दक्षिणी छोर से यदि आरम्भ करें तो भूगर्भीय दृष्टिकोण से चम्पावत-पिथौरागढ़ क्षेत्र को चार भू-भागों में बाँटा गया है-शिवालिक, लघु हिमालय, उच्च हिमालय तथा टैथिस हिमालय। ये भू-भाग एक-दूसरे से चार प्रमुख भ्रंशों या दरारों द्वारा विभाजित हैं: अग्रगामी भ्रंश (हिमालयन फ्रन्टल फाल्ट-HFF), मुख्य सीमा भ्रंश (मेन बाउन्ड्री थ्रस्ट-MBT), मुख्य मध्य भ्रंश (मेन सेन्ट्रल थ्रस्ट-MCT), तथा हिमाद्रि भ्रंश (ट्रान्स हिमाद्रि फाल्ट-THF)।
अग्रगामी भ्रंश से उत्तर में 1500-2000 मीटर औसत ऊँचाई में शिवालिक शृंखला है जिसे मुख्य सीमा भ्रंश अलग करता है। बाह्य हिमालय प्राजीव (Proterozoic) तथा कैम्ब्रियन युग की अवसादी (Meta Sedimentary) चट्टानों से बने होते हैं, जो एक परिपक्व स्थालकृतिक रूप (500-2500 मीटर) लेता है। यह क्षेत्र उत्तर में मुख्य मध्य भ्रंश द्वारा अलग होता है। अनेक प्रसिद्ध शिखरों को लिये हुए उच्च हिमालय मुख्य मध्य भ्रंश तथा हिमाद्रि भ्रंश के बीच फैला हुआ है। इसके बाद टैथिस हिमालय क्षेत्र शुरू होता है जिसका विस्तार दक्षिण-पश्चिमी तिब्बत तक है।
शिवालिक, जिन्हें बाह्य हिमालय भी कहा जाता है, को मूलतः अग्रगामी भ्रंश ही गंगा के मैदान से अलग करता है। यह स्थान बस्तिया (टनकपुर) के पास स्थित है जबकि इसे लघु हिमालय से मुख्य सीमा भ्रंश सूखीढांग के उत्तर में अलग करता है। शिवालिक की चट्टानें हिमालय से आए अवसाद से बनी हैं जो कि दक्षिणी हिस्से में 20 से 1 मिलियन अर्थात 2 करोड़ से 10 लाख साल में जमा होता रहा है। बस्तिया से सूखीढांग तक शिवालिक समूह निचले तथा मध्य उप भागों में विभाजित है।
चल्थी के आस-पास से लघु हिमालय शुरू होता है। यह जौनसार समूह की स्फटिक (क्वार्ट्ज) चट्टानों से बना है और मुख्य सीमा भ्रंश तथा रामगढ़ भ्रंश (RT) के बीच फैला है। रामगढ़ भ्रंश प्रीकैम्ब्रियन जौनसार समूह तथा क्रिस्टलाइन चट्टानों से बने रामगढ़ कूबड़ (Nappe) को अलग करता है। जौनसार समूह चाँदपुर तथा नागथात शैल समूहों (formations) से बना है। इसमें फिलाइट्स, स्फटिक तथा ज्वालामुखी पत्थर हैं। चम्पावत के दक्षिण में लधिया घाटी में स्फटिक का विस्तार है। नेपाल सीमा पर लधिया तथा काली नदी के संगम के पास स्फटिक तथा ज्वालामुखीय चट्टानें नदियों के द्वारा लाई गई गाद के ऊपर स्थापित हैं।
दक्षिण अल्मोड़ा भ्रंश (SAT) की विवर्तनिक (Tectonic) सीमा जौनसार समूह को अल्मोड़ा समूह की चट्टानों से अलग करती है। अल्मोड़ा समूह की रचना स्तरित सिस्ट, अभ्रकी (Micaceous), स्फटिक तथा पट्टिताश्म (Gneiss) चट्टानों से हुई है, जिसमें ग्रेनाइट तथा ग्रेनोडायोराइट भी शामिल हैं। अल्मोड़ा समूह तीन प्रकार कै शैल समूहों से बना है- नीचे सरयू, तत्पश्चात चम्पावत ग्रेनोडायोराइट और ऊपर गुमालीखेत शैल समूह।
