पांच नदियों का राज्य ‘पंच-आब’ पंजाब अब बे-आब हो रहा है। पंजाब इस समय एक बेहद गम्भीर पर्यावरणीय खतरे और सामूहिक स्वास्थ्य पर संकट का सामना कर रहा है और जीवन दाँव पर लगे हैं। जल प्रदूषक यूरेनियम, आर्सेनिक, फ्लोराइड, नाइट्रेट आदि का खतरा समूचे पंजाब पर मंडरा रहा है लेकिन पंजाब का “मालवा क्षेत्र” इससे अधिक प्रभावित होने वाला है क्योंकि इसका क्षेत्रफल भी बड़ा है और इलाके में जनसंख्या भी अधिक है। विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों द्वारा इस सम्बन्ध में कई अध्ययन किये गये हैं, ताकि स्वास्थ्य के गम्भीर खतरे के कारणों को समझा जा सके, और इन अध्ययनों में इस खतरे की पुष्टि भी हुई है।
इस दिशा में सफर अभी बहुत बाकी है। खासकर यूरेनियम का मिलना एक अलग बात है, लेकिन पानी में भारी धातुओं का पाया जाना कोई नई बात नहीं है। लगभग पूरे देश में यह आम बात है। अगर पूरे देश के सभी गावों के पानी की सूक्ष्म जांच कराई जाए तो शायद पाया जाए कि आधे से अधिक गावों का पानी भारी धातुओं से भरा पड़ा है। यह एक कड़वा सच है कि पूरे देश में लोग वही पानी पीने के लिए विवश हैं जो उनके गावों में उपलब्ध है। ग्रामीण भारत के लोगों के लिए आज भी अपने और पशुओं के पीने तथा अन्य कायरें के लिए अलग-अलग पानी की व्यवस्था नहीं है। अधिकतम ग्रामीण आबादी वही पानी पीने के लिए विवश है, जो आसानी से वहां उपलब्ध है। पेयजल की आपूर्ति जैसी कोई व्यवस्था देश की अधिकतम ग्रामीण आबादी नहीं जानती। यही क्यों, देश के अधिकतर शहरों-कस्बों में भी लोग स्थानीय स्तर पर उपलब्ध जल ही पीते हैं।
यहां जल के पेय माने जाने की एक ही शर्त है कि वह खारा और बदबूदार न हो। पानी के स्वास्थ्य संबंधी गुणों और दोषों से तो अधिकतम लोग परिचित ही नहीं हैं। पेयजल की आपूर्ति व्यवस्था की बात अगर की जाए तो सच तो यह है कि शहरों और कस्बों की हालत भी कुछ ठीक नहीं है। महानगरों में भी पीने के पानी की किल्लत बहुत बड़ी समस्या है। इतना ही नहीं, कई बार निगमों द्वारा सप्लाई किए गए पानी में भी कीड़े-मकोड़ों से लेकर कचरा तक निकलता है। निगमों द्वारा सप्लाई किया गया भयावह बदबूदार पानी भी शहरों के लोग पीने के लिए मजबूर होते हैं। जाहिर है, ग्रामीण इलाकों में पानी और उसे पीने वालों का हाल पूछने वाला कोई नहीं है। किसी इलाके का हाल और उसके पीछे का सच जानने की कोशिश केवल तभी की जाती है जब वहा कोई बड़ी दुर्घटना हो जाती है।
हालात के चलते उपजने वाली बीमारियों को तो बहुत दिनों तक नियति का खेल मानकर टाला जाता है। इसमें हमारी व्यवस्था और लोगों के अंधविश्वास दोनों का ही हाथ होता है। यही बात मालवा इलाके के उन लोगों के साथ भी हुई, जिन पर जीवन देने वाला पानी ही कहर बन कर बरपा। लंबे अरसे तक इससे संबंधित तथ्यों की उपेक्षा की जाती रही। गुरू नानक देव विश्वविद्यालय ने बठिंडा और अमृतसर जिले से जुटाए पानी में यूरेनियम और नियत हद से ज्यादा भारी धातुएं होने की बात 1995 में ही अपनी एक रिपोर्ट में कही थी। इसके बाद मुक्तसर, फरीदकोट और फिरोजपुर जिलों के भी कुछ हिस्सों में यह बात सामने आई। मार्च 2008 में यह बड़े पैमाने पर चर्चा का विषय बना और तब कुछ सरकारी आश्वासन भी आए, लेकिन कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रभावित इलाकों में कैंसर महामारी की तरह फैल रहा है।
