प्राकृतिक आपदाओं के आघात का शमन (Mitigation of Natural Disasters, trauma)

1985-94 के दौरान मौतों के लिहाज से सबसे अधिक जानलेवा प्राकृतिक आपदाएँ ज्वालमुखी, भूकम्प, अकाल, तूफान और बाढ़ रहीं। हाल के वर्षों (1995-2004) में ज्यादातर मौतें लहरों के बढ़ने और अकाल के कारण हुईं, जबकि तूफानों और भूकम्पों में अपेक्षाकृत कम लोगों की मृत्यु हुई।प्राकृतिक आपदाएँ घर-गृहस्थी को तीन स्पष्ट तरीकों से प्रभावित करती हैं : भौतिक समग्रता, सम्पदा और आय की हानि। चोट, दुर्घटनाजन्य मृत्यु और स्वास्थ्य सम्बन्धी महामारियों से जीवन स्तर प्रभावित होता है और सम्पदा की व्यापक हानि होती है। उदाहरणार्थ भूकम्पों, तूफानों, ज्वालमुखियों, भूस्खलन और बाढ़ों का विनाशकारी प्रभाव सबसे अधिक मकानों पर ही दिखाई देता है। बाढ़ग्रस्त जुताई लायक भूमि, नष्ट फसलों और कृषि उत्पादन में कमी से आय में होने वाली हानि अस्थायी हो सकती है या फिर दीर्घकालीन।

प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती लागत के बारे में, खासकर विकासशील देशों में, शायद ही किसी को शंका हो। हिन्द महासागर में दिसम्बर 2004 में आए सुनामी में 2 लाख 50 हजार से अधिक लोग मारे गए। इसके कुछ दिन बाद ही उतरी पाकिस्तान में आए भूकम्प में दसियों हजार लोग मारे गए और तीस लाख से अधिक लोग बेघर हो गए। इस बीच, खराब फसल और कीड़ों के हमले से सहेल और दक्षिणी अफ्रीका में अकाल का खतरा पैदा हो गया है। कुल मिलाकर आपदाओं के प्रभाव का जो दृश्य उभर कर आता है, वह है − बड़े पैमाने पर मानवीय वेदना, जिन्दगियों का नुकसान और वितीय लागत में आकस्मिक वृद्धि।

तालिका-1: आय के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं की संख्या

आय समूह

आपदाओं की संख्या (प्रति देश) 1985-94

आपदाओं की संख्या (प्रति देश) 1995-2004

निम्न आय

11.83

1893

निम्न-मध्यम आय

19.85

29.26

उच्च-मध्यम आय

7.25

12.8

उच्च आय ओईसीडी

25.53

34.31

उच्च आय गैर-ओईसीडी

6.14

4.14

योग

15.19

22.51

लेखक की गणना ईएमडीएटी पर आधारित है। प्रति व्यक्ति आय के स्तर पर देशों का वर्गीकरण विश्व बैंक द्वारा निर्धारित मानदण्ड पर आधारित है।


सेण्टर फॉर रिसर्च ऑन दि एपिडेमियोलॉजी ऑफ डिजास्टर्स (सीआरईडी) द्वारा संग्रहीत आँकड़ों पर आधारित अपने हाल के अध्ययन (दि डेथ टॉल फ्रॉर्म नेचुरल डिजास्टर्स : दि रोल ऑफ इनकम ज्योग्राफी एण्ड इंस्टीट्यूशंस-मैथ्यू ईकान, रिव्यू ऑफ इकोनॉमिक्स एण्ड स्टैटिक्स, अंक 87, क्र. 2, 2005) में इमरजेंसी इवेण्ट्स डेटाबेस 26 (ईएमडीएटी) ने निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले हैं :

1. प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं में अन्तर को समझने में आय की महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं होती।
2. हालांकि धनी देशों में इन आपदाओं से कम मौतें होती हैं।
3. विभिन्न राष्ट्रों के आपदा सम्बन्धी नमूनों को स्पष्ट करने में भूगोल की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। उदाहरणार्थ, एशियाई देशों में अफ्रीकी देशों के मुकाबले अधिक मौतें होती हैं।
4. संस्थागत गुणवत्ता का भी महत्त्व होता है। उदाहरणार्थ, लोकतन्त्रों में आपदाओं में कम लोग मारे जाते हैं।
5. एक अन्य विस्तृत गवेषणा-नेचुरल डिजास्टर्स; वल्नेरेबिलिटी एण्ड मार्टलिटीज इन एशिया एण्ड दी पैसेफिक −आर. गैहा और जी. थापा, 2006, इण्टरनेशनल फण्ड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलपमेण्ट, रोम में इनमें से कुछ निष्कर्षों की पुष्टि की गई है जबकि अन्यों में संशोधन या विस्तार किया गया है।

जैसा तालिका-1 में दिखाया गया है प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों का सबसे बड़ा अनुपात निम्न-मध्यम आय वाले देशों का है। उसके बाद निम्न आय और उच्च आय वाले ओईसीडी देश आते हैं। 1985-94 के दौरान आपदाओं में उच्च-मध्यम आय और उच्च आय गैर-ओईसीडी देशों का हिस्सा बहुत कम, कुल 10 प्रतिशत रहा। निम्न आय और निम्न-मध्यम आय वाले देशों का मिश्रित हिस्सा, जो पहले ही अधिक था, 1995-2004 की अवधि में और भी बढ़ गया था।

