सारांश
पिछले अध्ययन के फलस्वरूप यह ज्ञात हुआ कि प्रतिसूक्ष्मजीवी औषधियाँ, परजीवी प्रतिरक्षा की सक्रियता के कारण अपनी प्रभावशीलता खो रही हैं। इस कारण यह आवश्यक है कि नई प्रतिसूक्ष्मजीवी औषधियों को प्राप्त किया जाए, जो बाजार में दुर्लभ रूप से पहुँच पाती हैं। प्राकृतिक उत्पाद, फार्मास्युटिकल क्षेत्र में नई रसायन पद्धति का एक अच्छा स्रोत है। इस लेख का उद्देश्य प्राकृतिक उत्पादों से प्राप्त प्रतिसूक्ष्मजीवी औषधि की प्रभावशीलता तथा उनके कम हानिकारक होने के गुण को उजागर करना है। यह लेख प्राकृतिक उत्पादों द्वारा प्राप्त कुछ महत्त्वपूर्ण, लाभदायक प्रतिसूक्ष्मजीवियों की संरचना तथा उनकी एमआईसी वैल्यू का उल्लेख करता है।
Abstract
Over the last decade, it has been clear that antimicrobial drugs are loosing their effectiveness due to the evolution of pathogen resistance. Therefore, there is a need to containing the search for new antibiotics, especially for new drugs only those rarely reach the market. Natural products are both fundamental sources of new chemical diversity and integral components of today’s pharmaceutical compendium and the aim of this review is to explore and highlight the diverse natural products that have potential to lead the more effective and less toxic antimicrobial drug. This review describe only those products having potentially useful antimicrobes regarding their structure and MIC (minimum Inhibitory concentration) values, obtained from natural resources.
प्रस्तावना
प्राचीनकाल से मानव कई घातक संक्रामक रोगों और महामारी से त्रस्त रहा है, परन्तु 19वीं सदी के अंत तक मनुष्य इस बात से अनभिज्ञ रहा कि ये रोग और महामारी किस कारण होती है। सन 1677-1976 में हॉलैण्ड निवासी एंटोनी वॉन लुइवेनहॉक ने प्रकृति के अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहस्य का पता लगाया। उन्होंने पृथ्वी पर ऐसे ‘‘सूक्ष्मजीवी’’ के छिपे संसार का पता लगाया जिन्हें केवल सूक्ष्मदर्षियों द्वारा देखा जा सकता है, उन्होंने तालाबों आदि के जल में कई प्रकार के सूक्ष्मजीव (जीवाणु, प्रोटोजोआ, यीस्ट आदि) देखे। इन जीवों को उन्होंने ‘‘सूक्ष्मजन्तुक’’ कहा। इसी खोज के कारण वे सूक्ष्मजैविक के पिता कहलाए हालाँकि सूक्ष्मजैविकी की विधिवत स्थापना 19वीं सदी में लुई पॉश्चर के अनुसंधानों से हुई।
