किसी भी क्षेत्र का भूगोल उसकी पर्यावरणीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं भाषाई स्वरूप के साथ-साथ उसके लोक जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित और निर्धारित करता है।
पिथौरागढ़ एवं चम्पावत जिला भारतीय हिमालय का ही हिस्सा है, जिसके पूर्वी छोर में म्यांमार तथा पश्चिमी सिरे पर पाकिस्तान स्थित है। उत्तर में तिब्बत का शीत पठारी प्रदेश तो दक्षिणी सीमा में गर्म मैदानी प्रदेश है। भारतीय हिमालय उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर लगभग 2500 किमी की लम्बाई, 250 से 300 किमी चौड़ाई लिये लगभग 5 लाख वर्ग किमी के फैलाव में लगभग 4 करोड़ की आबादी को आत्मसात किये हुए है। यह क्षेत्र देश की 3.5 प्रतिशत आबादी तथा 15 प्रतिशत भू-भाग को घेरे हुए है। यह हिमालय दक्षिण-पूर्व एशिया की जलवायु नियामक तथा जीवन-दायिनी नदियों का उद्गम क्षेत्र, पहाड़ों से मिट्टी बहाकर उर्वर मैदानों का सृजक तथा प्राकृतिक संसाधनों का विपुल भण्डार क्षेत्र है।
जलवायु की दृष्टि से पूर्वी, मध्य एवं पश्चिमी हिमालय को आर्द्र, उपोष्ण तथा शुष्क तीन प्रदेशों में विभाजित किया जा सकता है। भूगर्भिक दृष्टि से दक्षिण से उत्तर की ओर तराई, भाबर, शिवालिक, दून, मध्य, बृहत (महान) जॉस्कर तथा ट्रान्स या टैथिस हिमालय के रूप में बाँटा गया है। इन भौगोलिक भागों की संरचना आवश्यक नहीं कि पूर्व से पश्चिम तक एक समान हो।
हिमालय में उत्तराखण्ड एक ऐसा भू-भाग है, जहाँ विभिन्न संस्कृतियों का अद्भुत संगम है। उत्तराखण्ड की पश्चिमी सीमा को टौंस की सहायक नदी पब्बर हिमाचल प्रदेश से अलग करती है तो पूर्वी सीमा पर काली (शारदा) नदी प्रवाहित होती है। उत्तरी भाग तिब्बत से मिला हुआ है तो दक्षिण में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिले स्थित हैं।
उत्तराखण्ड में दो मण्डल- कुमाऊँ तथा गढ़वाल, 13 जनपद- पिथौरागढ़, चम्पावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर, चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, देहरादून तथा हरिद्वार हैं। इन सभी जनपदों में 15761 गाँव, 86 नगर, 78 तहसीलें तथा 95 विकास खण्ड हैं। इसका अक्षांशीय विस्तार 28044’ उत्तर से 31035’ उत्तर तथा 79045’ पूर्व से 8101’ पूर्वी देशान्तर के बीच है। यह 53,484 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखण्ड की 84,79,562 की आबादी है जो सम्पूर्ण देश की 1.6 प्रतिशत भूमि तथा 0.83 प्रतिशत आबादी को आत्मसात किये हुए है।
प्रस्तुत आलेख उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ तथा चम्पावत जिलों के भौगोलिक स्वरूप पर केन्द्रित है। यह क्षेत्र समुद्र सतह से लगभग 500 से 7000 मीटर की ऊँचाई के बीच फैला है। इसकी दक्षिणी सीमा चकरपुर, तो उत्तरी पश्चिमी सीमा पर बेल्चाधूरा तथा उ.पू. छोर पर लीपूलेख दर्रा स्थित है। इस प्रकार के विषम उच्चावच वाले भू-भाग में अनेक शृंखलाएँ, हिमानियाँ, नदी घाटियाँ, पहाड़, ढाल तथा बुग्याल स्थित हैं। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो एक नदी घाटी की संस्कृति, रीति रिवाज तथा परम्पराएँ दूसरी नदी घाटी से भिन्न होती हैं लेकिन समग्रता में एक-दूसरे से अन्यान्य रूप से समान होती हैं। यह भू-भाग 2901 150 उत्तर से 3004’ उत्तरी अक्षांश तथा 7905’ पूर्वी से 8101’ पूर्वी देशान्तर के बीच 9173 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। वर्ष 2001 की जनगणनानुसार यहाँ की लगभग 6,86,831 आबादी 2235 गाँवों, 8 नगर क्षेत्रों, 10 तहसीलों, 12 विकास खण्डों, 87 न्याय पंचायतों तथा 927 ग्राम पंचायतों में निवास करती है। संरचनात्मक दृष्टि से यह भाग तराई की लगभग उत्तरी सीमा चकरपुर से सुदूर उत्तर में भारत-तिब्बत जल विभाजक श्रेणी तक और 250-300 किमी लम्बाई तथा 10-150 किमी चौड़ाई में फैला है।
उच्चावचीय परिदृश्य
