राज्य की नदियां लगभग पौने चार हजार किलोमीटर लंबे तटबंधों से घिरी हैं। इस कारण आज पूरा बिहार विनाशकारी बाढ़ के मुहाने पर खड़ा है। सूबे में प्राकृतिक बाढ़ के स्थान पर अप्राकृतिक बाढ़ की आवृति और उससे होने वाली क्षति बढ़ी है।बिहार का समाज बाढ़ सचेत समाज रहा है। नदियों को तटबंधों में कैद करने के पहले तक उत्तर बिहार की नदियों में सलाना बाढ़ एक प्रमुख प्राकृतिक घटना थी, जो अपने पीछे समृद्धि के साधन छोड़ जाती थी। इस कारण बाढ़ के बावजूद देश की सघनतम आबादी उत्तर बिहार में बसती है, लेकिन बाढ़ नियंत्रण के नाम पर नदियों के साथ मानव के विवेकहीन छेड़छाड़ ने इस प्राकृतिक घटना को विनाशकारी आपदा में तब्दील कर दिया।
हिमालय से उतर कर बिहार से गुजरने वाली नदियां बरसात के मौसम में अपने साथ मिट्टी और पानी बहाकर लाती हैं। ऐसी स्थिति में ढाल कम होने के कारण ये निदयां अपनी धारा बदल लिया करती थीं। साथ ही बाढ़ के साथ आया मिट्टी-पानी पूरे इलाके में फैल जाया करता था। इस प्रकार एक ओर नई मिट्टी खेत को और उर्वर बनाती थी और बाढ़ के पानी से जमीन की प्राकृतिक तरीके से पर्याप्त सिंचाई हो जाती थी, लेकिन नदियों को तटबंधों में कैद किए जाने के बाद तटबंधों के भीतर नदी का तल सामान्य भू-तल से ऊपर उठ गया। नतीजतन अब तटबंधों में कैद नदियों में बाढ़ आने पर कमजोर तटबंध कई जगह टूटते हैं और सुरक्षित आबादी इसके विनाश की चपेट में आ जाती है। ऐसी बाढ़ों के कारण लाभ से ज्यादा नुकसान होता है।
राज्य की नदियां लगभग पौने चार हजार किलोमीटर लंबे तटबंधों से घिरी हैं। इस कारण आज पूरा बिहार विनाशकारी बाढ़ के मुहाने पर खड़ा है। सूबे में प्राकृतिक बाढ़ के स्थान पर अप्राकृतिक बाढ़ की आवृति और उससे होने वाली क्षति बढ़ी है। यह सच है कि पूर्व में बाढ़ और नदियों की धारा बदलने के कारण गांव-घर, खेत-खिलहान, जन-जीवन प्रभावित होता था, लेकिन सदियों से इस प्राकृतिक घटना के साथ नाता रिश्ता होने के कारण समाज ने बाढ़ की क्षति को कम करने के लिए ग्रामीण जीवन-शैली को बाढ़ की प्रवृति के अनुकूल विकिसत किया था। ग्रामीण बाढ़ के फैलाव क्षेत्र तक बसाहट नहीं करते थे। नदियों के प्राकृतिक बहाव के रास्ते में कोई भी अवरोध पैदा नहीं करते थे।
बिहार आजादी के बाद अपनाए गए विकास मॉडल के कारण रह-रह कर सुखाड़ की मार झेलता रहा है। सन् 1967 में कम बारिश के कारण सूखा पड़ा था। इससे निजात पाने के लिए बिहार के नदियों में उपलब्ध पानी को सिंचाई के उपयोग में लाने की जगह भू-गर्भ जल के दोहन का रास्ता चुना गया। इस रास्ते पर अंधाधुंध आगे बढ़ने कारण आज एक ओर बिहार अपनी नदियों के सरप्लस पानी यानी बाढ़ का ही उपयोग नहीं कर पा रहा है तो दूसरी ओर भू-गर्भ जल-स्तर के नीचे जाने व अन्य समस्याएं उपजने के कारण बिहार के लगभग सभी इलाके पेयजल संकट की ओर बढ़ रहे हैं। साथ ही इन क्षेत्रों में वे सामान्य फसल की जगह बाढ़सह्य पटसन, ईख, कलाई जैसे फसलों की खेती किया करते थे, जो कि बाढ़ का पानी कुछ महीनों तक झेलने के अनुकूल होते हैं। इतना ही नहीं नदियों के बांधने के पहले तक ग्रामीण अपने पूर्व अनुभव और लोक ज्ञान से यह जानते थे कि कितनी बारिश में कितना पानी, कितनी ऊंचाई तक फैलेगा। इसके साथ ही वे नदियों के पास ऊंचे मचान बनाते थे, अनाज का पर्याप्त भंडार रखते थे। ग्रामीण अदौरी-बरी, सत्तू, चूड़ा जैसे तैयार खाना का संग्रह कर लिया करते थे। यह फूड-हेविट बहुत हद तक आज भी ग्रामीण जीवन शैली का हिस्सा है। नदियों के पास के गांवों में सुरक्षित निकलने के लिए बड़ी संख्या में नाव रखे जाते थे।