18वीं तथा 19वीं सदियों में कई प्रकार के जीवाणुओं की खोज हुई और यह स्पष्ट हो गया कि जीवाणु वर्तमान पृथ्वी पर सबसे छोटे एक-कोशिकीय जीव होते हैं। 20वीं सदी के प्रारम्भ तक यह पता लग चुका था कि मनुष्य तथा पशुओं में कई प्रकार के संक्रामक रोग जीवाणुओं के संक्रमण से होते हैं, परन्तु चेचक, पीतज्वर, खसरा, पोलियो, गलसुआ, अलर्क रोग, डेंगू आदि कई प्रकार के रोगों का जीवाणुओं से सम्बंध स्थापित नहीं हो पाया। तब वैज्ञानिकों को आभास हुआ कि ऐसे रोग जीवाणुओं से भी अधिक सूक्ष्म अर्थात अतिसूक्ष्म, परन्तु अज्ञाज रोगोत्पादकों के संक्रमण से होते हैं। ऐसा आभास पहले तब हुआ जब लुई पाश्चर (1885) कुत्तों में अलर्क रोग (रेबीज या हाइड्रोफोबिया) के कारण का पता लगाने की चेष्टा कर रहे थे।
प्राचीनकाल से पेड़-पौधों को औषधीय रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। आज के युग में लगभग 25-50% की औषधि पौधों के द्वारा ही प्राप्त की जा रही है, जोकि सूक्ष्मजीवियों के विरूद्ध काफी प्रभावी साबित हुई है। प्राचीनकाल से ही पेड़ों का उपयोग कई संक्रामक बीमारियों से बचाव के लिये किया जाता है। पेड़-पौधों में माध्यमिक उपापचयी पदार्थ जैसे-एल्केल्वाइड, फ्लेवोन्वाइड, फिनॉल, टर्पेन्वाइड, क्यूनोन्स आदि पाए जाते हैं, जिनकी समीक्षा करके यह ज्ञात हुआ कि ये अत्यधिक प्रभावशाली और रोगाणुरोधी गुण रखते हैं। ऐसा ज्ञात है कि पेड़ों की 25,000-50,000 प्रजातियाँ धरती पर पाई जाती हैं, जिसमें से एक छोटे भाग (1-10%) का उपयोग मनुष्य और जानवरों के द्वारा भोजन के रूप में किया जाता है। यह संभव है कि संख्या से अधिक पेड़ चिकित्सा उद्देश्य के लिये दवाइयों के रूप में प्रयोग किए जाते हैं।
पेड़ों में पाए जाने वाले माध्यमिक उपापचयी पदार्थ स्वयं पेड़ों की रक्षा क्रिया विधि में सहायक होते हैं, जोकि सूक्ष्मजीवों, कीटों और खरपतवारनाशी के विरूद्ध पेड़-पौधों की रक्षा करते हैं। जैसे- टर्पेन्वाइड तथा कुछ अन्य क्यूनोन्स, टैनिस, उपापचयी पेड़ों के रंग के लिए जिम्मेदार होते हैं, तथा कई पदार्थ जैसे (टर्पेनॉइड कैप्सइसिन फ्रॉम चिली पैपर) पेड़ों के स्वाद के लिये जिम्मेदार होते हैं। जोकि मनुष्यों द्वारा खाने और औषधीय रूप में प्रयोग किए जाते हैं। प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले उत्पाद नई रसायन पद्धति के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।
प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण उपापचयी पदार्थ निम्नलिखित हैं-
1. एल्केल्वाइड
2. फ्लेवोन्वाइड
3. फिनॉल
4. टर्पेन्वाइड
5. क्यूनोन्स
1. एल्केल्वाइड
