान भी शामिल हुआ।

गुरबचन और उनके भाई गुरूदेव ने अपनी 40 एकड़ की जोत में दो दशक पहले ही पराली जलाना बन्द कर दिया था। उनकी दूरदर्शिता का अन्दाजा इस तरह लगाया जा सकता है कि गुरबचन द्वारा उठाए गए इस कदम के काफी बाद तक लोगों को यह भान नहीं था कि अक्टूबर और नवम्बर में पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में आसमान में छाने वाले धुएँ के गुबार की वजह खेतों में पराली जलाने की प्रथा है।

इण्डियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च (Indian Council for Agricultural Research) द्वारा किये गए एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली सहित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हवा की गुणवत्ता को पराली जलाने से पैदा हुआ धुएँ का गुबार प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इसके अनुसार इस क्षेत्र में हवा में कार्बन डाइऑक्साइड (carbondioxide) की मात्रा में 70 प्रतिशत वहीं कार्बन मोनोऑक्साइड (carbonmonoxide) और नाइट्रोजन ऑक्साइड (nitrogenoxide) की मात्रा में क्रमशः 7 प्रतिशत और 2.1 प्रतिशत तक की वृद्धि हो जाती है।

गुरबचन सिंह ने अब तक 40 किसानों को पराली जलाने के बजाय खेतों में ही उसके बेहतर इस्तेमाल के लिये प्रेरित किया है। यही वजह है कि गुरबचन सिंह पराली जलाने के खिलाफ कृषि विज्ञान केन्द्र द्वारा चलाए जा रहे अभियान के पोस्टर ब्वाय बन गए हैं।

लहलहाते धान की फसल से भरे खेतों की तरफ इशारा करते हुए गुरबचन सिंह कहते हैं कि मेरे खेत ही इस बात के प्रमाण हैं कि पराली नहीं जलाने के क्या फायदे हैं। वे कहते हैं कि पिछले दो सालों से खादों और कीड़ों को मारने वाली दवाओं का इस्तेमाल एकदम बन्द कर दिया है क्योंकि पराली को खेतों में ही छोड़ देने से मिट्टी की गुणवत्ता में काफी सुधार आ गया है।

इन्हीं के गाँव के एक अन्य किसान हरदेव सिंह ने बताया कि गुरबचन सिंह से प्रेरित होकर उसने भी पिछले दो सालों से पराली जलाना छोड़ दिया है और खादों का इस्तेमाल भी धीरे-धीरे कम कर रहा है। उसने यह भी बताया कि उसके इस प्रयास से प्रति एकड़ यूरिया की जरुरत आधी रह गई है।

कृषि विज्ञान केन्द्र ने तरण-तारण के दो गाँवों का चुनाव किया है। इन गाँवों से ही पिछले वर्ष सबसे ज्यादा पराली जलाने के मामले आए थे। इन गाँवों को पायलट प्रोजेक्ट के माध्यम से शत-प्रतिशत पराली जलाने से मुक्त करने का लक्ष्य रखा गया है।

कृषि विज्ञान केन्द्र ने इस कार्य के गुरबचन सिंह की भूमिका भी तय की है। गुरबचन सिंह के गाँव से इन गाँवों (बूह हवेलियाँ और जौनेके) की दूरी क्रमशः ढाई और तीन किलोमीटर है। कृषि विज्ञान केन्द्र के जिला अधिकारी बलविंदर सिंह ने बताया कि पिछले वर्ष कुल 1400 एकड़ कृषि भूमि में से 1200 एकड़ में फसल कटने के बाद आग लगाई गई थी।

बूह हवेलियाँ के किसान निर्मल सिंह ने बताया कि पिछले साल खेतों में आग लगाने से उन्हें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ा था। कई दिनों तक बच्चे स्कूल नहीं जा सके थे। पानी पड़ने के बाद खेतों में कालिख की परत जम गई थी। उसने बताया कि गुरबचन सिंह ने उसके गाँव में अब तक तीन ट्रेनिंग शिविरों को सम्बोधित किया है जिनमें क्रमशः 25, 75 और 2000 किसानों ने हिस्सा लिया था।

