घूँघट व चारदीवारी के बाहर की दुनिया से उन्हें कोई खास सरोकार नहीं था। उनकी दादी-नानी, माँ-चाची जिस तरह मुँह ढँके, हाथों में पानी लिये रात के अन्धेरे में खेतों की ओर निकल पड़ती थीं, उन्हें भी विरासत में वही संकोच और झिझक मिली, जिसका बोझ वो लगातार ढोती आ रही थीं। पर मन के किसी कोने में एक चिंगारी छपी थी, जिसे जरूरत एक झोंके की थी। परिवर्तन की बयार चली और फिर टूट गया संकोच। उन्होंने तय कर लिया कि जिस जिल्लत को उन्होंने झेला, वह नई पीढ़ी को नहीं झेलने देंगे। खास बात है कि उन्होंने गाँधी को पढ़ा नहीं, उन्हें नहीं मालूम क्या था सत्याग्रह। बस एक इरादे और एक संकल्प ने उन्हें बना दिया स्वच्छाग्रही। रोली खन्ना की रिपोर्ट…
माँ ने शादी के लिये जुटाए पैसे, उसने शौचालय बनवा डाला
खुशबू राजधानी दिल्ली के एक बेहद पिछड़े गाँव दादूपुर में रहती है। उसके घर तक जाने वाली सड़क आज भी कच्ची है, लेकिन उतने ही पक्के हैं उसके इरादे। नतीजा महज डेढ़ से दो साल में सामने है कि उसके गाँव में यदि एक-दो नासमझ परिवारों को छोड़ दिया जाये तो हर घर में इज्जतघर है। कहते हैं कि निश्चय पक्का हो तो हालात को बदलना ही पड़ता है। खुशबू के पिता मजदूरी करते हैं। माँ घर सम्भालती हैं। दो बहनें, और एक भाई है। टूटी-फूटी सड़के, बिजली होना-न-होना बराबर, घर की आर्थिक स्थिति कमजोर, फिर भी उसने अपने बूते एमए की पढ़ाई पूरी की। अब सपना टीचर बनने का है।
इस इरादे ने बदल दी जिन्दगी
खुशबू कहती हैं कि सितम्बर-अक्टूबर, 2016 के समय टीम गाँव में आई थी, मीटिंग हुई। हम भी गए थे पंचायत भवन। वहाँ पूछा गया कि कौन-कौन लेगा जिम्मेदारी हर घर में शौचालय बनवाने की। मेरा भी हाथ उठ गया। दरअसल अभी साल भर पहले तक हम सब खेत जाते थे, शर्म थी, लेकिन मजबूरी भी थी। मीटिंग में हामी तो भर आई थी कि गाँव में लोगों को शौचालय बनवाने के लिये प्रेरित करुँगी, पर यह सीख तो तब काम आती, जब हमारे खुद के घर में शौचालय होता। अम्मा-बाबू ने कहा पैसे नहीं हैं। माँ, मेरी शादी के लिये पैसे जोड़ रही थी, मैंने माँ को समझाया। कहा हम तो बड़े हो गए, पर दोनों बहनें संध्या और निधि अभी छोटी हैं, भोर अंधेरे में खेत जाती हैं, कभी कुछ हो गया तो..। बीमारी संक्रमण फैल गया तो..। माँ को बात समझ आई और मेरी शादी के लिये रखे पैसे में से शौचालय बनवा डाला। अगले ही दिन से हमने तड़के सीटी बजानी शुरू कर दी।
ग्रीन वॉरियर्स - वाराणसी के पाँच गाँवों की तस्वीर बदली
वाराणसी के पाँच गाँवों में इन दिनों एक अनूठी मुहिम चल रही है। ये गाँव हैं खुशियारी, देउरा, रमसीपुर, जगरदेवपुर और भद्रासी। खास बात है कि किसी एक गाँव से एक या दो नहीं बल्कि 25-25 ग्रीन वॉरियर्स सक्रिय हैं। हर रोज सुबह सूरज निकलने के साथ हरी साड़ियों में ये महिलाएँ निकल पड़ती हैं गाँव के निरीक्षण पर। पिछले तीन साल से यही इनकी दिनचर्या का हिस्सा है। गाँव में सफाईकर्मी नियमित आ रहे हैं या नहीं, कहीं नाली चोक है, कहाँ पानी भरा है, किसने अपने घर के आगे कूड़े का ढेर लगा रखा है। इस पर पूरी नजर रहती है।
