मानकीकरण मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों के लगभग सभी पहलुओं के लिए महत्त्वपूर्ण है। प्राकृतिक आपदा की स्थिति में मानव जीवन की सुरक्षा के मामले में भी यह प्रभावी भूमिका निभा सकता है बशर्ते इस उद्देश्य के लिए बनाए गए बुनियादी मानकों का सख्ती से पालन सुनिश्चित किया जाए।
मानकीकरण का विचार हाल के वर्षों में काफी महत्त्वपूर्ण हो गया है। 21वी शताब्दी में इससे जीवन-स्तर में और सुधार की सम्भावना है। मानक मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों के लगभग सभी पहलुओं, जैसे इंजीनियरिंग, उद्योग, निर्माण, कृषि, वाणिज्य, विज्ञान, शिक्षा, परिवहन, भोजन, वन और सूचना प्रौद्योगिकी पर लागू होता है। मानकीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष प्राकृतिक आपदा की स्थिति में मानव जीवन की सुरक्षा है। प्राकृतिक आपदा जैसे- सूखा, तूफान या भूकम्प की आवृत्ति कितनी भी कम क्यों न हो, समाज को इससे निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए और सूचना प्रणाली, पेयजल, खाद्य, आवास तथा प्रतिकूल मौसम से सुरक्षा आदि का ध्यान रखना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब मनुष्य इन उद्देश्यों के लिए बनाए गए बुनियादी मानकों पर अटल रहे।मानकों का विकास
जरा भी ध्यान दें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मानकीकरण वह आधार है जिसपर मनुष्य ने समाज की स्थापना की। यहाँ तक कि आदि मानव ने आरम्भ में ही इस बात का पता लगा लिया था कि वह किस तरह अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप प्रकृति को ढाल सकता है। काफी पहले मनुष्य को इस बात का आभास हो गया था कि मानव-निर्मित औजारों और मानकों को अपने दैनिक जीवन में लागू करके वह अपनी शिकार क्षमता बढ़ा सकता है। यहीं से उसने अपने जीवनस्तर में विकास का दौर आरम्भ किया। उसने निकासी प्रणाली, कृषि, माप-तोल आदि में सुधार किया। औद्योगिक क्रान्ति के साथ उत्पादन पर दबाव बढ़ा और इसके साथ ही मानकीकरण एक जरूरत बन गई।
महत्व
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मानकीकरण का महत्व बेहतर ढंग से समझा गया और इस पर अधिक ध्यान दिया गया। अमेरिका द्वारा स्थापित युद्ध उद्योग बोर्ड ने युद्ध के दौरान और सामग्री की कमी से निपटने के लिए मानकों को न्यायोचित तरीके से अपनाने की जरूरत दर्शाई। परिणामस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होते ही 23 राष्ट्रीय मानक निकाय स्थापित हुए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मानकीकरण की आवश्यकता और उभरकर सामने आई जब सहयोगी राष्ट्रों को यूरोप में कर्रवाई के लिए अमेरिकी सप्लाई के नट-बोल्ड का जोड़ बैठाने में कठिनाई के कारण नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद ही अनेक विकासशील देशों सहित अधिकाधिक देशों ने राष्ट्रीय मानक निकायों की स्थापना शुरू की।
