पानीदार भारत में बढ़ते सुखाड़ का दायरा

पानीदार भारत में बढ़ते सुखाड़ का दायरा
पानीदार भारत में बढ़ते सुखाड़ का दायरा

सर्दी के मौसम में जब उत्तर भारत में थोड़ी बहुत मावठे वाली बारिश हो रही है, ऐसे में सूखे की चर्चा अटपटी जरुर है, पर जलवायु परिवर्तन के दौर में बिगड़ते मानसून के स्वरुप और अंधाधुध भूमि के दोहन ने सूखे के दायरे और तीव्रता को और बढ़ा दी है। वैश्विक स्तर पर शुष्क या सूखा प्रभावित क्षेत्र का दायरा बढ़कर कुल भू-भाग का लगभग आधा हो चुका है। इस आधे भाग में विश्व की एक-
तिहाई जनसंख्या निवास करती है। ग्लोबल लैंड आउटलुक के मुताबिक भू-क्षरण प्रभावित क्षेत्र 20% तक बढ़ चुका है, जो आकार में अफ्रीका महादेश के बराबर बैठता है। आज एक बड़ी आबादी सूखे की चपेट में है और नतीजा जीवन-यापन की तलाश में व्यापक स्तर पर विस्थापन है। पर्यावरणीय संकट के चलते सालाना हो रहे दो करोड़ से अधिक विस्थापन में भू-क्षरण, सूखा और पानी की कमी प्रमुख कारण हैं। अपने हालिया रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2050 ई. तक ऐसे विस्थापन में कई गुणा वृद्धि की आशंका जाहिर की है। सूखे और मरुस्थलीकरण से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र मुख्य रूप से अफ्रीका, मध्य-पूर्व के देश,भारत और ऑस्ट्रेलिया हैं साथ ही अधिकांश प्रभावित आबादी कम विकसित और विकासशील देशों में हैं।

भारतीय सन्दर्भ में भूमि-क्षय और मरुस्थलीकरण के मुख्य कारणों में जल-अपरदन, भूमि पर से हरित आवरण में कमी और वायु अपरदन शामिल है। भारत एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और विश्व में सबसे ज्यादा कृषि भू-भाग होने के कारण भूमि संसाधनों के उत्पादकता पर विशेष रूप से निर्भर है। वैश्विक औसत 11% के मुकाबले भारतीय क्षेत्र का लगभग 51% भू-भाग पर खेती की जाती है जिस पर 1.4 अरब जनसंख्या के अलावा 53.6 करोड़ पशु भी निर्भर हैं। इसरो के हालिया अध्ययन के अनुसार पिछले डेढ दशक में भारत में लगभग तीन मिलियन हेक्टेयर की वृद्धि के साथ भूमि-क्षय का दायरा बढ़ कर कुल भूमि का 29.7% तक जा पहुँचा है। वहीं उसी अवधि में मरुस्थलीकरण से प्रभावित दायरा भी दो मिलियन हेक्टयर से ज्यादा फैला है। एक-आध राज्यों को छोड़कर लगभग सारा भारतीय भू-भाग भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण से प्रभावित है, खासकर
पश्चिमी राज्य और सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, लद्दाख, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना हैं। अब सूखे के अबाध गति से बढ़ते दायरे से भारत पर खाद्य और जीवनयापन का खतरा मंडरा रहा है।

भारत में समय और स्थान के मामले में पानी की उपलब्धता बहुत ही असमान है। भारत के एक तिहाई भाग में केवल 750 मिलीमीटर से कम बारिश, दूसरे एक-तिहाई भाग में मात्र 750-1125 मिलीमीटर बारिश होती है। वहीं कुल बारिश का तीन-चौथाई मात्र 80 दिन में ही हो जाती है। पानी की असमान उपलब्धता, चरम मौसमी परिस्थितियाँ और अनियमित मानसून के कारण मिट्टी की नमी में लम्बे समय तक कमी खासकर महाराष्ट्र, गुजरात राजस्थान जैसे पश्चिमी राज्यों में सुखाड़ का कारण बन रही है। विदर्भ की पहचान ही अब सूखे और उजाड़ प्रदेश के रूप में ही होने लगी है। दूसरी तरफ खाद्यान सुरक्षा के मद्देनज़र पिछले पांच दशक में फसलों के प्राकृतिक चक्र में

