प्राकृतिक आपदाओं पर नियंत्रण की आवश्यकता


प्राकृतिक आपदाओं में कमी लाने तथा क्षेत्रों में उनका सामना करने की क्षमता बढ़ाने के लिये कई कार्यक्रम चलाए गए हैं। इनमें मरु भूमि विकास कार्यक्रम, सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम तथा जल विभाजक विकास कार्यक्रम शामिल हैं। नदी घाटी परियोजनाओं तथा बाढ़ की आशंका वाली नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में बाढ़ की संभावना कम करने के उद्देश्य से केन्द्र प्रायोजित मृदा संरक्षण परियोजना चलाई गई है।

आए दिन कोई न कोई प्राकृतिक आपदा आती रहती है। ऐसे संकट के समय सभी ओर से हाय-तौबा मचाई जाती है तथा राहत और पुनर्वास पर करोड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं। परन्तु उसके फौरन बाद हम सब कुछ भूल जाते हैं और तब तक सोते रहते हैं, जब तक दूसरा संकट हमारे दरवाजे पर आकर दस्तक नहीं देने लगता। ऐसी आपदाओं के सामाजिक-आर्थिक दुष्प्रभावों तथा इन संकटों के प्रभाव से मुक्ति पाने के लिये आवश्यक उपायों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

यह तो मानना ही पड़ेगा कि प्राकृतिक विपदाओं को रोका नहीं जा सकता। इन्हें पूरी तरह रोकना भले ही असंभव हो, किन्तु समाज और प्रशासन को इनका सामना करने के लिये तैयार रखकर इनके प्रभाव और इनसे होने वाली क्षति को अवश्य कम किया जा सकता है।

उद्देश्य


इन्हीं पहलुओं के बारे में चेतना पैदा करने के लिये संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसम्बर, 1989 में एक प्रस्ताव पारित करके 1990 के दशक को प्राकृतिक आपदा नियंत्रण का अन्तरराष्ट्रीय दशक घोषित किया। इसका उद्देश्य प्राकृतिक आपदा नियंत्रण के क्षेत्र में अन्तरराष्ट्रीय सहयोग तथा इन उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये राष्ट्रीय प्रयासों को बढ़ावा देना है।

प्राकृतिक आपदा नियंत्रण के अन्तरराष्ट्रीय दशक के अंतर्गत राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर प्राकृतिक खतरों तथा उनसे बचाव की तैयारी की योजनाओं का मूल्यांकन और अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व स्थानीय स्तर पर चेतावनी प्रणाली तथा इस चेतावनी को लोगों तक पहुँचाने की संचार प्रणाली विकसित करने के लक्ष्य तय किए गए हैं इसके अलावा सम्बंधित अधिकारियों तथा संस्थाओं द्वारा विपदाओं के अध्ययन की प्रक्रिया तेज करने की बात कही गई है।

प्राकृतिक संकटों के अध्ययन के अंतर्गत विनाशकारी आपदाओं का पता लगाना, आपदा के भौगोलिक प्रमाण का आंकना तथा प्रभावित हो सकने वाली घनी आबादी के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का अध्ययन करना शामिल हैं। संकटों का सामना करने की तैयारी की योजनाओं में खतरों को रोकने या उनसे बचने के लिये भूमि के इस्तेमाल तथा भवन निर्माण की उपयुक्त तकनीकें अपनाना, अचानक-विपत्ति आने की स्थिति में क्रियान्वयन के लिये आपता योजनाएँ बनाना तथा विपदा के स्वरूप के बारे में लोगों को जागरूक बनाने का कार्यक्रम तैयार करना शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ये सभी उपाय इसलिये किये क्योंकि प्राकृतिक संकटों में बहुत वृद्धि हुई है और उनमें जान-माल की हानि भी बढ़ गई है। सन 1900 से 1960 तक के 6 दशकों में विश्व भर में करीब 4,000 प्राकृतिक विपदाएँ आई थीं, जबकि 1960 से 1989 तक ही अपेक्षाकृत छोटी अवधि में ऐसी 3,400 घटनाएँ हो गईं। इन संकटों का सभी क्षेत्रों पर दुष्प्रभाव पड़ता है यद्यपि दुष्प्रभाव की मात्रा में अंतर होता है। विनाश की इन घटनाओं के मामले में दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र का विश्व में चौथा स्थान है। इस शताब्दी के 9 दशकों में समूचे विश्व में प्राकृतिक संकट की कुल 7000 घटनाओं में से लगभग 900 घटनाएं दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र में हुई।

दुष्परिणाम


प्राकृतिक विपदाओं की संख्या में वृद्धि मनुष्य द्वारा निर्मित पहलुओं के कारण हुई है। वातावरण में कार्बन डायक्साइड तथा अन्य गर्म गैसों के बनने, जिसे ‘ग्रीन हाउस’ प्रभाव कहा जाता है, फलस्वरूप बहुत खतरनाक घटनाएं हो सकती हैं, जिनमें लम्बे समय के सूखे से लेकर समुद्र की सतह में ऊँचाई तक शामिल हैं।

प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली विनाशलीला सर्वव्यापक है इनसे बड़ी संख्या में मनुष्य व पशु घायल होते हैं तथा मर जाते हैं। इसके अलावा मानव अस्तित्व के लिये आवश्यक सेवाओं व साधनों, जैसे कि मकान, जल-आपूर्ति, चारा, वितरण प्रणाली तथा जल निकासी एवं स्वच्छता की सुविधाएँ इनसे बुरी तरह प्रभावित होती हैं। प्राकृतिक संकट और पर्यावरण एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, अतः इन विपदाओं से पर्यावरण में काफी परिवर्तन आता है। यह भी बताया जाता है कि विश्व भर में आपदाओं का शिकार होने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। 1960 के दशक में दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं से 2,570 व्यक्तियों की मृत्यु हुई, जबकि 1970 के दशक में यह संख्या बढ़कर 1,42,380 हो गई।