यह क्षेत्र चार भू-भौतिक भागों में बँटा हुआ है जिन्हें बाह्य हिमालय (भाबर तथा शिवालिक), मध्य/लघु, बृहत, उच्च तथा ट्रान्स हिमालय के नाम से जाना जाता है। ये चारों भू-भाग भूगर्भिक दृष्टि से चाहे अलग-अलग हैं लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक सरोकारों से परस्पर साम्य रखते हैं। ये क्षेत्र भ्रंशों/दरारों की सहायता से अलग-अलग इकाई के रूप में पहचाने जाते हैं। हिमालयी अग्र भ्रंश (एच.एफ.एफ.), मुख्य सीमान्त भ्रंश (एम.पी.टी.), मुख्य केन्द्रीय भ्रंश (एम.सी.टी.) तथा ट्रान्स हिमाद्रि भ्रंश (टी.एच.टी.) विभिन्न हिस्सों को अलग करती है। ये भ्रंश-क्षेत्र भूगर्भिक दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील तथा पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद नाजुक क्षेत्र हैं। सम्पूर्ण क्षेत्र भ्रंशों/दरारों की अधिकता के कारण भूकम्प तथा भू-स्खलन की दृष्टि से भी अत्यन्त संवेदनशील है। यही कारण है कि इस क्षेत्र को भूकम्प तथा भू-स्खलन जैसी आपदाओं से बार-बार जूझना पड़ता है।
बाह्य हिमालय
इस भू-भाग के अन्तर्गत मुख्य सीमान्त भ्रंश के दक्षिण में शिवालिक की पहाड़ियों सहित भाबर क्षेत्र सम्मिलित है। शिवालिक की दक्षिणी सीमा से तराई की उत्तरी सीमा तक विस्तृत 10-20 किमी चौड़ी पट्टी को भाबर कहते हैं।
इसका निर्माण मध्य हिमालय तथा शिवालिक की श्रेणियों से निकलने/प्रवाहित होने वाली नदियों द्वारा लाए गए अवसाद (मिट्टी, कंकड़, पत्थर) के जमाव से हुआ है। हिमालयी अग्र भ्रंश से इस क्षेत्र को भूगर्भिक दृष्टि से अलग किया जाता है। दोनों की संरचना में भी अन्तर है। वर्षा ऋतु के अलावा इस क्षेत्र की शारदा के अलावा सभी नदी-नालों में पानी सतह से 50 से 70 फीट नीचे चला जाता है, जिस कारण क्षेत्र को जल संकट से जूझना पड़ता है। इस क्षेत्र की शिवालिक एवं मध्य हिमालय से निकलने वाली छोटी बड़ी नदियाँ; जिसमें काली या शारदा मुख्य हैं, काटकर तराई में प्रवेश करती हैं। इस प्रदेश में बड़े-बड़े बोल्डर, कंकड़, पत्थर मिलते हैं सतह इतनी छिद्रयुक्त होती है कि पानी सीधे सतह से बहुत नीचे प्रवेश कर जाता है।
उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व की ओर मुख्य सीमान्त भ्रंश से दक्षिणी तथा भाबर के उत्तर क्षेत्र में समुद्र सतह में 700-900 मीटर की ऊँची शिवालिक श्रेणियाँ फैली हैं। यह क्षेत्र अपेक्षाकृत कमजोर तथा नरम अवसादी चट्टानों द्वारा बना है। निर्माण/उत्पत्ति की दृष्टि से यह क्षेत्र नवीन है, जिससे इस क्षेत्र में अपरदन की समस्या मुख्य है। भूगर्भिक दृष्टि से शिवालिक को भी निम्न मध्य एवं उच्च भागों में बाँटा जाता है। निम्न शिवालिक मिट्टी, पत्थर तथा घिसे हुए बोल्डरों से बना है जबकि मध्य शिवालिक छोटे-छोटे एवं घिसे हुए कंकड़ों से बना है। दक्षिणी शिवालिक मोटे पत्थरों, लाल रंग की मिट्टी तथा बलुवा पत्थरों के जमाव से निर्मित है। इस भू-भाग में क्षेत्र की लगभग 10 प्रतिशत ग्रामीण तथा 25 प्रतिशत शहरी आबादी निवास करती है। बनबसा तथा टनकपुर मुख्य शहरी क्षेत्र हैं। ये बसाहटें पिथौरागढ़ एवं चम्पावत जिलों के अप्रवासियों की हैं।
मध्य/लघु हिमालय
दो संवेदनशील संरचनात्मक दरारों (एम.बी.टी. एवं एम.सी.टी.) के बीच अपेक्षाकृत ठोस (वयस्क) 500 से 2000 मीटर तक की ऊँचाई वाला भू-भाग लघु/मध्य हिमालयी क्षेत्र कहलाता है। अधिकांश आबादी इसी मध्यम ढाल वाले नदी घाटी क्षेत्रों में निवास करती है। यहाँ की पर्वत शृंखलाओं को कई नदियों ने काटकर गहरी उपजाऊ घाटियाँ बनाई हैं। यह भाग उत्तर से दक्षिण लगभग 70-80 किमी की लम्बाई में और पूर्व से पश्चिम लगभग 50-60 किमी की चौड़ाई में फैला है। इस प्रदेश का दक्षिणी ढाल अपरदन से प्रभावित है जबकि उत्तरी ढाल में घनी वनस्पति तथा जीवाश्म युक्त मिटटी का आवरण पाया जाता है। क्षेत्र में बहने वाली नदियों में लधिया, लोहावती, पनार, सरयू, पूर्वी रामगंगा, गोरी, धौली तथा काली मुख्य हैं। इन्हीं नदियों द्वारा वेदिकाओं का निर्माण कर उपजाऊ एवं समृद्ध घाटियों का विकास हुआ है। यहाँ एबटमाउण्ट, लोहाघाट, ध्वज, थलकेदार, चौकोड़ी, बेरीनाग, कालामुनी, चण्डाक, असुरचुला आदि पहाड़ियाँ हैं, जिनकी औसत ऊँचाई 2000 मीटर तक है।