आमूलचूल परिवर्तन आया है, साथ ही साथ अत्यधिक रसायन और सिंचाई आधारित कृषि चलन में है, खासकर पश्चिमोतर भारत में तो भूमिगत जल अब ख़त्म होने के कगार पर है। भारत में मानसून के कुछ दशक के आँकड़ों पर ध्यान दे तो ये स्पष्ट हो जाता है कि, पूरे दक्षिण एशिया में इसके विन्यास में व्यापक बदलाव देखा जा रहा है। हालाँकि पूरे भौगोलिक क्षेत्र के स्तर पर कुल बारिश की मात्रा लगभग एक सामान ही है पर बारिश की मात्रा के क्षेत्रीय विन्यास में बदलाव हो रहा है, मानसून पूरब से पश्चिम की तरफ धीरे-धीरे बढ़ रहा है। साथ ही साथ जहाँ औसत बारिश के दिनों की संख्या घट रही है वहीं बड़े और छोटे स्तर के बादल फटने और अतिवृष्टि सामान्य होती जा रही है, जहाँ पूरे महीने या पूरे मौसम की बरसात कुछ घंटे या कुछ ही दिनों में हो जा रही है। कुछ दिनों की अतिवृष्टि के बाद, एक लम्बे समय तक बिना बरसात अब मानसून की पहचान हो गयी है।
मानसून के विन्यास में आ रहे बदलाव की पुष्टि औसत बारिश और मध्य बारिश में बढ़ रहे अंतर से भी समझा जा सकता है जो कुल बारिश के पूरे मानसून काल के बहुत ही कम समय में बरस जाने की स्थिति बताता है। यहाँ तक कि मानसून में भी सूखे दिनों की संख्या धीरे-धीरे बढती जा रही है और बरसात वाले दिनों के संख्या सिकुड़ती जा रही है, जिससे ना सिर्फ बाढ़ का दायरा बढ़ रहा है बल्कि भूमिगत जल का पुनर्भरण भी कम हो रहा है। जिसके नतीजे में भरपूर बारिश वाले क्षेत्र भी अब सूखे का शिकार हो रहे हैं।

इसके अलावा बढ़ते तापमान के कारण सूखे इलाके में वायुमंडल के वाष्प सोखने की क्षमता काफी बढ़ जाती है; हवा के एक डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ने से वाष्प रखने की क्षमता में सात प्रतिशत तक की वृद्धि होती है। यही कारण है की परम्परागत रूप से कम बारिश वाले क्षेत्र गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में धीरे-धीरे बारिश की मात्रा बढ़ती जा रही है। वहीं दूसरी तरफ अधिक बारिश वाले बिहार, झारखंड, सिक्किम, असम, मेघालय सहित पूर्वी राज्यों में मानसून में कमी देखी जा रही है। यह कहा जा सकता है कि मानसून उत्तर -पूर्व से पश्चिम की तरफ धीरे-धीरे बढ़ रहा है। इस प्रकार कम बारिश वाले क्षेत्र में बाढ़ और ज्यादा बारिश प्रदेश में बारिश वाले दिनों में गिरावट, सतही और भूमिगत जल संतुलन बिगड़ रहा है, सदाबहार नदियों के सूखने से मिटटी की आद्रता असमय ख़त्म हो रही है और उसके अपरदन की गति में तेजी आ रही है। फलस्वरूप हरित प्रदेश भी सूखे की चपेट में आ रहे हैं।

जिस वजह से प्राकृतिक रूप से भूमिगत जल के लगातार कम पुनर्भरण और बेतहाशा दोहन के कारण सतही और भूमिगत जल के बीच आपसी संतुलन प्रभावित हुआ है, जिसका असर बड़े पैमाने पर पिछले एक-दो दशको में ही अधिकांश सदानीरा नदियाँ जलविहीन हो जा रही हैं। बारिश के मौसम के बाद से ही धीरे-धीरे सतही जल और मिटटी में नमी के खात्मे का कारण बन रही है। जिसके परिणामस्वरूप शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों का एक बड़ा भाग सूखे के चपेट में आ रहा है। शहरीकरण, रहवास के बढ़ते दायरे और भूमि के कंक्रीटीकरण से भूमिगत जल के पुनर्भरण में लगातार कमी आ रही है। साथ-साथ सतही जल के स्रोत जैसे पोखर, तालाब और छोटी-छोटी नदियाँ जो मानसून के आगमन तक भूमि में आवश्यक नमी बरक़रार रखती थी, अब जाड़े के मौसम के बाद ही सूखने लगी हैं। जिसके सामान्य या अधिक वर्षा वाले क्षेत्र तक में भी सूखे का प्रकोप बढ़ रहा है।

