पिछले दिनों प्राकृतिक आपदा ने उत्तंराखंड में भीषण तबाही मचाई। इससे अपार जान-माल का नुकसान हुआ। कितना नुकसान हुआ, इसका अभी तक सही आंकलन नहीं किया जा सका है। इस दौरान आंदोलनकारी रचनाकार डॉ. अतुल शर्मा उत्तलरकाशी-टिहरी क्षेत्र में थे। उनका यात्रावृतांत-
झील का पानी गांव के नीचे की मिट्टी काट रहा था और पहाड़ से निरंतर वह तेजधार नुकीले पत्थहरों को लुढ़का रही थी। सड़कें टूट चुकी थीं, गांव खाली थे। तेज बारिश में यह पूरा इलाका न जाने कब जमींदोज हो जाए, ऐसा सोचते हुए मैं सितंबर की खूनी बारिश ओर आतंकित कर देने वाली पत्थेरों की आवाजों से, एक खास तरह की गफलत में था। मध्यआ हिमालय के गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र के ऐसे भीषण भूस्खालन की कल्पाना नहीं थी। हालांकि इससे पहले भी मैं तेज बारिश में मंसूरी के रास्ते नई टिहरी गया था। इस बार भूस्ख लन की तबाही से जान बचाते हुए और बदहवास भागते हुए लोगों की आवाजों के साथ मेरी आवाज भी शामिल थी। उत्तंरकाशी जिले के बड़कोट क्षेत्र के सभी मार्ग अवरुद्ध हो चुके थे। महीनों तक मलबा नहीं उठाया जा सका था। बारिश से बचने के लिए मैं काफी देर एक ट्रक के नीचे बहुत सारे लोगों के साथ बैठा रहा। उसमें महिलायें और बच्चेर भी थे। दिन में अंधेरे का एहसास था। ये लोग किस गांव से आए हुए हैं, यह जानने के लिए मैंने किसी से पूछा तो वह फफक कर रो पड़ा। वह एक बूढ़ा था। उसने बताया कि कई दिन पहले उसका गांव, सीढ़ीदार खेत, स्कूल, डिस्पेंमसरी, सड़क सब मलबे में ढह गए हैं। दब गए हैं। कितने लोग मरे हैं इसका किसी को भी पता नहीं है।
घाटी से पहाड़ तक बिजली इतनी तेजी से कड़की कि दिल कांप गया। अचानक पत्थतरों के गिरने की आवाज से सभी डर गए और ट्रक के नीचे से निकलकर भागने लगे। औरत की गोद में बच्ची बंधा हुआ था। बूढ़ा खांसता हुआ दौड़ रहा था। सब एक अंधेर से दूसरे अंधेरे में घुस रहे थे। काफी दूर निकल आने के बाद कच्ची सड़क के मोड़ पर हमने देखा कि ट्रक मलबे में दबा है। पांच दिन और पांच रात इसी तरह त्रासदी भरे रहे। वह मां और बच्ची इस काफिले से न जाने कब बिछुड़ गए।
ये पांच दिन-रात बिस्कुलट, सूखी रोटी, सिगरेट, बीड़ी के बंडल समाप्त करने के लिए काफी थे। ये सब स्थाकनीय लोग थे। मैं बड़कोट से कई बार पहाड़ी की चोटियों से पैदल यात्रा कर चुका था। इसलिए मैंने एक पगडंडी पकड़ी और ‘टांडी डांडा’ चढ़ाई चढ़ने लगा। मेरे साथ एक लड़का और था। बारिश थमी हुई थी, लेकिन पगडंडियां फिसलनदार थीं। जरा सा पैर फिसला और खाई में गिरने का डर। फिर भी चढ़ाई पार करते हुए सुबह छह बजे से चलते-चलते शाम के पांच बजे ब्रह्मखाल पहुंच गए।
पहाड़ों के ऊपर सड़कों से दूर जो तबाही मची, उसका अंदाज शायद ही कोई लगा सके। वहां तक कोई पहुंचता ही नहीं। हवाई दौरे, राहत राशि, हैलीकाप्टजर से ले जाने वाले सामान सब दिखावा बन कर रहे गए। कब चट्टान खिसके और कब लोग उसमें दबकर मर जाएं, इस डर को पाले हुए पूरा उत्त राखंड इसी त्रासदी से गुजर रहा था। रास्तेए कटे हुए थे। संपर्क को कोई जरिया नहीं था। दस दिन से कोई अखबार नहीं पहुंचा था। किसी को पता नहीं चल रहा था कि इस पहाड़ी के उस पार क्याो हो रहा है।