इस भू-भाग की आन्तरिक पट्टियों का निर्माण पूर्व कैम्ब्रियन काल के बाद हुआ है। अवसादी चट्टानों की संरचना क्रॉल ग्रीवा खण्ड बनाती है। पूर्व में कैम्ब्रियन युग की रूपान्तरित चट्टानों के समूह पाए जाते हैं। जिसमें क्रौल, अल्मोड़ा-डाम्ता, तेजम-बेरीनाग तथा मुनस्यारी समूह प्रमुख हैं। यह भाग सबसे अधिक घनी आबादी वाला क्षेत्र है। लोहाघाट, चम्पावत, धारचूला, गंगोलीहाट, डीडीहाट एवं पिथौरागढ़ मुख्य बाजार/नगर क्षेत्र हैं। नगरीय आबादी का 75 प्रतिशत इन शहर/कस्बों में निवास करता है जबकि 85 प्रतिशत ग्रामीण आबादी इसी मध्य हिमालय की निवासी है।
उच्च/वृहत हिमालय
इस भू-खण्ड की दक्षिणी सीमा मुख्य केन्द्रीय भ्रंश तथा उत्तरी सीमा ट्रान्स हिमाद्रि भ्रंश द्वारा निर्धारित होती है। यह विस्तृत पर्वत शृंखला समुद्र सतह से लगभग 2000 से 6994 मीटर ऊँचाई तक की चोटियों तथा सुन्दर हिमनदों से आच्छादित है। इस क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी पंचचूली (6994 मीटर) है। इसके अतिरिक्त राजरम्भा, ओम पर्वत, छिपला कोट, स्यूँतापानी आदि श्रेणियाँ भी मुख्य हैं। इस श्रेणी के पश्चिम में नन्दाकोट, नन्दाखाट, नन्दादेवी, नन्दाघुण्टी, त्रिशूल, मैकतोली जैसी ऊँची शृंखलाएँ हैं जबकि पूर्व में नेपाल में आपीनाम्पा इसी श्रेणी का विस्तार है। ये श्रेणियाँ ट्रांस हिमालय तथा वृहत हिमालय के बीच की सीमा निर्धारित करती हैं। इन श्रेणियों के उत्तरी भाग को टैथिस हिमालय कहा जाता है। इन श्रेणियों के बीच रालम, मिलम, नामिक, बुर्फू, स्यूँतापानी आदि मनमोहक ग्लेशियर हैं जिनसे पूर्वी धौली, कुटी, गोरीगंगा आदि नदियाँ निकलती हैं। विषम भू-भौतिक एवं जलवायु की दशाओं के कारण इस क्षेत्र में बहुत कम आबादी अस्थाई ग्रीष्म कालीन निवास के रूप में रहती है। ये लोग परम्परागत रूप से तिब्बत के साथ व्यापारिक गतिविधियों के साक्षी रहे हैं।
ट्रांस/टैथिस हिमालय
ट्रांस हिमाद्रि भ्रंश तथा भारत-तिब्बत (चीन) जल विभाजक रेखा के बीच का अपेक्षाकृत कम ऊँचाई वाला क्षेत्र ट्रांस हिमालय के नाम से जाना जाता है। द.पू. मानसून के उच्च हिमालय की पर्वत शृंखलाओं को पार नहीं कर सकने के कारण इस क्षेत्र में बहुत कम वर्षा होती है। इस क्षेत्र में अधिकांश शृंखलाएँ तथा गल स्थित हैं। इन गलों से निकलकर बहने वाली नदियों ने बृहत हिमालय को जगह-जगह पर काटकर गहरी खाइयों (गॉर्ज) का निर्माण किया है। यह लगभग 20 किमी चौड़ी तथा 40 किमी लम्बी पट्टी है। चट्टानें जीवाश्म युक्त कमजोर तथा मोड़दार हैं। गोरी, धौली, कुटी, नदियों ने जोहार, चौंदास, ब्यांस जैसी खूबसूरत घाटियों को बनाया है। विषम भू-खण्ड एवं शीत जलवायु के कारण यहाँ भोटिया (शौका) जनजाति के लोगों के कुछ अस्थाई गाँव हैं। मुख्य व्यवसाय पशुचारण तथा पूर्व से चलता आ रहा तिब्बत-चीन व्यापार है। अधिकांश अधिवास जीर्ण-शीर्ण या ध्वस्त भी हो गए हैं। इस क्षेत्र में ऊँचे दर्रे भी हैं, जिनको पार करने से व्यापार एवं सामाजिक व्यवहार बनते हैं। इनमें मुख्य लीपूलेख (5122 मीटर), लम्पियाधुरा (5533 मीटर) न्यूवेधुरा (5650 मीटर), लावेधुरा (5564 मीटर) ऊँटाधुरा, किंगरी (5564 मीटर) कियो (5434 मीटर) तथा बेल्चा (5398 मीटर) मुख्य हैं।
आन्तरिक दर्रों में नामा (सेला-कुटी), सिनला (पूर्वी-धौली-कुटी), रालम (सीपू-टोला या मुनस्यारी), ट्रेल पास (मर्तोली-पिण्डारी), अठासी बलाती आदि मुख्य हैं।
नदियाँ
मुख्य रूप से सरयू एवं काली के जलागम क्षेत्र में ही पिथौरागढ़ एवं चम्पावत जिले स्थित हैं। उत्तराखण्ड की सबसे लम्बी नदी काली (शारदा) इस क्षेत्र की पूर्वी सीमा निर्धारित करती है। अन्ततः यह भी गंगा में समाहित हो जाती है। लिपूलेख दर्रे के पास जन्म लेती काली, कालापानी स्रोत का पानी लाकर गुंजी में अपने से अधिक जल-प्रवाह वाली कुटी यांगती के जल को लेकर द.प. की ओर भारत-नेपाल सीमा पर प्रवाहित होती है। कुटी यांगती का उद्गम ब्यांस घाटी का जोलिगकांग (छोटा कैलास) क्षेत्र है। नेपाल की ओर से आने वाली टिंकर नदी गर्ब्यांग में काली से मिलती है। दारमा एवं लस्सर से बनी पूर्वी धौली, उत्तर-पश्चिम से प्रवाहित होकर तवाघाट में काली में समा जाती है।