बड़े पैमाने पर खनन भी भूमि क्षय और मरुस्थलीकरण का सबब बन रही है। थार मरुभूमि को प्राकृतिक रूप से घेरने वाली अरावली पर्वत का बड़े पैमाने पर अवैध खनन से हाल के कुछ वर्षो में थार मरूभूमि का विस्तार हुआ है। भूमि-क्षरण के मुख्य कारणों में पिछले कुछ दशकों में भूमि उपयोग में आये व्यापक स्तर के बदलाव और चरम मौसम की स्थिति (अत्यधिक गर्मी और कम बारिश) है। विशेष रूप से सूखे के अलावा सिंचाई और रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड आधारित आधुनिक कृषि भी शामिल है, जिसके कारण भूमि में जमा होते हानिकारक रसायन और लवण जो धीरे-धीरे भूमि की उर्वरता कम कर देते है। अकेले कृषि के लिए तीन-चौथाई ज्यादा जंगल कटे हैं, वहीं अवैज्ञानिक आधुनिक और लाभ आधारित कृषि कार्य में दो-तिहाई से ज्यादा मीठा पानी खप रहा है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के लिए कृषि- भूमि, खनन, अधिवास, यातायात और अन्य जरुरतों के लिए जरुरी ढांचागत विकास के कारण जंगल, घास के मैदानों यहाँ तक की वेटलैंड सहित अन्य प्राकृतिक भूमि के उपयोग में हो रहे व्यापक स्तर के बदलाव ने भू-क्षरण की प्रक्रिया को और तेज कर दिया है। जैसा कि ज्ञात है भू-संसाधन जैसे उपजाऊ मिट्टी,पानी,जंगल,पेड़-पौधे और जीव-जंतु हमारी सभ्यता,संस्कृति और अर्थव्यवस्था के संबल हैं। ये सम्पूर्ण मानवता के लिए ना सिर्फ मुलभूत जरूरतें जैसे भोजन, पानी, मकान की उपलब्धतता सुनिश्चित करते हैं, बल्कि ईंधन और अन्य कच्चे माल के स्रोत हैं। जो हमारी आवश्यकताओं, जीवन-शैली तथा जीवन-यापन के स्वरुप को आकार देते हैं। पर भूमि सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुध दोहन, उनके ख़राब प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन के कारण, मनुष्य सहित कई प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट पैदा करते जा रहे हैं। मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैवीय गुणों के संतुलन बिगड़ने से, भू-संसाधन की संजीवनी सूख रही है
साथ ही विषाक्त हो रही है।

जबकि पृथ्वी पर मानव की सभी गतिविधियों को दीर्घकाल तक सुचारू रूप से चलते रहने के लिए ग्रहीय सीमा की अवधारणा को वैश्विक मान्यता मिली है, जिसके अन्दर ही पृथ्वी की जीवन रक्षा प्रणाली सुरक्षित रूप से काम कर पायेगी। ग्रहीय सीमा के नौ प्रमुख घटकों में हैं भू-उपयोग परिवर्तन शामिल है। इसके अनुसार सीमा उल्लंघन होने की स्थिति में अचानक, व्यापक, अपरिवर्तनीय और चरम पर्यावरणीय परिवर्तनों की सम्भावना बढ़ेगी। इन नौ ग्रहीय सीमाओं में से वैश्विक स्तर पर चार ग्रहीय सीमाओं जैव-विविधता क्षय, भू-उपयोग परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन और भू-रासायनिक चक्र में बदलाव को पहले ही पार कर चुके हैं। गौर से देखे तो ये चारों उल्लंघन मूल रूप से मानव-जनित मरुस्थलीकरण, भूमि-क्षरण और सूखे के फैलते दायरे से सीधे जुड़े हुए हैं। विदित है कि पेड़ों के बाद मिट्टी, स्थलीय आर्गेनिक कार्बन का सबसे बड़ा दीर्घकालीन भंडार है। जो वायुमंडलीय कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का स्रोत होने के साथ साथ सबसे बड़ा सिंक भी है और वैश्विक कार्बन चक्र को नियंत्रित भी करता है।