बाढ़ के साथ सह-जीवन विकसित कर समाज कैसे रहा करता है इसे आज भी कोसी तटबंध के अंदर बसे लगभग चार सौ गांवों के जीवन-शैली के आइने में देखा जा सकता है। ये गांव पहले की तरह ही बाढ़ के साथ अब भी जीते हैं। अनुभवसिद्ध बाढ़ सह-जीवन पद्धति होने के कारण बाढ़ इनके लिए परेशानी कम समृद्धि ज्यादा लाती है। हालांकि अब ये बाढ़ के मौसम में अस्थाई तौर पर विस्थापित हो जाने को मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि तटबंधों के बीच बहने के कारण बाढ़ के पानी की ऊंचाई अब ज्यादा हुआ करती है, लेकिन जब से तटबंधों ने समाज में बाढ़ से सुरक्षा का भ्रम पैदा किया, तब से समाज अपनी समझ और तैयारी भूलता गया। लोग तटबंधों के आस-पास और नदी के पेट में बसने लगे। नदियों के प्राकृतिक बहाव के रास्ते में विकास के सरअंजाम खड़े किए जाने लगे।
सीमामढ़ी में डुमरा स्थित जिला प्रशासन मुख्यालय इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जो कि लखनदेई नदी, जिसका रूख सत्तर के दशक में तटबंधों के जरिए मोड़ दिया गया, के पेट में बसा है। इसका परिणाम यह है कि यह क्षेत्र रह-रह कर बाढ़ और जल-जमाव के चपेट में आता रहता रहता है। साथ ही इसकी आशंका भी हमेशा बनी रहती है कि यह क्षेत्र किसी दिन बड़े विनाश का साक्षी बनेगा।
बाढ़ के साथ तैयार रहने की जीवन पद्धति भूलने का नुकसान समाज को किस तरह उठाना पड़ रहा है, इसे कुसहा त्रासदी के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। साठ के दशक के बाद कोसी पूर्वी तटबंध के कारण जो लोग जो खुद को बाढ़ की विभीषिका से सुरिक्षत मान बैठे, वे 2008 में मात्र डेढ़ लाख क्यूसेक पानी के बहाव से त्राहिमाम कर उठे। उस साल बाढ़ का पानी जब गांवों और शहरों में घुसा तो एक नाव भी नहीं बची थी।
बिहार आजादी के बाद अपनाए गए विकास मॉडल के कारण रह-रह कर सुखाड़ की मार भी झेलता रहा है। सूखे की परिघटना को समझने के पहले बिहार में 1967 में आए सूखे का जिक्र करना जरूरी होगा। तब कम बारिश के कारण सूखा पड़ा था, लेकिन इससे निजात पाने के लिए बिहार के नदियों में उपलब्ध पानी को सिंचाई के उपयोग में लाने की जगह भू-गर्भ जल के दोहन का रास्ता चुना गया। इस रास्ते पर अंधाधुंध आगे बढ़ने कारण आज एक ओर बिहार अपनी नदियों के सरप्लस पानी यानी बाढ़ का ही उपयोग नहीं कर पा रहा है और दूसरी ओर भू-गर्भ जल-स्तर के नीचे जाने व अन्य समस्याएं उपजने के कारण बिहार के लगभग सभी इलाके पेयजल संकट की ओर बढ़ रहे हैं। यह बहुत बड़ी विडंबना है कि निदयों से परिपूर्ण राज्य आज एक तरफ बाढ़ तो दूसरी ओर सुखाड़ झेलता है। मानव-निर्मित बाढ़ और सुखाड़ को समझने के लिए 2013 का साल एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण पेश कर गया। इस साल जहां एक ही जिले में निदयों के किनारे बसे इलाके बाढ़ के चपेट में थे तो दूसरी ओर उसी जिले के बाकी हिस्से सूखे की मार झेल रहे थे।