हर हफ्ते चौपाल
खुशियारी गाँव की आशा बताती है कि हम सब हफ्ते में एक दिन चौपाल लगाते हैं। इस चौपाल में हम गाँव को स्वच्छ रखने के हर पहलू पर बात करते हैं। समस्या का समाधान कैसे निकलेगा, इसके लिये सभी कोई-न-कोई रास्ता तलाशते हैं और फिर प्रधान और जरूरत पड़ने पर अधिकारी तक अपनी बात पहुँचाते हैं।
पहले सबने विरोध किया, अब चमकता है हमारा गाँव
गाँव भद्रासी की अमरावती कहती हैं कि जब हमने हरी साड़ी पहन मुहिम शुरू करने का फैसला किया तो पहला विरोध हमारे घरों में हुआ। महिलाओं को जोड़ना मुश्किल था, क्योंकि घर में मार-पिटाई आम थी। बाहर के लोग ताना मारते तो घर के आदमी हाथ उठा देते। देउरा की चाँदतारा व जगरदेवपुर की गिरिजा देवी कहती हैं कि बार-बार धमकियाँ भी मिलीं, लेकिन हमारी एकता के आगे उन्हें पीछे हटना पड़ा। आज जब गाँव चमकता दिखता है, तो लोग हमारी बात भी मानने लगें हैं। अब तो कचरे से गाँव में खाद बनने लगी है तो लोगों को कमाई का एक बेहतर जरिया भी मिल गया।
अब किसी बच्चे को आधा पेट नहीं खिलाती माँ
सीतापुर के पिसावाँ ब्लाक का गाँव है तेनी। साल भर पहले तक यहाँ बच्चों को माएँ रात को भरपेट खाना खिलाने से बचती थीं। दरअसल उन्हें डर था कि यदि भरपेट खिला दिया और रात को बच्चा शौच जाने को कहेगा तो कैसे अंधेरे में लेकर जाएँगी, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब माँ को यह नहीं सोचना पड़ता कि रात को बच्चे को कहाँ ले जाएँगे। यह सम्भव हुआ सयानी अम्मा सरला के कारण। कक्षा आठ पास सयानी अम्मा कहती हैं कि हमें जब स्वच्छ भारत अभियान के बारे में पता चला तो हम भी गाँव के भले का सोचकर इससे जुड़ गए।
माला और हम सीटी लेकर निकलते थे। जो खुले में शौच करते मिलता उसका सम्मान करते, हार पहनाते और निवेदन करते कि दोबारा ऐसा न करें। दिक्कत लोगों के पास पैसे और सोच दोनों की थी। लोगों को लगता था कि शौचालय बनवाना यानी फालतू पैसा खर्च करना होता है। लोग नहीं माने, उलटे मार-पिटाई पर उतारु हो गए।- सरला देवी
सरला देवी के प्रयासों से गाँव में 108 शौचालय बन चुके हैं। इसके लिये जिला प्रशासन ने उन्हें सम्मानित भी किया। कहती हैं कि एक दिन मोदी जी भी हमारा गाँव देखने आएँगे।
कठिन था समझना लेकिन बन गई बात
महिलाओं का ज्यादा बोलना, मर्दों के बीच उठना-बैठना गाँव में कोई पसन्द नहीं करता। औरतें मजदूरी कर सकती हैं, लेकिन किसी को समझाने का हक उसे नहीं। ऐसे में शौचालय जाते समय आदमियों को रोकना बेहद कठिन था। हमने वह झिझक तोड़ी, क्योंकि हम उनकी सलामती चाहते थे। यह कहना है लखीमपुरखीरी के निघाषन ब्लाक की अनीसा और कनीज बानो का। अनीसा खुर्द गाँव में रहती हैं, जबकि कनीज बनो दुबह गाँव में। दोनों ही मजदूरी कर बच्चों का पेट पा रही है। अनीसा कहती हैं कि शुरू-शुरू में तो नींद ही नहीं आती, क्योंकि भोर में निगरानी के काम पर निकलना होता था। पहले दिन तो अकेले ही जाना पड़ा, जिनको रोका वो गुस्से के मारे टूट पड़े। धीरे-धीरे लोग साथ आते गए। हमने 650 शौचालय बनवाने में मदद की है। कनीज बानो कहती हैं कि हम मजदूरी से 400 रुपए तक कमाते थे। स्वच्छाग्रही बनना अच्छा लगा और मजदूरी छोड़ दी।
