इस अध्याय में हम पीपीपी से संबंधित कुछ संचालन एवं संरचनात्मक लाभों जैसे जोखिम हस्तांतरण, भूमिका विभाजन तथा बुनियादी ढाँचा विकास में अनुबंध उपरांत के परिवर्तन जैसे मुद्दों पर विचार करेंगे।
पीपीपी परियोजनाओं के पक्ष की मुख्य दलीलों में से एक हैं जोखिम हस्तांतरण । आम धारणा यह है कि जब सार्वजनिक और निजी क्षेत्र भागीदारी में परियोजना क्रियांवयन करते हैं तो कुछ जोखिमों, जैसे वाणिज्यिक, वित्तीय, संचालन, निर्माण एवं प्राकृतिक और अपरिहार्य आपदाओं का विभाजन होता है। जिससे सार्वजनिक क्षेत्र अपनी कुछ जोखिमें निजी क्षेत्र पर डाल सकता है।
प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में जोखिमों का हस्तांतरण निजी क्षेत्र पर किया जा सकता है। ऐसी कई मिसालें हैं जिनमें पीपीपी मॉडल के लाभ जैसे जोखिम हस्तांतरण और निवेश के लाभ (वेल्यू फॉर मनी) मूल्यांकन में विरोधाभासी प्रमाण पाए गए हैं जबकि पीपीपी परियोजनाओं के सौदा समझौतों में सार्वजनिक एजेंसियों ने पाया है कि जोखिमों से दूर रहने की निजी क्षेत्र की प्रवृत्ति के कारण जोखिमों का हस्तांतरण कठिन हो जाता है। यदि सार्वजनिक क्षेत्र या सरकार परियोजना क्रियान्वित करने वाली निजी कंपनी पर जोखिम हस्तांतरण के लिए ज्यादा दबाव डालती है तो परियोजना की कीमत उसी अनुपात में बढ़ जाती है। इसका सीधा अर्थ है कि परियोजना से संबंधित जितनी जोखिमें निजी कंपनी लेती है परियोजना की लागत उतनी ही बढ़ती जाती है। दूसरी ओर बढ़ती बनावटी लागत वृद्धि (कॉस्ट पेडिंग) को कम करने के लिए यदि सरकार जोखिम उठाती है तो वह निजी क्षेत्र को जोखिमों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने के लिए गारंटियों, ऋणों, अनुदानों और अंश पूँजी में सहभागिता आदि जैसे प्रावधानों पर ज्यादा धन खर्च करती है।
पीपीपी पर संयुक्त राष्ट्र की मार्गदर्शिका की टिप्पणी है कि ‘‘ऐसे अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा सरकार परियोजना को सहायता दे सकती है जिससे निजी क्षेत्र की जोखिमें कम हो सकती हैं। उदाहरण के लिए गारंटियाँ देना उपयुक्त सरकारी हस्तक्षेप हो सकता है, विशेषकर निजी क्षेत्र को उन जोखिमों से बचाने के लिए जिनका वह अंदाजा और नियंत्रण नहीं कर सकता है। वास्तव में कई पीपीपी अनुबंध न्यूनतम आय की गारंटी देते हैं, जो निजी क्षेत्र द्वारा दी जाने वाली सेवा की माँग में कमी की जोखिमों को कम करते हैं’’।
आईएमएफ के एक अध्ययन में कहा गया है -
‘‘पीपीपी व्यवस्थाओं में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में जोखिम विभाजन एक प्रमुख मुद्दा है या ज्यादा सही रूप से कहा जाए तो जोखिमों का सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में हस्तान्तरण......... ज्यादातर जोखिमें बाहरी कारकों पर निर्भर होती है और निजी क्षेत्र उसमें (जोखिमें सहन करने में) सार्वजनिक भागीदार से इस मामले में न तो ज्यादा जानकार होता है और न इसे सहन करने या इसके प्रबंधन में ज्यादा दक्ष होता है। इसके विपरीत ऐसा तर्क दिया जा सकता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की जोखिमों से दूर रहने की प्रवृत्ति निजी क्षेत्र की अपेक्षा कम होती है। अतः उसे ही बाहरी कारकों से होने वाले सभी जोखिमों को सहन करना चाहिए।’’
