प्राकृतिक संसाधन : विकास की सीढ़ी

देश की बढ़ती जनसंख्या के कारण कोयला, पेट्रोल एवं अन्य संसाधन निरंतर घटते जा रहे हैं, ऐसी परिस्थिति में नाभिकीय ऊर्जा स्रोत के रूप में प्रयुक्त की जा सकती है। रेडियोधर्मी पदार्थ की सूक्ष्म मात्रा से बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा और भी ऐसे अन्य संसाधन हैं, जो हमें प्रकृति से प्राप्त होते हैं और उसमें से कुछ संसाधन पुनः प्रयोग में लाए जाते हैं और कुछ संसाधन एक बार प्रयोग में आने पर या तो नष्ट हो जाते हैं या फिर अपना स्वरूप त्याग कर दूसरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। प्रकृति मनुष्य की सहचरी है। उसके सान्निध्य में रहकर मनुष्य जीवनयापन तो करता ही है, उससे प्राप्त अनमोल चीजों का उपयोग कर अपने जीवन को विकासमान बनाता है। प्रकृतिजनित संसाधन पर्यावरण के लिए जरूरी होते हैं, उतने ही उनके बचाव और संरक्षण की आवश्यकता है। संसाधन की असमानता आर्थिक जगत् में विशेष महत्व रखती है। संसाधन दो प्रकार के होते हैं-

नव्यकरणीय संसाधन


वे संसाधन होते हैं, जिन्हें उपयोग में आने के पश्चात् पुनःउत्पादित किया जा सकता है। इनके निर्माण में मनुष्य की कोई भूमिका नहीं होती, क्योंकि ये संसाधन प्रकृति द्वारा प्राप्त होते हैं और यह संसाधन मानव-जाति के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। वैज्ञानिक उपयोग से इन्हें दीर्घकालिक या सतत् बनाया जा सकता है। जैसे- वन, कृषि-क्षेत्र, मृदा, जीव-जंतु, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि। ये संसाधन मानव को प्रकृति की तरफ से सहज रूप में प्राप्त होते हैं। सही मायनों में कहा जाए तो यह प्रकृति का एक अनमोल उपहार है। समस्त मानव-जाति के लिए और उन जीव-जंतुओं के लिए, जो इस सृष्टि में जीवनयापन करते हैं। इनमें से कुछ संसाधन प्राचीन समय से मानव की सेवा करते आ रहे हैं और टिकाऊ भी हैं। जैसे-मिट्टी, वायु, जल। संसाधन एक-दूसरे से कहीं न कहीं जुड़े रहते हैं। एक साधन की अनुपस्थिति दूसरे को अधूरा करती हैं और दूसरे साधन की उपस्थिति एक नया साधन बनाती है, साथ ही दूसरे साधन की पूर्ति करती है। जैसे-हाइड्रोजन (H) और वायु (O2) (रासायनिक नाम) जल (H2O) का निर्माण करते हैं। यह तत्व टिकाऊ भी होते हैं और जीवन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण भी। इनके बिना मानव जीवन संभव नहीं है। यह जीवन का दूसरा नाम है।

संसाधन दो शब्दों में मिलकर बना है-Re+Sources, जिसमें Re का अर्थ ‘दीर्घ अवधि’ से और Sources का अर्थ ‘साधन’ से हैं, अतः ये वे स्रोत हैं जिनका उपयोग मानव दीर्घ अवधि तक कर सकता है।

अनव्यकरणीय संसाधन


वे संसाधन होते हैं, जिनका उपयोग करने के पश्चात् वे पुनः उपयोग में नहीं लाए जा सकते। एक बार उपयोग होने के पश्चात् ये संसाधन समाप्त हो जाते हैं और इनका निर्माण पुनः संभव नहीं है, क्योंकि इन संसाधनों का निर्माण पृथ्वी की भीतरी सतह में करोड़ों वर्षों के बाद होता है। पृथ्वी पर इनकी मात्रा सीमित है और तीव्र गति से उपयोग में आने पर ये संसाधन नष्ट हो सकते हैं। जैसे-पेट्रोलियम, कोयला, लोहा, तांबा आदि। समस्त धात्विक व अधात्विक खनिज इसी श्रेणी में आते हैं। ये संसाधन प्रकृति की गोद में करोड़ों वर्षों तक छिपने के बाद अपना स्वरूप बदलकर प्राप्त होते हैं। जैसे-जली हुई लकड़ी बाद में कोयले का रूप प्राप्त कर लेती है। यह संसाधन समस्त मानव-जाति के लिए अति महत्वपूर्ण है और इनकी महत्ता के साथ इनका उपयोग भी अत्यंत आवश्यक है।

