प्राकृतिक जलचक्र, पृथ्वी पर पानी की सतत यात्रा का लेखाजोखा है। अपनी यात्रा के दौरान वह समुद्र, वायुमण्डल और धरती से गुजरता है। पानी से भाप बनने की प्रक्रिया दर्शाती है कि वह चाहे जितना भी प्रदूषित हो, पर जब वह भाप में बदलता है तो पूरी तरह शुद्ध हो जाता है। वह जब धरती पर बरसता है तब भी शुद्ध रहता है। धरती पर उसकी शुद्धता खंडित होती है।
प्राकृतिक जलचक्र का सन्तुलन काबिले तारीफ है। वह दर्शाता है कि पृथ्वी से जितना पानी भाप बनकर वायुमण्डल में पहुँचता है उतना ही पानी बरसात के रूप में पृथ्वी पर लौटता है। वायुमण्डल में भाप के रूप में स्थायी रूप से पानी की जितनी मात्रा हमेशा मौजूद होती है उतनी ही मात्रा नदियों तथा जमीन के नीचे के पानी द्वारा समुद्र को लौटाई जाती है। प्राकृतिक जलचक्र की यह व्यवस्था करोड़ों सालों से लगातार चल रही है। वह आगे भी चलेगी। जलवायु परिवर्तन उसकी विभिन्न अवस्थाओं को भले ही प्रभावित करे, उसकी सकल मात्रा और यात्रा यथावत रहेगी।
प्राकृतिक जलचक्र, पानी की सतत यात्रा का विवरण पेश करता है। वह दर्शाता है कि पानी अपनी यात्रा के दौरान वायुमण्डल में लगभग 15 किलोमीटर की ऊँचाई तक तथा धरती की ऊपरी परत में लगभग एक किलोमीटर की गहराई तक विचरण करता है। यह, यात्रा प्रकृति द्वारा सौंपी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये है। वह, कहीं जीवन जीने के लिये परिस्थितियाँ उपलब्ध करा रही है तो कहीं भौतिक या रासायनिक या दोनों बदलावों को अंजाम दे रही है।
आम आदमी को, प्राकृतिक जलचक्र अत्यन्त सरल नजर आता है पर हकीकत में वह तथा उसके अन्तर्गत चल रही अनेक प्रक्रियाएँ बहुत ही जटिल हैं। वास्तव में, जलचक्र को एक शृंखला से नहीं दर्शाया जा सकता। उसकी अनेक उप-शाखाएँ हैं जो स्थानीय, क्षेत्रीय तथा महाद्वीपों के स्तर पर उपस्थित हैं तथा लगातार संचालित होती रहती हैं। वह एक जटिल सिस्टम की तरह है। उनमें मौजूद पानी, लगातार चलता रहता है, अपने दायित्व पूरा करता है तथा परिणामों को उनके अंजाम तक पहुँचाता है। उस व्यवस्था का न आदि है और न अन्त। नदी का प्रवाह उस यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण भाग है।
यह सच है कि समय तथा मौसम के अनुसार जलचक्र में निहित पानी की मात्रा में कमीवेशी होती है पर उसकी सकल मात्रा अपरिवर्तनीय है। स्थानीय, क्षेत्रीय तथा महाद्वीपों के स्तर पर भी उसका वितरण लगातार बदलता रहता है। सतह पर बहने वाले तथा जमीन के नीचे प्रवाहित होने वाले पानी में अनेक समानताएँ तथा असमानताएँ हैं।
प्राकृतिक जलचक्र के अन्तर्गत जब पूरी तरह स्वच्छ तथा निर्मल पानी जब धरती पर बरसता है तो उसका कुछ अंश, रन-ऑफ के माध्यम से नदी तंत्र को मिलता है। इस यात्रा में कुछ अशुद्धियाँ उसे मिल जाती हैं। वह उन्हें अपने साथ बहाकर तथा घोलकर आगे ले जाता है। नदी तंत्र, अशुद्धियों (घुलित एवं ठोस) सहित उस पानी को समुद्र में वापिस जमा कर देता है। लगता है, प्राकृतिक जलचक्र, यह काम धरती को साफ-सुथरा तथा जीव-जन्तुओं के रहने योग्य बनाए रखने के लिये करता है। वह इस व्यवस्था के अन्तर्गत सारा कचरा समुद्र में जमा करता है। विषम परिस्थितियों में भी वह जीवन को संरक्षण देता है।
अनुमान है कि प्राकृतिक जलचक्र में लगभग 13100 लाख घन किलोमीटर पानी हिस्सा लेता है। यह हिस्सेदारी धरती की साफ-सफाई और जीवन को आधार देने की जिम्मेदारी निभाने के लिये है। खारा पानी मुख्यतः भाप बनकर साफ पानी में बदलता है और साफ पानी बन कर महाद्वीपों पर जीवन सँवारता है।
पृथ्वी पर मौजूद इस पानी का लगभग 97 प्रतिशत समुद्रों में खारे पानी के रूप में तथा लगभग 3 प्रतिशत धरती पर साफ पानी के रूप में मौजूद है। धरती पर मौजूद साफ पानी का 68.7 प्रतिशत हिमनदियों एवं बर्फ की चोटियों में, 30.1 प्रतिशत पानी भूजल के रूप में तथा 0.3 प्रतिशत सतही जल और बाकी पानी अन्य स्रोतों में मिलता है। नीचे दिया चित्र पृथ्वी पर संचालित प्राकृतिक जलचक्र और उसके घटकों को दर्शाता है।
