पनघटः परंपरा बिना कैसे बचे पानी

“यह परंपरा धर्म से जुड़ती है, लोक-जीवन से जुड़ती है। पानी का दुरूपयोग न करने का संस्कार सर्वकालिक है। पानी को जल देवता माना गया है। पानी लोक-जीवन के गीत संगीत में खासा अहम स्थान रखता है। पनिहारी गीतों में पानी का महत्व गाया गया है, इन गीतों में मानसून है। इन गीतों में मन की उमंगें हैं। यह ऐसा गीत है जिसमें पिया से मिलन की कामना को गाया गया है।”
भौगोलिक लिहाज से भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान में पीने के पानी का गंभीर संकट पैदा हो गया है। पानी के अंधाधुंध दोहन, पनघट की उपेक्षा और कुंआ पूजन जैसी जल संरक्षण की परंपराओं को नज़रअंदाज करने से ऐसे हालत बन गए हैं कि सरकार को पानी बचाने के लिए लोगों को सीख देनी पड़ रही है। राजस्थान का क्षेत्रफल काफी अधिक है मगर उसके हिस्से भारत की महज एक फ़ीसदी ही जलराशि आई है। लेकिन यह मरुस्थलीय राज्य सदियों तक जल संरक्षण की परंपराओं को अपनाकर पानी की किल्लत के बावजूद सुख-चैन से जीता रहा। रेगिस्तान में तालाब, कुंआ, बावड़ी और पोखर निर्माण को सबसे नेक काम माना जाता था। पनघट इसी नेकी का एक विस्तार था। कभी ये पनघट, तालाब, कुंए और बावड़ी जनजीवन के मंगल का केंद्र होते थे, अब वो या तो वीरानी में हैं या कहीं तन्हाई में खुद आंसू बहाने के लिए छोड़ दिए गए।

यहां पर तरल के नाम पर अब पानी नहीं, महज अश्क बचे हैं। फिर भी बियाबान सहरा में कोई गुलकार उन धनी मानी लोगों की कीर्ति गाते हुए मिल जाएगा जिन्होंने अपनी दौलत से दरिया न सही, कोई तालाब और कुंए जरूर बनवाए।

जल संरक्षण के संस्कार


विरासत संस्था के विनोद जोशी इन परंपराओं का गहरा ज्ञान रखते हैं। वे रेगिस्तान के उस दुरूह भाग के बाशिंदे हैं जहाँ सेठ-साहूकारों और सामंतों ने समाज को नायाब तालाब और कुएं बना कर दिए। श्री जोशी कहते हैं, “यह परंपरा धर्म से जुड़ती है, लोक-जीवन से जुड़ती है। पानी का दुरूपयोग न करने का संस्कार सर्वकालिक है। पानी को जल देवता माना गया है। पानी लोक-जीवन के गीत संगीत में खासा अहम स्थान रखता है। पनिहारी गीतों में पानी का महत्व गाया गया है, इन गीतों में मानसून है। इन गीतों में मन की उमंगें हैं। यह ऐसा गीत है जिसमें पिया से मिलन की कामना को गाया गया है।”

पानी का दुरूपयोग न करने का संस्कार सर्वकालिक है। पानी को जल देवता माना गया है।पानी लोक-जीवन के गीत संगीत में खासा अहम स्थान रखता है। इन गीतों में पानी का महत्व गाया गया है, इन गीतों में मानसून है। इन गीतों में मन की उमंगें हैं। जोशी कहते हैं, “पनिहारी में कोई बहू अपनी सखी को बताती कि ये कुंआ मेरे ससुर ने बनवाया या मेरी सास ने। इससे उस परिवार की महत्ता बढ़ती। ग्रामीण इलाको में आज भी प्याऊ लगाई जाती है। इसे बहुत ही पुण्य का काम समझा जाता है।”

पुराने दौर को याद करते हुए जोशी कहते हैं, “पुराने दौर में जब लोग शेखावाटी से बंगाल, असम और बिहार व्यापार के लिए जाते और लौटते तो जगह जगह प्याऊ लगाईं जाती थीं। तब परिवहन के साधन नहीं होते थे। ऐसे में रेगिस्तान में ये प्याऊ बहुत मदद करती थीं। स्नान के लिए भी पानी की किफ़ायत का पाठ पढ़ाया जाता था। मगर अब हम इन परंपराओं से परे जा रहे हैं।”