राष्ट्रीय मानक निकायों के प्रयासों में समन्वय लाने के लिए इस अवधि में राष्ट्रीय मानकीकरण एसोसिएशन (आई.एस.ए.) का अन्तरराष्ट्रीय परिसंघ मौजूद था। लेकिन विश्व युद्ध के दबाव में यह प्रभावी नहीं हो सका। जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ, संयुक्त राष्ट्र की समन्वय समिति की 1946 में बैठक हुई और इसने अन्तरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आई.एस.ओ.) की स्थापना की सिफारिश की। भारत आई.एस.ओ. का संस्थापक सदस्य है और वर्तमान में अन्तरराष्ट्रीय इलैक्ट्रो-तकनीकी आयोग (आई.ई.सी.) और अन्तरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आई.एस.ओ.) दोनों का सदस्य है।
चुनौतियाँ
कृषि, उद्योग, परिवहन और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नए अनुसंधानों के कारण दुनिया भर में मानक संस्थाओं को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण स्वरूप कृषि क्षेत्र में मृदा, बीज, उर्वरक, सिंचाई प्रणाली, कीटनाशक, भंडारण और गोदामों की गुणवत्ता सहित विभिन्न क्षेत्रों में मानक विकसित किए गए हैं, जिनसे न सिर्फ अधिक उत्पादन और बेहतर गुणवत्ता का अनाज मिलता है, बल्कि इसे और सुरक्षित रखने में भी मदद मिलती है। साथ ही इसे उपभोक्ताओं को उनकी सुविधानुसार और समय पर उपलब्ध कराया जा सकता है। खेती, फसल कटाई, भंडारण, पैकेजिंग और ढुलाई के लिए प्रयुक्त उपकरणों के भी मानक निर्धारित किए गए।
जल संसाधन मानकीकरण
उद्योगों के बढ़ने से हमारे जल संसाधन प्रदूषित हो रहे हैं और इनमें कमी आ रही है। इसीलिए न सिर्फ पेयजल बल्कि सिंचाई और औद्योगिक इस्तेमाल के पानी के लिए भी मानक बनाए गए हैं। दोबारा इस्तेमाल हेतु पानी के शुद्धिकरण के भी मानक तैयार किए गए हैं। सिंचाई के दौरान पानी सुरक्षित रखने के लिए लघु सिंचाई प्रणाली, ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली से सम्बन्धित अनेक मानक बनाए गए हैं। इन प्रणालियों के जरिए उर्वरक की आवश्यक मात्रा के साथ सीमित पानी पौधों को दिया जाता है, ताकि पानी का इस्तेमाल कम से कम हो।
भवन मानकीकरण
सीमेंट, ईंट और इस्पात की छड़ों जैसी विभिन्न प्रकार की भवन सामग्री के लिए अनेक मानक विकसित किए गए हैं। सामग्री सुरक्षित रखने के लिए भवनों और मकानों के डिजाइन तथा सूर्य की किरण के अधिकतम इस्तेमाल और भवनों को ऊर्जा सक्षम बनाने के लिए भी मानक विकसित किए गए हैं। विभिन्न भवन सामग्रियों के पुनरुपयोग के लिए मानक विकसित की भी मांग की गई है ताकि सतत विकास जारी रह सके।
भारतीय मानक ब्यूरो
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ ही उद्योग और व्यापार पर विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा की चुनौती आ पड़ी है। अन्तरराष्ट्रीय बाजार में अधिकतम भागीदारी के लिए हमारे उद्योगों को गुणवत्ता, कीमत और समय पर माल की डिलीवरी के मामले में प्रतिस्पर्धी बनाना होगा।
अर्थव्यवस्था का अन्तरराष्ट्रीयकरण कोई आकस्मिक घटना नहीं है लेकिन इसका प्रभाव हाल ही में महसूस किया गया है। यह प्रक्रिया 50 वर्ष से भी पहले शुरू हुई थी, जब भारत सहित 23 देशों के प्रतिनिधियों ने सीमा शुल्क और व्यापार पर सामान्य समझौते (गैट) की स्थापना के लिए 1 जनवरी, 1948 को बैठक की थी। गैट का उद्देश्य अन्तरराष्ट्रीय व्यापार की जंगली प्रवृत्ति को व्यवस्थित करना था। विश्व व्यापार के नियामक निकाय के तौर पर विश्व व्यापार संगठन का लक्ष्य विश्व में स्वतंत्र, अधिक पारदर्शी और अधिक स्थायी व्यापार व्यवस्था सुनिश्चित करना है। संगठन एक ठोस कानूनी आधार पर टिका है और इसीलिए इसके सदस्य देशों की सरकारें इसके सभी समझौतों का अनुमोदन करती हैं। व्यापार की तकनीकी बाधाओं (टी.