ये प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले रासायनिक पदार्थ हैं। जो ज्यादातर बेसिक नाइट्रोजन एटम को संग्रहित करते हैं। एल्केल्वाइड एक बड़ी मात्रा में (बैक्टीरिया) जीवाणु, विषाणु, कवक तथा जीव-जन्तुओं द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं तथा प्राकृतिक उत्पादों के समूह का भी एक हिस्सा होता है। बहुत से ऐल्केल्वाइड्स, क्रूड एक्सट्रेक्ट के अम्ल-क्षार अभिक्रिया द्वारा शुद्ध किए जाते हैं। बहुत से ज्ञात लक्षणों में से एक ऐल्केल्वाइड का काम रक्षा करना होता है। जैसे- एपॉर्फिन ऐल्केल्वाइड लिरियोडेनाइन ‘‘ट्यूलिप वृक्ष’’ से बनाए जाते हैं, जो इसकी परजीवी मशरूम के विरूद्ध रक्षा करते हैं। इसके अलावा पेड़ों में ऐल्केल्वाइड की उपस्थिति उन्हें कीटों तथा कार्डेट जीवों से बचाती है, ताकि वे इनको ना खा पाएं। सामान्यत: पहला मुख्य औषधीय ऐल्केल्वाइड मॉरफिन पाया गया जो पापवेज सोमनीफेरम से प्राप्त किया गया। इनसे सम्बंधित कई पेड़ों की प्रजातियाँ प्रति - सूक्ष्म जीवी ऐल्केल्वाइड को उत्पन्न करने के लिये जानी जाती हैं। प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कई ऐल्केल्वाइड्स प्रति सूक्ष्म जीवी गुणवत्ता रखते हैं। जोकि औषधीय रूप में प्रयोग किए जाते हैं। कुछ प्रमुख ऐल्केल्वाइड निम्न हैं, जो वृक्षों द्वारा प्राप्त किए जाते हैं, तथा प्रति सूक्ष्म जीवी भी होते हैं।
कुछ प्रमुख ऐल्केल्वाइडस संरचनाएं निम्नलिखित हैं :- कैन्थीन -6- ओन (1) को एलियम नियापोलिटेनम द्वारा प्राप्त किया जाता है, जो एक बड़े पैमाने पर सूक्ष्म जीवियों के विरुद्ध सक्रिय हैं जैसे एस्परजिलस फ्यूमिगेट्स, एस्परजिलस नाइजर, कैनडीडा एल्बीकेन आदि। इनकी एमआईसी वैल्यू 1.66-10.12 μg ml-1 है। 5- मेथाक्सीकैन्थीन -6- ओन (2), टी. मेन्टाग्रोफाइट्स के विरुद्ध सक्रिय होते हैं, जिनकी एमआईसी वैल्यू 3.075 μg ml-1 है। 8- हाइड्राक्सी कैन्थीन -6- ओन (3), एलियमनिआपोलिटेनम द्वारा प्राप्त हुआ, जो माइकोबैक्टीरियम स्मेगमेटिस, स्टेफाइलोकोकस अॉरियस के विरुद्ध कार्य करता है। इनकी एमआईसी वैल्यू 2.0 μg ml-1 है। वाईएम-215343 (4) यह प्रतिकवक सक्रियता के विरुद्ध (कैन्डिडा एल्बीकेन्स, कैन्डिडा नियोफॉरमेन्स) काम करता है। इनकी एमआईसी वैल्यू 2 से 16 μg ml-1 है। एपिओस्पोरेमाइड (5) तथा फिस्चेरिंग (6) भी वाई एम-215343 ऐल्केल्वाइड की तरह कार्य करता है। एजुडेजोल (7,8) भी कुछ कवक तथा ग्राम (-) जीवाणुओं के विरुद्ध सक्रियता रखतें हैं।
2. फ्लेवोन्वाइडस
फ्लेवोन्वाइडस पेड़ों में जटिल रूप से वितरित रहते हैं, जो पेड़ों के कई उपयोगिताओं तथा आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। फ्लेवोन्वाइड एक प्रमुख महत्त्वपूर्ण वृक्ष रंजन है जो फूलो के रंग के लिये जिम्मेदार होता है, तथा पत्तियों में पीला, नीला, लाल रंग उत्पन्न करते हैं। उच्चस्तरीय पौधों में फ्लोवोन्वाइडस यू.