पंछी की लाश

वर्ष 1966 का भयानक सूखा-जब अकाल की काली छाया ने पूरे दक्षिण बिहार को अपने लपेट में ले लिया था और शुष्कप्राण धरती पर कंकाल ही कंकाल नजर आने लगे थे... और सन् 1975 की प्रलयंकर बाढ़- जब पटना की सड़कों पर वेगवती वन्या उमड़ पड़ी थी और लाखों का जीवन संकट में पड़ गया था....। अक्षय करुणा और अतल-स्पर्शी संवेदना के धनी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु प्राकृतिकप्रकोप की इन दो महती विभीषिकाओं के प्रत्यक्षदर्शी तो रहे ही, बाढ़ के दौरान कई दिनों तक एक मकान के दुतल्ले पर घिरे रह जाने के कारण भुक्तभोगी भी। अपने सामने और अपने चारों ओर मानवीय विवशता और यातना का वह त्रासमय हाहाकार देखकर उनका पीड़ा-मथित हो उठना स्वाभाविक था। विशेषतः तब, जबकि उनके लिए हमेशा ‘लोग’ और ‘लोगों का जीवन’ ही सत्य रहे। आगे चलकर मानव-यातना के उन्हीं चरम साक्षात्कार-क्षणों को शाब्दिक अक्षरता प्रदान करने के क्रम में उन्होंने संस्मरणात्मक रिपोर्ताज लिखे।

फणीश्वरनाथ रेणु के बाढ़ के अनेक रिपोर्ताज में से एक -



) आज सुबह उठकर पंछी की लाश पर दृष्टि पड़ी तो मन इस अपशकुन से आशंकित हो गया। रात के तीसरे पहर में एक बार उठकर देखा था, मछली पकड़नेवालों के अलावा तीन चार व्यक्ति पैर से टटोल-टटोलकर कुछ खोज रहे थे। जो कुछ मिलता था उसे हाथ में एक बार लेकर देखते। अपने झोले में रख लेते या फिर पानी में फेंक देते। वर्षा के बाद वातावरण का ताप कम हुआ। कुंतु, बिछावन पर लेटते ही बाढ़ की समृतियाँ – ‘नास्टेल्जिया’ की तरह लौटकर आने लगीं और मन पसीजने लगा..ऐसा क्यों होता है? इसके मूल में क्या है? ...बहुत देर तक आत्मविष्लेषण करता रहा।

बचपन से ‘बाढ़’ शब्द सुनते ही विगलित होने और बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में जाकर काम करने की अदम्य प्रवृत्ति के पीछे- ‘सावन-भादों’ नामक एक करुणामय गीत है, जिसे मेरी बड़ी बहिन अपनी सहेलियों के साथ सावन-भादों के महीने में गाया करती ती। आषाढ़ चढ़ते ही-ससुराल में नयी बसनेवाली बेटी को नैहर बुला लिया जाता है। मेरा अनुमान है कि सारे उत्तर बिहार में नव-विवाहिता बेटियों को ‘सावन-भादों’ के समय नैहर से बुलावा आ जाता है...और जिसको कोई लिवाने नहीं जाता, वह बेचारी दिन-भर वर्षा के पानी-कीचड़ में भीगती हुई गृहकार्य संपन्न करने के बाद रात-भर नैहर की याद में आँसुओं की वर्षा में भीगती रहती है। ‘सावन-भादों’ गीत में ऐसी ही, ससुराल में नयी बसनेवाली कन्या की करुण कहानी है :

“कासी फूटल कसामल रे दैबा
बाबा मोरा सुधियो न लेल,
बाबा भेल निरमोहिया रे दैबा
भैया के भेजियों न देल,
भैया भेल कचहरिया रे दैबा
भउजी बिसरि कइसे गेल...?”


(अब तो चारों ओर कास भी फूल गये यानी वर्षा का मौसम बीतने को है। पिछली बार तो बाबा खुद आये थे। इस बाबा ने सुधि नहीं ली। बाबा अब निर्मोही हो गये हैं। भैया को ‘जमीन-जगह’ के मामले में हमेशा कचहरी में रहना पड़ता है। लेकिन, मेरी प्यारी भाभी मुझे कैसे भूल गयी?)