सार्वजनिक सेवाओं की यूनियनों के यूरोपियन फेडरेशन की एक रिपोर्ट दर्शाती है -
‘‘उदाहरण के लिए ऐसे अनुबंध किए जा सकते हैं जिसमें निर्माण में विलम्ब की जोखिम का हस्तांतरण ठेकेदार पर हो, परंतु ऐसे ठेके पारम्परिक ठेकों की तुलना में 25% महँगे होंगे। पीपीपी और जोखिमों के बारे में एक आर्थिक विश्लेषण ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भले ही पीपीपी मॉडल का उपयोग हो यह अधिकतम कार्यक्षमता होगी कि माँग-जोखिम निजी क्षेत्र के बजाय सरकार के पास रहें-और इसलिए निजी क्षेत्र को जोखिम हस्तांतरण के लिए पैसा देना मात्र धन की बर्बादी होगी।’’
इस प्रकार पीपीपी परियोजना के अंतर्गत जोखिम हस्तांतरण सरकार के लिए तलवार की धार पर चलने के बराबर है क्योंकि सरकार द्वारा ज्यादा जोखिम लेने पर निजी कंपनी पूर्णतः जोखिम मुक्त हो सकती है। सार्वजनिक क्षेत्र पर जोखिम डालने से निजी कंपनियों को अत्यधिक मुनाफा कमाने की छूट मिल सकती है। दूसरी ओर, निजी कंपनी पर ज्यादा जोखिम हस्तांतरण करने से परियोजना की लागत बढ़ सकती है और यह परियोजना को ही अव्यावहारिक बना सकता है।
निजी पनबिजली परियोजनाओं और उससे जुड़े जलविज्ञान संबंधी (हाईड्रोलॉजिकल) जोखिमों पर ध्यान दें। जैसा कि श्रीपाद धर्माधिकारी ने इंगित किया है -
‘‘एक पनबिजली परियोजना एक निश्चित मात्रा में विद्युत पैदा करने के लिए बनाई जाती है जिसे परियोजना की रूपांकन ऊर्जा (डिज़ाइन इनर्जी) कहते हैं। इस ऊर्जा की गणना मूल रूप से नदी में पानी के बहाव पर निर्भर करती है। चूँकि नदी में बहाव साल-दर-साल बदलता है इसलिए रूपांकन ऊर्जा कुछ खास कारकों पर आधारित होती है, जो जल बहाव के लम्बे समय के आँकड़ों पर निर्भर है‘‘।
‘‘नए नियमों के अनुसार प्रथम दस वर्षों में किसी भी वर्ष में यदि विद्युत उत्पादन डिजाइन इनर्जी से कम हो तो भी परियोजना को पूरी रूपांकन ऊर्जा का मूल्य चुकाया जाएगा। चूँकि वास्तविक विद्युत प्रदाय कम होता है अतः उपभोक्ताओं को बिजली की अत्यंत ऊँची दरों का भुगतान करना पड़ेगा। इस प्रक्रिया में, हाइड्रोलोजिकल जोखिम (नदी में पानी का बहाव उम्मीद से कम होना) उपभोक्ता पर डाल दी गई है। दस वर्षों बाद भी परियोजना निर्माता द्वारा केवल 50% हाईड्रोलोजिकल जोखिम ही उठाई जाएगी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका उल्टा नहीं होता है। उन वर्षों में जब नदी में पानी का प्रवाह ज्यादा होता है और बिजली उत्पादन रूपांकन ऊर्जा से अधिक होता है तो परियोजना निर्माता को इस बढ़े हुए उत्पादन से फायदा होता है।
‘‘जब परियोजना सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी द्वारा चलाई जाती है तब यह बढ़ा हुआ लाभ व्यापक जनहित में काम आता है, ऐसा कम से कम माना तो जा सकता है। निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा बिजली उत्पादन के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि जोखिमों का भार जनता उठाए और निजी क्षेत्र मुनाफा कमाकर चलता बने।’’
पीपीपी के पक्ष में संचालन संबंधी एक और तर्क है जो जोखिम हस्तांतरण के गहराई से जुड़ा है वह है निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की भागीदारी में उचित भूमिका विभाजन का। इसका मतलब है कि दोनों क्षेत्रों की क्षमताओं आरै कमजोरियों के मद्देनजर उनकी भूमिकाओं का विभाजन होता है।