बन गईं राजमिस्री, कमाई और सफाई साथ-साथ
पेट भरने के लिये काम करना पड़ेगा, पर काम के कारण हम स्वच्छता अभियान पर काम नहीं कर पा रहे थे। हमने सोचा क्यों न बीच का रास्ता निकालें। इसी दौरान ब्लाक में राजमिस्री की ट्रेनिंग ली। अब हम खुद शौचालय बनाने लगे लोगों के घर जाकर।- कनीज
हम शौचालय बनाते समय मानक का पूरा ध्यान रखते हैं यदि किसी के पास पैसा नहीं तो हम उधार ईंटे दिलवा देते हैं। अब लोग विरोध नहीं करते। निघाषन के लोग भी कहते हैं कि वे अब सब खुश और सेहतमंद हैं।-अनीसा
बेटियों की जिद - 204 घर और 302 शौचालय
उम्र या अनुभव का कम होना कोई मायने नहीं रखता, बशर्ते हमारे इरादे नेक हों। इसे सच कर दिखाया श्रावस्ती जिले के ब्लाक जमुनहा के बधनी गाँव की दो सहेलियों ने। रीता इंटर पास कर चुकी है और साधना कक्षा आठ की छात्रा है। रीता बताती है कि एक दिन साधना को उठने में देर हो गई और वह बेचारी पेट पकड़े शौच के लिये इधर से उधर भटकती रही। उसकी तकलीफ देखी नहीं गई, लेकिन कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। उसी दौरान स्वच्छता मिशन की टीम गाँव आई थी। हम भी मिलने गए। रीता का उत्साह देख उसे स्वच्छाग्रही बना दिया गया। साधना कहती है कि दीदी ने हमसे भी पूछा कि पूरे गाँव को पेट दर्द से बचाना है तो चलो हमारे साथ और जुट जाओ सबको समझाने में। रीता दीदी ने बताया कि हमें दो काम करने हैं, एक तो गाँव को साफ-सुथरा बनाना है। दूसरा कूड़ा-कचरा हटाना है और दूसरे हर घर में शौचालय बनवाना है। इन बेटियों की जिद के कारण 204 घरों के गाँव में 302 शौचालय बन गए।
पहले तो हर कोई भगा देता, कोई बच्चा कहकर कोई कहता कि जाओ अपना काम करो। धीरे-धीरे हम बात करते रहे, लोगों ने समझा। हमारा गाँव ओडीएफ बन गया। जगह-जगह डस्टबिन रखे हैं, कूड़ा कोई सड़क पर नहीं फेंकता। यही हमारी जीत है।- रीता और साधना
बहुत गाली खाए, पर कोशिश नहीं छोड़ी नतीजा सबके सामने
गाँव का नाम है बसरहिया। एक साल पहले तक इस गाँव के रास्ते कूड़े-मल और अन्य तरह की गन्दगी से पटे रहते थे। रात के अंधेरे में कहीं से होकर गुजर जाइए, गन्दगी से पैर सनना तय था। आज की तारीख में तस्वीर एकदम अलग है। इसका श्रेय जाता है सुमन को। शादी हो चुकी है, 12 और 14 साल की दो बेटियाँ है, 10 साल का बेटा है। ससुराल बाराबंकी के एक गाँव में है, लेकिन माता-पिता की देखभाल और बच्चों की पढ़ाई की खातिर बसरहिया रहने लगीं। इंटर तक पढ़ाई की है।
तड़के सीटी बजाते निकलना फिर सड़कें खेत साफ करना
सुमन कहती हैं कि पहले तो कोई साथ आने को तैयार नहीं, जहाँ जाओ लोग गाली देते। हाथ तक उठाने की कोशिश की गई, लेकिन हमने उन्हें समझाना नहीं छोड़ा। वो चिल्लाते, गाली देते और हम उन्हें सीटी बजा-बजाकर खुले में शौच जाने से होने वाले नुकसान बताते। कुछ लोग कहते कि मति भ्रष्ट हो गई, लेकिन फिर साथ आने लगे, दरअसल समस्या पैसे की थी, कुछ सरकारी मदद मिली, कुछ ने अपना पेट काटा, मगर इज्जतघर बनवा लिया। अब रात के अंधेरे में भी किसी का पैर सनता नहीं है।