भाभी भूली नहीं थी, उसने अपने पति को ताने देकर बुलाने के लिए भेजा। भाई अपनी बहिन को लिवाने गया...इसके बाद गीत की धुन बदल जाती है। कल तक रोनेवाली बहुरिया प्रसन्न होकर ननदों और सहेलियों से कहती है:

“हां रे सुन सखिया! सावन-भादव केर उमड़ल नदियां
भैया अइले बहिनी बोलावे ले-सुन सखिया।”


ओ ननद-सखी! सावन-भादों की नदी उमड़ी हुई है। फिर भी मेरे भैया मुझे बुलाने आये हैं। तुम जरा सासजी से पैरवी कर दो कि मुझे जल्दी विदा कर दें...सास कहती है, मैं नहीं जानती अपने ससुर से कहो। ससुर ताने देकर कहता है कि नदीवाले इलाके में बेटी की शादी के बाद दहेज में नाव क्यों नहीं दिया। अंत में, पतिदेव कुछ शर्तों के साथ विदा करने को राजी होते हैं। ससुराल की दुखिया-दुलहिन हंसी-खुशी से भाई के साथ मायके की ओर विदा होती है। लेकिन, नदी के घाट पर आकर देखा-कहीं कोई नाव नहीं। अब क्या करें! भाई ने हिम्मत से काम लिया। कास-कुश काटकर, मूँज की डोरी बनाकर और केले के पौधों के तने का एक ‘बेड़ा’ बनाया और उस पर सवार होकर भाई-बहिन उमड़ी हुई कोशी की धारा को पार करने लगे । किंतु, बीच नदी में पहुँचते ही लहरें तेज हो गयी। बेड़ा डगमग करने लगा। और, आखिर :

“कटि गेल कासी-कुशी छितरी गेल थम्हवा
खुलि गेल मूंज केर डोरिया-रे सुन सखिया!
…बीचहि नदिया में अइले हिलोरवा
छुटि गेलै भैया केर बहियाँ – रे सुन सखिया!
...डूभी गेलै भैया केर बेड़वा – रे सुन सखिया !!”


(नदी की उत्ताल तरंगों और घूर्णिचक्र में फंसकर बेड़ा टूट गया। भाई का हाथ छूट गया। और, भाई का बेड़ा डूब गया। भाई ने तैरकर बहिन को बचाने की चेष्टा की, किंतु, तेज धारा में असफल रहा। डूबती हुई बहिन ने अपना अंतिम संदेशा दिया-मां के नाम, बाप के नाम...फिर किसी बेटी को सावन-भादों के समय नैहर बुलाने में कभी कोई देरी नहीं करे। और, देरी हो जाये तो जामुन का पेड़ कटवाकर नाव बनवाये, और तभी लड़की को लिवाने भेजे!)

...तकिये का गिलाफ भीग गया। गीत की पंक्तियाँ मन में गूंजती रहीं और आँखे बरसती रहीं। ऐसा हमेशा हुआ है।

...और, इस गीत के साथ पिछले कई वर्षों से एक और करुण गीत-कथा की कहानी जुड़ गयी है। इसलिए, इस गीत का दर्द दूना हो गया है…’तीसरी कसम’ की शूटिंग के दिनों शैलेंद्र जी मुझसे ‘महुआ घटवारिन’ की ‘ऑरिजिनल’ गीत-कथा सुनना चाहते थे ताकि उसके आधार पर गीत लिख सकें। एक दिन हम ‘पबई-लेक’ के किनारे एक पेड़ के नीचे जाकर बैठे। “महुआ-घटवारिन” का गीत मुझे पूरा याद नहीं था। इसलिए मैंने एक छोटी-सी भूमिका के साथ ‘सावन-भादों’ का गीत अपनी भौंड़ी और मोटी आवाज में, भरे गले से सुना दिया।

गीत शुरू होते ही शैलेंद्र की बड़ी-बड़ी आँखें छलछला आयीं और गीत समाप्त होते-होते पूटफूटकर रोने लगे। गीत गाते समय ही मेरे मन के बांध में दरारें पड़ चुकी थीं। शैलैंद्र के आँसुओं ने उसे एकदम तोड़ दिया। हम दोनों गले लगकर रोने लगे। ‘ननुआँ’ (शैलेंद्र का ड्राइवर टिफिन कैरियर में घर से हमारा दोपहर का भोजन लेकर लौट चुका था। हम दोनों को इस अवस्था में देखकर वह चुपचाप एक पेड़ के पास ठिठककर बहुत देर तक खड़ा रहा...इस घटना के कई दिन बाद, शैलेंद्र के ‘रिमझिम’ में पहुँचा। वे तपाक से बोले – “चलिए, उस कमरे में चलें। आपको एक चीज सुनाऊँ।”

हम उनके शीतताप-नियंत्रित कमरे में गये। उन्होंने मशीन पर ‘टेप’ लगाया। बोले “आज ही ‘टेक’ हुआ है।” मैंने पूछा –‘तीसरी कसम?’ बोले – “नहीं भाई ! ‘तीसरी कसम’ का टेक होता तो आपको नहीं ले जाता? ...यह ‘बंदिनी’ का है...पहले, सुनिए तो...!”