ग्रामीणों को इससे बचाने के लिए अभी तक कुल मिला कर जो किया गया है वह केवल इतना है कि अब जाकर मोहाली में एक टेस्टिंग लैब बनाई जा रही है। यह भी अभी छह महीने बाद काम करना शुरू कर सकेगी। होना तो यह चाहिए था कि 1995 में जब गुरू नानक देव विश्वविद्यालय की रिपोर्ट आई थी तभी सरकार सतर्क हो गई होती और न केवल प्रभावित इलाके के लोगों की सेहत की सुरक्षा, बल्कि इसकी दूसरी संभावनाओं पर भी देखना शुरू कर देती। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ एक संकट है। अगर सलीके से देखा जाए तो इसमें एक बड़ी संभावना भी छिपी हुई हो सकती है। आखिर यहां पानी में यूरेनियम क्यों मिल रहा है? इसके मूल में हजार बातें हो सकती हैं, लेकिन उन हजार बातों में एक बात यह भी तो हो सकती है कि इसी इलाके में कहीं जमीन के भीतर यूरेनियम का प्राकृतिक स्रोत हो। वैसे तो दुनिया भर में यूरेनियम की उपलब्धता का ज्ञान बहुत कम जगहों पर है।
भारत में अभी तक यह केवल दो जगहों पर पाया जाता है, एक तो झारखंड और दूसरा आंध्र प्रदेश। अगर समस्या के इस पहलू पर भी ध्यान दिया जाए तो हो सकता है कि इसका तीसरा स्नोत यहा मिल जाए। अगर कहीं यह संभावना सही निकली और भविष्य में इसका सदुपयोग किया जा सका तो समझा जा सकता है कि यह देश के लिए कितने फायदे की बात हो सकती है। बेशक उस स्थिति में ग्रामीणों का पुनर्वास एक समस्या होगी, लेकिन जो उपलब्धि होगी, वह इस समस्या की तुलना में बहुत बड़ी होगी। अगर ऐसा न हुआ तो भी कम से कम हम समस्या का वास्तविक कारण जानने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। बेहतर तो यही होगा कि सरकारी एजेंसिया सबसे पहले इसके वास्तविक कारणों को जानने में जुट जाएं। साथ ही, लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या के तात्कालिक निदान के उपाय भी शुरू कर दें।
अगर तुरंत पेयजल आपूर्ति का कोई नियमित उपाय न किया जा सके तो भी कम से कम कोई अस्थायी उपाय तो किया ही जा सकता है। आसपास के उन गावों या क्षेत्रों से जहां के पानी में यूरेनियम और भारी धातुएं नहीं हैं, प्रभावित क्षेत्रों को पीने के लिए पानी की आपूर्ति तो की ही जा सकती है। वैसे भी यह शर्मनाक स्थिति ही कही जाएगी कि आजादी के छह दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी पूरे देश को पेयजल उपलब्ध कराने की कोई सम्यक नीति नहीं बनाई जा सकी। अभी भी पूरे देश को पेयजल उपलब्ध कराना हमारी किसी सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं है। जाने कितने ग्रामीण इलाकों में लोग अनजाने में ऐसा पानी पी रहे हैं, जो पिए जाने लायक नहीं है। जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि अबसे इस दिशा में सार्थक कदम उठाएं और पूरे देश को पीने लायक स्वच्छ जल उपलब्ध कराने की दिशा में आगे बढ़ें।
हालात के चलते उपजने वाली बीमारियों को तो बहुत दिनों तक नियति का खेल मानकर टाला जाता है। इसमें हमारी व्यवस्था और लोगों के अंधविश्वास दोनों का ही हाथ होता है। यही बात मालवा इलाके के उन लोगों के साथ भी हुई, जिन पर जीवन देने वाला पानी ही कहर बन कर बरपा। मार्च 2008 में यह बड़े पैमाने पर चर्चा का विषय बना और तब कुछ सरकारी आश्वासन भी आए, लेकिन कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रभावित इलाकों में कैंसर महामारी की तरह फैल रहा है।