स्वच्छ भारत की युवा तस्वीर
नेहा, रिया, संजीदा और अनमता बेग। ये सभी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की छात्राएँ हैं। अलग-अलग विषय, अलग-अलग विभाग, पर इन दिनों ये एक ही लक्ष्य को लेकर चल रहीं हैं। दरअसल इन्होंने स्वच्छ भारत समर इंटर्नशिप प्रोग्राम के तहत अलीगढ़ से करीब 12 किलोमीटर दूर स्थित गाँव को स्वच्छ बनाने का दायित्व ले रखा है। मिर्जापुर के लोग बताते हैं कि जब ये विद्यार्थी गाँव आये तो हमें थोड़ा अटपटा लगा कि कल की बच्चियाँ हैं क्या करेंगी, लेकिन इन्होंने तो जैसे जादू कर दिया। कल तक हमारे गाँव वाले स्वच्छता का मतलब नहीं जानते थे, आज तो गाँव की हर दीवार स्वच्छता का पाठ पढ़ रही है।
मिर्जापुर गाँव में लोगों को स्वच्छता का ‘एबीसी’ नहीं मालूम था। पहले तो एक महीने हमने घूम-घूमकर गाँव वालों की मानसिकता परखी, इनसे दोस्ती करने की कोशिश की। एक महीने में हम सफल हुए और फिर शुरू हुआ बदलाव।- नेहा
एक रुपया लगाया जुर्माना तब गाँव माना
खाली दाँत दिखाने, ही-ही करने से काम नहीं होता। कभी सोची हो कि तुम लोगों को पानी जाने (लिकोरिया) की दिक्कत काहे होती है। मर्दों से डरती हो, लेकिन ये मर्द ही पीठ पीछे तुम लोगों का मजाक उड़ाते हैं। इसलिये गहना बेचो, एक टाइम पेट काटो या जो चाहे करो, पर यदि बीमारी, संक्रमण से बचना चाहती हो तो शौचालय बनवाओ.. ये अन्दाज है गोरखपुर के पिपराइच ब्लाक की केवटली ग्राम पंचायत की रुमाली देवी का। उम्र यहीं कोई 43 साल होगी।
रुमाली देवी बताती हैं कि आये दिन हम महिलाओं को कोई-न-कोई बीमारी घेरे रहती। जब हमें पता चला कि यह सब खुले में शौच, आस-पास गन्दगी का नतीजा है तो हम सबने एक बैठक बुलाई। तय किया कि जब तक शौचालय नहीं है, तब तक साफ-सफाई का ध्यान रखेंगी, पानी लेकर जाएँगी और जल्द-से-जल्द हर घर में शौचालय होगा। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हर महीने एक रुपया जुर्माना शौचमुक्त लोटे में डालना होगा। यह लोटा गाँव के उस घर के गेट पर रखा जाएगा, जहाँ से चारों तरफ नजर रखी जा सकेगी। धीरे-धीरे हर घर में शौचालय बन गए।
नई पौध
कानपुर नगर जिला मुख्यालय से पाँच किमी दूर शुक्लागंज कंचननगर में रहती हैं स्वच्छता दूत मानसी। कहती हैं कि एक आदत सी बन गई है, जब भी किसी को कहीं भी कूड़ा फेंकते देखती हूँ, तो कदम उसकी ओर बढ़ जाते हैं। कुछ सुधार जबरदस्ती नहीं आते, इसलिये तय किया कि किसी को मना नहीं करुँगी। आग्रह को ही हथियार बनाऊँगी। मानसी का मानना है कि बच्चों को ट्रेंड करो तो घर तक सन्देश पहुँच जाएगा। इसीलिये हम प्राइमरी स्कूल में नाटक, संगीत, खेल के जरिए बच्चों से संवाद करते हैं। हम स्वच्छता दूत की नई पौध तैयार करना चाहते हैं। मानसी को 2017 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के समक्ष स्पीच के लिये चुना गया और राष्ट्रपति ने उनकी सोच को सराहा।
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