इस समूह की उत्तरी सीमा को उत्तरी अल्मोड़ा भ्रंश (NAT) कहा जाता है, जो अल्मोड़ा समूह से सीमा बनाता है। यह स्थानिक अवसादी चट्टानों से निर्मित है तथा इसमें बेरीनाग, मन्धाली तथा देववन शैल समूह हैं। उत्तरी अल्मोड़ा भ्रंश तथा बेरीनाग भ्रंश के बीच में आन्तरिक अवसादी (autochthonous sedimentary) चट्टानें हैं, जो बड़ी चट्टानों के रूप में दिखती हैं और डामटा तथा तेजम समूह में शामिल हैं। डामटा समूह चकराता तथा रौतगड़ा शैल समूह से बना है जबकि तेजम समूह डामटा समूह की चट्टानों के ऊपर स्थित है। इसी में गंगोलीहाट तथा सोर के शैल समूह आते हैं, जो कि इस जिले के पूर्व में पड़ते हैं।
रौतगड़ा शैल समूह में दानेदार, मध्यम भूरे व क्रीम रंग का स्फटिक है जिसके खुले हिस्से में हरा और बैंगनी रंग नजर आता है। यह शैल समूह ठुलिगाड़ घाटी में प्रकट होता है और फिर देववन शैल समूह में रूपान्तरित होता है, जो आस-पास और बेरीनाग भ्रंश के नीचे कनालीछीना में उघड़े रूप में दिखाई देता है। इसमें महत्त्वपूर्ण जीवाश्म (फॉसिल) स्ट्रोमैटोलाइट्स (Stromatolites) पाए जाते हैं। चण्डाक वाला हिस्सा डोलोमाइट तथा डोलोमाइटिक चूना पत्थर से निर्मित है। इसकी विशेषता है कि इसमें विशेष प्रकार की शाखाओं वाले तथा खड़े जीवाश्म मिलते हैं।
बेरीनाग भ्रंश की सीमा गंगोलीहाट डोलोमाइट (देववन शैल समूह) है, जो बेरीनाग शैल समूह का ऊपरी हिस्सा है। बेरीनाग शैल समूह स्वयं अस्कोट तथा मुनस्यारी क्रिस्टलाइन से भ्रंशित है। बैजनाथ तथा अस्कोट क्रिस्टलाइन को बेरीनाग शैल समूह में बैजनाथ तथा अस्कोट भ्रंशों ने विभाजित किया है। बेरीनाग समूह की चट्टानें अल्मोड़ा समूह के मुनस्यारी शैल समूहों से ढकी हैं। बेरीनाग शैल समूह की सीमा मुनस्यारी भ्रंश से जुड़ी हैं। मुनस्यारी शैल समूह का दक्षिणी सीमान्त अभिनत ढाँचे की रचना करता है और इस ढाँचे के दोनों किनारे उत्तरी तथा दक्षिणी छिपलाकोट भ्रंशों से जुड़े हैं। दक्षिणी छिपलाकोट भ्रंश (SCT) को धारचुला के पास दोबाट में पहचाना जा सकता है और उत्तरी छिपलाकोट भ्रंश (NCT) पांगला के पास काली नदी की घाटी में अवलोकित किया गया है। मुनस्यारी शैल समूह की विशेषता है-सघन विरूपीकरण (Intense mylonitization)। यह चार शाखाओं में विभाजित है- बरम, छिपलाकोट, खेत तथा सोसा (नारायण आश्रम)।
मुख्य मध्य भ्रंश उच्च हिमालय की दक्षिणी सीमा है, जहाँ लघु हिमालय के ऊपर उच्च हिमालय स्थापित है। उच्च हिमालय वक्रता समूह के अवसादों (amphibolite grade metasediments) से निर्मित है। पिथौरागढ़ जिले की ये चट्टानें बहुत से शैल समूहों से निर्मित हैं। जैसे जोशीमठ, पाण्डुकेश्वर तथा पिण्डारी शैल समूह। जोशीमठ शैल समूह में घुमावदार सिरु तथा नीस (banded kyanite-sillimanite schist and porphyry oblastic augen gneiss) हैं, जो लीलम तथा रूपसिया बगड़ (गोरी नदी की घाटी) में पहचानी जा सकती हैं।