उदाहरण के लिए नागपुर और तिरूपुर में जलप्रदाय परियोजना के संचालन की योजना बनाते समय भूमिकाएँ इस आधार पर बाँटी गई कि कौन क्या बेहतर कर सकता है। इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र को प्राकृतिक जल श्रोतों की जोखिम उठाने, परियोजना को वित्तीय मदद देने, माँग की जोखिम उठाने, वैधानिक और प्रशासकीय सहायता देने, पूर्व निर्धारित दरों पर सेवाओं को क्रय करने और परियोजना क्षेत्र के नागरिकों के प्रति जवाबदेह होने की भूमिका मिली। निजी सहयोगी अधिकतम निर्माण, पुनर्वास, रखरखाव की जोखिम उठायेगा और निवासियों को जलप्रदाय सेवा देगा। परंतु न तो वह माँग, वित्तीय और संसाधन संबंधी जोखिमें लेगा और न ही जनता के प्रति जवाबदेह होने की जोखिम लेगा। पीपीपी के अंतर्गत निजी क्षेत्र परियोजना में बड़ी जोखिमों और भूमिकाओं का निर्वहन करता है, यह मात्र सतही तर्क है। वास्तव में विभिन्न अनुभव बतलाते हैं कि निजी क्षेत्र सरकार से अन्य भूमिकाओं की अपेक्षाएँ भी रखता है जैसे वह अनुमति, ऋण अदायगी में चूक और वित्तीय तरलता आदि के मामलों में वैधानिक, प्रशासनिक और वित्तीय सहयोग प्रदान करेगी।
वर्तमान पीपीपी मॉडल में निजी क्षेत्र को न्यूनतम और सार्वजनिक क्षेत्र को अधिकतम भूमिकाएँ और जोखिमें दी जाती हैं। प्रभावी रूप से इसका मतलब यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र परियोजना का अधिकांश भार अपने ऊपर ले लेता है और निजी क्षेत्र भाड़े पर सिर्फ सेवा प्रदान करता है। ऐसा बिना जवाबदेही का सेवाप्रदाता इस आधार पर लिया जाता है कि वह बेहतर कार्यक्षमता रखता है। जबकि, निसंदेह निजी क्षेत्र की कार्यक्षमता सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यक्षमता से बहुत बेहतर नहीं है और ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने बेहतर योग्यता के साथ विभिन्न सेवाएँ दी हैं, जिसमें जल क्षेत्र भी शामिल है।
पीपीपी मॉडल में एक महत्त्वपूर्ण पक्ष भूमिका विभाजन का है जिसमें यह भी आता है कि एक ही समय में सरकार द्वारा विभिन्न भूमिकाओं के निर्वहन से आपसी टकराव होता है। जैसा कि हॉज और ग्रीव ने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन रिव्यु में लिखा है -
‘........सरकार स्पष्टतः अपनी संरक्षक की भूमिका से हटकर प्रबल नीति समर्थक की भूमिका में आ चुकी है। परिणामस्वरूप हम समझ सकते हैं कि सरकार अब खुद को दायित्वों के बहुआयामी विवादों में घिरा पाती है। नीति समर्थक, आर्थिक विकासकर्ता, सार्वजनिक वित्त संरक्षक, नीति निर्धारण के लिए निर्वाचित जन प्रतिनिधि, अनुबंध काल में नियामक, अनुबंध पर व्यावसायिक हस्ताक्षरकर्ता और नियोजनकर्ता आदि की भूमिकाओं में लम्बे समय के जनहित किस प्रकार से श्रेष्ठ तरीके से संरक्षित और पोषित हो सकते हैं, इस पर विचार करने के लिए अनुभवों पर आधारित बहसों की आवश्यकता है, विशेषकर नागरिकों की इन चिंताओं के परिप्रेक्ष्य में कि पीपीपी में कम पारदर्शिता और बड़ी भारी जटिलताएँ हैं।’’