गुन्खा गाड़ ऊँटाधुरा के दक्षिणी ढाल से तथा गोरी मिलम ग्लेशियर से निकल कर अन्ततः जौलजीवी में काली से मिल जाती है। इन जलधाराओं ने इस क्षेत्र को गहरा अपरदित कर अनेक स्थलों पर गॉर्ज/कैनियन का निर्माण किया है। ढाल की अधिकता के कारण ये नदियाँ अत्यधिक शोर करती हुई प्रवाहित होती हैं। सरमूल स्रोत से निकलने वाली सरयू बागेश्वर जिले को छोड़ सेराघाट के नजदीक पिथौरागढ़ जिले में प्रवेश करती है। पनार, इसकी सहायक नदी है। नामिक ग्लेशियर से निकलने वाली पूर्वी रामगंगा रामेश्वर में सरयू से मिलती है। तत्पश्चात सरयू, पंचेश्वर में काली में मिल जाती है। यह वही स्थान है जहाँ महाकाली बहुउद्देशीय परियोजना विचाराधीन है। एबटमाउण्ट, लोहाघाट की ओर से बहने वाली लोहावती एवं लधिया नदियाँ दक्षिण पूर्व को प्रवाहित होती हुई काली नदी में मिल जाती हैं। बरमदेव मण्डी (टनकपुर) से काली को शारदा के नाम से पुकारा जाता है। शिवालिक एवं बाह्य हिमालय की ओर निकलने वाले बरसाती गाड-गधेरे भी अन्ततः शारदा में ही समाहित हो जाते हैं।
उक्त नदियों के अतिरिक्त उच्च (ट्रांस) हिमालयी क्षेत्र में परीताल एवं आँचरी ताल है तो मध्य हिमालय में श्यामलाताल मुख्य हैं। बनबसा के पास शारदा से कई नहरें निकाली गई हैं तथा बैराज/बाँध के रूप में भी प्रयोग कर विद्युत/मत्स्य उत्पादन किया जाता है।
जलवायु : जलवायु मनुष्य की जीवन शैली, वेश-भूषा, रहन-सहन, खान-पान आदि को निर्धारित करती है। इस क्षेत्र में भू-भौतिक एवं संरचनात्मक दृष्टि से अनेकानेक भिन्नताएँ पाई जाती हैं जो विभिन्न प्रकार की जलवायु उत्पन्न करती हैं। यह क्षेत्र चकरपुर (500 मीटर) से पंचचूली (6994 मीटर) तक फैला है। असमान उच्चावच के कारण ही यहाँ उष्ण-आर्द्र से लेकर शीत कटिबन्धीय जलवायु तक पाई जाती है। भाबर तथा नदी घाटियाँ, जो समुद्र सतह से 800 मीटर से नीचे स्थित हैं, का मौसम उष्ण एवं आर्द्र रहता है। इसके अन्तर्गत भाबर तथा लोहावती, लधिया, काली, सरयू, रामगंगा की घाटियाँ आती हैं। इसीलिये इन क्षेत्रों में धान, गेहूँ, आम, लीची, कटहल आदि की खेती की जाती है। 800 से 1200 मीटर ऊँचे क्षेत्र उपोष्ण, 1200 से 2000 मीटर तक समशीतोष्ण और 2000-2400 मीटर तक शीतोष्ण तथा 2400-3000 मीटर के बीच शीत एवं 3000 मीटर से ऊँचे भागों में शीत कटिबन्धीय जलवायु पाई जाती है। सूक्ष्म स्तर पर यदि अध्ययन किया जाए तो यह क्षेत्र अनेक कृषि जलवायु क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है।
जनवरी में भाबर का औसत तापमान 200 सेण्टीग्रेड, आन्तरिक घाटियों में 80 सेण्टीग्रेड पाया जाता है। जून में भाबर का तापमान सबसे अधिक 400 सेण्टीग्रेड, लघु हिमालय में 200 सेण्टीग्रेड, ऊँचाई वाले भागों में 150-200 सेण्टीग्रेड तापमान पाया जाता है। समुद्र सतह से 2000 मीटर से अधिक ऊँचे भागों में ग्रीष्म काल में 50-100 सेण्टीग्रेड तापमान पाया जाता है। जबकि जाड़ों में ये भू-भाग बर्फ से ढके रहते हैं। कुल वार्षिक वर्षा का 80 प्रतिशत भाग वर्षा (जुलाई-अगस्त) में बरस जाता है। भाबर एवं शिवालिक की पहाड़ियों में औसत वार्षिक वर्षा 150 सेमी होती है। जबकि एबटमाउण्ट लोहाघाट-चम्पावत में सर्वाधिक 250 सेमी वर्षा दर्ज है तथा उत्तर की ओर यह औसत घटता जाता है। इस क्षेत्र के आन्तरिक भागों में औसत वर्षा मात्र 90 सेमी होती है। ट्रान्स हिमालय क्षेत्र वर्षा विहीन रह जाता है क्योंकि मानसून महाहिमालय की श्रेणियों को पार नहीं कर पाता है। इसी कारण उच्च हिमालय, कैलास मानसरोवर तथा छोटा कैलास की यात्राएँ जून से अगस्त-सितम्बर तक सम्पन्न कराई जाती हैं। यहाँ वर्ष भर में एक ही फसल चुवा, फाफर, आलू, राजमा आदि का उत्पादन किया जाता है।
