पीपल कथा अनंता


कबीर कह गए हैं कि कुदरत की गति न्यारी और निराली होती है। संसार का नियम सोच-समझ और विचार से परे चलता है। तो क्या कोई कुदरत की कला का पारखी हो सकता है? उरुग्वे और घाना का फुटबॉल विश्व कप का क्वार्टर फाइनल मैच चल रहा था। रात के तीन बज रहे थे। मैच बराबरी पर खत्म होने के बाद पेनल्टी गोल खेले जाने थे। वुवूजुला के शोर के बावजूद एक जबर्दस्त धमाकेदार आवाज घर के अंदर तक सुनाई पड़ी। सोचा बाहर जा कर देखूं, पर मैच का रोमांच छोड़ने का मन नहीं किया। नीचे सड़क का काम चल रहा था। शायद सड़क मरम्मत का सामान रात में गिराया गया है, यह सोच कर मैं मैच देखता रहा।

सुबह उठा तो घर के सामने चहलकदमी के अलावा अजीब-सी फुसफुसाहट सुना। सामने बगीचे में जो विशाल पीपल का पेड़ है उसकी एक बड़ी टहनी रात में अचानक गिर गई। घर की बालकनी से देखने पर पीपल सारा आकाश घेर लेता था और गर्मी में धूप और चौमासे में बरसात से बचाता था। सर्दी में पत्ते छंटते हैं, पर कुछ टहनी कटते ही मस्त धूप आती। सुबह-शाम ढेर सारे पक्षी चहचहाते हैं और सर्दी में या तपती गर्मी में पत्तों की आड़ या छावं लेते हैं। पीपल के आसपास नीलू दीदी ने चबूतरा बनवा दिया था। उस पीपल की छांव में आसपास रहने वालों की गाड़ियां भी रखी जातीं। तीस फुट चौड़ी सड़क को घेर कर पीपल के पेड़ की टहनी बिखरी पड़ी थी। नीचे खड़ी गाड़ियों ने पीपल की मार झेली, यह दिखाई दे रहा था। तीस साल पहले यह पेड़ नीलू ने ही लगाया था। उस टहनी के नीचे आई दो गाड़ियां नीलू की ही थीं। हमारी गाड़ी भी वहीं रहती है। लेकिन रात वहां जगह न होने से कहीं और खड़ी करनी पड़ी। किस्मत की ही बात थी, वरना कंगाली में आटा गीला हो जाता। न बहुत खुशी हुई, न तब दुख होता।

पूर्वी दिल्ली के निर्माण विहार में पहले रहने आए लोगों में सिख माता-पिता की गोद ली हुई गुजराती नीलू ने ही वह और ऐसे अनेक पीपल कॉलोनी में लगाए थे। वे बड़े गर्व से दिखाती और बतातीं। हम आदर और कृतज्ञता से सुनते। कॉलोनी की महिलाएं और कुछ पुरुष वहां सुबह-शाम जल चढ़ाने आते। पीपल की छांव और हरियाली का सारा निर्माण विहार आनंद उठाता। पीपल के नीचे किसी और की गाड़ी खड़ी हो तो नीलू व्यावहारिकता भूल जाती थी। आड़ी-तिरछी गाड़ी खड़ी कर जगह सहेजती थी। भाई की और मेरी गाड़ी के लिए जगह घेर कर रखती।

उस रात पीपल की टहनी बिना आंधी-तूफान के ही गिर गई। दोनो गाड़ियां ‘बॉनजाई’ हो गई थीं। नीलू हताश दिखी उसने शादी नहीं की, लेकिन पीपल और गाड़ी दोनों को ही बच्चे की तरह रखा और पाला था। गाड़ी को महीने में एक-आध बार ही चलाती और पीपल की टहनी को कटने-छंटने नहीं देती थी। अब भी यही बता रही थी कि यह पीपल उन्होंने ही लगाया था। आस-पड़ोस के लोग उनको समझाते दिखे। वे कह रहे थे कि मां-बाप के पाले हुए बच्चे भी धोखा देकर उनको छोड़ जाते हैं। यह तो एक पेड़ है। नीलू इसको मान रही थी कि शायद कोई भयानक घटना टल गई है। उनको देख कर नतीजे पर आना मुश्किल था कि उनको पीपल की टहनी गिरने का दुख ज्यादा है या दो गाड़ियों के टूटने का। गाड़ी की बीमा द्वारा मरम्मत और बिखरी टहनियों को सहेजने की चिंता ज्यादा दिखी। सारा दिन लगा टहनी छाटने और दबी गाड़ियों को निकालने में।

एक ऐसा ही पीपल इंदौर के संयोगितागंज में पचास साल पहले छुटपन में दिलीप चिंचालकर ने भी लगाया था। वह पीपल अब ‘पीपलिया सेठ’ के नाम से जाना जाता है। यानी उस पीपल के आसपास आरामदायक चबूतरा और एक मंदिर बन गया है। आते-जाते लोग वहां आशा में चढ़ावा चढ़ाते हैं। उनकी मन्नत पूरी होने पर फिर आते हैं और फिर चढ़ावा चढ़ाते हैं। इसी से पिपलिया सेठ नाम पड़ गया है। दिलीप चिंचालकर को छुटपन में पीपल के पत्ते की पुंगी बना कर बजाने की लत के कारण ही पीपल का पेड़ लगाना पड़ा था। पचास साल बाद भी वह पीपल अनेक लोगों के अनेक काम आ रहा है। लगाने वाले को गर्व और देखने वाले को सुकून मिलता है।

दुनिया के लगातार बदलते पर्यावरण में ऐसे पीपल, आम और नीम की अनेक कहानियां और किस्से होंगे। जो दुनिया का पर्यावरण शुरुआत से बदलता रहा है, उसका बदलना क्या रोका जा सकता है? पृथ्वी के नाम पर अपने को बचाने के लिए क्या प्रकृति और पर्यावरण के नियम बदले जा सकते हैं? इस बदलते बाजारवादी और उपभोगक्तावादी समाज में होड़ सर्वोपरी हो गई है। मुनाफा महामंत्र है। सर्वोदय से ज्यादा स्वयं-उदय पर ध्यान दिया जा रहा है। पृथ्वी के पर्यावरण को सिर्फ संयत आचरण से ही सहेजा और संभाला जा सकता है।

क्या इसके लिए अपन तैयार हैं?

कबीर कह गए हैं। जैसे लौंग फूल होते हुए भी खुशबू नहीं देता, वहीं चंदन फूल न होते हुए भी खुशबू देता है। वाकाई, कुदरत की गति न्यारी है। उसे संकुचित नहीं किया जा सकता है। संकुचित तो भोगों को ही होना होगा।
 
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