रेकार्ड शुरू हुआ- “अब के बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय रे...अमुआँ तले फिर से झूले पड़ेगें....कसके रे जियरा छलके नयनवाँ...बैरन जवानी ने छीने खिलौने ...बाबुलजी मैं तेरे नाजों की पाली...बीते रे जुग कोई चिट्यो ना पाती, ना कोई नैहर से आये रे-ए-ए-।”

कमरे में ‘पबई-लेक’ के किनारेवाले दृश्य से भी मर्मांतक दृश्य उपस्थित हो गया। हम दोनों हिचकियाँ ले-लेकर रो रहे थे-आँसू से तर-बतर...शैली ने (तब बांटू यानी हेमंत!) किसी काम से अथवा गीत सुनने के लिए कमरे का दरवाजा खोला और हमारी अवस्था देखकर पहले कई क्षणों तक अवाक् रहा। फिर कमरे से चुपचाप बाहर चला गया...कमरे में बार-बार वही रेकार्ड बजता रहा और न जाने कब तक बजता रहता यदि शकुनजी आकर मशीन बंद नहीं कर देतीं।

भीगे हुए तकिये पर तौलिया रखकर लेट गया। जी-भर रो लेने के बाद जी हल्का हो गया था। दृश्य पर प्रशांति छा गयी थी...मीठी नींद आ गयी।

भोर को एक सुंदर अपूर्व सपना देख रहा था। और सपने में भी आनंदातिरेक से रो रहा था...लतिकाजी ने झकझोरकर जगाया- “ऐ? ऐ की हयेछे? ...क्या हुआ?”

जगकर मन खीझ उठा...इतना सुंदर सपना बीच में ही टूट गया..मुझे क्यों जगाया...मैं नींद में रोऊँ या हँसूँ-इससे किसी का क्या बिगड़ जाता है? ...आह !

लतिकाजी बोलीं – “ऐसे में कभी-कभी आदमी का दम घुट जाता है ।”“घुट जाता तो घुट जाता...”

...दरवाजे की कुंडी खटखटायी। जाकर दरवाजा खोला तो सामने हँसते हुए शैलेंद्र खड़े थे। उनके साथ में थे, उनके एक प्रिय-स्वजन, पटना के प्रियदर्शन डॉक्टर भोला। मैं अचरज में गूँगा हो गया। उनसे कुछ पूछना चाहता था। लेकिन, मुँह से बोली ही नहीं निकल रही थी। शैलेंद्र बोल रहे थे- “आना ही पड़ा...बेबी और गोपा के लिए योग्य ‘पात्रों’ को देखने के लिए। अकेला बाँटू और काका बेचारे क्या करें? ...अपनी प्यारी बेटियों के लिए मुझे आना पड़ा –ऐसे दुर्दिन में भी भला कोई आता है? ...बाबुलजी मैं तेरे नाजों की पाली, फिर क्यों हुई परायी-यह सुनकर कौन ऐसा बाप है जो..बाँटू को कबीर, दादू और रैदास पढ़ने को कहता था। पता नहीं, उसने पढ़ा या नहीं...इधर उसने एक बड़ा ही प्यारा गीत लिखा है। एल.पी. में आ गया है। सुनिए न... ”

क्या सुनूँ? सपने का संसार ही समाप्त हो गया। अब जगकर, अवसन्न अवस्था में सुन रहा हूं- फतुहा से बचता हुआ – ‘नात-कव्वाली-गजल-ठुमरी-सितार’ का रिकॉर्ड!

जग गया। परंतु, सपने से इस तरह अभिभूत रहा कि बहुत देर तक ‘जल-प्रलय’ को भूल गया। चाय पीता हुआ बहुत देर तक सपने में अचानक आ गये शैलेंद्र के अभियोग और जलहाने-भरे शब्दों पर विचार करता रहा ...सचमुच, हम सभी कितने स्वार्थी सिद्ध हुए?