नव्यकरणीय संसाधन जिसके अंतर्गत जल, मृदा, कृषि क्षेत्र, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, वन, वायु, ऊर्जा स्रोत आदि आते हैं तथा जो प्रकृति का उपहार कहे गए हैं और एक बार उपयोग में आने के पश्चात् पुनः उपयोग में आते हैं। पृथ्वी पर समस्त जीवधारियों के अस्तित्व के लिए वायु आवश्यक है। पेड़-पौधे, जीव-जंतु मनुष्य जीवाणु, विषाणु, कीड़े-मकोड़े सभी के जीवन के लिए वायु जीवनदायिनी है। वायु में अनेक प्रकार की गैसें-ऑक्सीजन (O2) नाइट्रोजन (N2), कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) आदि उपस्थित होती हैं। वायुमंडल में ऑक्सीजन (O2) गैस का महत्व है, क्योंकि यह समस्त जीव-जंतुओं और मनुष्य में जीने के लिए स्रोत जैसी है। कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) गैस का उपयोग पेड़-पौधे करते हैं। यह सूर्य के प्रकाश में अपनी क्रिया पूर्ण करते हैं और दिन में ऑक्सीजन (O2) उत्सर्जित कर हमें जीवन प्रदान करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते है, जिससे मानव जीवन सुरक्षित व पूर्ण होता है। रात के समय पेड़-पौधे कार्बन-डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। इसी कारण रात में पेड़ के नीचे सोना हानिकारक होता है। वायु धरातल को गर्म करने, जल-वाष्प व आर्द्रता को प्रवाहित करने तथा विभिन्न प्रकार की मौसमी व जलधायविक घटनाओं को जन्म देने में सहायक है।

जल, पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है। मानव जीवन के अस्तित्व के लिए वायु के बाद जल दूसरा नितांत आवश्यक प्राकृतिक तत्व है। इसके अभाव में पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । पृथ्वी पर जल-ठोस, द्रव और वाष्प तीनों रूपों में विद्यमान है। इसका उपयोग मनुष्य के जीवन में अत्यंत आवश्यक है। ऐसे देखा जाए तो पृथ्वी का 70.8 प्रतिशत भाग जल-मंडल एवं मात्र 29.2 प्रतिशत भाग ही स्थल-मंडल है, लेकिन कुल उपलब्ध जल का 97 प्रतिशत महासागरों में खारे जल के रूप में, 2 प्रतिशत स्थाई हिम जल के रूप में व मात्र 1 प्रतिशत जल पृष्ठीय जल, भौम जल और वायुमंडल में आर्द्रता के रूप में उपलब्ध मीठा जल है, जिसे हम उपयोग के योग्य की श्रेणी में रखते हैं। इस जल की मांग में असाधारण रूप से वृद्धि हो रही है तथा इसकी आपूर्ति असीमित है। किसी स्थान पर जल की अधिकता है तो किसी स्थान पर जल का अभाव। इसके साथ ही इसके अत्यधिक उपयोग, प्रदूषण प्रबंधन की लापरवाही के कारण उपयोग के अयोग्य होने की भी संभावना बनी रहती है। अतः जल की मांग और आपूर्ति के साथ-साथ जल संसाधनों के स्रोत के बीच में समनव्य रखना भी अनिवार्य है। उपभोग योग्य जल हमें वर्षा से प्राप्त होता है। देश में कुल वार्षिक वर्षा का औसत 117 सेमी. है जो विश्व के औसत 100 सेमी. से 17 सेमी. अधिक है।