पाण्डुकेश्वर शैल समूह, जोशीमठ शैल समूह के बाद आता है, जो मुख्यतः सफेद स्फटिक (क्वार्टज) तथा सिरु तथा नीस (gernetiferous schist and gneiss) से मिला है और इसकी पहचान गोरी घाटी में रड़गाड़ी में की जा सकती है। उच्च हिमालय का सबसे ऊपरी शैल समूह, जो पिण्डारी समूह का भाग है, बगुडियार तथा रिलकोट में पहचाना जा सकता है। इसकी रचना चूने तथा सिलिका सिस्ट चट्टानों (calc silicate rocks interbedded with calcareous schist) से हुई। पिण्डारी शैल समूह की चट्टानों को टैथिस हिमालयी चट्टानों से हिमाद्रि भ्रंश ने अलग किया है।
उच्च हिमालय के पार स्थित टैथिस हिमालय में कैम्ब्रियन से इओसीन युगीन अवसादी चट्टानों का सिलसिला है। टैथिस हिमालय का दक्षिणी सीमान्त हिमाद्रि भ्रंश से जुड़ा है। हमारे अध्ययन क्षेत्र (जिला पिथौरागढ़) में टैथिस हिमालय का क्रम गोरीगंगा (जोहार), पूर्वी धौली गंगा (दारमा) तथा काली (ब्यांस) नदी घाटियों में स्पष्ट पहचान में आता है। इस क्रम को मरतोली गाँव से ऊँटाधूरा दर्रे तक पहचाना जा सकता है और इसी में रिलकोट, बुर्फू, बिल्जू, मिलम तथा रालम शैल समूह आते हैं।
रिलकोट शैल समूह की विशेषता है काले माइका सिस्ट (biotite schist) की उपस्थिति, जबकि बुर्फू शैल समूह (जो बुर्फू गाँव में ही अभिव्यक्त होता है) में काले मायका सिस्ट के साथ फिलाइट चट्टानें हैं। इसके निचले हिस्से में पाइराइट क्रिस्टल हैं। बिल्जू शैल समूह के सफेद स्फटिक (white pyritiferous quartzite) बिल्जू गाँव के करीब ही दिखाई देते हैं। मिलम शैल समूह में हरा सिल्टस्टोन तथा चूना सिलिका (green silt stone and calc phyllite) हैं। सबसे अन्त में रालम शैल समूह है, जिसे गुन्खा गाड़ के गौर्ज में मिलम गाँव के उत्तर में पहचाना जा सकता है। यह ईंट की तरह लाल कॉगलोमरेट से बना है।
पूर्वी कुमाऊँ में भूगर्भिक हलचल न सिर्फ मुख्य मध्य भ्रंश (MCT), मुख्य सीमा भ्रंश (MBT) तथा हिमाद्रि अग्रगामी भ्रंश (HFF) के आस-पास होती रहती है, बल्कि यह वहाँ भी प्रकट होती है जहाँ विभिन्न भ्रंश एक-दूसरे को आड़े-तिरछे काटते हैं। इन सक्रिय भ्रंशों के आस-पास इस तरह की हलचल का एक परिणाम यह रहा है कि भूस्खलनों तथा मलबे की बड़ी मात्रा ने प्राचीन नदियों को अवरुद्ध कर दिया और अनेक झीलों को जन्म दिया। बाद की भूगर्भिक हलचलों ने इन झीलों के गुम हो जाने में योगदान दिया। इन प्राचीन झीलों के क्षेत्र आज मैदानी भूमि की तरह दिखाई देने लगते हैं जिसके चारों ओर पहाड़ हैं और इसमें भूमिगत पानी पर्याप्त मात्रा में हैं। इनमें से कुछ झीलों की चर्चा यहाँ की जा रही है।
पिथौरागढ़ झील