भूमि में मौजूद कार्बन की मात्रा वायुमंडल में मौजूद कार्बन का mदोगुना और पेड़-पौधों में मौजूद सम्पूर्ण कार्बन का तीन गुणा है। बड़े स्तर पर भूमि क्षरण और सुखाड़ के उपरोक्त सीधे नकारात्मक प्रभाव के अलावा मिटटी के दीर्घकाल के लिए संग्रहित आर्गेनिक कार्बन का ह्रास, जो कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के रूप में वायुमंडल में होता है; जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को और भी तेज कर रहा है। तभी संयुक्त राष्ट्र संघ ने मिटटी के क्षय और सूखे के बढ़ते दायरे को वर्तमान और भविष्य का सबसे जोखिम भरा वैश्विक पर्यावरणीय चुनौती माना है। ऐसे में सतत विकास की अवधारणा बिना भू-क्षरण, सुखाड़ और मरुस्थलीकरण को रोके संभव नहीं है। तभी तो इसे सतत विकास के लक्ष्यों में प्रमुखता दी गई जो सीधे -सीधे कई लक्ष्यों को प्रभावित करती है। दूसरी तरफ भू-संरक्षण जलवायु परिवर्तन के रोकथाम के लिए एक बहुत प्रभावी कदम साबित हो सकता है, जिस दिशा में भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर भी लक्ष्य निर्धारित किये गए है। इन सारी विकट परिस्थितियों में भूमि क्षरण तटस्थता और 2.5-3 बिलियन टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के समकक्ष अतिरिक्त कार्बन सिंक तैयार करने का निर्धारित लक्ष्य एक दुरूह परिकल्पना ही नज़र आती है, बशर्ते भूमि संपदा संरक्षण परिकल्प को समेकित समझ के साथ लागू ना किया जाये।

भू-क्षरण और मरुस्थलीकरण के विस्तार पर लगाम लगाने की दिशा में पहला कदम भूमि-क्षरण तटस्थता (मिटटी में कार्बन के आगमन और ह्रास को संतुलित करना) के लक्ष्य को निर्धारित कर हासिल करना है। वनीकरण, प्रकृति आधारित कृषि, समेकित भूमि और जल-प्रबंधन जैसे उपाय ना सिर्फ मिटटी में कार्बन के आगमन और ह्रास को संतुलित करते है बल्कि भूमि की कार्बन संग्रहण क्षमता को बढ़ाते भी है। भारत ने पेरिस जलवायु समझौते के आलोक में उर्जा और अर्थव्यस्था सम्बन्धी वायदे के अलावा 2030 ई. तक भू-क्षरण तटस्थता का लक्ष्य रखा है। जिसके मूल में भू- संपदा का संरक्षण, मिटटी की उर्वरा में आ रहे कमी को रोक कर उसकी उत्पादकता सुनिश्चित करना है। इसके तहत् 26 मिलियन हेक्टेयर खराब भूमि को पुनः उपजाऊ बनाने के साथ साथ वनीकरण और समेकित भूमि और जल प्रबंधन के प्रयास से अतिरिक्त 2.5-3 बिलियन टन कार्बन-डाइ- ऑक्साइड के समकक्ष कार्बन सिंक तैयार करना भी शामिल है। इस दिशा की रुपरेखा के मुताबिक भारत में राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम, मनरेगा, हरित भारत मिशन, समेकित वाटरशेड कार्यक्रम,
मरुस्थल विकास कार्यक्रम आदि परिकल्पों के तहत् प्रयास हो रहे हैं जो नाकाफ़ी हैं।

लेखक-  डॉ कुशाग्र राजेंद्र और डॉ विनीता परमार,पीएचडी ,हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट , एमिटी स्कूल ऑफ़ अर्थ  साइंसेज ,एमिटी यूनिवर्सिटी हरियाणा
(O):  (+91) 0124 2337015/Extn: 1303
(M): (+91) 9650913635

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Post By: Shivendra
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