उत्तराखंड का परंपरागत जल प्रबंधन मनुष्य की सामुदायिक क्षमता और आत्मनिर्भरता का बेहतरीन उदाहरण है। जल, अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन को और अधिक सरलीकृत करने हेतु इसमें ग्रामीणों के सहयोग लेने की और अधिक आवश्यकता आन पड़ी है। हिमालय की कठिन परिस्थितियों में यहां के निवासियों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की टिकऊ विधियां तो विकसित की लेकिन सरकारी हस्तक्षेप ने इन विधियों को इनसे दूर कर दिया। भारत के हिमालय क्षेत्र के गांवों में ही लगभग दो लाख घराट यानी पनचक्कियां मौजूद हैं। इसी तरह विश्वभर के पहाड़ी क्षेत्रों में बीस लाख पनचक्कियां तीसरी, चौथी सदी से लोगों की सेवा कर रही हैं। इन पनचक्कियों से गेहूं पिसाई एवं अन्य तरीके के काम लिए जाते रहे हैं। अब इन पनचक्कियों के जरिए पिसाई के अलावा ऊर्जा ज़रूरतों को भी पूरा करने का काम लिए जाने की तकनीक विकसित होने पर इनका महत्व बढ़ रहा है। इन घराटों को ग्रामीण क्षेत्र के कारखाने के रूप में भी इस्तेमाल किए जाने से कई जगह इनको समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है। इन घराटों में छिटपुट तकनीकी सुधार से ही इन मिलों की क्षमता में यहां काफी हद तक वृद्धि की सकती है वहीं इससे ऊर्जा उत्पादन एवं लेथ मशीन चलाने जैसे काम लिए जा सकते हैं। इससे पिसाई के साथ-साथ अन्य अभियांत्रिक कामों को भी इन पनचक्कियों द्वारा अंजाम दिया जा सकता है। दूरस्थ क्षेत्रों में अवस्थित यह पनचक्कियां वहां के निवासियों के लिए आर्थिक संबल का पर्याय बने इसके लिए उत्तराखंड के हैस्को संगठन ने भी इस संबंध में देशभर के पनचक्कीधारकों को एक संगठन के रूप में जोड़कर इस बाबत कई सुधार अपनाने के काम किए हैं। इसके अलावा इन पनचक्कियों को ऊर्जा के पर्यावरणीय मित्रता वाले विकल्प के रूप में लिया जा रहा है।
एक अनुमान के अनुसार, एक मिल प्रतिघंटा 1 किलोग्राम कार्बन उत्सर्जन को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकती है। पनचक्की जिसे कि वाटरमिल कहा जाता है के पूरे उपयोग से प्रतिघंटा एक किलोग्राम कार्बन उत्सर्जन रुक सकता है जो कि अन्यथा चीजों के उपयोग में लाए जाने से उत्सर्जित हो रहा है। पनचक्कियों से लघु उद्योग चलाने में भी मदद मिलती है। इसकी महत्ता को समझते हुए भारत के लघु उद्योग मंत्रालय एवं मिनिस्ट्री ऑफ रिन्यूएवल एनर्जी ने इसके लिए बाक़ायदा एक योजना भी प्रारंभ कर रखी है। अब इन पनचक्कियों के परंपरागत लकड़ी से बनी टर्बाइंस को लोहे की टर्बाइंस में तब्दील कर इसके तकनीकी सुधार का प्रयास जारी है। इसमें बॉल बियरिंग लगाकर भी इसकी क्षमता में वृद्धि की जा रही है। मुख्यतया गेहूं की पिसाइ, धान की कुटाई एवं रूई की धुनाई में काम आ रही पनचक्कियों से प्रतिवर्ष 2 लाख 9 हजार रुपए की आय परोक्ष रूप से मिल जाती है जबकि ऊर्जा उत्पादन से इस आय को और अधिक बढ़ाया जा सकता है। अब तक हिमालयी क्षेत्र में लगभग पांच हजार पनचक्कियों का इस तरह से आधुनिकीकरण कर उनकी क्षमता में वृद्धि की गई है।