बाकी आपदाओं जैसे कि भूकंप, अगलगी, वज्रपात, ओलावृष्टि, आंधी-तूफान आदि की बात करें, तो यह पहली नजर में प्राकृतिक घटनाएं नजर आती हैं, लेकिन यह भी एक मिथक है। अगलगी, वज्रपात, ओलावृष्टि, आंधी-तूफान जहां एक ओर पर्यावरण के साथ किए गए छेड़-छाड़ का दुष्परिणाम हैं, तो दूसरी ओर भूकंप के खतरे अब अंधाधुंध उत्खनन के कारण काफी बढ़ गए हैं। इन सब के बीच वर्तमान दौर की बात करें तो न तो तुरंत नदियों का प्राकृतिक बहाव सुनिश्चित किया जा सकता है, न ही भू-गर्भ जल का दोहन और अंधाधुंध उत्खनन को ही तुरंत रोका जा सकता है। ऐसे में तय है कि अब मानव निर्मित आपदाओं का ज्यादा सामना करना होगा और ऐसा हो भी रहा है। ऐसे में जरूरत यह आन पड़ी है कि इनसे बचाव के लिए तैयार कैसे रहा जाए।
बाढ़ से बचाव के तरीकों की बात करें, तो ऊपर इसका जिक्र प्रकारांतर से किया जा चुका है। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार और दूसरी एजेंसियां इन्हें और ज्ञान एवं संसाधन से संपन्न बनाएं। साथ ही यह संचार विस्फोट का युग है। ऐसे में बाढ़ पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करने की जरूरत है, लेकिन सरकार इस मोर्चे पर अब तक विफल ही नजर आती है। सरकार की विफलता को कुसहा त्रासदी के उदाहरण से साफ समझा जा सकता है। 2008 की इस त्रासदी के दौरान 17 अगस्त तक सरकारी सूचना प्रणाली यह बताती रही कि कोसी पूर्वी तटबंध पूरी तरह सुरक्षित है और अचानक अगले दिन 18 अगस्त की सुबह ही तटबंध टूट गया। इससे साफ है कि या तो सरकार सूचना छिपा रही थी या फिर उसका सूचन तंत्र नकारा था। इस कारण 33 लाख की आबादी बाढ़ का शिकार हुई और उनका पुनर्वास आज भी सपना बना हुआ है।
सुखाड़ से निपटने के लिए आज भी सरकार ने कोई नई पहल नहीं की है। शहरों में घटते भू-गर्भ जल-स्तर के मद्देनजर जल-संरक्षण की बात की जाती है, लेकिन ग्रामीण अंचलों में ऐसी कोई सरकारी पहल भी नहीं दिखती। सुखाड़ से निपटने के लिए नदी, पोखर-तालाब आदि को पुनर्जीवित करने की बात योजनाओं के दायरे से बाहर ही रखी गई है। ऐसे में समाज सूखे से निपटने के दूसरे टिकाऊ उपायों को नहीं अपना पा रहा है। समय-सिद्ध जल स्रोतों आहर, पोखर-तालाब का विकास उपेक्षति पड़ा है और संकट गहराता जा रहा है।
बिहार में अगलगी ऐसी आपदा है जिसके प्रति गांव-समाज बहुत सचेत है। वसंत और ग्रीष्म काल के बीच तेज हवाएं चलने से गांवों में आग लगने का खतरा बना रहता है। इस दौरान ग्रामीण जन-जीवन अगलगी से बचने के लिए काफी सबेरे भोजन पकाकर तैयार हो जाता है। फिर दिन चढ़ने पर घर में चूल्हा नहीं जलाता है। लोग सत्तू, चूड़ा जैसे तैयार भोजन से भी काम चलाते हैं। शाम में हवाओं के शांत होने पर ही चूल्हा जलाया जाता है। इस सावधनी से गांव सुरिक्षत रहते हैं।
भूकंप और अन्य दूसरी आपदाओं की बात करें तो इससे बचाव के उपाय फिलहाल समाज के सोच से बाहर है, क्योंकि यह बिहारी समाज के लिए आम आपदा नहीं है। इन आपदाओं से बचाव के लिए समाज को सघन रूप से शिक्षति-प्रशिक्षित करना एक महत्त्वपूर्ण काम है। सरकार और समाज के लिए काम करने वाली दूसरे एजेंसियों को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। स्कूल और दूसरे शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से विद्यार्थियों को शिक्षित करना और उनके द्वारा पूरे समाज को जागरूक करना एक महत्त्वपूर्ण पहल हो सकती है।