ब्रह्मखाल से डुंडा मैं तीन दिन में पहुंचा। धरासू बैंड जहां से टिहरी, उत्तरकाशी और बड़कोट के लिए रास्ता निकलता है, मैं वहां पहुंच गया। सब कुछ टूटा-फूटा था। ‘नालापानी’ में सड़क नहीं थी। लेकिन वहां पर चाय की दुकान थी। डेढ़ सौ रुपये में खाना और पच्ची स रुपये में चाय खूब बिक रही थी। अस्सी रुपये किलो चीनी, सत्तखर रुपये किलो भिंडी और एक सौ पचास रुपये किलो प्याज बिक रही थी। लेकिन सेब और आलू बहुत सस्ते थे क्योंहकि इनके सड़ने का डर था। बीस रुपये में किलो से भी ज्याादा सेब मिल रहे थे। उसी से पेट भरा और एक दुकान में घुसे बहुत सारे लोगों के साथ में भी दीवार से टेक लगाकर बैठ गया। एक छोटे से बच्चेम का पूरा परिवार भूस्खालन में दब गया था। सब लोग उसके अपने बन गए थे। एक औरत लगातार रो रही थी। वह तीन घंटे तक रोती रही। थक जाती तो चुप हो जाती और कुछ देर बाद फिर रोने लगती। मैंने सोचा कि यह एक बेहतरीन प्रतीक हो सकता है, इस पूरे पहाड़ की चीख का। बारिश की रफ्तार बेतहाशा तेज थी। ऐसे में बाहर नहीं जाया जा सकता था, लेकिन यह जगह भी सुरक्षित नहीं थी। छोटा पत्थलर पहाड़ से टूटकर लुढ़कता हुआ आता तो उसकी रफ्तार इतनी तेज होती कि दीवारों में दरारें पड़ जातीं।
बीच-बीच में बारिश कम होती रहती, उसी समय सुरक्षित स्थारन पर जाने का सही वक्त़ था। एक जगह भूस्खषलन होता और उससे दस किलोमीटर दूर सड़क जाम हो जाती। इतनी दूरी तय करने के लिए ट्रक टाटा सुमो घायल और परेशान लोगों को दूसरे भूस्खलन तक छोड़ आते। वहां से फिर एक जोखिम भरा टूटा रास्ता पार करना होता। यह सब प्रकृति पर निर्भर था कि दूसरे रास्तेस को पार करते समय भूस्खलन न हो जाए या कोई चट्टान न टूट जाए। ये अवरोध पार करने के बाद दूसरी तरफ फिर ऐसी ही व्यरवस्थाट रहती और संभलकर-संभलकर पार करना होता।
कई दिन तक पदयात्रा और यातना के बाद में मातली पहुंचा। मेरी आंखों के सामने एक बहुमंजिली इमारत के ढहने का दृश्यआ उभर आया। वह इमारत गंगा में ऐसे समा गई, जैसे कोई खिलौना हो। मातली में पच्चीस वर्ष का फौजी हादसे का शिकार हुआ और सब परेशान लोग उसके अंतिम संस्कार में जुट गए। उनमें में भी था। आज सोचता हूं कि मैं क्यों तो उत्तेर मिलता है कि यातना के समय सभी साथ खड़े हुए थे- जाने-अनजाने सब। यह हादसों का रिश्ताह।
उत्तयरकाशी से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थिसत भटवाड़ी गांव के नीचे से गुजरने वाले गंगोत्री राष्ट्री य राजमार्ग पर हुए भू-धंसाव से यहां के लोग बेघरबार हो गए थे। 2 अगस्तु को ही राजमार्ग पर हल्कीह दरार दिखाई देने लगी थी। लगातार बारिश के कारण राजमार्ग की दरार चौड़ी होती रही। सौ मीटर ऊंचाई तक सटे हुए भटवाड़ी गांव के अधिकांश घरों में भी दरार आनी शुरू हो गई थी। लोगों में अफरातफरी मची हुई थी। उन्होंने रिश्तेदारों के यहां शरण ली। लगभग 28 दुकानों और 42 परिवारों को निरस्त की गई पाला मनेरी जलविद्युत परियोजना की कार्यदायी संस्थार उत्तीराखंड जलविद्युत निगम की कालोनी और इंटर कॉलेज में शिफ्ट कर दिया गया।