उत्तराखंड में मौजूद तमाम गाड़-गधेरों, नदी-नालों से गूल निकालकर पनचक्कियों को भी लगाया गया है। इससे पनचक्की के माध्यम से ऊर्जा उत्पादन के अलावा गेहूं पिसाई व धान कुटाई का काम इनसे लिया जाता रहा है। उत्तराखंड में घराट यानी पनचक्की सबसे पुराना सामूहिक सहकारी उद्योग है। चंद शासकों के सन् 1442 में राज करने वाले राजा काशीचंद के किमतोली ताम्रपत्र में घराट का उल्लेख मिल जाता है। कल्याण मल्ल ने भी सन् 1443 में इसका उल्लेख ताम्रपत्र में किया है। अकेले कुमाऊं में ही 12 दर्जन से अधिक ताम्रपत्रों में घराटों का उल्लेख मिलता है। औपनिवेशिक शासनकाल से पूर्व पनचक्की अथवा गूलों के निर्माण एवं स्थापना में कोई दखल राज्य नहीं रखता था। अंग्रेजों ने अपने शासन में इसके लिए राजाज्ञा का प्रावधान किया। घराटों की स्थापना के लिए डिप्टी कलेक्टरों की अनुमति को अनिवार्य कर दिया गया। सन् 1917 व 1930 में कुमाऊँ वाटर रूल्स के माध्यम से घराटों पर औपनिवेशिक शासन ने नियंत्रण कर लिया। 1922 में सरकार ने घराटों पर सालाना कर भी योजित कर दिया।
घराट की संरचना अतिसाधारण एवं पूरी तरह स्थानीय संसाधन एवं कौशल पर आधारित रही है। पहाड़ों में बहने वाली तमाम नदियों का पानी मोड़ कर छोटी गूल के माध्यम से पास ही में एक अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर एक नाल के माध्यम से लकड़ी से बनी रौली पर डाला जाता है। रौली ऊपरी सिरे में लगे चक्की को इसी पानी के बहाव से घुमाकर आटा पीसने, धान कूटने एवं अन्य तरह का काम लिया जाता है। घराट या पनचक्की के लिए पहले गांव के लोग लकड़ी व पत्थर का ही प्रयोग करते थे। अब इनमें लोहे का प्रयोग होने लगा है।
घराट यानी पनचक्की से जिसके आटे को प्रचुर पोषकतत्वों से लैस माना जाता है। कृषि विश्वविद्यालय (लुधियाना) ने इसका परीक्षण कर इसकी पुष्टि भी की है। यह माना जाता है कि स्वास्थ्य एवं स्वाद के मामले में पनचक्की का आटा अन्य ऊर्जा के साधनों से चलने वाली चक्की से बेहतर होता है। पनचक्की के आटे में जहां अनाज के सभी दुर्लभ तत्व मौजूद मिले वहीं अन्य चक्की डीजल अथवा बिजली से चलने वाली चक्कों में सभी तत्व जल जाने से इससे ग़ायब रहते हैं। उत्तराखंड के गांवों में इस पनचक्की से ऊर्जा उत्पादन कर गांव की बिजली आवश्यकता पूरी की जा सकती है लेकिन इन पनचक्कियों द्वारा उत्पादित बिजली गांव तक पहुंचाने के लिए सरकारी प्रयास जरूरी हैं। यदि ऐसा हो जाता है तो उत्तराखंड को ऊर्जा राज्य बनाने में पनचक्कियों का भी योगदान महत्वपूर्ण होगा।
उत्तराखंड का परंपरागत जल प्रबंधन मनुष्य की सामुदायिक क्षमता और आत्मनिर्भरता का बेहतरीन उदाहरण है। जल, अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन को और अधिक सरलीकृत करने हेतु इसमें ग्रामीणों के सहयोग लेने की और अधिक आवश्यकता आन पड़ी है। हिमालय की कठिन परिस्थितियों में यहां के निवासियों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की टिकऊ विधियां तो विकसित की लेकिन सरकारी हस्तक्षेप ने इन विधियों को इनसे दूर कर दिया। अब इन परंपराओं की महत्ता समझ इनमें आधुनिक बदलाव लाकर इनके प्रति जागरूकता की आवश्यकता है।
एक अनुमान के अनुसार, एक मिल प्रतिघंटा 1 किलोग्राम कार्बन उत्सर्जन को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकती है। पनचक्की जिसे कि वाटरमिल कहा जाता है के पूरे उपयोग से प्रतिघंटा एक किलोग्राम कार्बन उत्सर्जन रुक सकता है जो कि अन्यथा चीजों के उपयोग में लाए जाने से उत्सर्जित हो रहा है। पनचक्कियों से लघु उद्योग चलाने में भी मदद मिलती है। इसकी महत्ता को समझते हुए भारत के लघु उद्योग मंत्रालय एवं मिनिस्ट्री ऑफ रिन्यूएवल एनर्जी ने इसके लिए बाक़ायदा एक योजना भी प्रारंभ कर रखी है। अब इन पनचक्कियों के परंपरागत लकड़ी से बनी टर्बाइंस को लोहे की टर्बाइंस में तब्दील कर इसके तकनीकी सुधार का प्रयास जारी है। इसमें बॉल बियरिंग लगाकर भी इसकी क्षमता में वृद्धि की जा रही है। मुख्यतया गेहूं की पिसाइ, धान की कुटाई एवं रूई की धुनाई में काम आ रही पनचक्कियों से प्रतिवर्ष 2 लाख 9 हजार रुपए की आय परोक्ष रूप से मिल जाती है जबकि ऊर्जा उत्पादन से इस आय को और अधिक बढ़ाया जा सकता है। अब तक हिमालयी क्षेत्र में लगभग पांच हजार पनचक्कियों का इस तरह से आधुनिकीकरण कर उनकी क्षमता में वृद्धि की गई है।