वी. फिल्ट्रेशन, सिम्बयाटिक नाइट्रोजन फिक्सेशन तथा पुष्पीय रंजन की क्रिया में सम्मिलित होते हैं। यह रसायनिक दूतवास तथा फिजोयोलॉजिकल रेगुलेटर की तरह काम करते हैं। जोकि पेड़ों तथा कोषिका चक्र रोधी के रूप में भी सहयोग करते हैं। कुछ अन्य फ्लेवोन्वाइड्स सूक्ष्मजीवियों के विरुद्ध कार्य करते हैं, जो वृक्ष-रोग उत्पन्न करने के लिये जिम्मेदार होते हैं, जैसे :- फ्यूजेरियम अॉक्सीपोरम कुछ प्रमुख फ्लेवोनाइड संरचनाएं निम्नलिखित हैं :- ऐपिजेनिन (10), स्क्यूटिलेरिया बारबाटा से प्राप्त किया किया जाता है, जो 20 (एमआरएसए) स्ट्रेन्स के विरुद्ध सक्रिय होते हैं जिनकी एमआईसी वैल्यू 3.9-15.6 μg ml-1 है। (11) सिलेजिनेला टामानिसिना द्वारा प्राप्त किया जाता है जोकवक परजीवी के विरुद्ध सक्रिय पाये गए। जैसे (कैन्डीडा एलबीकेन्स, स्टेफाइलोकोकस सेरेविसी)। केइम्फेरॉल (12), विस्मिया लारेन्टी से प्राप्त किये गये हैं। जो कुछ ग्राम (-) तथा ग्राम (+) परजीवियों (कैन्डीडा ग्लेबराटा) के विरुद्ध सक्रिय हैं। जिनकी एमआईसी 2.4 μg ml-1 है। क्राईसोएरीअॉल (13), जो न्यूोबोल्डिया नेइविस द्वारा प्राप्त किये गये। यह एक बड़े स्तर पर ग्राम (-) तथा ग्राम (+) जीवाणिुओं के विरुद्ध सक्रिये हैं। जिनकी एमआईसी 1.2-9.76 μg ml-1 है। फ्लेवॉन ग्लाइकोसाइड (14) वाइटेक्स निगुन्डा की पत्तियों से प्राप्त किया गया। जो ट्राइकोफाइटॉन मेन्टाग्रोफाइट्स तथा सी. नियोफार्मेन्स के विरूद्ध सक्रियता दिखाता है। जिसकी एमआईसी वैल्यू 6.25 μg ml-1 है। डाइबेन्जिल अॉक्सीफ्लेवान (15), जोकि हेलीक्रिसम जिमनोकामस से प्राप्त होता है इसमें क्रिप्टोकॉकस नियोफारमेन्स के प्रति बहुत अच्छी क्षमता देखी गई है इसकी एमआईसी वैल्यू 7.8 μg ml-1 है। लेबुरनेटिन (16), फीकसक्लेमाइडो क्लेमाइडोकार्पा के मेथेनॉलिक अर्क द्वारा प्राप्त किया गया। जो माइको बैक्टीरियम स्मेग्मैटिस तथा माइको बैक्टीरयम ट्यूबरक्लोसिस के विरुद्ध सक्रिय होते हैं। इसकी एमआईसी वैल्यू 0.61 तथा 4.88 μg ml-1 है।
फ्लोवोन्वाइड्स माध्यमिक उपापचयियों की एक बड़ी श्रेणी होती है, जोकि पेड़-पौधों की कई प्रजातियों में विस्तृत होते हैं। यह पेड़ों की U.V.विकिरण तथा वातावरणीय दबाव से सुरक्षा करते हैं। तथा इनमें प्रति - आक्सीकारक का भी लक्षण पाया जाता है। यह प्रतिसूक्ष्मजीवी घटक के रूप में प्रदर्षित होते हैं।
3. फिनॉलिक्स
फिनॉलिक्स भी प्रतिसूक्ष्मजीवी के रूप में जाना जाता है, तथा यह वृक्ष-परजीवी को भी नियंत्रण में रखते हैं। इनकी सक्रियता मानव परजीवी के रूप में भी आविष्कारित की गई है, जोकि चिकित्सीय पदार्थ तथा औषधीय रूप में भी प्रयोग की जा रही है। फिनॉल्स कम्पाउन्ड पेड़ो तथा सूक्ष्मजीवियों द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं, इन्ड्रस्टियल स्तर पर संश्लेषित किए जाते हैं। यह अधिक अम्लीय होते हैं। पेड़-पौधों में यह सामान्यत: सभी सभ्यता में औषधि के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। तथा