सार्वजनिक सेवा परिसंपत्तियों के संचालन, प्रबंधन और स्वामित्व की भूमिका का विभाजन निजी कंपनियों और सार्वजनिक उपक्रमों के बीच गंभीर विवादास्पद स्थितियों को जन्म देता है। एक तरफ निजी कंपनी अपने भागीदारों और निवेशकों को अधिकतम लाभ देना चाहती है वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक उपक्रम न्यूनतम खर्च पर समुदायों को लाभ पहुँचाना चाहते हैं, सार्वजनिक सेवाओं को समान रूप से फैलाना चाहते हैं और निर्वाचित सरकार और कल्याणकारी राज्य की सामाजिक जिम्मेदारी पर खरा उतरना चाहते हैं।
ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जब सार्वजनिक एजेंसियाँ अपने उपर्युक्त दायित्वों का निर्वहन न कर पा रही हों फिर भी अंततः निर्वाचित प्रतिनिधियों को अपने निर्वाचकों के सामने जाना पड़ता है और वे जनता के प्रति सीधे-सीधे उत्तरदायी होते हैं। सार्वजनिक सेवाओं में सुधार की निश्चित रूप से आवश्यकता है और उन्हें जनता के प्रति और अधिक जवाबदेह बनाया जाना चाहिए, किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि निजी कंपनियों को लाया जाए जो जनता के प्रति सार्वजनिक क्षेत्र से कम जवाबदेह हैं।
पीपीपी समर्थक वास्तव में इसी प्रकार के तर्क देते रहते हैं कि परियोजना में जोखिम उपयुक्त (सार्वजनिक क्षेत्र) भागीदार द्वारा उठाई जाना चाहिए। प्रभावी रूप से यह उनकी स्वीकारोक्ति है कि सार्वजनिक क्षेत्र की क्षमताएँ अधिक हैं और वह ज्यादा जोखिम ले सकता है। इसका यह मतलब भी है कि वे स्पष्टतः चाहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र ज्यादा जोखिम ले ताकि निजी कंपनियों को सार्वजनिक सेवाओं से मुनाफा कमाना आसान हो।
यह अनेक अनुभवों और परियोजना अनुबंधों के आधार पर दर्शाती है कि अधिकांश जोखिमें सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा वहन की जाती हैं जिसमें स्वामित्व, वित्त, कानून और प्राकृतिक दृष्टि से अपरिहार्य जोखिमें शामिल हैं। निजी क्षेत्र डिज़ाइन, निर्माण, और संचालन की जोखिमें लेता है। इसमें से भी संचालन संबंधी जोखिमों की भरपाई सरकार द्वारा थोक फीस, गारंटियों, लो या कीमत चुकाओ (टेक ऑर पे) की शर्तों और संभावित आय आदि से कर दी जाती है।
सामान्यतः देखा गया है कि कई कंपनियाँ कम कीमत और कम शुल्क पर अनुबंध इस आधार पर हस्ताक्षर कर लेती हैं कि लोगों की निजीकरण के प्रति प्रतिक्रिया न हो। लेकिन बाद में नगरनिकाय अथवा सरकार पर अनुचित दबाव डालकर शर्तें बदलवाने की कोशिश की जाती हैं। सार्वजनिक सेवाओं में व्यवधान उत्पन्न न हो इसलिए इनकी माँगें मान ली जाती हैं। इसी को अनुबंध के बाद वाला बदलाव कहा जाता है।
इस संदर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हवाई अड्डों, ऊर्जा और जल क्षेत्र की पीपीपी परियोजनाओं में अनुबंध के बाद किस प्रकार के बदलाव प्रभावी रूप से किए गए हैं। ये बदलाव प्रतिस्पर्द्धि और शुल्क आधारित नीलामी की सार्थकता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नीलामी के वक्त कंपनियाँ परियोजना लागत कम दर्शाकर परियोजना के लिए लोकप्रिय समर्थन जुटा लेती हैं। साथ ही, यह उम्मीद भी रखती है कि क्रियांवयन या संचालन के समय इस पर पुनर्विचार किया जा सकेगा।