नहानेवालों की टोली के उत्साह में बाधा डाली – एक गाय की लाश ने। लाश फूलकर भँसती और दुर्गंध फैलाती हुई आ रही थी। मेरे कमरे की खिड़कियों से बदबू का पहला झोंका आया..ब्लीचिंग पाउडर और फिनायल की महक के साथ सड़ती हुई लाश की दुर्गंध...लगता है, किसी मुहल्ले में यह अटक गयी थी। पच्छिम की खिड़की से झांककर देखा – करेंट की गति थोड़ी मंद पड़ गयी। कलवाला ‘रिदम’ नहीं है ...वह...वहां सफेद-सी कोई चीज ‘भँसती’ हुई चली आ रही है... खरगोश या विलायती चूहा या कोई चिड़ियां ? ...मुर्गी है – सफेद मुर्गी! पानी की धारा के साथ हिलकोरे खाती हुई पूरब की ओर सड़क की मुख्य खरस्रोता धारा में पहुँची और वहां से तेज रफ्तार में बहने लगी…कल पानी के साथ हवाई चप्पल, बच्चों के खिलौने, कंघी, सायकिल का बास्केट, प्लास्टिक के रंगीन कटोरे वगैरह भंसते दिखलायी पड़ते थे। आज सुबह उठकर पंछी की लाश पर दृष्टि पड़ी तो मन इस अपशकुन से आशंकित हो गया। रात के तीसरे पहर में एक बार उठकर देखा था, मछली पकड़नेवालों के अलावा तीन चार व्यक्ति पैर से टटोल-टटोलकर कुछ खोज रहे थे। जो कुछ मिलता था उसे हाथ में एक बार लेकर देखते। अपने झोले में रख लेते या फिर पानी में फेंक देते...सूअर के कई बच्चों की लाशों को लाटी की ‘बहंगी’ में लटकाकर भंगियों का दल आ रहा था। दल के एक युवक ने मुर्गी की लाश का पीछा किया। पानी से उठाकर डैने को खींचकर जाँचने लगा और फिर चिल्लाकर बोला- “नहीं। सड़ल न है, काठ के जैसन कड़ा हो गया है।” ...”ले ले आ, ले ले आ!!” बहंगी में लटकती हुई सूअर के बच्चों की लाशों के साथ सफेद मुर्गी भी लटकी। अब उसका मरना सार्थक हो गया। सूअर के बच्चे और मुर्गी की मृत देह अब ‘लाश’ नहीं – उपभोक्ता वस्तु बन गयीं ...जन्म अकारथ नहीं गया।

...दिल्ली से प्रसारित समाचार में जब यह कहा गया कि आकाशवाणी पटना के संवाददाता श्री एच.पी. शर्मा ने बाढ़ का पानी झेलकर – ‘बाइपासरोड’ से किसी तरह दूर जहानाबाद पहुँचकर. दिल्ली केंद्र से संपर्क स्थापित करके पटना की बाढ़ का ताजा समाचार दिया है तो ....तो....मुझे लगा कि पटना के अलावा सारे बिहार के (और भारत के अन्य भागों के) रेडियों सुननेवालों की हार्दिक शुभकामनाएँ शर्माजी ने अर्जित कर लीं...अट्ठारह-बीस घंटे से देश के अन्य भागों से छिन्नसूत्र पटना नगर का और नगर के निवासियों के मौत से जूझने का समाचार देने के लिए सहज हार्दिक शुभकामनाएं देने के सिवा और क्या दे सकते हैं, हम? ...युगयुग जियो शर्माजी...तुम्हारा कल्याण हो...बहादुर पत्रकार ! ...तुम्हारे बाल-बच्चे सुखी रहें, भगवान उनको लंबी उम्र दें!!

....देश के अन्य भागों के चिंतित लोगों की यह अशुभ आशंका दूर हो गयी होगी कि पटना, मोहनजोदड़ों की तरह, नदी के गर्भ में समा नहीं गया है...पटना, धनुष्कोटि की तरह गर्क नहीं हो गया, बचा हुआ है और वहां के लाखों लोग जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे हैं...मौत से जूझ रहे हैं।आज नहानेवालों के दल में मोटर ट्यूब के अलावा कई लोग ‘स्विमिंग-सूट’ (तैराकी के पोशाक) में भी दिखलाई पड़ रहे हैं...अब मेरा मन कर रहा है कि छत पर जाकर ‘माइक’ से ऐलान करूँ-‘भाइयों! भाइयों!! आप लोग कल से ही बाढ़ के गंदले पानी में नहा रहे हैं, यह आपके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। फ्लू, सर्दी, बुखार, टायफायड आदि के अलावा पानी में भँसते हुए जहरीले साँप...