उत्तराखंड में मौजूद तमाम गाड़-गधेरों, नदी-नालों से गूल निकालकर पनचक्कियों को भी लगाया गया है। इससे पनचक्की के माध्यम से ऊर्जा उत्पादन के अलावा गेहूं पिसाई व धान कुटाई का काम इनसे लिया जाता रहा है। उत्तराखंड में घराट यानी पनचक्की सबसे पुराना सामूहिक सहकारी उद्योग है। चंद शासकों के सन् 1442 में राज करने वाले राजा काशीचंद के किमतोली ताम्रपत्र में घराट का उल्लेख मिल जाता है। कल्याण मल्ल ने भी सन् 1443 में इसका उल्लेख ताम्रपत्र में किया है। अकेले कुमाऊं में ही 12 दर्जन से अधिक ताम्रपत्रों में घराटों का उल्लेख मिलता है। औपनिवेशिक शासनकाल से पूर्व पनचक्की अथवा गूलों के निर्माण एवं स्थापना में कोई दखल राज्य नहीं रखता था। अंग्रेजों ने अपने शासन में इसके लिए राजाज्ञा का प्रावधान किया। घराटों की स्थापना के लिए डिप्टी कलेक्टरों की अनुमति को अनिवार्य कर दिया गया। सन् 1917 व 1930 में कुमाऊँ वाटर रूल्स के माध्यम से घराटों पर औपनिवेशिक शासन ने नियंत्रण कर लिया। 1922 में सरकार ने घराटों पर सालाना कर भी योजित कर दिया।
घराट की संरचना अतिसाधारण एवं पूरी तरह स्थानीय संसाधन एवं कौशल पर आधारित रही है। पहाड़ों में बहने वाली तमाम नदियों का पानी मोड़ कर छोटी गूल के माध्यम से पास ही में एक अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर एक नाल के माध्यम से लकड़ी से बनी रौली पर डाला जाता है। रौली ऊपरी सिरे में लगे चक्की को इसी पानी के बहाव से घुमाकर आटा पीसने, धान कूटने एवं अन्य तरह का काम लिया जाता है। घराट या पनचक्की के लिए पहले गांव के लोग लकड़ी व पत्थर का ही प्रयोग करते थे। अब इनमें लोहे का प्रयोग होने लगा है।
घराट यानी पनचक्की से जिसके आटे को प्रचुर पोषकतत्वों से लैस माना जाता है। कृषि विश्वविद्यालय (लुधियाना) ने इसका परीक्षण कर इसकी पुष्टि भी की है। यह माना जाता है कि स्वास्थ्य एवं स्वाद के मामले में पनचक्की का आटा अन्य ऊर्जा के साधनों से चलने वाली चक्की से बेहतर होता है। पनचक्की के आटे में जहां अनाज के सभी दुर्लभ तत्व मौजूद मिले वहीं अन्य चक्की डीजल अथवा बिजली से चलने वाली चक्कों में सभी तत्व जल जाने से इससे ग़ायब रहते हैं। उत्तराखंड के गांवों में इस पनचक्की से ऊर्जा उत्पादन कर गांव की बिजली आवश्यकता पूरी की जा सकती है लेकिन इन पनचक्कियों द्वारा उत्पादित बिजली गांव तक पहुंचाने के लिए सरकारी प्रयास जरूरी हैं। यदि ऐसा हो जाता है तो उत्तराखंड को ऊर्जा राज्य बनाने में पनचक्कियों का भी योगदान महत्वपूर्ण होगा।
उत्तराखंड का परंपरागत जल प्रबंधन मनुष्य की सामुदायिक क्षमता और आत्मनिर्भरता का बेहतरीन उदाहरण है। जल, अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन को और अधिक सरलीकृत करने हेतु इसमें ग्रामीणों के सहयोग लेने की और अधिक आवश्यकता आन पड़ी है। हिमालय की कठिन परिस्थितियों में यहां के निवासियों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की टिकऊ विधियां तो विकसित की लेकिन सरकारी हस्तक्षेप ने इन विधियों को इनसे दूर कर दिया। अब इन परंपराओं की महत्ता समझ इनमें आधुनिक बदलाव लाकर इनके प्रति जागरूकता की आवश्यकता है।
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