मनुष्यों में उनकी स्वास्थ्यता और रोग-निवारण के रूप में अत्यन्त कारगर सिद्ध हुए है। कुछ फिनॉल्स कीटाणुरोधी होते हैं, जो प्रति - संक्रामकता के रूप में बनाए जाते है। कुछ फिनॉल भोजन के रूप में प्राप्त किए जाते हैं, तथा औषधि के रूप में भी आविष्कारित किए गए हैं। जैसे - क्रोफेलेमर, एक औषधि है जिसे अतिसार के बचाव के रूप में प्रयोग किया गया है। कुछ प्रमुख फिनॉलिक्स संरचनाएं निम्नलिखित हैं :-इरीब्रेइडिन बी (17), इरीब्रेइडिन ए (18), फॉसिओलिन (19), इरीथाबाइसिन-II (20), इरिस्टागैलिन (21), इरिथ्राबिसिन-I (22), इरीक्रिस्टागैलिन, (23), इरीथ्रीना स्युबमब्रेन्स के तने से प्राप्त किया गया जो स्ट्रेप्टोकोकस के स्ट्रेन के विरुद्ध सक्रिय है। इनकी एमआईसी वैल्यू 0.78-1.56 μg ml-1 है।
केनजोनोल्स, फाइटो - फिनॉल्स के नाम से जाना जाता है, जिसकी सक्रियता के कारण ये प्रति - सूक्ष्मजीवी के नाम से ज्ञात है। केनजोनोल C58 तथा इसके एनॉलाग असइसोबेवेकैलकॉन, स्टिपुलिन लारटेरी के टृविंग्स के अर्क से प्राप्त किए गए है। जो एक बड़ा स्पेक्ट्रम रखते हैं, तथा दोनो ग्राम (-) और ग्राम (+) जीवाणु, कवक के विरूद्ध सक्रिय होते हैं।
4. टरपेन्वाइड
यह प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले एक बड़े समूह के कार्बनिक रसायन होते हैं, जो टरपेन्स के समान होते है। जो 5- कार्बन आइसोप्रिन समूह द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। ये एक दूसरे से भिन्न संरचना वाले होते है ना कि केवल उनके सहायक समूह के कारण बल्कि उनके आधारीय कार्बन तंत्र के कारण भी। यह लिपिड सभी श्रेणी के जीवित वस्तुओं में पाए जा सकते हैं। अपितु ये बड़े समूह के प्राकृतिक उत्पादों में भी पाए जाते हैं। तथा फार्मास्यूटिकल कार्यों में भी प्रयोग किए जाते हैं। यह अदरक तथा लौंग के स्वाद के लिये जिम्मेदार होते हैं। तथा सूरजमुखी में पीले रंग, टमाटर के लाल रंग के लिये भी। स्टेरवाइड्स तथा स्टेरॉल्स जैविक रूप से जन्तुओं में टरपेन्वाइड द्वारा उत्पन्न किए जाते है। बड़ी संख्या में टरपेन्वाइड्स माध्यमिक उपापचयी पदार्थों की श्रेणी होते हैं, जो आइसोप्रिन इकाई से मिलकर बने होते हैं। बहुत से उच्चस्तरीय टरपेन्वाइड को प्रतिसूक्ष्मजीवी गुणों के रूप में भी जाना जाता है।
कुछ प्रमुख टरपेन्वाइड संरचनाएं निम्नलिखित हैं - जेन्थारिजॉल (33), जेन्थॉरिजा के इथेनॉलिक अर्क से प्राप्त किया गया जो बैसिलस सेरिअस, क्लोस्ट्रडियम परफ्रिन्जेन्स के विरुद्ध सक्रिय है - (एमआईसी 8.0-16.0 μg ml-1)। सिन्नेमोडियल (34), प्लिओडेन्ड्रान कोसटेरिसेन्स की पत्तियों तथा छाल द्वारा प्राप्त किया गया। जो अल्टरनेरिया अल्टरनेटा के विरुद्ध सक्रियता प्रदर्षित करते हैं- (एमआईसी 3.9 μg ml-1)। कोलिओन यू (35), कोलिओन यू क्यूनोन (36), प्लेक्ट्रान्थस सैकेट्स द्वारा प्राप्त हुआ जो बी. सबट्यूलिस, स्यूडोमोनास साइरिनजी के विरुद्ध सक्रिय है - (एमआइसी क्रमश: 3.12, 3.13, 6.15 μg ml-1)। 