उदाहरण के लिए हम दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद और बैंगलोर (बैंगलुरु) हवाई अड्डों की निजी परियोजनाओं पर विचार करें जो पीपीपी मॉडल के तहत विकसित किए गए हैं। मीडिया रिपोर्टें खुलासा करती है कि नए निजी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे यात्रियों से प्रत्येक घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय उड़ान के लिए मुंबई में क्रमशः 100 रुपए और 600 रुपए तथा दिल्ली में 200 रुपए और 1300 रुपए हवाई अड्डा विकास शुल्क वसूल करेंगें अनुबंध की शर्तों में यह बदलाव सरकार और निजी कंपनियों के बीच करार पर दस्तखत होने के बहुत बाद में किया गया।
इसी प्रकार हैदराबाद और बैंगलोर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों में भी यात्रियों से उपभोक्ता विकास शुल्क (यूज़र डेवलपमेंट फीस) वसूला जाना शुरू कर दिया गया है। हैदराबाद में यह घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए क्रमशः 375 रुपए और 1000 रुपए तथा बैंगलोर में 260 रुपए और 1070 रुपए प्रति यात्री है।
बाद के समाचारों के अनुसार इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (आईएटीए) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी जियोवानी बरसिगनानी ने कुआलालम्पुर (मलेशिया) में आईएटीए की 65 वीं वार्षिक सामान्य सभा और विश्व हवाई यातायात के शिखर सम्मेलन में बोलते हुए दिल्ली तथा मुंबई के हवाई अड्डों के द्वारा विकास शुल्क बढ़ाए जाने की आलोचना की थी। बरसिगनानी ने कहा कि, ‘‘दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डों का आईएटीए की इज्जत मिट्टी में मिलाने वालों (wall of shame) में एक विशेष स्थान है। उन्होंने कहा कि दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डे अपनी 207% शुल्क वृद्धि के साथ संकट पैदा करने में सबसे बुरे भागीदार हैं। इस बकवास के लिए भविष्य में कोई स्थान नहीं है। जब माँग घटती है तब सेवाप्रदाता द्वारा थोड़े उपभोक्ताओं पर वही लागत विभाजित नहीं की जा सकती है’’।
जलक्षेत्र में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ निजी कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए अनुबंध के बाद शर्तों में बदलाव किए गए हैं। उदाहरण के लिए मेट्रो मनीला जल प्रदाय एवं मलनिकास परियोजना को लें जहाँ कंपनी अनुबंध की शर्तों के तहत दरें कम करने को बाध्य थी और उसने दावा भी किया कि आधे शहर में जलप्रदाय शुल्क में 50% तथा शेष में 75% कमी कर दी गई है। लेकिन, अगस्त 1996 में निजीकरण अनुबंध हस्ताक्षरित होने से कुछ ही पहले जलप्रदाय शुल्क में 38% की वृद्धि कर दी गई थी। इस प्रकार निजीकरण अनुबंध के 1997 में हस्ताक्षरित होने के बाद दावे के विपरीत वास्तव में शुल्क दर तेजी से बढ़ने लगी। 2003 तक यह दरें 500% तक बढ़ गई। पश्चिम क्षेत्र में यह बढ़त 1997 की 4.96 फिलीपीन पेसो/घन मीटर से 24 फिलीपीन पेसो और पूर्वी क्षेत्र में 2.32 फिलीपीन पेसो से 14 फिलीपीन पेसो हो गई। निजीकरण पूर्व यह दर 8.78 फिलीपीन पेसो थी। पुनः 2002 में दो ठेकेदारों में से एक ने 100% शुल्क वृद्धि की माँग की और जब इससे इनकार किया गया तो उसने दिसंबर 2002 में परियोजना समाप्ति का नोटिस दे दिया।
