ग्रेटर नोएडा का मामला न तो पहला है और न ही अन्तिम। यह पूँजीवादी विकास मॉडल का नतीजा है। यह पहले ही पंजाब में हरित क्रान्ति के नाम पर कैंसर ला चुका है।
उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले के गाँवों में जिस प्रकार कैंसर जैसी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ सामने आ रही हैं, वैसी घटनाएँ पंजाब में पिछले करीब दो दशक से देखी जा रही हैं। विभिन्न संगठनों की पहल के बाद उम्मीद थी कि हालत में सुधार आएगा, लेकिन स्थिति सुधरने के बावजूद बिगड़ती ही जा रही है।
अब पंजाब के मालवा क्षेत्र में प्रतिदिन एक आदमी कैंसर और हेपटाइटिस सी की चपेट में आ रहा है, जबकि सरकार और कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। समझा जा सकता है कि देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसा हो सकता है।
50 साल पहले हरित क्रान्ति के जरिए जिस विकास की कहानी पंजाब में लिखने की पहल की गई थी; अब वह कृषि ही नहीं, किसानों और उसके मवेशियों के स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह होती जा रही है। कृषि में रासायनिक उर्वरक के प्रयोग में 8 गुना वृद्धि हुई, तो प्रति हेक्टेयर करीब एक किलो कीटनाशक पंजाब में इस्तेमाल होने लगा।
भूमि और पानी के प्रदूषित होने से पूरे पंजाब, खासकर मालवा क्षेत्र के लोगों की प्रजनन क्षमता में गिरावट, गर्भपात, सन्तानरहित दम्पत्ति, समय पूर्व बच्चा, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, किडनी में खराबी, पाचन तन्त्र में गड़बड़ी, समय पूर्व बुढ़ापा, मानसिक रूप से अविकसित बच्चे, चर्म रोग जैसी समस्याएँ मालवा क्षेत्र के हरेक गाँव की करीब-करीब हकीकत बन गई हैं, जबकि कैंसर सुरसा की तरह अपना मुँह फैलाते जा रहा है। गाय-भैंस की भी प्रजनन क्षमता में गिरावट, गर्भधारण में समस्या और गर्भपात, बाँझपन के अलावा दूध में कमी दिखाई पड़ रही है। देसी मुर्गियाँ भी अण्डे कम दे रही हैं।
विकास के नाम पर पंजाब के पर्यावरण को पहुँची क्षति के बारे में दुनिया को तब पता चला, जब मार्च 2002 में भटिण्डा जिले के हरकिशनपुरा गाँव के लोगों ने विरोधस्वरूप खुद को बेचने के लिए पेश कर दिया। भटिण्डा में शेष पंजाब से कैंसर के ज्यादा मरीज पाए गए। सवाल उठा कि यह कैसे हो गया? सहज भाव से लोगों का ध्यान भोजन और पानी की तरफ गया।
लोगों को लगने लगा था कि यह सब कपास में कीटनाशक के बढ़ते इस्तेमाल का नतीजा है। लेकिन जो बात लोगों को आसानी से समझ में आ रही थी, उसकी वैज्ञानिक शोध से पुष्टि की जरूरत थी। पर पेंच यह था कि यहाँ भारी पैमाने पर लॉबीबाजी थी। सच सामने आता तो कैसे? जिनका हित इससे प्रभावित होता या जो इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जाते, स्वाभाविक तौर पर वे इसमें तोड़-मरोड़ करते।
जाहिर है उस समय पंजाब स्वास्थ्य विभाग ने कैंसर के लिए भूजल को जिम्मेदार नहीं माना। दूसरी ओर पंजाब प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने पाया कि भूजल में पूर्ण घुलनशील पदार्थ (टीडीएस) मात्रा सामान्य से ज्यादा है, लेकिन इसमें उसे कोई कीटनाशक नहीं मिला। लेकिन नहरी पानी में उसे डीडीटी मिला।