अपने इस मूर्खतापूर्ण विचार पर आप ही हँसा...माइक का मोह न जायो तेरो मन से मूरख! तमाशबीन जनता की छोटी-बड़ी टोलियों का आगमन शुरू हुआ ...एक नीमजवान ‘नवसिखुआ’ कैमरावाला लड़का कमर भर पानी में खड़ा होकर-पूरब मुँह से-यानी सूरज की ओर मुँह करके –तस्वीरें ले रहा है। नहानेवाले लड़के उसके सामने जाकर मुँह चिढ़ा रहे हैं। एक लड़का गले तक पानी में डूब कर अद्बुत आवाज में डूबती हुई लड़की का अभिनय करते हुए पुकारा – ब-चाओ! ...बचाओ ! मैं डूबी जा रही हूँ.... भीड़ का एक कड़ियल-जैसा आदमी कैमरावले से तैश में कुछ कह रहा है। ब्लॉक नंबर एक के छत पर खड़े लोग भी चिल्ला-चिल्लाकर कुछ कह रहे हैं। हमारे ब्लॉक के मुंडेरे से भी आवाजें कसी जाने लगीं...यहाँ लोग कल से घिरे हुए हैं, न कहीं नाव है, न रिलीफ और ये फोटो लेने वाले सिर्फ तस्वीर ले रहे हैं? ...इसी को कहते हैं कि किसी का घर जले और कोई मौज से तापे ...मत खींचने दो किसी फोटोवाले को कोई भी फोटो...इनको पैसा कमाने का यही मौका मिला है?

कैमरावाला जवान (नवसिखुआ भले ही हो) बुद्धिमान है। उसने तुरंत कैमरे का रुख तमाशबीनों की ओर कर दिया। तैश में आया हुआ कड़ियल-जैसा आदमी तुरंत ठंडा हो गया और गले में लिपटा हुआ अंगोछा ठीक कर मुँह पर हाथ फेरकर फोटो खिंचाने के पोज में खड़ा हो गया। नहानेवाले लड़कों ने वहां पहुँचकर पानी उलीचना-छींटना शुरू किया। भीड़ का दूसरा आदमी अब तैश में आकर नहानेवाले ऊधमी लड़कों को डाँटकर भगाने लगा। छाती-भर पानी में भागते हुए लड़कों में से एक, अपने ड्रम के ‘बेडे’ पर चढ़ गया और अपने पैंट के अग्रभाग के एक विशेष स्थान की ओर संकेत करके बोला – ‘इसका फोटो लो’ ...कुछ लोग हँसे। कुछ ने मुँह फेर लिया और कई लोग एक साथ – “अरे-रे-रे-रे- हरमजदवा...” कहकर चुप हो गये...छाती-भर पानी में जाने का साहस उनमें नहीं था...मुझे पांच-सात महीने पहले देखी हुई युगोस्लावी फिल्म (वी आर बिविच्ड, इरिन) के एक दृश्य की याद आ गयी। झरने में अर्द्धनग् नहानि इरिन को चारों ओर से छिपकर देखनेवाले आवारे लड़कों को जब इरिन के ससुर ने खदेड़ते हुए कहा था कि अब अगर इधर कभी देखा तो जान से मार डालूँगा... ‘विल किल यू’ तो भागते हुए छोकरों में से एक ने कुछ दूर जाकर, उलटकर ऐसी ही मुद्रा बनायी थी- ‘किल दिस!’

फोटो लेने वाला लड़का ‘डिमोरलाइज्ड’ होकर कैमरा समेटकर चला गया ...मेरा कोई मित्र होता या मैं खुद होता तो इस ‘पोज’ को कभी ‘मिस’ नहीं करता। ...लेकिन कैमरावालों के प्रति लोगों का अचानक यह आक्रोश क्यों? /यह तो अच्छी बात नहीं। अपने कई प्रेस-फोटोग्राफर मित्रों तथा अन्य गैरपेशेवर फोटोग्राफर दोस्तों की याद आयी...जनार्दन ठाकुर, सत्यनारायण दूसरे, सूर्य-नारायण चौधरी, वासुदेव शाह, सत्यदेव नारायण सिन्हा (आर.एस.चोपड़ा तो बंबई जा बसे) तथा गुरु उप्पल के अलावा बहुत संभव है, बाहर के जाने-माने छायाकार आये हों। पता नहीं, उनके साथ क्या-क्या व्यवहार करें ये?