राजस्थान के हर पुराणी रियासत में राजा-महाराजा और रानियां किसी पुण्य के वशीभूत तालाबों और कुओं का निर्माण करवाते रहे। इन्हीं दिनों रेगिस्तान ने पानी को चमकदार बोतल में बंद नहीं किया, बल्कि बूंद-बूंद संचित कर जीवन में ख़ुशी की चमक पैदा की।

पनघट थे सामाजिक केंद्र


जवाहर कला केंद्र की चंद्रमणि सिंह गुज़रे ज़माने के पनघट को याद करते हुए कहती हैं, “दरअसल पनघट एक सामाजिक केंद्र होते थे। वहां सास-बहू की बातें होती थीं। सखिया मिलतीं, लोग मिलते, सुख दुःख बांटते। पर अब नल आ गए। नल में वो गहराई नहीं है जो पनघट में थी। फिर कुआं पूजन किया जाता था क्योंकि जल के देवता वरुण हैं। इसे धर्म से जोड़ा गया ताकि लोग पानी की शुद्धता का पालन कर सकें।”

वो कहती हैं, “रेगिस्तान में कुएं, तालाब और बावड़ी महज कोई इमारती काम नहीं थे। इसमें कलाकार अपने हुनर को ऐसे न्यौछावर करते कि आज भी लोग इन वीरान पड़ी बावड़ियों और तालाबों के भीतर उतरी कला को निहारने आते हैं।” राज्य के जल संसाधन मंत्री महिपाल मदेरणा यहां के जल संकट को आंकड़ों का हवाला देकर बताते हैं।रेगिस्तान में कुएं, तालाब और बावड़ी महज कोई इमारती काम नहीं थे। इसमें कलाकार अपने हुनर को ऐसे न्यौछावर करते कि आज भी लोग इन वीरान पड़ी बावड़ियों और तालाबों के भीतर उतरी कला को निहारते हैं। उनका कहना है, “अभी 92 फ़ीसदी पेयजल की आपूर्ति भू-जल से की जाती है। राज्य में 237 ब्लाक में से 197 डार्क ज़ोन में आ गए हैं। 87 फीसदी नदियां-नाले, बाँध, तालाब सूखे पड़े हैं। हजारों गांव-कस्बों में परिवहन के जरिए पानी पहुँचाया जा रहा है। भीलवाड़ा जैसे स्थानों पर रेलगाड़ी से पानी पहुँचाया जा रहा है।”

पनघटों में अब वीरानी


पिछले कई सालो से जल संरक्षण पर काम कर रहे राजेंद्र सिंह पनघट की महत्ता का बखान करते हैं। राजेंद्र सिंह का कहना है, “पनघट पूरे भारत के लिए अहम रहा है। चाहे वो सूखा रेगिस्तान हो या गंगा जमुना का सर सबज इलाका। पनघट के साथ समाज अपनी प्रगति का गान करता था। वो आनद की जगह थी। महिलाएं पानी की लय के साथ जीवन को जोड़ती थीं। पानी लाना एक काम जरूर था। मगर उसका बोझ मन पर नहीं होता था।”

अपनी भावना स्पष्ट करते हुए राजेंद्र सिंह कहते हैं, “ये जो पनघट की वीरानी है वो बताती है कि हमारी आँखों का पानी सूख गया है। मुझे पनघट के इस तरह वीरान हो जाने बहुत रंज है। लेकिन मैं अब भी आशावादी हूँ।” प्राचीन धर्म ग्रंथ कहते हैं-बहता पानी निर्मला। मगर राजस्थान में तो चम्बल को छोड़ कर कोई भी बारहमासी प्रवाही नदी नहीं है। मानसून घूम फिर कर राजस्थान में आता, तब तक वो अपनी अंजुली का सारा पानी कहीं और कुर्बान कर देता।

ऐसे में राजस्थान ने इन्हीं परंपराओं का सहारा लेकर बूंद-बूंद पानी को निर्मला बनाया। मगर जब पुरखों की दी गई जल संरक्षण परंपराएं नहीं बचेंगी तो पानी कैसे बचेगा।

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