पीजीआईएमईआर, चण्डीगढ़ ने कीटनाशक और शराब को कैंसर का सम्भावित कारण बताया। पीजीआई और सेण्टर फॉर साइंस एण्ड इनवायरमेण्ट को रक्त के नमूनों में कीटनाशक पदार्थ मिले। इस पर रसायन उद्योग सक्रिय हो गया। इन रिपोर्टों को खारिज करने के लिए वह यह दिखाने लगा कि कैंसरजनित मौत के लिए कीटनाशक जिम्मेदार नहीं हैं।
इस पूरी पृष्ठभूमि में एक बात सामान्य है और वह है उच्च वृद्धि दर वाला विकास मॉडल। तकनीक केन्द्रित इस विकास मॉडल ने विकास के खूब सपने दिखाए। उद्योग-धन्धे लगे। सोचा विकास होगा, रोजगार मिलेगा। लेकिन इनके सपने साकार नहीं हो सके। जमीन जहरीली हो गई है, तो कृषि वृद्धि दर में गिरावट आ गई है। कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करने लगे हैं।
हां, औद्योगिक कम्पनियों के सपने जरूर सच हो रहे हैं। इनके मालिक आलीशान बंगलों में भोग-विलास की जिन्दगी जी रहे हैं। नीति नियोजक भी इस समस्या के बुनियादी समाधान के बजाय किसानों को उद्योग-धन्धों में लाने की कोशिश में लग गए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मोदी सरकार पूर्ववर्ती सरकारों को पीछे छोड़ती प्रतीत हो रही है।
कीटनाशक जनित कैंसर पीड़ित मामले में पंजाब में हालत पहले से बदतर है। सरकार की अपनी सीमा है। वह एक खास ढर्रे पर काम करती है। विनोबा भावे ने ठीक ही कहा था कि सरकारी काम असरकारी नहीं होता। कैंसर के कारणों को रोकने का प्रयास नहीं किया गया। यानी पानी जहाँ से गन्दा हो रहा है, उसे दुरुस्त करने का काम नहीं हुआ। कीटनाशक लॉबी सरकार पर हावी है, तो सरकार भी नहीं समझ पा रही है कि वह क्या करे। दरअसल, उसके सामने मौजूदा विकास मॉडल को बनाए रखने की मजबूरी है।
उमेन्द्र दत्त, पर्यावरणविद्
पंजाब में कैंसर पीड़ित किसानों के मामले में स्थिति पहले से खराब हुई है। पहले बीकानेर के लिए कैंसर ट्रेन चलती थी, अब कैंसर जीप चलने लगी है। इसके बावजूद सरकार केवल बयान देने तक सीमित है। यही नहीं, वह कैंसर पीड़ितों के इलाज के लिए निर्धारित राशि भी पूरी तरह खर्च नहीं कर पाती है। सरकार उद्योग और कीटनाशक लॉबी के दबाव में है। मौजूदा मोदी सरकार भी इसी पैटर्न पर काम कर रही है। पर्यावरण नियन्त्रण के नियमों को ढीला कर दिया गया है। इससे पर्यावरण को नुकसान पहुँचेगा, जबकि इसे सख्ती से लागू करने के मसले पर मीडिया विकास रुकने के नाम पर हंगामा करने लगता है। हकीकत यह है कि लोग इसकी बलि चढ़ रहे हैं।
देवेन्द्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले के गाँवों में जिस प्रकार कैंसर जैसी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ सामने आ रही हैं, वैसी घटनाएँ पंजाब में पिछले करीब दो दशक से देखी जा रही हैं। विभिन्न संगठनों की पहल के बाद उम्मीद थी कि हालत में सुधार आएगा, लेकिन स्थिति सुधरने के बावजूद बिगड़ती ही जा रही है।