बी.टी.) पर हुए समझौते के अनुसार मानक (लोगों की स्वास्थ्य सुरक्षा तथा पर्यावरण सुरक्षा के लिए सरकारों द्वारा अपनाए गए) इस तरह लागू नहीं किए जाने चाहिए कि अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में अनावश्यक बाधा पड़े। समझौते में माना गया है कि अगर राष्ट्रीय मानक एक समान और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य आदर्शों पर आधारित हों तो वे अनावश्यक बाधाएँ खड़ी नहीं करेंगे। बेहतर व्यवहार संहिता के लिए मानकों की तैयारी, उनका अंगीकरण और इस्तेमाल टी.बी.टी. समझौते का अभिन्न अंग है इसीलिए सरकार ने आईएस.आई. के ढाँचे में परिवर्तन का और इसे कानूनी अधिकार देने का फैसला किया। इसी के मद्देनजर भारतीय मानक ब्यूरो अधिनियम 1986 पारित किया गया। 1 अप्रैल, 1987 को ब्यूरो अस्तित्व में आया। इसमें 130 सदस्य हैं जो केन्द्र और राज्य सरकारों, विभिन्न उद्योगों, तकनीकी संस्थाओं, उपभोक्ता संगठनों और संसद का प्रतिनिधित्व करते हैं। केन्द्रीय खाद्य और नागरिक आपूर्ति मन्त्री भारतीय मानक ब्यूरो के अध्यक्ष है। आई.एस.ओ. और आई.ई.सी. का सदस्य होने के नाते भारतीय मानक ब्यूरो राष्ट्रीय मानक बनाने के लिए अन्तरराष्ट्रीय-स्तर की प्रक्रियाओं का पालन करता है जो निश्चित रूप से सर्वसम्मत सिद्धान्तों पर आधारित हैं। कोई भी भारतीय मानक अन्तरराष्ट्रीय मानक के समरूप या समकक्ष हो सकता है। अन्य मामलों में अन्तरराष्ट्रीय मानक भारतीय मानक के विकास के लिए आधार का काम करता है। इस तरह भारतीय मानक ब्यूरो उद्योग और व्यापार को अन्तरराष्ट्रीय-स्तर पर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में मदद करता है।
सूचना प्रौद्योगिकी
आर्थिक गतिविधियों के विभिन्न क्षेत्रों में सूचना और प्रौद्योगिकी की भूमिका का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा। हाल के वर्षों में जिस तरह कम्प्यूटर का तीव्र विकास हुआ है, उससे पता चलता है कि नई सहस्राब्दी में टेलीविजन, टेलीफोन, ई-काॅमर्स और अन्य कम्प्यूटर-आधारित उपकरणों जैसी सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न माध्यमों का कृषि, उद्योग, परिवहन और वाणिज्य पर जबर्दस्त प्रभाव हो सकता हैै।
प्राकृतिक आपदा क्षेत्र
26 जनवरी, 2001 को गुजरात में आए विनाशकारी भूकम्प से पैदा हुई समस्याओं का उल्लेख यहाँ जरूरी है। यह चुनौती अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है क्योंकि इस प्राकृतिक आपदा ने पर्यावरण को अचानक नुकसान पहुँचाया और जीवन तथा सम्पत्ति की ऐसी तबाही हुई कि सामान्य सामाजिक-आर्थिक चक्र अव्यवस्थित हो गया और उसे सामान्य स्थिति में लौटाना मुश्किल हो गया। आपदा न सिर्फ विकास प्रयासों को रोक देती है, संसाधनों को बर्बाद करती है, बल्कि विकास में भी बाधा पहुँचाती है। आपदा का अर्थव्यवस्था पर जो सीधा प्रभाव पड़ता है, उसमें