6 अल्फा- मोनोनिलअॉक्सीमेनोइल अॉक्साइड (37) स्टेमोडिया फोलिओसा द्वारा प्राप्त हुआ, जो स्टेफाइलोकोकस अॅरियस के विरुद्ध सक्रिय है- (एमआईसी क्रमश: 7.0-15.0 μg ml-1)। डाइटरपेन्वाइड हार्डविकाइक एसिड (38), इरविन्जिया गैबोनिसिस के तने तथा छाल द्वारा प्राप्त किया यह ग्राम (+) जीवाणुओं (निजेरिया गोनोरोइ) के विरुद्ध सक्रिय होते हैं- (एमआईसी 1.22-4.8 μg ml-1)।
5. क्यूनोन
क्यूनोन कार्बनिक पदार्थों की एक श्रेणी है, जोकि सामान्यत: ऐरोमैटिक यौगिकों द्वारा प्राप्त की जाती है। जैसे- बेन्जीन, नेफ्थलीन। प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक रूप से प्राप्त क्यूनोन जैविक तथा फार्माकोलॉजिकल गुण दर्शाती है तथा प्रति- ट्यूमर क्षमता भी प्रदर्षित करती है। इसका उपयोग प्रतिसूक्ष्मजीवी, प्रति-ट्यूमर तथा हृदय रोधी बीमारियों के रूप में भी किया जाता है। बहुत प्राकृतिक तथा कृत्रिम रंगीन पदार्थ जैसे- (डाई, और रंजक) क्वीनोन के समस्थानिक होते हैं। बेन्जो-क्यूनोन को रासायनिक तथा कार्बनिक रसायन में आक्सीकारक घटक की तरह उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक रूप से प्राप्त क्यूनोन में जैविक क्रियाओं की विशिष्टता पाई जाती है तथा इसे सामान्यत: जीवाणुरोधी गुण के नाम से भी जाना जाता है।
कुछ प्रमुख क्यूनोन संरचनाएं निम्नलिखित हैं :- 4 प्रतिसूक्ष्मजीवी क्यूनोन (24-28), विस्मिया लॉरन्टाई से निकाले गए जो ग्राम (-) जीवाणु और दो कैन्डीडा प्रजाति के विरुद्ध सक्रिय थे। इसकी एमआईसी वैल्यू क्रमश: 4.8, 2.4, 2.4, 4.8, 1.2 μg ml-1 है। (29), एक आस्ट्रेलियन प्लांट इरिमोफिला सिरूलाटा का मुख्य घटक है। जो स्टेफाइलोकोकस अॉरियस के विरुद्ध सक्रिय हैं- (एमआईसी 7.8 μg ml-1)। (30) 7- एपी- क्लूसिअनोन, रिडिया बेजीलेइन्सिस के फल से निकाला गया जो बहुत ही कम सान्द्रता पर अधिक प्रतिक्रिया देता है। (31) म्यूटाएक्टीमाइसिन, एचपीएलसी से प्यूरीफाई किया गया जो ग्राम (+) जीवाणु के विरुद्ध सक्रिय था- (एमआईसी 7.8 μg ml-1)। (32) डेकास्पाइरॉन ए, जोकि ताजे पानी के जलीय कवक डेकास्रेला थाइरिअवइड्स से प्राप्त हुआ। जो स्परजिलस फ्लेवस के विरुद्ध सक्रिय था- (एमआईसी 7.8 μg ml-1)।
निष्कर्ष