मैं अब अपनी छत पर ‘चचागीरी’ करने के लिए पहुँचा। मेरे ब्लॉक के लड़के मेरे नाम के साथ ‘चचा’ जोड़कर मुझे संबोधित करते हैं। छत पर जो भी ‘भतीजे’ मौजूद मिले, उन्हें मैंने समझाया कि किसी फोटो लेनेवाले को ‘हूट’ न किया जाये। वे तुरंत समझ गये – “अच्छा चचाजी! हम लोग नीचे जाकर इन लड़कों को समझा देते हैं...”

नहानेवालों की टोली के उत्साह में बाधा डाली – एक गाय की लाश ने। लाश फूलकर भँसती और दुर्गंध फैलाती हुई आ रही थी। मेरे कमरे की खिड़कियों से बदबू का पहला झोंका आया..ब्लीचिंग पाउडर और फिनायल की महक के साथ सड़ती हुई लाश की दुर्गंध...लगता है, किसी मुहल्ले में यह अटक गयी थी। और, वहां इस पर प्रचुर मात्रा में ब्लीचिंग पाउडर और फिनायल डाला गया था...असह्य दुर्गंध! कहीं हमारे व्लॉक के नीचे किसी दुकान में न अटक जाये । फिर तो सांस लेना भी मुश्किल हो जायेगा। जीना दूभर हो जायेगा !...नहीं, अब तक धीरे-धीरे बहती हुई आती लाश, सड़क की मुख्य धारा के पास जाते ही – एक बार नाचकर – तेज धारा के साथ हो गयी और फिर उसकी गति काफी तेज हो गयी।

“एई जा! ...गैस फुरुलो-गैस समाप्त ! मैंने कहा था न?” रसोईघर से बाहर निकलती हुई लतिकाजी बोलीं! फिर चुपचाप कोयलेवाला चूल्हा सुलगाने की तैयारी करने लगीं।

मैं पूरब बरामदे पर खड़ा रहा...वह आ रहे हैं, डॉक्टर शिवनारायण, हाथ में बड़ी-सी लाठी लेकर टेकते हुए, अस्पताल जा रहे हैं...कल रात में क्या यही सितार बजा रहे थे? पूछूँ? ...नहीं, अभी तो यह डॉक्टर हैं। सितारवादक नहीं।

...कमर से धोती लपेटे, गंजी पहने – लाटी टेकते और मुस्कुराते एक परिचित मुखड़े पर दृष्टि पड़ी – ओ परेसजी हैं। ‘रूपरंग’ नाट्य-संस्था के निदेशक-लेखक अभिनेता ...परेसजी मेरे ही ब्लॉक की ओर आ रहे हैं? मेरे फ्लैट के नीचे आकर बोले – “अरे ! यहां तो बहुत तेज करेंट है। लगता है, उठा-कर फेंक देगा।” उन्होंने पूछा “सिगरेट है न?...और किसी चीज की जरूरत? जी नहीं, हम लोगों का क्वार्टर ऊंची जगह पर है। पानी नहीं है...मित्रों की खोज-खबर लेने निकला हूँ।”

मैंने कहा – “इधर कहीं किरासन तेल मिलेगा? हम लोगों की ‘गैस’ अभी-अभी खत्म हुई है..स्टोव के लिए किरासन चाहिए। यदि उधर...”

“अच्छी बात! देखते हैं?”- परेसजी नीचे से ही चले गये।

लतिका मुझे झिड़की देती हुई बोली – “तुम भी कैसे हो ? बेचारा हाल-समाचार पूछने आया था और तुमने किरासन तेल की फरमाइश कर दी। लज्या नेई तोमार एकटू?”

“लाज की क्या बात है इसमें ? मित्र हैं। बाढ़ से पीड़ित नहीं हैं! हाल-समाचार पूछने आये थे...इनसे सहायता मांगने में क्या लाज?”

दिल्ली से प्रसारित समाचार में कहा जा रहा है कि सेना के जवान लोगों को सुरक्षित स्थानों में पहुँचा रहे है! हेलिकॉप्टरों से खाद्य सामग्रियाँ गिरायी जा रही हैं!...केंद्रीय खाद्य-मंत्री ने हवाई सर्वेक्षण के बाद वक्तव्य दिया है...