बुनियादी ढाँचा, फसल और उत्पादक परिसम्पत्तियों का नुकसान तो शामिल है ही, राहत और बचाव कार्यों से वित्तीय बोझ भी काफी बढ़ता है। अपरोक्ष रूप में आपदा से उत्पादन में कमी, आमदनी में कमी, बेरोजगारी, गरीबों के ऋण में बढ़ोत्तरी और वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य आदि में वृद्धि होती है। भौगोलिक स्थिति के कारण भारत में लगातार प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं। शायद ही कोई ऐसा वर्ष हो जब देश का कोई भाग सूखे, बाढ़, तूफान, भूकम्प या चट्टानें खिसकने जैसी समस्याओं से न जूझता हो। यह भी एक स्वीकार्य तथ्य है कि प्राकृतिक आपदाओं को आने से रोका नहीं जा सकता लेकिन समाज और अर्थव्यवस्था पर उनके जबर्दस्त प्रभाव को विभिन्न एहतियाती कार्यक्रम अपनाकर काफी हद तक कम अवश्य किया जा सकता है। जापान में भवन-निर्माण के लिए कठोर मानकों के अपनाए जाने से काफी फर्क आया। भारतीय मानक ब्यूरो ने प्राकृतिक आपदाओं के असर में कमी लाने के लिए कुछ विशेष मानक और आदर्श तैयार किए हैं। विभिन्न समितियों के तहत इस बारे में मानकीकरण के जो प्रयास किए गए हैं, वे निम्नलिखित हैं:
भूकम्प इंजीनियरिंग
हिमालय क्षेत्र भारत का गांगेय मैदानी भाग, पश्चिमी भारत और कच्छ तथा कथियावर के क्षेत्र भौगोलिक रूप से देश के अस्थिर क्षेत्र हैं और विश्व के कुछ विनाशकारी भूकम्प इन इलाकों में आ चुके हैं। इन भूकम्पों के कंपन के आँकड़ों को ध्यान में रखते हुए भूकम्प-प्रतिरोधी प्रारूप और ढाँचा निर्माण को तर्कसंगत बनाने की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही है। इसीलिए डिजाइन और भूकम्प प्रतिरोधी ढाँचे के निर्माण तथा भूकम्प इंजीनियरिंग खंड समिति से सम्बन्धित माप और परीक्षणों के क्षेत्र में भी मानक बनाए गए हैं। इस सिलसिले में भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा विकसित मानक संक्षेप में निम्नलिखित हैं:
1. आई.एस. 1893: 1984 - ढाँचे के भूकम्प प्रतिरोधी डिजाइन के लिए मानदंड- यह मानक ढाँचे के भूकम्प प्रतिरोधी डिजाइन से सम्बन्धित है और सतह से उठे हुए ढाँचों, पुलों, बाँधों आदि पर लागू होता है। यह एक मानचित्र भी देता है, जिसमें देश को भूकम्प की आशंका वाले पाँच क्षेत्रों में बाँटा गया है। यह वर्गीकरण उत्तरकाशी और लातूर सहित देश के विभिन्न भागों में आए भूकम्प की तीव्रता पर आधारित है। खंड समिति ने मानकों को पाँच भागों में संशोधित करने का फैसला किया है, जोकि ढाँचा भिन्न श्रेणियों पर लागू होगा।
भाग-1: सामान्य प्रावधान और भवन
भाग-2: तरल रखने वाले टैंक-छतों पर और जमीन की सतह पर रखे हुए
भाग-3: पुल और पुश्ता दीवारें
भाग-4: चिमनी जैसे ढाँचों सहित औद्योगिक ढाँचा
भाग-5: बाँध और तटबंध।
समिति द्वारा तैयार किए गए अन्य महत्त्वपूर्ण मानक निम्नलिखित हैं:
2. आई.एस. 4326: 1993 ‘भूकम्प प्रतिरोधी डिजाइन तथा भवनों का निर्माण-व्यवहार संहिता’- यह मानक ईंट-पत्थर के निर्माण, लकड़ी के निर्माण और पूर्वनिर्मित निर्माण सहित भूकम्प प्रतिरोधी भवनों के निर्माण तथा डिजाइन के लिए सामग्रियों के चुनाव के दिशा-निर्देश उपलब्ध कराता है।