(मनीष शांडिल्य से बात-चीत पर आधारित)
हिमालय से उतर कर बिहार से गुजरने वाली नदियां बरसात के मौसम में अपने साथ मिट्टी और पानी बहाकर लाती हैं। ऐसी स्थिति में ढाल कम होने के कारण ये निदयां अपनी धारा बदल लिया करती थीं। साथ ही बाढ़ के साथ आया मिट्टी-पानी पूरे इलाके में फैल जाया करता था। इस प्रकार एक ओर नई मिट्टी खेत को और उर्वर बनाती थी और बाढ़ के पानी से जमीन की प्राकृतिक तरीके से पर्याप्त सिंचाई हो जाती थी, लेकिन नदियों को तटबंधों में कैद किए जाने के बाद तटबंधों के भीतर नदी का तल सामान्य भू-तल से ऊपर उठ गया। नतीजतन अब तटबंधों में कैद नदियों में बाढ़ आने पर कमजोर तटबंध कई जगह टूटते हैं और सुरक्षित आबादी इसके विनाश की चपेट में आ जाती है। ऐसी बाढ़ों के कारण लाभ से ज्यादा नुकसान होता है।
राज्य की नदियां लगभग पौने चार हजार किलोमीटर लंबे तटबंधों से घिरी हैं। इस कारण आज पूरा बिहार विनाशकारी बाढ़ के मुहाने पर खड़ा है। सूबे में प्राकृतिक बाढ़ के स्थान पर अप्राकृतिक बाढ़ की आवृति और उससे होने वाली क्षति बढ़ी है। यह सच है कि पूर्व में बाढ़ और नदियों की धारा बदलने के कारण गांव-घर, खेत-खिलहान, जन-जीवन प्रभावित होता था, लेकिन सदियों से इस प्राकृतिक घटना के साथ नाता रिश्ता होने के कारण समाज ने बाढ़ की क्षति को कम करने के लिए ग्रामीण जीवन-शैली को बाढ़ की प्रवृति के अनुकूल विकिसत किया था। ग्रामीण बाढ़ के फैलाव क्षेत्र तक बसाहट नहीं करते थे। नदियों के प्राकृतिक बहाव के रास्ते में कोई भी अवरोध पैदा नहीं करते थे।
बिहार आजादी के बाद अपनाए गए विकास मॉडल के कारण रह-रह कर सुखाड़ की मार झेलता रहा है। सन् 1967 में कम बारिश के कारण सूखा पड़ा था। इससे निजात पाने के लिए बिहार के नदियों में उपलब्ध पानी को सिंचाई के उपयोग में लाने की जगह भू-गर्भ जल के दोहन का रास्ता चुना गया। इस रास्ते पर अंधाधुंध आगे बढ़ने कारण आज एक ओर बिहार अपनी नदियों के सरप्लस पानी यानी बाढ़ का ही उपयोग नहीं कर पा रहा है तो दूसरी ओर भू-गर्भ जल-स्तर के नीचे जाने व अन्य समस्याएं उपजने के कारण बिहार के लगभग सभी इलाके पेयजल संकट की ओर बढ़ रहे हैं। साथ ही इन क्षेत्रों में वे सामान्य फसल की जगह बाढ़सह्य पटसन, ईख, कलाई जैसे फसलों की खेती किया करते थे, जो कि बाढ़ का पानी कुछ महीनों तक झेलने के अनुकूल होते हैं। इतना ही नहीं नदियों के बांधने के पहले तक ग्रामीण अपने पूर्व अनुभव और लोक ज्ञान से यह जानते थे कि कितनी बारिश में कितना पानी, कितनी ऊंचाई तक फैलेगा। इसके साथ ही वे नदियों के पास ऊंचे मचान बनाते थे, अनाज का पर्याप्त भंडार रखते थे। ग्रामीण अदौरी-बरी, सत्तू, चूड़ा जैसे तैयार खाना का संग्रह कर लिया करते थे। यह फूड-हेविट बहुत हद तक आज भी ग्रामीण जीवन शैली का हिस्सा है। नदियों के पास के गांवों में सुरक्षित निकलने के लिए बड़ी संख्या में नाव रखे जाते थे।