1985-94 की अवधि में, प्राकृतिक आपदाओं में होने वाली मौतों में निम्न आय और निम्न-मध्यम आय वाले देशों का कुल हिस्सा 95 प्रतिशत से भी अधिक रहा, जबकि उच्च आय ओईसीडी और गैर-ओईसीडी देशों का हिस्सा 2 प्रतिशत से भी कम रहा। 1995-2004 की अवधि में आपदाजनित मौतों में पूर्वोक्त समूह की हिस्सेदारी में कुछ कमी आई, फिर भी सबसे अधिक मौतें (लगभग 88 प्रतिशत) इसी समूह में हुई।

तालिका-2: आय समूह के अनुसार मृत्यु की सापेक्षिक आवृत्ति

आय समूह

मृत्यु की सापेक्षिक आवृत्ति 1985-94 (%)

मृत्यु की सापेक्षिक आवृत्ति 1995-2004 (%)

निम्न आय

56.97

46.74

निम्न-मध्यम आय

38.25

40.92

उच्च-मध्यम आय

3.15

4.67

उच्च आय ओईसीडी

1.42

7.67

उच्च आय गैर-ओईसीडी

0.21

0

योग

100

100

लेखक की गणना ईएमडीएटी पर आधारित है।


कुल नमूनों में, प्रति आपदा मौतों की संख्या 1995-2004 की अवधि में बढ़ गई (प्रति आपदा 196 से बढ़कर 255 मौतें हो गईं)। वास्तव में, 1990 के दशक में प्रति आपदा मौतों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही। यद्यपि आपदाओं की भयावहता निम्न आय समूह में सबसे अधिक रही (400 से अधिक), लेकिन निम्न-मध्यम आय समूह, उच्च-मध्यम आय और उच्च आय वाले ओईसीडी देशों में भी यह तेजी से बढ़ी। परन्तु, यदि आपदाजनित मौतों का विभाजन देश की जनसंख्या से किया जाए, तो पता चलेगा कि केवल उच्च आय वाले गैर-ओईसीडी देशों को छोड़कर सभी समूहों में वृद्धि दर्ज की गई। अतः साक्ष्य बताते है कि हाल के दिनों में विश्व के बड़े भू-भाग में आपदाएँ मौतों की दृष्टि से खतरनाक होती जा रही हैं।

1985-94 के दौरान मौतों के लिहाज से सबसे अधिक जानलेवा प्राकृतिक आपदाएँ ज्वालमुखी, भूकम्प, अकाल, तूफान और बाढ़ रहीं। हाल के वर्षों (1995-2004) में ज्यादातर मौतें लहरों के बढ़ने और अकाल के कारण हुईं, जबकि तूफानों और भूकम्पों में अपेक्षाकृत कम लोगों की मृत्यु हुई।

यद्यपि समीक्षित अवधियों (1985-94 और 1995-2004) में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं की असुरक्षा के निर्धारक तत्वों में अन्तर उल्लेखनीय थे, वे मुख्यतः भौगोलिक विशेषताओं (यथा, अधिक ऊँचाई पर बसे देशों में आपदाओं की अधिक आवृत्ति), जलवायुगत परिस्थितियों, देश के आकार, उसकी आबादी और अन्य क्षेत्रीय विशेषताओं से जुड़े हुए रहे। मौतों की संख्या, आपदाओं की आवृत्ति, भू-भौतिकी कारकों, मौजूदा अवधि में लोकतन्त्र और आपदाओं की परस्पर अन्तर्क्रिया (जैसे, मौजूदा अवधि में मौतों की संख्या जितनी अधिक होगी, उन्हें टालने में लोकतन्त्र की रक्षात्मक भूमिका भी उतनी ही अधिक होगी), देश की आय के स्तर और राज्य है नया अथवा पुराना, पर निर्भर थी।

यह मानते हुए कि निम्न आय वाले देशों का अनुपात 5 प्रतिशत बिन्दु कम हो जाता है और वे निम्न-मध्यम आय वाले देशों के समूह में शामिल हो जाते हैं तथा उनकी प्रति व्यक्ति औसत आय 1,312 डॉलर से बढ़कर 4,513 डॉलर हो जाती हैं, हमारी अनुकृतियाँ दर्शाती हैं कि आपदाजनित मौतों की संख्या में भी 5 प्रतिशत बिन्दु की कमी आती है।

हालांकि आपदाओं को रोकने के बारे में लोगों में आमतौर पर यह धारणा है कि इन्हें रोका नहीं जा सकता, फिर भी यह तर्क का विषय है क्योंकि कुछ आपदाओं यथा, सूखा और अकाल को निवारक कार्यवाही से रोका जा सकता है। सूखे को वाटरशेड के बेहतर उपयोग से रोका जा सकता है। यदि 1995-2004 के औसत से मौजूदा आपदा की ओर 5 से 10 प्रतिशत की कमी की जा सके, तो मृत्यु संख्या में क्रमशः 34 प्रतिशत और 56 प्रतिशत बिन्दुओं की कमी हो सकती है। अतः आपदा निवारण का अच्छा-खासा लाभ हो सकता है। अतः जैसा कि 2001 की विश्व आपदा रिपोर्ट में आकलन किया गया है, इनके निवारण की तैयारियों, प्रबन्धन और शमन में 40 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश से 1990 के दशक में 2 खबर 80 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य की वैश्विक हानि से बचा जा सकता था। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

(लेखकद्वय में प्रथम दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रबन्धन अध्ययन संकाय में जननीति के प्रोफेसर हैं और द्वितीय आईएफएडी, रोम में क्षेत्रीय अर्थशास्त्री हैं।
सौजन्यः विजनेस स्टैण्डर्ड)

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