यह सोर घाटी में सातसिलंग से नैनीसैनी होकर चौपखिया तक चली जाती थी। नैनीसैनी में 13 मीटर मोटी साद है, जिसमें पानी भूमिगत होता रहता है। इसी कारण कदाचित हवाई पट्टी भी धँसती रहती है। यह कोटली गाँव की भूमि के उठान से बनी है। आज से 34300 से 32200 साल पहले नमी के दौर में यहाँ पर्याप्त जंगल थे और मानसून काफी अच्छा रहता था। कुछ समय (32200 से 30700 के बीच) बाद चीड़ तथा अन्य शुष्क पेड़-प्रजातियों ने पुराने वनों का स्थान ले लिया। इस समय यहाँ वर्षा में कमी का प्रमाण मिलता है। इसके बाद पिथौरागढ़ क्षेत्र ने कम-से-कम दो शीतोष्ण आर्द्र तथा दो शुष्क जलवायु के दौर झेले। आज से 10 हजार साल पहले विवर्तनिक/भूगर्भिक हलचलों से जनित मलबा इसमें भर गया, जिससे कुछ छोटी झीलें बची रह गईं। ये भी आज से 1800 साल पहले गुम हो गईं, क्योंकि उनमें 1 मीटर मोटी मिट्टी-मलबे की पर्त विवर्तनिक हलचलों के कारण भर गई (इस झील की विस्तृत प्रस्तुति प्रो. वल्दिया ने अलग लेख में की है)।
चम्पावत की फुलारा झील
फुलारा (चम्पावत) की पुरातन झील गिर्ला गाड़ के अवरुद्ध हो जाने से बनी थी। यह अवरुद्धता बनलेख भ्रंश के उत्तरपूर्व-दक्षिणपश्चिम में उठने से हुई। अन्य हिमालयी नदियों के विपरीत गिर्ला गाड़ दक्षिण-उत्तर बहती है और इसका कारण बनलेख भ्रंश के साथ भूमि का उठान था, जो झील का दक्षिणी छोर बनाता था। इस तथा अन्य भूगर्भीय संकटों से पता चलता है कि यह क्षेत्र 21 हजार साल पहले ऊपर उठा था। अतीत के जलवायु परिवर्तनों को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस झील के बनने के बाद आज से 21500 साल से 20200 साल के बीच जो गर्म तथा आर्द्र जलवायु बनी, उसमें अच्छी वर्षा भी होती थी। आज से 20200 से 18500 साल के बीच यहाँ बहुत कम उपोष्ण वनस्पतियाँ मिलती हैं, जिससे यह पता चलता है कि तब जलवायु शुष्क हो गई थी। 18500 से 14300 साल के बीच चम्पावत में पर्याप्त सघन, चौड़ी पत्ती वाले बाँज प्रजाति के पेड़ थे, जिससे गर्म तथा आर्द्र जलवायु की स्थिति का पता चलता है।
14300 से 13800 साल पहले मौसम की विपरीतता शुरू हुई और परिणामस्वरूप एकाएक जंगलों और हरियाली में कमी आती गई। यद्यपि आज से 13800 से 13500 साल पहले चौड़ी पत्ती के सदाबहार जंगल पुनः अस्तित्व में आए, जिसे 12000 साल पहले शुष्क जलवायु ने समाप्त कर दिया। चम्पावत क्षेत्र के पारिस्थितिक इतिहास में आज से 12000-8300 साल पहले पुनः घने जंगलों का विकास हुआ। 8300 से 6000 साल पहले फिर आपदा आई। यह गर्म तथा आर्द्र जलवायु की स्थितियाँ तब तक रहीं जब पुनः आज से 4000 साल पहले अगली घटना हुई। सामान्य तथा कम वर्षा (दक्षिण पश्चिम से कम मानसून) से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में तब पारिस्थितिक संकट आया था। इस घटना ने तमाम तरह के भू-स्खलनों को त्वरित कर चम्पावत की फुलारा झील को भी सुखा दिया।
चम्पावत क्षेत्र में यह शुष्क काल दक्षिण पश्चिम से वायु प्रवाह के कमजोर होने तथा अन्तर उष्ण बंधी अभिसरण क्षेत्र (Inter Tropical Convergence Zone ITCZ) के दक्षिण की ओर खिसकने से जुड़ा है। इसके साथ ही मानसूनी वर्षा में कमी होना तथा नदियों में पानी की मात्रा का घटना भी इसका कारण था। गर्म अवधि में चम्पावत क्षेत्र के ऊपर अन्तर उष्णबन्धी अभिसरण क्षेत्र के होने से ग्रीष्म ऋतु की यह विशेषता बनी कि वह दक्षिण-पश्चिमी मानसून को मजबूत और अधिक वर्षा के लिये प्रेरित करने लगा।