उपरोक्त लेख में विभिन्न प्रकार के माध्यमिक उपापचयी पदार्थों के स्रोतों तथा उनकी संरचनाओं का वर्णन किया गया है जो सक्रिय प्रतिसूक्ष्मजीवी की भूमिका निभाते हैं। प्राचीनकाल में बहुत से प्रतिसूक्ष्मजीवी, सूक्ष्मजीवियों द्वारा प्राप्त किए गए हैं तथा यह स्पष्ट किया गया है कि सूक्ष्मजीवियों के साथ-साथ पेड़ पौधे भी प्रति सूक्ष्मजीवियों के लिये एक अच्छे स्रोत होते हैं। उपरोक्त लेख से यह प्रदर्शित होता है कि कुछ प्राकृतिक रूप से प्राप्त माध्यमिक उपापचयी जैसे-एल्केल्वाइड, फ्लेवोन्वाइड्स, फिनॉल, टरपेन्वाइड, क्यूनोन, सूक्ष्मजीवियों के विरुद्ध महत्त्वपूर्ण लक्षण प्रदर्शित करते हैं।
संदर्भ
1. बेरीस आ. पी. (1996) प्राकृतिक उत्पाद शोधः पर्सपेक्टिव फ्रॉम ए मेजर फार्मास्युटिकल कम्पनी, जे. इथेनोफार्माकॉल., खण्ड 51, मु. पृ. 29-38।
2. मोरमेन डी. ई. (1996) एन एनालिसिस ऑफ द फूड प्लान्ट्स एण्ड प्लान्ट ऑफ नेटिव नार्थ अमेरिका, जे. इथेनोफार्माकॉल., खण्ड 52, मु. पु. 1-22।
3. मोब्ह, शीरो (1938) रिसर्च फॉर विटामिन पी., द जर्नल ऑफ बायोकेमिस्ट्री, खण्ड 29, अंक 3, मु. पृ. 487-501।
4. गैलिओटी, एफ; बारिली, ई.; कुरिर, पी.; डोलकी एम. एवं लेनजोती, वी. (2008) फ्लेवोन्वाइड्स फ्रॉम कारनेशन (डाईएन्थस केरियोफाइलस) एण्ड दियर एन्टीफन्गल एक्टिविटी।
5. स्पेन्सर, जेरिमी पी. ई. (2008) फ्लेवोन्वाइड्सः मॉडिलेटर्स ऑफ ब्रेन फंक्शन, ब्रिटिश जर्नल ऑफ न्यूट्रीशन, खण्ड 99, मु. पृ. 60-77।
6. ओ-डोन्नेल, जी. तथा गिब्बंस, एस. (2007) एण्टीबैक्टीरियल एक्टिविटी ऑफ टू कैंथीन-6-वन एल्कलॉइड्स फ्रॉम ऐलियम नियापोलिटेनम, फाइटोथेर. रिस., खण्ड 21, मु.पृ. 653-657।
7. सातो, वाई.; सुजेकी, एस.; निशकवा टी.; किहारा, एम.; शिबाटा एच. एवं हिगूती, टी. (2002) ज. इथेनाफार्माकोलॉजी, खण्ड 72, मु.पृ. 483-488।
8. सिंह, डी. एन.; वर्मा, एन.; रघुवंशी, एस.; शुक्ला, पी. के. एवं कुलश्रेष्ठ, डी. के. (2006) बॉयोआफर्ग, मेड. केम. लेट., खण्ड 16, मु. पृ. 4512-4514।
9. कोरेशी, ऐ. एम.; फोस, एस. आर.; कार्टेज, डी. ऐ.; नाकामुरा, टी. वेदा, नाकामुरा, सी. वी. एवं डाइस फिहो, बी. पी. (2008) ज. इथेनाफार्माकोलॉजी, खण्ड 117, मु. पृ. 270-277।
10. जुंग, एच. जे.; सुंग, डब्ल्यू एस.; इयो, एस. एच; किम, एच. एस.; ली, एल. एस.; वू, ई. आर. एवं ली, डी. जी. (2006) आर्क. फार्माकॉल. रिस., खण्ड 29, मु. पृ. 746-751।
महेश पाल, शिप्रा शुक्ला, तृप्ति मिश्रा, डीके उप्रेती, पादप रसायन विभाग सीएसआईआर-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एन बी आर आई) राणा प्रताप मार्ग, लखनऊ (उप्र)-226001, भारतDrmpal.nbri@rediffmail.com
Mahesh Pal, Shipra Shukla, Tripti Misra, D.K. Upreti Phytochemistry Division CSIR-National Botanical Research Institute (NBRI) Rana Pratap Marg, Lucknow (U.P.)-226001, India Drmpal.nbri@rediffmail.com
Path Alias
/articles/paraakartaika-parataisauukasamajaivai-rasaayana-natural-antimicrobial-chemicals
Post By: Hindi