इस क्षेत्र में भी मुख्यतः चार ऋतुएँ हैं। शीत-दिसम्बर से फरवरी, ग्रीष्म-मार्च से जून, वर्षा-जुलाई से सितम्बर तथा अक्टूबर-नवम्बर तक मानसून वापसी का समय होता है। आजकल यद्यपि मौसम चक्र में अन्तर आ गया है। तापमान की तीव्रता तथा स्थानीय वर्षा वितरण भी असमान हो गया है। शीत ऋतु दिसम्बर से फरवरी तक रहती है जिसे स्थानीय भाषा में ह्यूंद कहते हैं। इन दिनों आसमान साफ रहता है। कम तापमान, आर्द्रता में अधिकता तथा धीरे-धीरे उत्तरी हवाएँ चलती हैं। यह स्थिति भूमध्य सागर में कम दबाव तथा मध्य-पश्चिम में उच्च दबाव के कारण हो जाती है। परिणाम स्वरूप निम्न भागों में न्यून वर्षा तथा ऊँचाई वाले स्थानों में हिमपात हो जाता है। आर्द्रता की अधिकता के कारण भाबर तथा निम्न घाटियों में कोहरा पड़ता है और मध्य हिमालयी ढालों में धूप खिली रहती है।
ग्रीष्म काल मार्च से जून तक का है। इस समय मौसम में अचानक तीव्र परिवर्तन आ जाता है। स्थानीय लोग इसे रूड़ि कहते हैं। आसमान साफ रहता है लेकिन मार्च में चक्रवातों के कारण हल्की वर्षा हो जाती है जो गेहूँ की फसल के लिये बहुत अच्छी होती है। शेष महीनों में वर्षा के अभाव के कारण गर्मी बढ़ती जाती है, लेकिन मध्य जून से तेज तूफानी चक्रवाती हवाएँ चलती हैं जिसमें कभी-कभी ओला वृष्टि भी हो जाती है।
दक्षिण-पूर्वी मानसून जून के अन्त से प्रारम्भ होता है तथा मध्य सितम्बर तक चलता है। इसे चौमास कहते हैं। भारी वर्षा से तापमान में भी गिरावट दर्ज की जाती है लेकिन बरसात के रुकते ही तापमान एकाएक बढ़ जाता है। इस समय सामान्यतः तापमान तथा हवा में आर्द्रता अधिक रहती है। वर्षभर की 80 प्रतिशत वर्षा इसी ऋतु में हो जाती है। बादल फटना इस मौसम की एक सामान्य घटना बन गई है। सितम्बर में आर्द्रता घटने के साथ-साथ पाला (ओस) गिरना प्रारम्भ हो जाता है। इस बीच तापमान गिरना प्रारम्भ हो जाता है। अक्टूबर में कहीं-कहीं वर्षा हो जाती है। ऊँचे भागों में इस समय से ही बर्फ गिरनी प्रारम्भ हो जाती है वर्षा का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वर्षभर की वर्षा की मात्रा में तो अन्तर नहीं आता लेकिन समय तथा मात्रा में अन्तर दर्ज किया जा रहा है। वर्षा के बदलते चक्र द्वारा मानवीय कार्यों में भी अन्तर दिखाई देता है। वर्षा चक्र के अनुसार ही फसल चक्र में भी परिवर्तन करने होंगे।
वन एवं बुग्याल
किसी भी स्थान का भूगोल वहाँ के वानस्पतिक आवरण को निर्धारित करता है। वनस्पति वहाँ की विभिन्न पर्यावरणीय दशाओं पर निर्भर करती है। ये दशायें वानस्पतिक पैदावार को ही प्रभावित नहीं करतीं बल्कि प्रजातियों को निर्धारित करने में भी अग्रणी भूमिका का निर्वाह करती हैं। अध्ययन क्षेत्र विभिन्न प्रकार के उच्चावच को लिये है जो भाबर के 500 मीटर ऊँचाई से बृहत हिमालय जो लगभग 7000 मीटर ऊँचाई तक है। वृक्ष रेखा समुद्र तल से 4200 मीटर की ऊँचाई को स्पर्श करती है। यद्यपि सूक्ष्म जलवायु के कारण सूक्ष्म वनस्पति के भी कई क्षेत्र पाये जाते हैं लेकिन ऊँचाई, जलवायु एवं कृषि को दृष्टि में रखते हुए यहाँ की वनस्पतियों को निम्न भागों में विभाजित किया गया है।
शुष्क पतझड़ वन : यह क्षेत्र भाबर तथा दक्षिणी शिवालिक क्षेत्रों में फैला है।
आर्द्र पतझड़ वन : मुख्यतः चम्पावत के दक्षिणी भाग में पाए जाते हैं।
हिमालय उपोष्ण चीड़ के वन : 800 मीटर से 2000 मीटर तक की ऊँचाई के बीच पाए जाते हैं।
हिमालय आर्द्रशीतोष्ण वन : समुद्र सतह से 1800 से 3000 मीटर के मध्य पाए जाते हैं।
शुष्क पर्वतीय झाड़ियों का क्षेत्र : पिथौरागढ़ जनपद के उत्तरी भाग में स्थित है। इस क्षेत्र में अधिकांश वनस्पतियाँ, जड़ी-बूटियाँ, औषधीय पौधे, सुगन्धित पादप, फूल और विभिन्न प्रकार की झाड़ियाँ पाई जाती हैं।
मिट्टी
किसी भी क्षेत्र की मिट्टी की किस्म एवं गुणवत्ता उसकी मूल चट्टान, धरातलीय बनावट एवं भूगर्भिक संरचना पर निर्भर करती है। मिट्टी मूलतः मूल चट्टानों के क्षरण तथा वनस्पतियों के परिणाम स्वरूप बनती है। चट्टान तथा मिट्टी को किसी क्षेत्र के भूगर्भिक इतिहास के पृष्ठ कहते हैं। यहाँ भाबर, शिवालिक तथा नदी घाटियों में बुलई दोमट मिट्टी है जबकि पर्वती क्षेत्रों में पथरीली मिट्टी पाई जाती है। जंगलों में जीवाश्मयुक्त काली/भूरी मिट्टी मिलती है। डोलोमाइट तथा चूने की चट्टानों के क्षेत्र में सफेद कणवाली पथरीली मिट्टी पाई जाती है। नदी-नालों के किनारे दोमट मिट्टी की उपजाऊ वेदिकाएँ हैं। पिथौरागढ़ एवं चम्पावत ही नहीं, अपितु समग्र रूप से पूरे प्रदेश की मिट्टी के वर्गीकरण पर शोध की जरूरत महसूस होती है, जिससे सूक्ष्म स्तर पर कृषि विकास किया जा सके।