गर्ब्यांग झील
लगभग 11 किमी लम्बी गर्ब्यांग से गुन्जी तक काली नदी की घाटी में (काली-टिंकर संगम से काली-कुटी संगम तक) फैली गर्ब्यांग झील हिमाद्रि भ्रंश के आस-पास 20,000 साल पहले हुए भूगर्भीय हलचलों के कारण बनी थी। यह एक प्रकार से भूगर्भीय हलचलों के पुनः सक्रिय होने का संकेत था, जिसके परिणाम स्वरूप काली नदी अवरुद्ध हुई। यह छियालेख धार के विवर्तनिक उठान से प्रदर्शित होता है। हिमनद तथा सामान्य नदी द्वारा निर्मित झील के अवसाद की लगातार उपस्थिति, 3 मीटर मोटे खण्डमय धारीदार संकोणाष्म (striated breccia) के रूप में जमा है, जो हिमनद की सक्रियता का संकेत देती है। इसके परिणाम स्वरूप आज से 10,000 साल पहले यह झील लुप्त हो गई।
गर्ब्यांग झील बेसिन के अवसादी अवशेष में अनेक विरूप अवसादी क्षितिज (deformed sediment horizons) प्रदर्शित होते हैं, जो कि सामान्य स्तरीकृत अवसाद के साथ दिखाई देते हैं। विरूपीकरण की प्रक्रिया बिना बाह्य कारकों या दबावों के सम्भव नहीं है। ये दबाव बनाने वाले कारक या तो भूकम्पों की तरह क्षेत्रीय या स्थानीय प्राकृतिक घटनाओं, तूफान या सुनामी से जुड़े थे। ये विरूपित क्षितिज अतीत की भूकम्पीय घटनाओं के दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उत्तराखण्ड-नेपाल (मध्य हिमालय) के बारे में कहा जाता है कि यह एक अवरुद्ध भूखंड (locked segment) है क्योंकि पिछले 200 साल में यहाँ कोई बड़ा भूकम्प नहीं आया है (इसी कारण इसे भूवैज्ञानिक ‘साइसमिक गैप क्षेत्र’ भी कहते हैं)।
मध्य हिमालय के उच्च क्षेत्र, जिसमें गर्ब्यांग भी स्थित है, में सेराघाट (1979, 6.5 क्षमता) तथा धारचुला (1980, 6.5 क्षमता) भूकम्पों को महसूस किया गया। मगर प्रागैतिहासिक काल की भू-भौमिक हलचलों का बहुत सामान्य प्रमाण ही उपलब्ध होता है। गर्ब्यांग के कोमल अवसाद के विरूपीकरण के नमूने प्राचीनकाल में हुए भूकम्पीय व्यवहार की जानकारी दे सकते हैं। निश्चय ही अवसादों में विरूपता या टेढ़े-मेढ़ेपन के आने का कारण भूकम्पीयता से जुड़ा है। यह निम्न प्रमाणों से स्पष्ट होता है-
1. यह क्षेत्र वर्तमान में हिमालय के अत्यन्त सक्रिय हिस्से में पड़ता है।
2. छोटे ढाँचे बताते हैं कि यहाँ भूकम्पों के आने के बाद चट्टानों के विरूपीकरण की प्रक्रिया चली।
3. एक स्तरीय इकाई की विरूपता या टेढ़े-मेढ़ेपन की उपस्थिति बिना विरूप हुए क्षेत्र के पास है।
4. हमारे प्रयोगों से भी यह सिद्ध हुआ है।
5. अन्य सम्भावित प्रक्रियाओं के असर भी अनुपस्थित हैं।