इसी प्रकार ब्यूनस आयर्स (अर्जेंटीना) में यह दावा किया गया कि निजीकरण से जलप्रदाय शुल्क दर में कमी हुई है। परंतु निजीकरण करने से पूर्व फरवरी 1991 में सरकार ने दरें 25% बढ़ा दी तथा पुनः अप्रैल 1991 में 29% और बढ़ा दी। अप्रैल 1992 में जलप्रदाय के बिलों में 18% वस्तु व सेवा शुल्क जोड़ दिया गया। निजीकरण से कुछ माह पूर्व इसमें भी 8% की वृद्धि कर दी गई। इन वृद्धियों के कारण कंपनी ने निजीकरण के कुछ माह के भीतर ही दरों में 27% बनावटी कमी की। लेकिन वास्तव में यह कोई कमी नहीं बल्कि प्रभावी रूप से 20% की वृद्धि थी क्योंकि पानी की कीमतें पहले ही काफी बढ़ा दी गई थीं। इसके बाद भी शुल्क दर की जारी रही।
इसी प्रकार की बातें बोलिविया के अल अल्टो और ला पाज शहरों में हुई जहाँ एक फ्रान्सीसी निजी कंपनी स्वेज को जल वितरण का ठेका दिया गया था। ‘इम्पीरियल नेचर’ में माईकल गोल्डमेन लिखते हैं-
‘‘मौजूदा अनुबंधित (और नैतिक) वादों से कि सबको पानी दिया जाएगा अपने आपको कैसे भी बचाने के लिए जलप्रदाय कंपनियाँ कानूनी अनुबंध की भाषा को पुनर्परिभाषित कर रही है। उदाहरणार्थ बोलिविया के ला पाज शहर में स्वेज ने अपने अनुबंध के अनुसार हाल ही में तर्क दिया कि अल अल्टो की झुग्गी बस्तियों को जल वितरण व्यवस्था से जोड़ने के लिए ‘कनेक्शन’ का मतलब मात्र ‘पाइप कनेक्शन’ ही नहीं होकर उसका मतलब ‘सार्वजनिक नल तक पहुँच या टेंकर’ से भी हो सकता है - यह ठीक वही शर्त है जिसे अभी तक पानी की कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारीगण और उच्चवर्गीय अंतर्राष्ट्रीय नीतिगत नेटवर्क सार्वजनिक सेवाओं के तहत इसे दयनीय करार दे रहे थे।’’
भारतीय संदर्भ में तिरूपुर परियोजना पीपीपी के तहत देश की पहली औद्योगिक और घरेलू जलप्रदाय परियोजना है। इस परियोजना का संचालन 2005 के मध्य में ही प्रारंभ हुआ था और अभी से इस पर संकट के बादल मँडराते नजर आने लगे हैं। परियोजना का प्रारंभ बड़ी धूमधाम से किया गया और उससे 185 एमएलडी पानी तिरूपुर के उद्योगों और क्षेत्र के घरों को दिया जाना था। किन्तु ’’हिन्दू’’ समाचार पत्र की रपट में लिखा गया है-‘‘जलप्रदाय तथा मलनिकासी की सार्वजनिक-निजी कंपनी न्यू तिरूपुर एरिया डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एनटीएडीसीएल) डेट रिस्ट्रक्चरिंग (ऋण की शर्तों में बदलाव) का प्रयास कर रही है क्योंकि क्षमता से कम उपयोग के कारण उसके राजस्व पर भारी असर पड़ा है।’’ रिपोर्ट में आगे कहा है-‘‘वर्ष 2008-09 में एनटीएडीसीएल ने $ 70 करोड़ का घाटा उठाया है। अब तक कुल मिलाकर उसका घाटा $ 177 करोड़ हो गया है। इसके लिए उसने राज्य सरकार से $ 65 करोड़ की सहायता की माँग की है ताकि आईडीबीआई के नेतृत्व वाले बैंकों के संगठन से उसे डेट रिस्ट्रक्चरिंग में सहयोग मिल सके’’। समाचार रपट में आगे कहा है –
‘‘जलप्रदाय 2005 के मध्य में प्रारंभ हुआ परंतु अपनी क्षमता से आधे तक भी नहीं पहुँचा। 185 एमएलडी की क्षमता में से 130 एमएलडी पानी उद्योगों को $ 55 प्रति किलोलीटर तथा शेष घरेलू उपभोक्ताओं को रियायती दर $ 3.5 प्रति किलोलीटर पर दिया जाना था। एनटीएडीसीएल के लिए पानी की पंम्पिग, ट्रीटमेंट और सप्लाई का खर्च $ 41.70 प्रति किलोलीटर है, परंतु एनटीएलडीसीएल के कुल 100 एमएलडी जलप्रदाय में से 45 एमएलडी घरेलू उपभोक्तओं को दिया जा रहा है। जबकि उद्योगों की वास्तविक माँग अनुमानित माँग के मुकाबले एक तिहाई तक भी नहीं पहुँची है। सूत्रों का कहना है कि इसका मतलब है कि एनटीएलडीसीएल प्रतिमाह $ 5.2 करोड़ का घाटा उठा रहा है। कम क्षमता के उपयोग का कारण आर्थिक मंदी है जिससे कपड़ा निर्यात प्रभावित हुआ है।’’