मृदा संसाधन आधारभूत प्राकृतिक संसाधन है। मृदा पर कृषि करके मनुष्य अनाज पैदा करता है। अनेक औद्योगिक कच्चे माल भी भूमि से प्राप्त होते हैं। जैसे-कपास, जूट, गन्ना, रबड़, कहवा, चाय, चावल, गेहूं, दाल, सब्जी आदि का उत्पादन। विभिन्न प्रकार की मिट्टी का उपयोग करके किया जाता है। जिस देश की मृदा अनुर्वर होती जाती है, उस देश की अर्थव्यवस्था व संस्कृति को नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता। मिट्टी भूमि के ऊपर पाई जाती है। यह असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है, जो मूल चट्टानों व वनस्पति के योग से प्राप्त हुई है। मृदा से संबंधित विज्ञान की शाखा को मृदा विज्ञान कहते हैं। मृदा किसी भी देश की अमूल्य संपदा होती है। UNEP के अनुसार 50 से 70 लाख हेक्टेयर भूमि प्रति वर्ष बंजर हो रही है। भारत में ही कृषि-योग्य भूमि का 60 प्रतिशत तथा अकृषित भूमि का 75 प्रतिशत गुणात्मक ह्रास में परिवर्तित हो रहा है। यद्यपि मृदा नव्यकरणीय संसाधन है, फिर भी हमें इसका बचाव करना चाहिए। भूमि मानव के लिए महत्वपूर्ण संसाधन है। यह निम्न कारणों से मानव के लिए उपयोगी है-

पृथ्वी पर या इसके अंदर उपस्थित प्रत्येक पदार्थ मानव के लिए उपयोगी है। मानव प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से रोटी, कपड़ा व मकान के लिए भूमि पर आश्रित होता है। मृदा जो अत्यधिक उपजाऊ होती है और जिससे हर एक खाने योग्य पदार्थ की प्राप्ति संभव है। वह भी भूमि पर आश्रित होती है और यह संसाधन भी नव्यकरणीय संसाधन के अंतर्गत आता है।

सौर ऊर्जा, ऊर्जा का अनंत स्रोत है। सूर्य के पास निरंतर हाइड्रोजन (H), अणु, हीलियम अणु (He) में परिवर्तित होते रहते हैं। इसमें द्रव्यमान ऊर्जा में बदल जाते हैं। सामान्यतः 4 हाइड्रोजन (H) प्रत्येक अणु का द्रव्यमान 1.008) अणु से एक हीलियम अणु (He) (द्रव्यमान 4.003) बनता है अतः इस परिवर्तन में 0.029 द्रव्यमान ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। सूर्य ऊर्जा से सोलर कुकर, सोलर हीटर, सोलर पॉवर प्लांट, सोलर भट्टी व प्रकाश वोल्टीय सेल (सोलर सेल) का निर्माण किया गया है। पवन ऊर्जा, जिन स्थानों में प्रायः तेज हवा चलती है, वहां वायु-शक्ति का प्रयोग मिलें लगाकर किया जाता है। यहां अब तक 220 मेगावाट विद्युत उत्पादन की पवन चक्कियां लग चुकी हैं। पवन उत्पादन में लगी दो निजी कंपनियों सुजोल व उनरकोन से 200 से अधिक पवन चक्कियों से उत्पादित विद्युत भी 220 किलोवाट GSS पर डालने को कहा गया है। जैसलमेर पवन ऊर्जा उत्पादन की दृष्टि से आशा से कहीं अधिक कारगर सिद्ध हुआ है। ऊर्जा के विभिन्न वैकल्पिक स्रोत निम्न हैं-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा भू-तापीय ऊर्जा, जलशक्ति-ऊर्जा ज्वार, भाटा, लकड़ी का कोयला, गोबर गैस, बायोगैस, खनिज कोयला, पशुओं एवं कृषि के अपशिष्ट और वन प्रकृति की अनमोल धरोहर हैं। मनुष्य प्राचीनकाल से ही वनों का उपयोग करता आ रहा है और आज भी कर रहा है तथा भविष्य में भी करता रहेगा।

वनों से वातावरण स्वच्छ व सुंदर रहता है। वन जलवायु को सम करते हैं और वर्षा में सहायक होते हैं। वन वायु की गति को रोककर भयानक आंधी से होने वाले नुकसान को कम करते हैं। मिट्टी कटाव में वनों का महत्वपूर्ण योगदान है। वनों द्वारा जल का स्तर उच्च होता है, जिसे कुआं बनाकर सिंचाई की सुविधा प्राप्त होती है। वनों में पेड़ से टूटकर गिरने वाली पत्तियां सड़-गलकर मिट्टी में जीवाश्म की वृद्धि करती है, जिसके परिणामस्वरूप मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है।