पंजाब के मालवा इलाके के कई गावों में लोगों का जीना मुहाल हो गया है। यहा भूगर्भ जल में यूरेनियम पाया जा रहा है। इसके अलावा कुछ और भारी धातुएं भी पाई जा रही हैं। भारत के सभी गावों की तरह यहा भी लोगों के पास स्थानीय स्तर पर प्राकृतिक स्रोतों से उपलब्ध पानी को छोड़ कर पेयजल पाने का कोई और उपाय नहीं है। दूसरी तरफ यह पानी पीने के चलते लोगों को असमय और बिना किसी अन्य कारण के कैंसर हो रहा है। इसके चलते कई परिवार पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। जो लोग जीवित हैं, वे भी तरह-तरह की भयावह बीमारियों से परेशान हैं। पानी में यूरेनियम पाए जाने की बात यहां काफी दिनों से हो रही है। इस बारे में जाच-पड़ताल भी काफी की जा चुकी है। कई टीमें मालवा के विभिन्न गावों की पड़ताल करके वापस जा चुकी हैं और आश्वासन भी बहुत दिए जा चुके हैं, लेकिन ठोस समाधान अभी तक कुछ भी नहीं निकला है। अब जाकर केंद्र सरकार ने इसकी सुधि ली है और कुछ उम्मीद भी बंधी है। हालाकि यह सिर्फ एक शुरुआत है।इस दिशा में सफर अभी बहुत बाकी है। खासकर यूरेनियम का मिलना एक अलग बात है, लेकिन पानी में भारी धातुओं का पाया जाना कोई नई बात नहीं है। लगभग पूरे देश में यह आम बात है। अगर पूरे देश के सभी गावों के पानी की सूक्ष्म जांच कराई जाए तो शायद पाया जाए कि आधे से अधिक गावों का पानी भारी धातुओं से भरा पड़ा है। यह एक कड़वा सच है कि पूरे देश में लोग वही पानी पीने के लिए विवश हैं जो उनके गावों में उपलब्ध है। ग्रामीण भारत के लोगों के लिए आज भी अपने और पशुओं के पीने तथा अन्य कायरें के लिए अलग-अलग पानी की व्यवस्था नहीं है। अधिकतम ग्रामीण आबादी वही पानी पीने के लिए विवश है, जो आसानी से वहां उपलब्ध है। पेयजल की आपूर्ति जैसी कोई व्यवस्था देश की अधिकतम ग्रामीण आबादी नहीं जानती। यही क्यों, देश के अधिकतर शहरों-कस्बों में भी लोग स्थानीय स्तर पर उपलब्ध जल ही पीते हैं।
यहां जल के पेय माने जाने की एक ही शर्त है कि वह खारा और बदबूदार न हो। पानी के स्वास्थ्य संबंधी गुणों और दोषों से तो अधिकतम लोग परिचित ही नहीं हैं। पेयजल की आपूर्ति व्यवस्था की बात अगर की जाए तो सच तो यह है कि शहरों और कस्बों की हालत भी कुछ ठीक नहीं है। महानगरों में भी पीने के पानी की किल्लत बहुत बड़ी समस्या है। इतना ही नहीं, कई बार निगमों द्वारा सप्लाई किए गए पानी में भी कीड़े-मकोड़ों से लेकर कचरा तक निकलता है। निगमों द्वारा सप्लाई किया गया भयावह बदबूदार पानी भी शहरों के लोग पीने के लिए मजबूर होते हैं। जाहिर है, ग्रामीण इलाकों में पानी और उसे पीने वालों का हाल पूछने वाला कोई नहीं है। किसी इलाके का हाल और उसके पीछे का सच जानने की कोशिश केवल तभी की जाती है जब वहा कोई बड़ी दुर्घटना हो जाती है।
हालात के चलते उपजने वाली बीमारियों को तो बहुत दिनों तक नियति का खेल मानकर टाला जाता है। इसमें हमारी व्यवस्था और लोगों के अंधविश्वास दोनों का ही हाथ होता है। यही बात मालवा इलाके के उन लोगों के साथ भी हुई, जिन पर जीवन देने वाला पानी ही कहर बन कर बरपा। लंबे अरसे तक इससे संबंधित तथ्यों की उपेक्षा की जाती रही। गुरू नानक देव विश्वविद्यालय ने बठिंडा और अमृतसर जिले से जुटाए पानी में यूरेनियम और नियत हद से ज्यादा भारी धातुएं होने की बात 1995 में ही अपनी एक रिपोर्ट में कही थी। इसके बाद मुक्तसर, फरीदकोट और फिरोजपुर जिलों के भी कुछ हिस्सों में यह बात सामने आई। मार्च 2008 में यह बड़े पैमाने पर चर्चा का विषय बना और तब कुछ सरकारी आश्वासन भी आए, लेकिन कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रभावित इलाकों में कैंसर महामारी की तरह फैल रहा है।