जनसंख्या परिदृश्य
पिथौरागढ़ एवं चम्पावत की समग्र रूप में 6,86,831 व्यक्तियों की आबादी 10 तहसील, 12 विकास खण्ड, 2235 गाँवों, 8 नगर क्षेत्र, 87 न्याय पंचायत, 927 ग्राम पंचायत, 9173 वर्ग किमी क्षेत्र में बसी हुई है। अधिकांश आबादी भाबर तथा नदी घाटियों में रहती है। यहाँ जनसंख्या घनत्व 75 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी है जो उत्तराखण्ड में समग्र रूप से 159 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी से आधे से कम है अर्थात इस क्षेत्र का भूगोल अधिक बसाहट के लिये अपेक्षाकृत अनुकूल नहीं है। अपेक्षाकृत समतल/उपजाऊ तथा सिंचाई के साधनों की उपलब्धता के कारण चम्पावत जिले का औसत जनसंख्या घनत्व 112 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी है जबकि चम्पावत की अपेक्षा भौगोलिक दुरूहता के अलावा पिथौरागढ़ जिले का ऊपरी बड़ा हिस्सा जनशून्य है। यहाँ जनसंख्या घनत्व मात्र 64 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। अस्सी प्रतिशत गाँवों की आबादी 200 व्यक्तियों से कम है।
वर्ष 2001 तक चम्पावत एवं पिथौरागढ़ की 85 एवं 87.1 प्रतिशत आबादी गाँवों में निवास करती है। नगरीकरण की दृष्टि से भी यह जिला काफी पीछे है। पिथौरागढ़ में मात्र 12.9 प्रतिशत तथा चम्पावत की 15 प्रतिशत आबादी नगरीय है, जबकि उत्तराखण्ड की 25.7 प्रतिशत आबादी 86 शहर समूहों में रहती है। पिथौरागढ़ एवं चम्पावत में 4-4 नगर समूह हैं। इनमें टनकपुर एवं पिथौरागढ़ नगर पालिकाएँ मुख्य हैं। शेष इकाइयों की आबादी 10 हजार से भी कम है। परिवारों का आकार चम्पावत, पिथौरागढ़ एवं उत्तराखण्ड का औसत 5 ही है। प्रति हजार पुरुषों में महिलाओं की आबादी औसत उत्तराखण्ड (962) से पिथौरागढ़ (1031) एवं चम्पावत (1021) जिलों में अधिक है। क्योंकि यहाँ से पुरुषों का रोजगार या उच्च शिक्षा आदि के लिये पलायन हो जाता है। छः वर्ष से कम आयु की आबादी में लिंगानुपात में अन्तर दिखाई देता है। क्योंकि अन्य क्षेत्रों की भाँति यहाँ भी बालकों की तुलना में बालिकाओं की संख्या कम हो रही है। अन्तर का कारण कन्या भ्रूण हत्या या कन्याओं के लालन-पालन में भेदभाव ही होगा ।
सारणी 1 अध्ययन क्षेत्र: एक दृष्टि में |
|||
मद |
पिथौरागढ़ |
चम्पावत |
उत्तराखण्ड |
कुल क्षेत्रफल (वर्ग किमी) |
7169 |
2004 |
53484 |
कुल जनसंख्या (2001) |
462289 |
224542 |
8489349 |
नगरीय जनसंख्या (प्रतिशत) |
13 |
15 |
25.7 |
तहसील |
6 |
4 |
78 |
विकास खण्ड |
8 |
4 |
95 |
न्याय पंचायत |
64 |
23 |
670 |
ग्राम पंचायत |
644 |
283 |
7227 |
आबाद ग्राम |
1579 |
656 |
15761 |
नगर एवं नगर समूह |
4 |
4 |
86 |
घनत्व (व्यक्ति/वर्ग किमी) |
64 |
112 |
159 |
परिवार आकार (व्यक्ति/परिवार) |
5 |
5 |
5 |
कुल लिंगानुपात (महिला प्रति हजार पुरुषों में) |
1031 |
1021 |
962 |
6 वर्ष से कम आयुवर्ग में लिंगानुपात (महिला प्रति हजार पुरुषों में) |
902 |
934 |
908 |
अनुसूचित जाति में लिंगानुपात (महिला प्रति हजार पुरुषों में) |
990 |
975 |
943 |
अनुसूचित जनजाति में लिंगानुपात (महिला प्रति हजार पुरुषों में) |
1046 |
922 |
950 |
अनुसूचित जाति जनसंख्या (प्रतिशत) |
23 |
17 |
17.9 |
अनुसूचित जनजाति जनसंख्या (प्रतिशत) |
4.2 |
0.3 |
3 |
साक्षरता (सात वर्ष आयु से अधिक) कुल (प्रतिशत) |
75.9 |
70.4 |
71.6 |
पुरुष (प्रतिशत) |
90.1 |
87.3 |
83.3 |
महिला (प्रतिशत) |
62.6 |
54.2 |
59.6 |
निरक्षरता कुल (प्रतिशत) |
42.5 |
51.2 |
47.5 |
पुरुष (प्रतिशत) |
29.9 |
35.6 |
36.5 |
महिला (प्रतिशत) |
54.5 |
66.3 |
58.8 |
कुल कार्यशीलता दर कुल (प्रतिशत) |
43 |
40.2 |
36.9 |
पुरुष (प्रतिशत) |
43.4 |
43.5 |
46.1 |
महिला (प्रतिशत) |
42.6 |
36.9 |
27.3 |
मुख्य कर्मकार (प्रतिशत कुल कार्यशील) |
|||
कुल (प्रतिशत) |
26.8 |
25 |
27.4 |
पुरुष (प्रतिशत) |
31.1 |
32.6 |
37.9 |
महिला (प्रतिशत) |
22.7 |