गर्ब्यांग-गुन्जी की पुरातनकालीन झील में कुल 14 विरूपित क्षितिज मिले हैं। विरूपित होने के लिये एक न्यूनतम भूकम्पीय ऊर्जा का दबाव चाहिए। कम-से-कम 6 क्षमता का भूकम्प गर्ब्यांग के नरम अवसाद में प्रभाव पैदा करने के लिये आवश्यक है। इसके अतिरिक्त अवसाद की विरूपित मोटाई तथा भूकम्पीय क्षमता का भी सम्बन्ध स्थापित होता है। इस अन्तर्सम्बन्ध को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि एक 10-15 सेमी मोटे अवसाद स्तर को (जैसा कि गर्ब्यांग में मौजूद है) कम्पित करने के लिये 7 क्षमता की ऊर्जा या भूकम्प चाहिए। इस पक्ष पर विचार करके हम कह सकते हैं कि अधिकांश क्षितिज (seismite horizons) 7 से अधिक क्षमता के कम्पनों/भूकम्पों से निर्मित हुए हैं। इसका अभिप्राय यह है कि गर्ब्यांग क्षेत्र ने आज से 20 हजार से 10 हजार साल के बीच 7 की क्षमता से अधिक के एक दर्जन से अधिक भूकम्पों को झेला। इसका यह भी अभिप्राय है कि हिमाद्रि भ्रंश 20 हजार से 10 हजार साल के बीच अनेक बार पुनः सक्रिय हुआ।
बुर्फू झील
मल्ला जोहार में बुर्फू गाँव के पास, जहाँ खरकन क्वाल्टा गाड़ का गोरी नदी से संगम है, आज से 22 हजार साल पहले नव विवर्तनिक हलचलों के कारण एक झील की रचना हुई। वास्तव में खरकन क्वाल्टा गाड़ ग्लेशियरों के प्रवाह से निकले साद के कारण अवरुद्ध हो गई और इसमें विशेष प्रकार के ग्लेशियल अवसाद जमा हो गए थे, जो ग्लेशियर परिवेश के आस-पास में जलवायु अन्तर को प्रकट करते हैं। यह झील आज से 10 हजार साल पहले टूट गई। शोध कार्यों से प्रमाणित होता है कि दो आर्द्र-शीतोष्ण तथा कम-से-कम दो निश्चित शुष्क मौसमी अवस्थाओं/स्थितियों से यह क्षेत्र 22 हजार से 11 हजार साल के बीच गुजरा। अध्ययन और आँकड़े सुझाते हैं कि बुर्फू क्षेत्र आज से 15 हजार साल पहले सम्भवतया सब अल्पाइन जंगलों से ढँका था। निश्चय ही यह शुष्क और गर्म जलवायु की स्थितियों में ही हुआ होगा। 15 हजार से 10 हजार साल पहले बुर्फू झील में मौजूद परागकणों का स्थानीय वनस्पतियों से सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है।
निष्कर्षतः भूगर्भीय सन्दर्भ में चम्पावत-पिथौरागढ़ क्षेत्र सभी हिमालयी भूविवर्तनिक इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। इन इकाइयों को मुख्य मध्य भ्रंश (MCT), मुख्य सीमा भ्रंश (MBT), वाह्य हिमाद्रि भ्रंश (THT) तथा हिमालयी अग्रगामी भ्रंश (HFF) जैसे विभिन्न भ्रंश अलग करते हैं। इन तथा अन्य सहयोगी भ्रंशों के आस-पास हुई विवर्तनिक हलचलों ने नदियों को अवरुद्ध कर इन झीलों की रचना की। उच्च हिमालय की इस प्रकार की पुरातन झीलें न सिर्फ भूमिगत जल भण्डार के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हैं, जो कि प्राचीन काल में हुए जलवायु परिवर्तनों का संकेत देती हैं, बल्कि इससे प्रागैतिहासिक भूकम्पों को भी समझा जा सकता है।
(अनुवाद: शेखर पाठक)
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