ग्रामीणों को इससे बचाने के लिए अभी तक कुल मिला कर जो किया गया है वह केवल इतना है कि अब जाकर मोहाली में एक टेस्टिंग लैब बनाई जा रही है। यह भी अभी छह महीने बाद काम करना शुरू कर सकेगी। होना तो यह चाहिए था कि 1995 में जब गुरू नानक देव विश्वविद्यालय की रिपोर्ट आई थी तभी सरकार सतर्क हो गई होती और न केवल प्रभावित इलाके के लोगों की सेहत की सुरक्षा, बल्कि इसकी दूसरी संभावनाओं पर भी देखना शुरू कर देती। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ एक संकट है। अगर सलीके से देखा जाए तो इसमें एक बड़ी संभावना भी छिपी हुई हो सकती है। आखिर यहां पानी में यूरेनियम क्यों मिल रहा है? इसके मूल में हजार बातें हो सकती हैं, लेकिन उन हजार बातों में एक बात यह भी तो हो सकती है कि इसी इलाके में कहीं जमीन के भीतर यूरेनियम का प्राकृतिक स्रोत हो। वैसे तो दुनिया भर में यूरेनियम की उपलब्धता का ज्ञान बहुत कम जगहों पर है।
भारत में अभी तक यह केवल दो जगहों पर पाया जाता है, एक तो झारखंड और दूसरा आंध्र प्रदेश। अगर समस्या के इस पहलू पर भी ध्यान दिया जाए तो हो सकता है कि इसका तीसरा स्नोत यहा मिल जाए। अगर कहीं यह संभावना सही निकली और भविष्य में इसका सदुपयोग किया जा सका तो समझा जा सकता है कि यह देश के लिए कितने फायदे की बात हो सकती है। बेशक उस स्थिति में ग्रामीणों का पुनर्वास एक समस्या होगी, लेकिन जो उपलब्धि होगी, वह इस समस्या की तुलना में बहुत बड़ी होगी। अगर ऐसा न हुआ तो भी कम से कम हम समस्या का वास्तविक कारण जानने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। बेहतर तो यही होगा कि सरकारी एजेंसिया सबसे पहले इसके वास्तविक कारणों को जानने में जुट जाएं। साथ ही, लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या के तात्कालिक निदान के उपाय भी शुरू कर दें।
अगर तुरंत पेयजल आपूर्ति का कोई नियमित उपाय न किया जा सके तो भी कम से कम कोई अस्थायी उपाय तो किया ही जा सकता है। आसपास के उन गावों या क्षेत्रों से जहां के पानी में यूरेनियम और भारी धातुएं नहीं हैं, प्रभावित क्षेत्रों को पीने के लिए पानी की आपूर्ति तो की ही जा सकती है। वैसे भी यह शर्मनाक स्थिति ही कही जाएगी कि आजादी के छह दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी पूरे देश को पेयजल उपलब्ध कराने की कोई सम्यक नीति नहीं बनाई जा सकी। अभी भी पूरे देश को पेयजल उपलब्ध कराना हमारी किसी सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं है। जाने कितने ग्रामीण इलाकों में लोग अनजाने में ऐसा पानी पी रहे हैं, जो पिए जाने लायक नहीं है। जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि अबसे इस दिशा में सार्थक कदम उठाएं और पूरे देश को पीने लायक स्वच्छ जल उपलब्ध कराने की दिशा में आगे बढ़ें।
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