दिल्ली के समाचार के बाद, पटना के फतुहा ‘कैंप-केंद्र’ से एक आवश्यक सूचना प्रसारित की जा रही है, आज किसी पेशेवर अनाउंसर की आवाज है – भीषण बाढ़ के कारण, पटना नगर में पानी आपूर्ति में बाधा पड़ गयी है, अतः पेयजल का भीषण अभाव हो गया है...नागरिकों से अनुरोध है कि वे किसी भी प्रकार के पानी को पंद्रह मिनट तक उबालने के बाद काम में ला सकते हैं...

किसी भी तरह के पानी का मतलब हुआ कि बाढ़ के पानी को भी पंद्रह मिनट तक उबालकर (छानकर नहीं?) पी सकते हैं?... मैंने अपने कमरे के पोने में बैठे हुए देवता से कहा –“अब इस शहर के सभी नागरिक ‘परमहंस’ हो जायेंगे तुमने कहा है न – जिस दिन नाली के गंदे पानी और गंगाजल में कोई भेद नहीं मानोगे...लेकिन, मैं परमहंस नहीं होना चाहता। दया करके मेरे ‘टैप’ को ‘ठप्प’ मत करना।”

‘घायल’ आ रहा है। नरेंद्र घायल। मैंने इसका नाम दिया है – स्वामी मुश्किल आसानानंद। पुनपुन की बाढ़ के समय भी सबसे पहले ‘घायल’ ही पहुँचा था। बीमारी के समय, अस्पताल में लगातार तीन महीने तक सेवा करता रहा। मैं तो, उसके जिला-जवार, गांव-घर का भैया ही हूँ- किंतु पटना के किसी भी दुखी और बीमार साहित्यसेवी की सेवा और सहायता के लिए वह सदा तत्पर रहता है – चाहे वह पंडित शिवचंद्र शर्मा हों या कोई अज्ञात कुलशील नया लेखक ...आते ही उसने पूछा – “भाभी ! लगता है, आपका गैस खत्म हो गया है। नाला रोड में पानी भरा हुआ है और गैस कंपनी भी डूबा हुआ है...”

मैंने कहा- “अगर किरासन तेल की कोई व्यवस्था कर सको...”

“व्यवस्था क्या, ले ही आता हूँ।” वह उठ खड़ा हुआ। लतिकाजी ने रोकते हुए कहा – “अरे, कहाँ जाते हो? अभी तो चूल्हा सुलगा लिया है। चाय पी लो।”

मैंने कहा- “उस दिन फ्रेजर रोड पहुँच नहीं सका। डबल रोटी नहीं ला सका । डी. लाल की दुकान डूब चुकी थी। कार कंपनी भी...”

“आ जायेगी रोटी भी। अशोक राजपथ पर मिल जायेगी।”
“अब तुम लगे न फरमाइशी...”
“और आपकी सिगरेट का क्या पोजिशन है?”


“सिगरेट तो है। लेकिन, इथुआ मार्केट खुला हुआ हो तो विश्वनाथ की दुकान से मगही पान...”

लतिकाजी अब सचमुच क्रुद्ध हो गयीं- “और, चार बोतल कोका-कोला? नहीं घायल। कुछ भी नहीं लाना है...ऐसे दुर्दिन में आदमी को अपनी जरूरत कम करनी चाहिए और इनकी फैहरिस्त लंबी होती जा रही है।”

जनाब सत्यनारायन दूसरे साहब कंधे से झोला-झब्बा लटकाये आये-घुटने तक पैंट समेटे। मैंने पहला सवाल किया- “स्टुडियो कितने पानी में है?”“कमर-भर।”

“फोटो लेते समय लोग गालियाँ तो नहीं देते, यानी ‘हूट-ऊट’ तो नहीं करते?”