इसी प्रकार रिलायन्स पॉवर लिमिटेड की म॰प्र॰ स्थित सासन अल्ट्रा मेगा पॉवर परियोजना (यूएमपीपी) के मामले में भी सरकार द्वारा परियोजना को चलाने के लिए दी गई अनुबंध पश्चातवर्ती छूटों पर गंभीर विवाद खड़े हुए हैं। उपर्युक्त घटनाएँ इस तथ्य को उजागर करती हैं कि प्रतिस्पद्र्धी नीलामी प्रक्रिया की निष्पक्षता में दम नहीं है। यहाँ तक कि अनुबंध की शर्तें भी इतनी सशक्त नहीं होती हैं कि वह निजी लाभ प्राप्ति पर नियंत्रण रख सकें तथा अनुबंधकर्ता को शर्तों के खिलाफ काम करने से रोक सकें। जब मामला पानी जैसी आवश्यक, सार्वजनिक सेवा का मामला हो तो यह अत्यधिक भयावह हो सकता है। वहीं उनकी माँग न मानने पर अचानक अनुबंध समाप्ति की धमकियाँ या सेवाप्रदाय से इंकार या संचालन बंद कर देने आदि हथकण्डों से निजी कंपनियाँ सरकार से वक्त-बे-वक्त फिरौती वसूल सकती हैं।
इकॉनॉमिक टाइम्स के एक हाल के एक आलेख में सारगर्भित तरीके से लिखा गया है-‘‘अनुबंध के पुनर्विचार एक स्पष्ट संकेत देते हैं कि सरकार न केवल अनुबंधीय शर्तों से खेलने की अनुमति देती है बल्कि पूरे अनुबंध पर ही पुनर्विचार के लिए सहमत होती है। अतः निवेशक पीपीपी अनुबंधों पर हस्ताक्षर करने के पूर्व और बाद में भी वित्तीय तथा अन्य लाभों के लिए मोलभाव कर सकते हैं। स्पष्टतः ऐसे पुनर्विचारों से बुनियादी ढाँचे के उपयोगकर्ताओं और व्यापक रूप से करदाताओं पर अतिरिक्त भार बढ़ जाता है’’।
जोखिम हस्तांतरण
पीपीपी परियोजनाओं के पक्ष की मुख्य दलीलों में से एक हैं जोखिम हस्तांतरण । आम धारणा यह है कि जब सार्वजनिक और निजी क्षेत्र भागीदारी में परियोजना क्रियांवयन करते हैं तो कुछ जोखिमों, जैसे वाणिज्यिक, वित्तीय, संचालन, निर्माण एवं प्राकृतिक और अपरिहार्य आपदाओं का विभाजन होता है। जिससे सार्वजनिक क्षेत्र अपनी कुछ जोखिमें निजी क्षेत्र पर डाल सकता है।
प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में जोखिमों का हस्तांतरण निजी क्षेत्र पर किया जा सकता है। ऐसी कई मिसालें हैं जिनमें पीपीपी मॉडल के लाभ जैसे जोखिम हस्तांतरण और निवेश के लाभ (वेल्यू फॉर मनी) मूल्यांकन में विरोधाभासी प्रमाण पाए गए हैं जबकि पीपीपी परियोजनाओं के सौदा समझौतों में सार्वजनिक एजेंसियों ने पाया है कि जोखिमों से दूर रहने की निजी क्षेत्र की प्रवृत्ति के कारण जोखिमों का हस्तांतरण कठिन हो जाता है। यदि सार्वजनिक क्षेत्र या सरकार परियोजना क्रियान्वित करने वाली निजी कंपनी पर जोखिम हस्तांतरण के लिए ज्यादा दबाव डालती है तो परियोजना की कीमत उसी अनुपात में बढ़ जाती है। इसका सीधा अर्थ है कि परियोजना से संबंधित जितनी जोखिमें निजी कंपनी लेती है परियोजना की लागत उतनी ही बढ़ती जाती है। दूसरी ओर बढ़ती बनावटी लागत वृद्धि (कॉस्ट पेडिंग) को कम करने के लिए यदि सरकार जोखिम उठाती है तो वह निजी क्षेत्र को जोखिमों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने के लिए गारंटियों, ऋणों, अनुदानों और अंश पूँजी में सहभागिता आदि जैसे प्रावधानों पर ज्यादा धन खर्च करती है।