प्राकृतिक जलचक्र, हकीकत में, प्रकृति नियंत्रित जल प्रबन्ध है। वह पृथ्वी पर पानी का ऐसा कुशल प्रबन्ध है जिसे आदिकाल से, कुदरत ने, अनेक दायित्वों को पूरा करने के लिये स्थापित किया है। उसे समझने के लिये पृथ्वी पर अनेक साक्ष्य तथा संकेत मौजूद हैं। वह, अपने जन्म के बाद से सौंपी जिम्मेदारियों को, प्राकृतिक घटकों की सहायता से, कर रहा है। वे घटक, एक ओर जहाँ विभिन्न कालखण्डों में मौजूद जीवन की निरन्तरता एवं विकास यात्रा को निरापद परिस्थितियाँ उपलब्ध कराते रहे हैं तो दूसरी ओर भौतिक, रासायनिक एवं जैविक प्रक्रियाओं की सहायता से पृथ्वी का स्वरूप सँवारते रहे हैं।
पानी और पृथ्वी के उपर्युक्त सम्बन्ध को प्रकृति नियंत्रित करती है। यह अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बिना किसी व्यवधान के आदिकाल से लगातार सम्पन्न हो रही है। यह प्रबन्ध, एक ओर यदि हितग्राहियों के लिये निर्धारित मात्रा में जल उपलब्ध कराता है, तो दूसरी ओर, उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिये, विविध रूपों में उसे संरक्षित कर इष्टतम व्यवस्था कायम करता है। प्राकृतिक जल प्रबन्ध व्यवस्था को देखकर समझ में आता है कि वह वाष्पीकरण, बरसात तथा हिमपात, वर्षाजल, नदी जल, मिट्टी की नमी, ओस, बर्फ, समुद्री पानी के रूप में सक्रिय हो हजारों लाखों तरीकों से अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। वह मात्र प्रवाह नहीं है। वह जीवन का संगीत है।
आश्चर्यजनक है कि समुद्री पानी जो खारेपन के कारण हमारे लिये अनुपयोगी है, को प्राकृतिक जलचक्र अनुपयोगी नहीं मानता। प्रकृति ने समुद्र के खारे होते पानी में भी जीवन को प्रश्रय दिया है और उसे विविधता बख्शी है। भूमध्य सागरीय इलाकों से लेकर ध्रुवीय इलाकों तक खारेपन और तापमान की भिन्नता तथा सतह से लेकर अतुल गहराइयों में रोशनी की असमानता के बावजूद, समुद्रों में विभिन्न प्रजातियों का जीवन फल-फूल रहा है जो दर्शाता है कि परिस्थितियों के भिन्न होने के बावजूद सभी महासागरों तथा खारे पानी की झीलों में जीवन पलता है।
जीवन का पलना और फलना-फूलना दर्शाता है कि प्रकृति ने खारे होते समुद्री पानी में जीवन की सम्भावनाओं को बिना नकारे, योग-क्षेम उपलब्ध कराया है। यही प्राकृतिक जल प्रबन्ध है। यही प्राकृतिक जलचक्र का अटूट हिस्सा है जो महाद्वीपों से बिलकुल ही भिन्न समुद्री परिवेश में जीवन को निरापद आधार प्रदान करता है।
पानी, स्वभाव से अस्थिर है इसलिये उसके ठिकानों और मात्रा का वितरण सब जगह एक जैसा नहीं है। अलग-अलग कालखण्डों में उसमें बदलाव हुए हैं। आगे भी होंगे। इसी प्रकृति के कारण वह महासागरों में गर्म और ठंडी जल धाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। इसी कारण वायुमण्डल में वाष्प, पानी तथा बर्फ के रूप में रह लेता है। इसी कारण, वह धरती की गहराइयों में मैग्मा का हिस्सा बनता है। ज्वालामुखियों के रास्ते बाहर आता है। विभिन्न खनिजों के साहचर्य में यात्राएँ करता है। यही उसका यायावरी मिजाज है।
संक्षेप में, प्राकृतिक जल प्रबन्ध की फिलासफी का मूल मंत्र महाद्वीपों की धरती तथा उसकी उथली परतों की साफ-सफाई कर जीवमात्र के निरापद जीवन के लिये शुद्ध पानी उपलब्ध कराना, नदी घाटी के भूगोल के परिमार्जन के लिये व्यवस्था करना तथा महाद्वीपों पर हर साल एकत्रित होने वाली गन्दगी को समुद्र में जमा कर धरती की नई इबारत लिखने के लिये आधार तैयार करना है। गौरतलब है कि जलचक्र के विभिन्न घटकों द्वारा सम्पादित समस्त क्रियाएँ तथा उप-क्रियाएँ जीवधारियों के क्रियाकलापों, बाह्य हस्तक्षेपों तथा कृत्रिमता से पूरी तरह मुक्त हैं। उन पर केवल प्रकृति तथा उसकी शक्तियों का ही नियंत्रण है। उसका संचरण अकारण नहीं है।
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