बाढ़ के साथ सह-जीवन विकसित कर समाज कैसे रहा करता है इसे आज भी कोसी तटबंध के अंदर बसे लगभग चार सौ गांवों के जीवन-शैली के आइने में देखा जा सकता है। ये गांव पहले की तरह ही बाढ़ के साथ अब भी जीते हैं। अनुभवसिद्ध बाढ़ सह-जीवन पद्धति होने के कारण बाढ़ इनके लिए परेशानी कम समृद्धि ज्यादा लाती है। हालांकि अब ये बाढ़ के मौसम में अस्थाई तौर पर विस्थापित हो जाने को मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि तटबंधों के बीच बहने के कारण बाढ़ के पानी की ऊंचाई अब ज्यादा हुआ करती है, लेकिन जब से तटबंधों ने समाज में बाढ़ से सुरक्षा का भ्रम पैदा किया, तब से समाज अपनी समझ और तैयारी भूलता गया। लोग तटबंधों के आस-पास और नदी के पेट में बसने लगे। नदियों के प्राकृतिक बहाव के रास्ते में विकास के सरअंजाम खड़े किए जाने लगे।
जिला मुख्यालय नदी के पेट में
सीमामढ़ी में डुमरा स्थित जिला प्रशासन मुख्यालय इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जो कि लखनदेई नदी, जिसका रूख सत्तर के दशक में तटबंधों के जरिए मोड़ दिया गया, के पेट में बसा है। इसका परिणाम यह है कि यह क्षेत्र रह-रह कर बाढ़ और जल-जमाव के चपेट में आता रहता रहता है। साथ ही इसकी आशंका भी हमेशा बनी रहती है कि यह क्षेत्र किसी दिन बड़े विनाश का साक्षी बनेगा।
पुराने ज्ञान को भूलना नुकसानदेह
बाढ़ के साथ तैयार रहने की जीवन पद्धति भूलने का नुकसान समाज को किस तरह उठाना पड़ रहा है, इसे कुसहा त्रासदी के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। साठ के दशक के बाद कोसी पूर्वी तटबंध के कारण जो लोग जो खुद को बाढ़ की विभीषिका से सुरिक्षत मान बैठे, वे 2008 में मात्र डेढ़ लाख क्यूसेक पानी के बहाव से त्राहिमाम कर उठे। उस साल बाढ़ का पानी जब गांवों और शहरों में घुसा तो एक नाव भी नहीं बची थी।
विकास मॉडल ने लाया सूखे का संकट
बिहार आजादी के बाद अपनाए गए विकास मॉडल के कारण रह-रह कर सुखाड़ की मार भी झेलता रहा है। सूखे की परिघटना को समझने के पहले बिहार में 1967 में आए सूखे का जिक्र करना जरूरी होगा। तब कम बारिश के कारण सूखा पड़ा था, लेकिन इससे निजात पाने के लिए बिहार के नदियों में उपलब्ध पानी को सिंचाई के उपयोग में लाने की जगह भू-गर्भ जल के दोहन का रास्ता चुना गया। इस रास्ते पर अंधाधुंध आगे बढ़ने कारण आज एक ओर बिहार अपनी नदियों के सरप्लस पानी यानी बाढ़ का ही उपयोग नहीं कर पा रहा है और दूसरी ओर भू-गर्भ जल-स्तर के नीचे जाने व अन्य समस्याएं उपजने के कारण बिहार के लगभग सभी इलाके पेयजल संकट की ओर बढ़ रहे हैं। यह बहुत बड़ी विडंबना है कि निदयों से परिपूर्ण राज्य आज एक तरफ बाढ़ तो दूसरी ओर सुखाड़ झेलता है। मानव-निर्मित बाढ़ और सुखाड़ को समझने के लिए 2013 का साल एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण पेश कर गया। इस साल जहां एक ही जिले में निदयों के किनारे बसे इलाके बाढ़ के चपेट में थे तो दूसरी ओर उसी जिले के बाकी हिस्से सूखे की मार झेल रहे थे।
आपदा के पीछे हमारी भूल जिम्मेवार
