प्राकृतिक आपदा से हार क्यों बार-बार

जब आपदाओं के प्रति हम सब गंभीर और जागरूक होंगे। प्राकृतिक आपदाओं के प्रति जागरूकता के लिए 13 अक्टूबर का दिन ‘विश्व आपदा घटाओ दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। अपने यहां भी इसे मनाने का सिलसिला शुरू हुआ है, परन्तु आमतौर पर बात संचार माध्यमों में चंद विज्ञापनों तक सिमट जाती है। यह स्थिति सुधारनी होगी, अन्यथा हम बार-बार और लगातार आपदाओं से हारते रहेंगे।

सिक्किम के साथ लगभग पूरे उत्तर भारत में आये भूकंप के झटकों ने एक बार फिर कुदरत के सामने हमारी बेबसी जाहिर कर दी, इसमें अब तक 92 लोगों के मारे जाने की खबर है। विशेषज्ञ राहत दल को गंगटोक पहुंचने में 48 घंटे से ज्यादा का समय लग गया क्योंकि बागडोगरा हवाई अड्डे को गंगटोक से जोड़ने वाली एकमात्र सड़क भूकंप के कारण क्षतिग्रस्त हो गई थी। पूरे क्षेत्र में लगभग दो दिन तक संचार-माध्यम ठप पड़ गए थे। स्थानीय स्तर पर किये जा रहे बचाव के प्रयास विशेषज्ञता और जरूरी संसाधन की कमी के कारण ज्यादा प्रभावी नहीं हो रहे थे। किसी भी प्राकृतिक आपदा के बाद देश में अक्सर ऐसा ही नजारा दिखता है। ज्यादातर लोग प्राकृतिक आपदा को कोसते नजर आते हैं और राहत कार्य की कुशलता के अभाव को हाशिये पर डाल दिया जाता है। यों देश में प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला लगा रहता है लेकिन खासतौर से भूकंप की बात हो तो तमाम वैज्ञानिक विकास के बावजूद आज भी इसका पूर्वानुमान लगाना कठिन है। फिर भी इस अचानक आपदा से मुकाबले की तैयारी तो हम कर ही सकते हैं, ताकि जानमाल का कम से कम नुकसान हो।

प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की तैयारी पर नजर डालें तो 2004 में सूनामी के कहर से पहले इस ओर संगठित प्रयास की विकट कमी दिखाई देती थी। आपदा प्रबंधन की धुंधली-सी तस्वीर केवल कागजों पर ही नजर आती थी। सूनामी ने उत्प्रेरक की तरह काम करते हुए सरकार को इस ओर कदम उठाने के लिए बाध्य कर दिया। 2005 में पारित एक अधिनियम के तहत 2006 में प्रधानमंत्री की अगुवाई में राष्ट्रीय आपदा प्रबंध प्राधिकरण अस्तित्व में आया। राज्य स्तर पर मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में राज्य आपदा प्रबंध प्राधिकरणों का गठन हुआ ताकि पूरे देश में आपदा प्रबंध पर ध्यान देकर जरूरी कदम उठाये जाएं। जिले से लेकर ब्लॉक और गांवों तक में आपदा प्रबंध के लिए कमेटियों का गठन हुआ ताकि राष्ट्रीय स्तर पर शुरू सिलसिला गांवों तक पहुंच सीधे आम आबादी से जुड़ सके। इसका एक मकसद यह भी था कि प्राधिकरण से लेकर कमेटी तक सबकी जिम्मेदारी थी कि आबादी को आपदाओं के कहर का मुकाबला करने का जरूरी प्रशिक्षण दिया जाए। परन्तु, हाल की घटना में ऐसे किसी प्रशिक्षण का प्रभाव नहीं दिखा।

आपदा प्रबंधन की नीति कहती है कि जागरूकता और जानकारी के साथ आपदाओं से निपटने की ठोस योजना होनी चाहिए। अलग-अलग आपदाओं के लिए अलग-अलग योजनाएं और कार्यप्रणाली पहले से तय होनी चाहिए। मसलन, बाढ़ के समय लोगों को स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हुए पानी के बहाव से बाहर निकलना आना चाहिए। ऐसे ही भूकंप का पहला झटका महसूस होते ही, घर के अंदर या बाहर अपनाई जानी वाली जीवनरक्षक सावधानियों का पता हो। इसके लिए सामुदायिक स्तर पर कुछ व्यक्तियों को बचाव कार्य का प्रशिक्षण देना जरूरी है। इन्हें आपदा के समय उपलब्ध सुविधाओं और साधनों की भी जानकारी होनी चाहिए ताकि बचाव कार्य तेजी से आगे बढ़ाया जा सके। समय-समय पर अभ्यास और प्रदर्शन भी जरूरी है ताकि लोगों में आत्मविास बना रहे और कमियां दुरुस्त हो सकें। जहां यह कवायद ठीक होती है, वहां अच्छे नतीजे भी दिखते हैं लेकिन निगरानी की ऐसी प्रभावी प्रणाली की सख्त जरूरत है, जो सारे कार्यकलापों पर नजर रख योजना को अमली जामा पहनाने में मदद करे।