17.5 |
10.4 |
सीमान्त कर्मकार (प्रतिशत कुल कार्यशील) |
|||
कुल (प्रतिशत) |
16.1 |
15.2 |
9.6 |
पुरुष (प्रतिशत) |
12.3 |
10.8 |
8.3 |
महिला (प्रतिशत) |
19.8 |
19.4 |
10.9 |
अकर्मकार (प्रतिशत कुल जनसंख्या से) कुल (प्रतिशत) |
57 |
59.8 |
63.1 |
पुरुष (प्रतिशत) |
56.6 |
56.5 |
53.9 |
महिला (प्रतिशत) |
57.4 |
63.1 |
72.7 |
कृषक (प्रतिशत कुल कार्यशील) कुल (प्रतिशत) |
67.6 |
69.7 |
50.1 |
पुरुष (प्रतिशत) |
47.7 |
51.9 |
34.3 |
महिला (प्रतिशत) |
87.2 |
90.1 |
77.8 |
कृषि मजदूर (प्रतिशत कुल कार्यशील) कुल (प्रतिशत) |
1.3 |
2 |
8.3 |
पुरुष (प्रतिशत) |
1.2 |
2.2 |
9.5 |
महिला (प्रतिशत) |
1.3 |
1.8 |
6.1 |
गृह उद्योग (प्रतिशत कुल कार्यशील) कुल (प्रतिशत) |
4 |
1.7 |
23 |
पुरुष (प्रतिशत) |
3.6 |
2.2 |
2.2 |
महिला (प्रतिशत) |
4.4 |
1.2 |
2.5 |
अन्य कर्मकार (प्रतिशत कुल कार्यशील) कुल (प्रतिशत) |
27.1 |
26.6 |
39.3 |
पुरुष (प्रतिशत) |
47.4 |
43.8 |
54.6 |
महिला (प्रतिशत) |
7.1 |
6.8 |
13.6 |
स्रोत : सांख्यिकी पत्रिका – 2007 तथा जनगणना 2001 |
जनगणना वर्ष 2001 में पिथौरागढ़ एवं चम्पावत जिलों में क्रमशः 23 एवं 17 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोगों की आबादी रहती है। इसी प्रकार पिथौरागढ़ में 4.2 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं। जबकि चम्पावत में मात्र 0.3 प्रतिशत आबादी इस श्रेणी के अन्तर्गत है। समग्र रूप में पूरे उत्तराखण्ड में 3 प्रतिशत आबादी जनजाति के लोगों की है। भोटिया (शौका) तथा वनराजी ही मुख्य दो जनजातियाँ निवास करती हैं। पिथौरागढ़ के धारचूला एवं मुनस्यारी तहसीलों में सर्वाधिक भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं, जबकि वनराजी मात्र अस्कोट तथा चम्पावत के कुछ गाँवों तक सीमित हैं। वनराजियों की आबादी 1500 से कम है।
साक्षरता की दृष्टि से पिथौरागढ़ में 75.9 प्रतिशत लोग साक्षर हैं जबकि चम्पावत में 70.4 तथा उत्तराखण्ड की औसत साक्षरता मात्र 71.6 है। पुरुष साक्षरता चम्पावत में 87.3 तथा पिथौरागढ़ में 90.1 प्रतिशत है जबकि उत्तराखण्ड में मात्र 83.3 प्रतिशत पुरुष ही साक्षर हैं। महिला साक्षरता की दृष्टि से भी पिथौरागढ़ (62.6 प्रतिशत) अव्वल है जबकि चम्पावत में मात्र 54.2 तथा औसत उत्तराखण्ड में 59.6 प्रतिशत महिलाएँ ही साक्षर हैं। महिला-पुरुष साक्षरता में चम्पावत में सर्वाधिक 33.1 प्रतिशत तथा पिथौरागढ़ में 27.5 प्रतिशत का अन्तर है जबकि समग्र उत्तराखण्ड में यह मात्र 23.7 प्रतिशत है। निरक्षरों में भी महिलाओं की संख्या चम्पावत में सर्वाधिक (66.3 प्रतिशत) है। 80 प्रतिशत से अधिक साक्षरों का स्तर मात्र जूनियर कक्षाओं तक ही होता है। आवश्यकता साक्षरों की संख्या को बढ़ाने की नहीं बल्कि स्तर को बढ़ाने की है जिस और कोई कार्यवाही नहीं होती है।
कर्मकारों का प्रतिशत पिथौरागढ़ (43.0) तथा चम्पावत (40.2) में उत्तराखण्ड के 36.9 प्रतिशत से अधिक है। महिला पुरुष कर्मकारों का प्रतिशत पिथौरागढ़ में लगभग बराबर 43.4 तथा 42.6 प्रतिशत है जबकि चम्पावत में यह 43.5 तथा 36.9 प्रतिशत है। समग्र उत्तराखण्ड में देखें तो महिला कर्मकारों की संख्या मात्र 27.3 प्रतिशत है जबकि मुख्य कर्मकार 46.1 प्रतिशत हैं। इसी प्रकार शेष आबादी अकर्मकारों की श्रेणी में आती है, जबकि सीमान्त कार्यशील आबादी कम है। कुल कर्मकारों में 67.6, 69.7 तथा 60.1 प्रतिशत कृषक क्रमशः पिथौरागढ़, चम्पावत तथा समग्र उत्तराखण्ड में पाए जाते हैं। इनमें पुरुषों से कई गुना अधिक क्रमशः 87.2, 90.1 तथा 77.8 प्रतिशत महिलाएँ क्रमशः पिथौरागढ़, चम्पावत तथा उत्तराखण्ड में कृषक हैं। कृषि मजदूरों की संख्या इन जिलों में बहुत कम है जबकि गृह उद्योगों में 4.0, 1.7 तथा 2.3 प्रतिशत कर्मकार पिथौरागढ़, चम्पावत तथा उत्तराखण्ड में पाए जाते हैं। पिथौरागढ़ जनजातीय क्षेत्र में ऊन द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं के लिये लगभग घर-घर में उद्योग लगे हुए हैं। इसमें भी महिलाओं का ही योगदान अधिक है। ऊनी वस्तुओं में पश्मीना, शॉल, दन, थुलमे, चुटके आदि प्रमुख हैं।
सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में कुल कर्मकारों में से 39.3 प्रतिशत अन्य कार्यों अर्थात सेना, सेवा, व्यापार आदि में संलग्न है। जबकि इसमें पिथौरागढ़ एवं चम्पावत में मात्र 27.1 तथा 26.6 प्रतिशत कर्मकार संलग्न हैं। तृतीय सेवाओं में मात्र 7.1, 6.8 तथा 13.6 प्रतिशत महिलाएँ क्रमशः पिथौरागढ़, चम्पावत तथा औसत उत्तराखण्ड में संलग्न हैं जबकि उक्त तृतीय कार्यों में 47.4, 43.8 तथा 54.0 प्रतिशत पुरुष संलग्न हैं। इससे स्पष्ट होता है कि आज भी महिलाओं की संख्या तृतीयक व्यवसायों में बहुत कम है। इसका कारण है- महिला साक्षरता की दर कम होना। यदि अधिक-से-अधिक महिलाओं को साक्षर बनाया जाए तो तृतीयक व्यवसायों में कर्मशील महिलाओं की भागीदारी में निश्चित वृद्धि होगी।
भू-आर्थिक परिदृश्य
अर्थ एवं संख्या विभाग तथा जनगणना विभाग द्वारा दिये गये कृषि/भूमि उपयोग सम्बन्धी आँकड़ों में थोड़ा अन्तर पाया जाता है। अर्थ एवं संख्या विभाग द्वारा तैयार की गई सांख्यिकीय पत्रिका में मुख्य राजस्व आयुक्त उत्तराखण्ड द्वारा दी गई सांख्यिकी के अनुसार पिथौरागढ़ जिले के कुल प्रतिवेदित क्षेत्रफल में 50 प्रतिशत भूमि वनों के अन्तर्गत है जबकि चम्पावत की 55.5 प्रतिशत तथा समग्र उत्तराखण्ड की 61.1 प्रतिशत भूमि वनों के अन्तर्गत दर्शाई गई है। सुदूर संवेदन मानचित्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उत्तराखण्ड में लगभग 19 प्रतिशत भू-भाग ही वनाच्छादित हैं, शेष भूमि पर वन नहीं हैं। लेकिन यह भूमि वन विभाग के अधीन है। कृषि योग्य बेकार भूमि का प्रतिशत पिथौरागढ़ सर्वाधिक है। चरागाहों के अन्तर्गत भी पिथौरागढ़ के कुल प्रतिवेदित क्षेत्र का 13 प्रतिशत भाग है जबकि चम्पावत में 8 तथा समग्र उत्तराखण्ड में मात्र 4 प्रतिशत भूमि ही इसके अन्तर्गत सम्मिलित है। शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल भी औसत उत्तराखण्ड (13.5 प्रतिशत) से कम है। सिंचाई तो पिथौरागढ़ एवं चम्पावत जिलों में मात्र 8.2 तथा 9.4 प्रतिशत ही है जबकि उत्तराखण्ड में 45 प्रतिशत भूमि पर सिंचाई उपलब्ध है। सभी पर्वतीय जिलों की लगभग यही स्थिति है। उधमसिंह नगर, हरिद्वार एवं देहरादून की सर्वाधिक कृषि भूमि सिंचाई का लाभ उठाती है। पर्वतीय क्षेत्रों के 80 प्रतिशत जोतों का आकार 1 हेक्टेयर से कम है। छोटे-छोटे जोतों के कारण भी कृषि का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है।
इस क्षेत्र के भौगोलिक अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यहाँ संसाधनों की कमी नहीं है। विकास की अपार सम्भावनाएँ बनती हैं। जरूरत है, नियोजित तरीके से विकास करने की। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रत्येक जिम्मेदार अधिकारी, राजनेता एवं नागरिक को कठिन परिश्रम, कार्य के प्रति ईमानदारी तथा अनुशासित होकर कार्य करना होगा। विकास नीति बनाते समय स्थानीय संसाधनों के साथ-साथ अनुभवी स्थानीय लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित करने की जरूरत है।
सारणी 2 |
|||
मद |
पिथौरागढ़ |
चम्पावत |
उत्तराखण्ड |
कुल प्रतिवेदित क्षेत्र (हेक्टेयर) |
410692 |
238378 |
5670110 |
(प्रतिशत) |
100 |
100 |
100 |
वनों के अन्तर्गत |
50 |
55.5 |
61.1 |
ऊसर और खेती के अयोग्य भूमि |
5.1 |
2.3 |
5.5 |
खेती के अतिरिक्त अन्य उपयोग में आने वाली भूमि |
2.4 |
2 |
2.7 |
कृषि योग्य बेकार भूमि |
9.9 |
6.4 |
6.8 |
स्थाई चरागाह तथा अन्य चराई भूमि |
13 |
8 |
4 |
अन्य वृक्षों, झाड़ियों के अन्तर्गत |
6.5 |
11.1 |
4.4 |
वर्तमान परती |
0.3 |
1.2 |
0.8 |
अन्य परती |
1.1 |
2.8 |
1.2 |
शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल |
11.7 |
10.7 |
13.5 |
शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल प्रतिशत |
8.2 |
9.4 |
45 |
स्रोत : सांख्यिकी पत्रिका – 2007, कृषि अर्थ संख्या उप निदेशक कार्यालय, हल्द्वानी |
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