3. आई.एस. 13827: 1993 भवनों की भूकम्प-प्रतिरोधक क्षमता में सुधार: दिशा-निर्देश- यह मानक चूना और सीमेंट के इस्तेमाल के बिना जमीन पर बनाए जाने वाले मकानों की भूकम्प-प्रतिरोधन क्षमता में सुधार के लिए डिजाइन और निर्माण के सिलसिले में दिशा-निर्देश उपलब्ध कराता है।
4. आई.एस. 13828: 1993 कम मजबूती वाले ईंट-पत्थर के भवनों की भूकम्प प्रतिरोधक क्षमता में सुधार: दिशा-निर्देश- यह मानक कम मजबूती वाले ईंट-पत्थर के भवनों की भूकम्प-प्रतिरोधी क्षमता में सुधार के लिए विशेष डिजाइन और निर्माण के दिशा-निर्देश देता है।
5. आई.एस. 13920: 1993 भूकम्प की आशंका वाले क्षेत्रों में ‘रेनफोर्स्ड’ कंक्रीट ढाँचे की ‘डक्टाइल डीटेलिंग’: व्यवहार संहिता- यह मानक ‘रेनफोर्स्ड’ कंक्रीट से बने भवनों के डिजाइन को कवर करता है।
6. आई.एस. 13935: 1993 भवनों की भूकम्पन मजबूती और मरम्मत: दिशा-निर्देश- यह मानक भूकम्प के दौरान क्षतिग्रस्त भवनों की मरम्मत और उनकी भूकम्पन मजबूती के लिए प्रयुक्त तकनीक और सामग्री के चुनाव से सम्बन्धित है।
भारतीय मानक ब्यूरो ने एस.पी. 22: 1982 ‘भूकम्प इंजीनियरिंग की संहिता पर विवरणात्मक पुस्तिका’ नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित की है।
हालाँकि प्राकृतिक आपदा और इससे सम्बन्धित क्षेत्रों में मानक उपलब्ध हैं, लेकिन भारत में अक्सर इन्हें नहीं अपनाया जाता। अब भी यहाँ निर्माण और डिजाइन के निर्धारित कानूनों का पालन अनिवार्य नहीं है इसलिए आर्थिक दबाव में लोग इनका उल्लंघन करते रहते हैं। जहाँ कहीं भी इन पर अमल किया जाता है, जैसे कि सरकारी और संस्थागत संगठनों में, वहाँ परिणाम बिल्कुल भिन्न नजर आते हैं।
निष्कर्ष
गुजरात में हाल के भूकम्प में लोगों को जो नुकसान उठाना पड़ा, उससे न सिर्फ इस बात की जरूरत उजागर हुई है कि ब्यूरो द्वारा तैयार विभिन्न संहिताएं लागू की जानी चाहिए बल्कि उनमें सुधार की भी जरूरत महसूस की गई है। भूकम्प की आशंका वाले क्षेत्रों में भवन-निर्माण में भूकम्प प्रतिरोधी सामग्री का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। भारत जैसे संसाधनों की कमी वाले देश में भूकम्प राहत और पुनर्वास कार्यों पर ज्यादा खर्च की गुंजाइश नहीं है। हालाँकि सरकार पूरे जोर-शोर से राहत उपलब्ध करा रही है तथा देश और विश्व के विभिन्न भागों से धन, सामग्री तथा लोग मदद के लिए आ रहे हैं फिर भी भूकम्प के कारण जो दीर्घकालिक मुद्दे सामने आए हैं उन पर तुरन्त ध्यान देने की आवश्यकता है। जापान में भवनों के लिए कठोर मानकों का अपनाया जाना काफी प्रभावी रहा है। 21वीं शताब्दी में भारतीयों का उज्ज्वल भविष्य तभी सम्भव है जब आवश्यक मानक तैयार किए जाएँ और राज्य तथा गैर-सरकारी संगठनों द्वारा उन्हें सही भावना के साथ सख्ती से लागू किया जाए। भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानक अपनाने के लिए मीडिया द्वारा आवश्यक जन-जागरुकता भी पैदा की जानी चाहिए।
(लेखकद्वय दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के वाणिज्य विभाग में क्रमशः प्रोफेसर एवं वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)
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