“यह आपको कैसे मालूम हुआ? कुछ अजीब हालत है, इस बार ...पत्रकार और फोटोग्राफर को लोग नाव पर चढ़ाना भी नहीं चाहते...मैंने तो पच्छिम पटना करीब-करीब कवर कर लिया है।”

“कहीं, शारदेय पर नजर पड़ी ?”
“दो दिन पहले ‘संगी होटल’ में थे-ऐसा मालूम हुआ है...वह बंबई चला गया होगा।”


“बोटानिकल गार्डेन के पशु-पक्षियों का क्या हाल है?”“पोल्ट्रीफार्म तो एकदम साफ है...बोटानिकल गार्डेन के भी कई जानवर बह गये हैं। कुछ डूब भी गये होंगे।”

दूसरे ओर घायल चाय पीकर चले गये। मैं फिर कुदरत का जलवा देखने के लिए खिड़की के पास हो गया..अब वह किसी मृत प्राणी की लाश आ रही है? बहकर आनेवाली कोई भी छोटी-बड़ी चीज हमारे ब्लॉक के पिछवाड़े में आकर मंद गति से इधर-उधर थोड़ा चक्कर काटती है। हमारे ब्लॉक की अर्द्धवृत्ताकार इमारत के पास आकर, हर फ्लैट के नीचे से गुजरती हुई, सड़क की ओर जाकर तेज धारा के साथ हो जाती है। शायद, बछड़ा है। नहीं। यह अलसेसियन कुत्ता है। दोनों कान शान से खड़े हैं? रौब में कहीं कोई कमी नहीं। कान से पूंछ तक इसकी मुद्रा और तेवर देखकर ही समझ लेता हूँ- इसने बहादुरी से मौत को वरण किया है। मौत की छाया पर झपट्टे मारकर लड़ता हुआ मरा है।

...बाढ़ पीड़ित ग्रामीण क्षेत्रों में मृत पशुओं की – गाय, बैल, घोड़े, बकरी आदि की –लाशें बहुत बार देख चुका हूँ...अलसेसियन कुत्ते की लाश, शहर की बाढ़ का प्रतीक, पहली बार देख रहा हूं।

बाहर शोर हुआ-कुम्हरार में भी पानी घुस गया। कुम्हरार और कंकड़-बाग में आज पानी घुसा है।

...अब प्राचीन पाटलिपुत्र (अशोक के पाटलिपुत्र) को घरती के नीचे से खोदकर उद्धार करेंगे या आधुनिक पटना को भूगर्भ में जाने से बचायेंगें?

अब इधर-उधर-बाहर, भीतर कुछ भी देखने का मन नहीं करता। क्या करूँ। कुछ पढ़ने की चेष्टा की जाये ...विश्वकवि की शरण गहूँ।

निबंधमाला-द्वितीय कंड। पृष्ठ उलटाया और पढ़ना शुरू किया तो अचरज के मारे बहुत देर तक चुपचाप कमरे के कोने में बैठे ठाकुर को देखता रहा ...यह कैसा संयोग? पृष्ठ उलटाया और यहाँ भी बाढ़ का प्रसंग? ...यह क्या संपूर्ण ‘काकतालीय’ – संयोग है? ...और रवींद्रनाथ ठाकुर की भी पंछी की लाश पर ही दृष्टि पड़ी थी?

पढ़ना शुरू करता हूँ- ‘शिलाइदह, 9 अगस्त, 1894 ...नदी एके बारे कानाय भरे गेछे। ओ पारटा प्राय देखा जाय ना...आज देखते पेलूम, छोटो एकटि मृत पाखी स्रोते भेसे आसछे...और मृत्युर इतिहास बेस बोझा जाच्छे... किसी, एक गांव के बाहर बाग में, आम की डाली पर उसका बासा’ (घोंसला) रहा होगा। सांझ को ‘बासा’ में लौटकर संगी-साथियों के नरम-नरम गर्म डैनों के साथ अपना पंख मिलाकर श्रांत देह सो रहा होगा...हठात् पद्मा ने जरा करवट ली और पेड़ के नीचे की मिट्टी अररा कर धँस गयी। नीड़च्युत पंछी ने हठात् एक मुहूर्त के लिए जगकर ‘चें’ किया, इसके बाद फिर उसको जगना नहीं पड़ा। मैं जब मफस्वल में रहता हूं-रहस्यमयी प्रकृति के पास, अपने साथ अन्य जीव का प्रभेद अकिंचित्कर उपलब्धि करता हूँ। शहर में ‘मनुष्य-समाज’ अत्यंत प्रधान हो जाता है। वहां वे निष्ठुर रूप से अपने सुख-दुख के सामने अन्य किसी प्राणी के सुख-दुख की गिनती ही नहीं करते ...एक पंछी के सुकोमल पंखों से आवृत स्पंदमान क्षुद्र वक्ष के अंदर जीवन का आनंद कितना प्रबल है, जिसे मैं अचेतन भाव से...भूले थाकते पारि ने...

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