अब पंजाब के मालवा क्षेत्र में प्रतिदिन एक आदमी कैंसर और हेपटाइटिस सी की चपेट में आ रहा है, जबकि सरकार और कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। समझा जा सकता है कि देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसा हो सकता है।
50 साल पहले हरित क्रान्ति के जरिए जिस विकास की कहानी पंजाब में लिखने की पहल की गई थी; अब वह कृषि ही नहीं, किसानों और उसके मवेशियों के स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह होती जा रही है। कृषि में रासायनिक उर्वरक के प्रयोग में 8 गुना वृद्धि हुई, तो प्रति हेक्टेयर करीब एक किलो कीटनाशक पंजाब में इस्तेमाल होने लगा।
भूमि और पानी के प्रदूषित होने से पूरे पंजाब, खासकर मालवा क्षेत्र के लोगों की प्रजनन क्षमता में गिरावट, गर्भपात, सन्तानरहित दम्पत्ति, समय पूर्व बच्चा, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, किडनी में खराबी, पाचन तन्त्र में गड़बड़ी, समय पूर्व बुढ़ापा, मानसिक रूप से अविकसित बच्चे, चर्म रोग जैसी समस्याएँ मालवा क्षेत्र के हरेक गाँव की करीब-करीब हकीकत बन गई हैं, जबकि कैंसर सुरसा की तरह अपना मुँह फैलाते जा रहा है। गाय-भैंस की भी प्रजनन क्षमता में गिरावट, गर्भधारण में समस्या और गर्भपात, बाँझपन के अलावा दूध में कमी दिखाई पड़ रही है। देसी मुर्गियाँ भी अण्डे कम दे रही हैं।
विकास के नाम पर पंजाब के पर्यावरण को पहुँची क्षति के बारे में दुनिया को तब पता चला, जब मार्च 2002 में भटिण्डा जिले के हरकिशनपुरा गाँव के लोगों ने विरोधस्वरूप खुद को बेचने के लिए पेश कर दिया। भटिण्डा में शेष पंजाब से कैंसर के ज्यादा मरीज पाए गए। सवाल उठा कि यह कैसे हो गया? सहज भाव से लोगों का ध्यान भोजन और पानी की तरफ गया।
लोगों को लगने लगा था कि यह सब कपास में कीटनाशक के बढ़ते इस्तेमाल का नतीजा है। लेकिन जो बात लोगों को आसानी से समझ में आ रही थी, उसकी वैज्ञानिक शोध से पुष्टि की जरूरत थी। पर पेंच यह था कि यहाँ भारी पैमाने पर लॉबीबाजी थी। सच सामने आता तो कैसे? जिनका हित इससे प्रभावित होता या जो इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जाते, स्वाभाविक तौर पर वे इसमें तोड़-मरोड़ करते।
जाहिर है उस समय पंजाब स्वास्थ्य विभाग ने कैंसर के लिए भूजल को जिम्मेदार नहीं माना। दूसरी ओर पंजाब प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने पाया कि भूजल में पूर्ण घुलनशील पदार्थ (टीडीएस) मात्रा सामान्य से ज्यादा है, लेकिन इसमें उसे कोई कीटनाशक नहीं मिला। लेकिन नहरी पानी में उसे डीडीटी मिला।
पीजीआईएमईआर, चण्डीगढ़ ने कीटनाशक और शराब को कैंसर का सम्भावित कारण बताया। पीजीआई और सेण्टर फॉर साइंस एण्ड इनवायरमेण्ट को रक्त के नमूनों में कीटनाशक पदार्थ मिले। इस पर रसायन उद्योग सक्रिय हो गया। इन रिपोर्टों को खारिज करने के लिए वह यह दिखाने लगा कि कैंसरजनित मौत के लिए कीटनाशक जिम्मेदार नहीं हैं।