आपदा के समय संचार व्यवस्था का सक्रिय रहना बचाव और राहत कार्य के लिए बहुत जरूरी है। किंतु हर बार की तरह इस बार भी संचार व्यवस्था ठप पड़ गई। प्रत्येक जिला मुख्यालय में आपातकालीन संचार की वैकल्पिक व्यवस्था होने से राहत कार्य के लिए जरूरी बंदोबस्त करना तेज और आसान हो जाता है। इसलिए सिफारिश की गई है कि कम से कम जिला मुख्यालय के स्तर तक सेटेलाइट फोन की व्यवस्था अवश्य हो। दूसरा कारगर जरिया हैम-रेडियो भी हो सकता है। आपातकाल में यह स्थानीय संचार के लिए बेहद कारगर साबित हुआ है। यदि आपदा संबंधी क्षेत्रों में हैम-रेडियो को लोकप्रिय बनाया जाए और जरूरी प्रशिक्षण दिया जाए तो मुसीबत के समय जान-माल के नुकसान में कमी लायी जा सकती है। खासतौर से उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के दुर्गम इलाकों में हैम-रेडियो के प्रभावी इस्तेमाल की काफी गुंजाइश है।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंध प्राधिकरण ने पारिवारिक स्तर पर भी संचार की आपातकालीन योजना की सिफारिश की है। यानी भूकंप के तुरंत बाद परिवार के सभी लोगों की घर से बाहर किसी एक जगह इकट्ठा होने की कवायद होनी चाहिए। किसी दूर शहर में रहने वाले संबंधी को संपर्क-सूत्र बनाना भी कारगर साबित होता है क्योंकि कई बार स्थानीय संचार तो ठप हो जाता है लेकिन लम्बी दूरी की संचार व्यवस्था काम करती रहती है। हाल में राष्ट्रीय आपदा प्रबंध प्राधिकरण ने बचाव और राहत के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित और कुशल राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ के नाम से प्रसिद्ध) का गठन किया है, जो अच्छा प्रयास है। फिलहाल इसकी आठ बटालियनें देश के नौ स्थानों पर तैनात हैं। इनकी तैनाती की जगह प्राकृतिक आपदा की आशंका देखते हुए तय की गई बतायी जाती है परन्तु, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में बटालियन तैनात न होना सवाल खड़े करता है क्योंकि यह क्षेत्र भूकंप की संवेदनशीलता के लिहाज से सबसे ऊपर है। इस कमी का खामियाजा इस बार भुगतना पड़ा है क्योंकि बटालियन को सिक्किम पहुंचने में 48 घंटे से ज्यादा का समय लग गया।

प्रत्येक बटालियन में राहत और बचाव कार्य में प्रशिक्षित और तकनीकी रूप से कुशल 18 टीमें होती हैं, जिसमें 45 दक्ष व्यक्ति कार्य करते हैं। टीम में इंजीनियर-डॉक्टर से लेकर तकनीकी कर्मचारी और प्रशिक्षित कुत्ते भी होते हैं। एनडीआरएफ द्वारा राज्य स्तर पर गठित आपदा प्रतिक्रिया बलों को प्रशिक्षित करने का भी प्रावधान है। यह कार्य जितनी जल्दी हो जाए बेहतर होगा क्योंकि इससे आपदा स्थल पर तत्काल पहुंचने की संभावना कई गुना बढ़ जाएगी। आपदा प्रबंधन की तकनीकी जरूरत देखते हुए संबंधित कुशल मानव संसाधन विकास महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यह जरूरत राष्ट्रीय आपदा प्रबंध संस्थान पूरी करता है। देश के कई राज्यों में स्थापित इसके केंद्र क्षेत्रीय स्तर पर संभावित आपदाओं से निबटने के लिए संबंधित अधिकारियों और कर्मचारियों को जरूरी प्रशिक्षण देते हैं। परन्तु अक्सर प्रशिक्षण देने और लेने वाले, इसे गंभीरता से नहीं लेते और न नियमित रूप से अभ्यास की उचित व्यवस्था होती है। जरूरी यह भी है कि प्रशिक्षित व्यक्ति समाज के अन्य व्यक्तियों को भी प्रशिक्षण देकर आपदा का मुकाबला करने के लिए तैयार करें।

लेकिन यह सब तभी होगा जब आपदाओं के प्रति हम सब गंभीर और जागरूक होंगे। प्राकृतिक आपदाओं के प्रति जागरूकता के लिए 13 अक्टूबर का दिन ‘विश्व आपदा घटाओ दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। अपने यहां भी इसे मनाने का सिलसिला शुरू हुआ है, परन्तु आमतौर पर बात संचार माध्यमों में चंद विज्ञापनों तक सिमट जाती है। यह स्थिति सुधारनी होगी, अन्यथा हम बार-बार और लगातार आपदाओं से हारते रहेंगे।
 

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