गुरबचन किसानों को पराली जलाने से होने वाले नुकसान के बारे में जागरूक करने के लिये कृषि विज्ञान केन्द्र द्वारा तैयार किये गए एक शार्ट फिल्म भी दिखाते हैं और सम्बोधन से पूर्व गुरूनानक देव के संवाद भी किसानों को सुनाते हैं। गुरबचन के अनुसार सिख संत गुरूओं का वचन सुनाते हैं लेकिन वे शायद ही गुरूनानक देव द्वारा खेती किये जाने की बात अपने अनुयायियों को बताते हैं। वे बताते हैं कि गुरू का संवाद जानने के बाद उन्होंने 2000 में ही खेतों में आग लगाना छोड़ दिया था।

तरण-तारण गाँव में धान के खेत में अन्य किसानों के साथ खड़े गुरबचन सिंह (बाएँ से तीसरे)तरण-तारण गाँव में धान के खेत में अन्य किसानों के साथ खड़े गुरबचन सिंह (बाएँ से तीसरे) (फोटो साभार - इण्डियन एक्सप्रेस)गुरबचन बताते हैं कि उन्होंने 2007 तक जीरो टीलेज मशीन की सहायता से खेती की जो बहुत खर्चीली होती थी। इसके बाद उन्होंने हैप्पी सीडर का इस्तेमाल शुरू किया। गुरबचन सिंह के खेतों से लिये गए मिट्टी के नमूनों में औसत आर्गेनिक मैटर का प्रतिशत 0.8 पाया गया जो फसल उत्पादन के लिये बहुत ही उपयुक्त है। वहीं खेतों में आग लगाने वाले किसानों के खेतों से लिये गए मिट्टी के नमूनों में आर्गेनिक मैटर का प्रतिशत 0.2 से 0.3 के बीच पाया गया जो खराब उत्पादकता का द्योतक है।

आने वाले दिनों में वैज्ञानिक और अफसर बूह हवेलियाँ और जौनेके गाँवों के किसानों को बिना पाराली जलाए खेतों में गेहूँ की फसल लगाने के लिये प्रेरित कर रहे हैं। इसके लिये इन गाँवों के किसानों को सामूहिक रूप से तीन हैप्पी सीडर, एक मुल्चेर, दो रिवर्सेबल मोल्ड बोर्ड हल सहित अन्य उपकरण उपलब्ध कराए जाने की योजना है।

हैप्पी सीडर की सहायता से बिना पराली हटाए ही गेहूँ की बुआई की जा सकती है। सुपर स्ट्रॉ मैनेजर कम्बाइन की सहायता से पराली को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर सामान रूप से खेत में बिछा देता है। वहीं रिवर्सेबल मोल्ड बोर्ड हल की सहायता से सब्जियों जैसे मटर, आलू आदि की खेती बड़ी ही आसानी से खेतों में बचे फसल के हिस्सों को काटकर और उन्हें समान रूप से बिछाकर की जा सकती है। इससे मिट्टी की गुणवत्ता में भी गुणात्मक सुधार होता है।

गुरबचन के अनुसार खेतों में आग नहीं लगाने से खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल में कमी आएगी और इसके उपरान्त पहली बार खेतों की बुआई पर आने वाले खर्च में प्रति एकड़ 5000 रुपए तक की कमी की जा सकती है।

गुरबचन ने अपने बेटे की शादी के बाद इसी वर्ष अपनी बेटी के हाथ पीले किये हैं। उन्होंने अपने दामाद को उपहार स्वरूप हैप्पी सीडर भेंट किया है।

अंग्रेजी में पढ़ने के लिये लिंक देखें।

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