बाकी आपदाओं जैसे कि भूकंप, अगलगी, वज्रपात, ओलावृष्टि, आंधी-तूफान आदि की बात करें, तो यह पहली नजर में प्राकृतिक घटनाएं नजर आती हैं, लेकिन यह भी एक मिथक है। अगलगी, वज्रपात, ओलावृष्टि, आंधी-तूफान जहां एक ओर पर्यावरण के साथ किए गए छेड़-छाड़ का दुष्परिणाम हैं, तो दूसरी ओर भूकंप के खतरे अब अंधाधुंध उत्खनन के कारण काफी बढ़ गए हैं। इन सब के बीच वर्तमान दौर की बात करें तो न तो तुरंत नदियों का प्राकृतिक बहाव सुनिश्चित किया जा सकता है, न ही भू-गर्भ जल का दोहन और अंधाधुंध उत्खनन को ही तुरंत रोका जा सकता है। ऐसे में तय है कि अब मानव निर्मित आपदाओं का ज्यादा सामना करना होगा और ऐसा हो भी रहा है। ऐसे में जरूरत यह आन पड़ी है कि इनसे बचाव के लिए तैयार कैसे रहा जाए।
आपदा की सूचना देने में सरकार विफल
बाढ़ से बचाव के तरीकों की बात करें, तो ऊपर इसका जिक्र प्रकारांतर से किया जा चुका है। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार और दूसरी एजेंसियां इन्हें और ज्ञान एवं संसाधन से संपन्न बनाएं। साथ ही यह संचार विस्फोट का युग है। ऐसे में बाढ़ पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करने की जरूरत है, लेकिन सरकार इस मोर्चे पर अब तक विफल ही नजर आती है। सरकार की विफलता को कुसहा त्रासदी के उदाहरण से साफ समझा जा सकता है। 2008 की इस त्रासदी के दौरान 17 अगस्त तक सरकारी सूचना प्रणाली यह बताती रही कि कोसी पूर्वी तटबंध पूरी तरह सुरक्षित है और अचानक अगले दिन 18 अगस्त की सुबह ही तटबंध टूट गया। इससे साफ है कि या तो सरकार सूचना छिपा रही थी या फिर उसका सूचन तंत्र नकारा था। इस कारण 33 लाख की आबादी बाढ़ का शिकार हुई और उनका पुनर्वास आज भी सपना बना हुआ है।
सुखाड़ से निबटने की ठोस पहल नहीं
सुखाड़ से निपटने के लिए आज भी सरकार ने कोई नई पहल नहीं की है। शहरों में घटते भू-गर्भ जल-स्तर के मद्देनजर जल-संरक्षण की बात की जाती है, लेकिन ग्रामीण अंचलों में ऐसी कोई सरकारी पहल भी नहीं दिखती। सुखाड़ से निपटने के लिए नदी, पोखर-तालाब आदि को पुनर्जीवित करने की बात योजनाओं के दायरे से बाहर ही रखी गई है। ऐसे में समाज सूखे से निपटने के दूसरे टिकाऊ उपायों को नहीं अपना पा रहा है। समय-सिद्ध जल स्रोतों आहर, पोखर-तालाब का विकास उपेक्षति पड़ा है और संकट गहराता जा रहा है।
अगलगी से हो रही तबाही
बिहार में अगलगी ऐसी आपदा है जिसके प्रति गांव-समाज बहुत सचेत है। वसंत और ग्रीष्म काल के बीच तेज हवाएं चलने से गांवों में आग लगने का खतरा बना रहता है। इस दौरान ग्रामीण जन-जीवन अगलगी से बचने के लिए काफी सबेरे भोजन पकाकर तैयार हो जाता है। फिर दिन चढ़ने पर घर में चूल्हा नहीं जलाता है। लोग सत्तू, चूड़ा जैसे तैयार भोजन से भी काम चलाते हैं। शाम में हवाओं के शांत होने पर ही चूल्हा जलाया जाता है। इस सावधनी से गांव सुरिक्षत रहते हैं।
भूकंप हमारी सोच से बाहर
भूकंप और अन्य दूसरी आपदाओं की बात करें तो इससे बचाव के उपाय फिलहाल समाज के सोच से बाहर है, क्योंकि यह बिहारी समाज के लिए आम आपदा नहीं है। इन आपदाओं से बचाव के लिए समाज को सघन रूप से शिक्षति-प्रशिक्षित करना एक महत्त्वपूर्ण काम है। सरकार और समाज के लिए काम करने वाली दूसरे एजेंसियों को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। स्कूल और दूसरे शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से विद्यार्थियों को शिक्षित करना और उनके द्वारा पूरे समाज को जागरूक करना एक महत्त्वपूर्ण पहल हो सकती है।
(मनीष शांडिल्य से बात-चीत पर आधारित)
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