इस संदर्भ में चिंता का मुख्य कारण यह है कि आमतौर पर हम प्राकृतिक संकट प्रबंध को सामान्य विकास कार्यक्रम से अलग मानकर चलते हैं। संकट के बाद राहत तथा पुनर्वास के लिये ही प्रायः राजनेताओं का ध्यान जाता है तथा इसी के लिये वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। प्राकृतिक संकटों की रोकथाम की दीर्घकालिक योजनाओं के बजाय संकट के बाद की स्थिति से निपटने की तात्कालिक आवश्यकताएँ जुटाने के अल्पावधि कार्यक्रम को अधिक प्राथमिकता दी जाती है।

प्राकृतिक संकटों की अधिक आशंका वाले क्षेत्र में स्थायी विकास तभी संभव है, जब विकास सम्बंधी योजनाएँ बनाते हुए वहाँ के प्राकृतिक संकटों से हो सकने वाले विनाश पर भी पूरा ध्यान दिया जाए। प्राकृतिक आपदा प्रबंध की प्रक्रिया को समन्वित विकास प्रक्रिया का अंग बनाया जाना चाहिए और इसे संकट से पूर्व, संकट के दौरान तथा संकट के तत्काल बाद किए जाने वाले उपायों के रूप में विभाजित करके चलना चाहिए।

भारत में की गई कार्रवाई


भारत सरकार ने समन्वित विकास तथा प्राकृतिक आपदा नियंत्रण की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद गठित की है। कृषि मंत्री इसके अध्यक्ष हैं। इस परिषद का एक दायित्व पंचवर्षीय योजनाओं में विभिन्न क्षेत्रों में विकास कार्यक्रमों में संकट नियंत्रण के उपायों पर बल देना है। योजना आयोग ने राज्य सरकारों को भी निर्देश दिया है कि वे अपनी विकास योजनाओं में प्राकृतिक संकट पर नियंत्रण के उपाय शामिल करें।

पिछले कुछ वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं में कमी लाने तथा क्षेत्रों में उनका सामना करने की क्षमता बढ़ाने के लिये कई कार्यक्रम चलाए गए हैं। इनमें मरु भूमि विकास कार्यक्रम, सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम तथा जल विभाजक विकास कार्यक्रम शामिल हैं। नदी घाटी परियोजनाओं तथा बाढ़ की आशंका वाली नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में बाढ़ की संभावना कम करने के उद्देश्य से केन्द्र प्रायोजित मृदा संरक्षण परियोजना चलाई गई है।

इस प्रकार की योजनाओं का महत्व इस तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि देश के लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र में किसी न किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा की आशंका है। कुल कृषि भूमि का 68 प्रतिशत क्षेत्र प्राकृतिक आपदा की संभावना वाला है। लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ की आशंका से ग्रस्त हैं, जिसमें से औसतन 80 लाख हेक्टेयर भूमि में हर वर्ष बाढ़ आती है। 5,700 किलोमीटर लम्बे समुद्री तट का क्षेत्र तुफान की आशंका से ग्रस्त है। देश के आधे से भी अधिक भू-भाग में भूकम्प की आशंका विद्यमान है। भूस्खलन आम घटना है। 200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में हिम स्खलन की संभावनाएं बनी रहती हैं।

प्राकृतिक आपदा होने पर सरकारी कार्रवाई करने का दायित्व सम्बद्ध राज्य सरकार का होता है। किन्तु केन्द्र सरकार स्थिति को कारगर ढंग से निपटने के उद्देश्य से वित्तीय सहायता तथा राहत सामग्री पहुँचा कर राज्य सरकार के प्रयासों में उचित सहयोग देती है।

प्राकृतिक आपदा की स्थिति में राहत खर्च के लिये धन जुटाने की वर्तमान व्यवस्था पहली अप्रैल 1990 से लागू हैं। इसके अंतर्गत प्रत्येक राज्य के लिये निश्चित धन राशि के साथ आपदा राहत कोष बनाया गया है। इसमें 75 प्रतिशत हिस्सा केन्द्र सरकार तथा शेष राशि राज्य सरकार देती है। स्वास्थ्य क्षेत्र में राष्ट्रीय आपदा योजना का उद्देश्य संकट से प्रभावित लोगों को स्वास्थ्य सम्बंधी पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध कराना है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय के आपात चिकित्सा सहायता प्रभाग का मुख्य कार्य आपदा की स्थितियों से निपटने के लिये उपाय करना है।

इसके अतिरिक्त भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिलकर देश के तीन प्रमुख चिकित्सा संस्थानों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोगी संगठन घोषित करने जा रही है। ये तीन संस्थान हैं ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हाईजीन एंड पब्लिक हेल्थ, कलकत्ता, जे.आई.पी.एम.ईआर., पांडिचेरी और नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ कम्यूनिकेबल डिसीजिज, दिल्ली। इन केन्द्रों में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं के दौरान स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस प्रकार के प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम तैयार किया जाएगा तथा इस सम्बंध में अनुसंधान किया जाएगा। यह भी सुझाव है कि निचले स्तर पर प्राकृतिक आपदा प्रबंध संभालने के लिये स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

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