लोगों को लगने लगा था कि यह सब कपास में कीटनाशक के बढ़ते इस्तेमाल का नतीजा है। लेकिन जो बात लोगों को आसानी से समझ में आ रही थी, उसकी वैज्ञानिक शोध से पुष्टि की जरूरत थी। पर पेंच यह था कि यहाँ भारी पैमाने पर लॉबीबाजी थी। सच सामने आता तो कैसे? जिनका हित इससे प्रभावित होता या जो इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जाते, स्वाभाविक तौर पर वे इसमें तोड़-मरोड़ करते। जाहिर है उस समय पंजाब स्वास्थ्य विभाग ने कैंसर के लिए भूजल को जिम्मेदार नहीं माना।
यह भी कहा जाने लगा कि कीटनाशक का विरोध करने वाले राष्ट्रविरोधी और प्रगतिविरोधी हैं। वे धमकी पर भी उतर आए। खेती विरासत मिशन को निशाना बनाया गया। बताया जाता है कि सरकारी अधिकारी और शोधकर्ता भी कीटनाशक लॉबी के प्रभाव में आ गए। आखिर हजारों करोड़ रुपए के बिजनेस का मामला था।इस पूरी पृष्ठभूमि में एक बात सामान्य है और वह है उच्च वृद्धि दर वाला विकास मॉडल। तकनीक केन्द्रित इस विकास मॉडल ने विकास के खूब सपने दिखाए। उद्योग-धन्धे लगे। सोचा विकास होगा, रोजगार मिलेगा। लेकिन इनके सपने साकार नहीं हो सके। जमीन जहरीली हो गई है, तो कृषि वृद्धि दर में गिरावट आ गई है। कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करने लगे हैं।
हां, औद्योगिक कम्पनियों के सपने जरूर सच हो रहे हैं। इनके मालिक आलीशान बंगलों में भोग-विलास की जिन्दगी जी रहे हैं। नीति नियोजक भी इस समस्या के बुनियादी समाधान के बजाय किसानों को उद्योग-धन्धों में लाने की कोशिश में लग गए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मोदी सरकार पूर्ववर्ती सरकारों को पीछे छोड़ती प्रतीत हो रही है।
कीटनाशक जनित कैंसर पीड़ित मामले में पंजाब में हालत पहले से बदतर है। सरकार की अपनी सीमा है। वह एक खास ढर्रे पर काम करती है। विनोबा भावे ने ठीक ही कहा था कि सरकारी काम असरकारी नहीं होता। कैंसर के कारणों को रोकने का प्रयास नहीं किया गया। यानी पानी जहाँ से गन्दा हो रहा है, उसे दुरुस्त करने का काम नहीं हुआ। कीटनाशक लॉबी सरकार पर हावी है, तो सरकार भी नहीं समझ पा रही है कि वह क्या करे। दरअसल, उसके सामने मौजूदा विकास मॉडल को बनाए रखने की मजबूरी है।
उमेन्द्र दत्त, पर्यावरणविद्
पंजाब में कैंसर पीड़ित किसानों के मामले में स्थिति पहले से खराब हुई है। पहले बीकानेर के लिए कैंसर ट्रेन चलती थी, अब कैंसर जीप चलने लगी है। इसके बावजूद सरकार केवल बयान देने तक सीमित है। यही नहीं, वह कैंसर पीड़ितों के इलाज के लिए निर्धारित राशि भी पूरी तरह खर्च नहीं कर पाती है। सरकार उद्योग और कीटनाशक लॉबी के दबाव में है। मौजूदा मोदी सरकार भी इसी पैटर्न पर काम कर रही है। पर्यावरण नियन्त्रण के नियमों को ढीला कर दिया गया है। इससे पर्यावरण को नुकसान पहुँचेगा, जबकि इसे सख्ती से लागू करने के मसले पर मीडिया विकास रुकने के नाम पर हंगामा करने लगता है। हकीकत यह है कि लोग इसकी बलि चढ़ रहे हैं।
देवेन्द्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
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Post By: Shivendra