एक जगह साथ-साथ दो गांव थे। बादल फटा, दरार पड़ी और दोनों गांवों के बीच खाई बन गई। इधर-उधर ध्वदस्तक गांव नजर आने लगे। पहाड़ टूटा तो मौत बनकर टूटा। कई उखड़े हुए पहाड़ों पर चलते हुए मुझे वे खोखले भी दिखे और सुरंगे भी। मैं नहीं समझ पाता कि इसका क्यों अर्थ है। टिहरी झील के किनारे क्षमता से अधिक पानी भर जाने के कारण गांव घंसे। चिल्याकणी सौंण इसका उदाहरण है। सड़कें टूटीं हुई थीं। इसलिए कोटी कॉलोनी से चिल्या णी सौंण का जलमार्ग ही बचा था। एक बोट में सत्तसर-अस्सीद लोगों से अधिक आ जाते। यही एक सहारा था। एक दिन पहले बुकिंग करानी पड़ती थी। काफी लंबा यातना भरा समय तय करने के बाद सभी की तरह मैं भी अपने आप को असहाय पा रहा था। चम्बा , नई टिहरी, नागणी खाड़ी, जाजल, आगराखाल, नरेंद्रनगर से ऋषिकेश पहुंचे तो झील के छोड़े हुए पानी के कारण त्रिवेणी घाट(ऋषिकेश) पर लहरें बहुत तेज रफ्तार से बह रही थीं। वे उलझती, सुलझती और गुस्सेप में थीं। घाट डूब रहे थे। पहाड़ अभी भी उसी आपदा के दंश को झेल रहा था।
गढ़वाल से कुमाऊं तक होने वाले अवैज्ञानिक विकास और पेड़ों की अंधाधुंध कटाने से पहाड़ की जडे़ हिल गईं।आपदा प्रबंधन से सभी तरीके ध्वास्तं हो गए। राज्यब सरकार ने केंद्र सरकार से आर्थिक मदद मांगी और केंद्र ने मदद की। इस पर सियासत भी चली। फिर कुछ उत्सादही स्वपयंसेवी संस्थाओं ने देहरादून में पूरे गढ़वाल और कुमाऊं से लोग बुलाये। उन्हेंस अपने-अपने इलाकों में आपदा से हुई हानि पर रिपोर्ट बनाने का काम सौंपा गया। मुझे पता नहीं कि कब राहत पहुंचेगी। कब स्थि तियां सामान्यी होंगी। पर इस बीच आवाज उठी कि तमाम हिमालयी क्षेत्रों की एक नीति बननी चाहिए और उत्त राखंड के लिए अलग से जलनीति और पुनर्वास नीति भी बने। शासन के उदासीन रवैये को देखकर कुछ सामाजिक संगठनों ने मिलकर उत्तराखंड के लिए लोक जल नीति का प्रारूप तैयार किया था। इसे लेकर जगह-जगह गोष्ठिपयां और सेमिनार आयोजित किए गए। यह प्रारूप तत्कारलीन मुख्य मंत्री नारायण दत्तख तिवारी के शासनकाल में शासन को सौंप दिया गया था, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ।
एक अखबार की कटिंग पर नजर पड़ी जिसमें लिखा था कि मंत्रीजी डाक बंगले से काजू की बर्फी खाकर आपदाग्रस्ती क्षेत्रों में दौरा करने गए और जो हेलीकाप्ट र से पैकेट फेंके गए, उनमें बासी व सूखी पूरियां थीं।
आगराखाल के ढाबे में एक लिफाफे पर मैंने जो लिखा, वह कुछ ऐसा था-
बोल रे मौसम कितना पानी।
सिर से पानी गुजर गया,
हो गई खत्म कहानी।
आंसू डूबी झीलें हैं,
गाल नदी के गीले हैं,
चीखा जंगल रोया पर्वत,
मौसम की मनमानी।
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