खनिज संसाधन आधुनिक यांत्रिक युग के आधार हैं। औद्योगिक एवं व्यापारिक अर्थव्यवस्था इन्हीं पदार्थों पर निर्भर है। अभी तक खनन विशेषज्ञों की सूची में लगभग 1600 से अधिक खनिज पदार्थ है। इनमें से लगभग 200 खनिजों का उत्पादन व्यावसायिक एवं औद्योगिक उपयोग के लिए विश्व के विभिन्न देशों में किया जाता है। कुछ खनिज पदार्थ ऐसे होते हैं, जिनकी युद्ध सामग्री के निर्माण में अत्यधिक आवश्यकता होती है। क्रोमियम (Cr), मैगनीज (Mn), मर्करी (Hg), निकिल (Ni) आदि सामरिक महत्व के खनिज हैं। विश्व में उपलब्ध खनिजों का वितरण बहुत असमान है। कुछ देश अपने निजी स्वार्थ के लिए इन खनिज संसाधनों का दुरुपयोग कर रहे हैं, जिसे आने वाले समय में संपूर्ण मानवता को इनकी कमी प्रभावित करेगी। आज भी समस्त खनिज किसी भी देश के पास नहीं है। हर एक देश किसी-न-किसी खनिज के लिए एक-दूसरे पर आश्रित हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध समस्त खनिज संसाधन न केवल यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं, बल्कि इनकी मात्रा भी अत्यधिक सीमित है। इसलिए इनके दोहन और एकत्रण में भारी खर्च आता है। अतः यह आवश्यक है कि न केवल इनका उपयोग सावधानीपूर्वक किया जाए, बल्कि इनका प्रयोग इस तरह किया जाए, जिससे यह नष्ट होने से बचे रहें।

कोयले की उत्पत्ति लगभग 280 से 350 मिलियन वर्ष पूर्व (परमियन काल) मानी जाती है। वनस्पति जनित पदार्थों से एक जटिल क्रिया के फलस्वरूप कोयला बनता है। इसकी गुणवत्ता के आधार पर इसे 4 भागों में बांटा गया है, जो कार्बन की प्रतिशत मात्रा के आधार पर होती है, पीट 35-39 प्रतिशत, लिग्नाइट 70 प्रतिशत, बिटुमिनस 85 प्रतिशत, एंथ्रासाइट 100 प्रतिशत (लगभग)। कोयले में कार्बन की मात्रा कितनी अधिक होगी, उसकी गुणवत्ता उतनी अधिक होगी।

देश की बढ़ती जनसंख्या के कारण कोयला, पेट्रोल एवं अन्य संसाधन निरंतर घटते जा रहे हैं, ऐसी परिस्थिति में नाभिकीय ऊर्जा स्रोत के रूप में प्रयुक्त की जा सकती है। रेडियोधर्मी पदार्थ की सूक्ष्म मात्रा से बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा और भी ऐसे अन्य संसाधन हैं, जो हमें प्रकृति से प्राप्त होते हैं और उसमें से कुछ संसाधन पुनः प्रयोग में लाए जाते हैं और कुछ संसाधन एक बार प्रयोग में आने पर या तो नष्ट हो जाते हैं या फिर अपना स्वरूप त्याग कर दूसरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। ये संसाधन ही नव्यकरणीय संसाधन और अनव्यकरणीय संसाधन कहे जाते हैं। हमें इन दोनों की उपलब्धता, उपयोगिता और उनके महत्व को समझकर न केवल उनका प्रयोग करना चाहिए, बल्कि पूरी मानव जाति को एक-दूसरे के हित को समझकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन संसाधनों के बचाव, संरक्षण और उनके महत्व को उजागर करते हेतु सेमिनार, गोष्ठी और विचार-विमर्श करके जन-जागृति भी लानी चाहिए, इसी में मानव का कल्याण निहित है।

एम.एस.सी. (बायोटेक्नोलॉजी) रिसर्च स्कॉलर, ई-28, लाजपत नगर, साहिबाबाद गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)

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