पीपीपी पर संयुक्त राष्ट्र की मार्गदर्शिका की टिप्पणी है कि ‘‘ऐसे अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा सरकार परियोजना को सहायता दे सकती है जिससे निजी क्षेत्र की जोखिमें कम हो सकती हैं। उदाहरण के लिए गारंटियाँ देना उपयुक्त सरकारी हस्तक्षेप हो सकता है, विशेषकर निजी क्षेत्र को उन जोखिमों से बचाने के लिए जिनका वह अंदाजा और नियंत्रण नहीं कर सकता है। वास्तव में कई पीपीपी अनुबंध न्यूनतम आय की गारंटी देते हैं, जो निजी क्षेत्र द्वारा दी जाने वाली सेवा की माँग में कमी की जोखिमों को कम करते हैं’’।
आईएमएफ के एक अध्ययन में कहा गया है -
‘‘पीपीपी व्यवस्थाओं में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में जोखिम विभाजन एक प्रमुख मुद्दा है या ज्यादा सही रूप से कहा जाए तो जोखिमों का सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में हस्तान्तरण......... ज्यादातर जोखिमें बाहरी कारकों पर निर्भर होती है और निजी क्षेत्र उसमें (जोखिमें सहन करने में) सार्वजनिक भागीदार से इस मामले में न तो ज्यादा जानकार होता है और न इसे सहन करने या इसके प्रबंधन में ज्यादा दक्ष होता है। इसके विपरीत ऐसा तर्क दिया जा सकता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की जोखिमों से दूर रहने की प्रवृत्ति निजी क्षेत्र की अपेक्षा कम होती है। अतः उसे ही बाहरी कारकों से होने वाले सभी जोखिमों को सहन करना चाहिए।’’
सार्वजनिक सेवाओं की यूनियनों के यूरोपियन फेडरेशन की एक रिपोर्ट दर्शाती है -
‘‘उदाहरण के लिए ऐसे अनुबंध किए जा सकते हैं जिसमें निर्माण में विलम्ब की जोखिम का हस्तांतरण ठेकेदार पर हो, परंतु ऐसे ठेके पारम्परिक ठेकों की तुलना में 25% महँगे होंगे। पीपीपी और जोखिमों के बारे में एक आर्थिक विश्लेषण ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भले ही पीपीपी मॉडल का उपयोग हो यह अधिकतम कार्यक्षमता होगी कि माँग-जोखिम निजी क्षेत्र के बजाय सरकार के पास रहें-और इसलिए निजी क्षेत्र को जोखिम हस्तांतरण के लिए पैसा देना मात्र धन की बर्बादी होगी।’’
इस प्रकार पीपीपी परियोजना के अंतर्गत जोखिम हस्तांतरण सरकार के लिए तलवार की धार पर चलने के बराबर है क्योंकि सरकार द्वारा ज्यादा जोखिम लेने पर निजी कंपनी पूर्णतः जोखिम मुक्त हो सकती है। सार्वजनिक क्षेत्र पर जोखिम डालने से निजी कंपनियों को अत्यधिक मुनाफा कमाने की छूट मिल सकती है। दूसरी ओर, निजी कंपनी पर ज्यादा जोखिम हस्तांतरण करने से परियोजना की लागत बढ़ सकती है और यह परियोजना को ही अव्यावहारिक बना सकता है।
निजी पनबिजली परियोजनाओं और उससे जुड़े जलविज्ञान संबंधी (हाईड्रोलॉजिकल) जोखिमों पर ध्यान दें। जैसा कि श्रीपाद धर्माधिकारी ने इंगित किया है -
‘‘एक पनबिजली परियोजना एक निश्चित मात्रा में विद्युत पैदा करने के लिए बनाई जाती है जिसे परियोजना की रूपांकन ऊर्जा (डिज़ाइन इनर्जी) कहते हैं। इस ऊर्जा की गणना मूल रूप से नदी में पानी के बहाव पर निर्भर करती है। चूँकि नदी में बहाव साल-दर-साल बदलता है इसलिए रूपांकन ऊर्जा कुछ खास कारकों पर आधारित होती है, जो जल बहाव के लम्बे समय के आँकड़ों पर निर्भर है‘‘।
‘‘नए नियमों के अनुसार प्रथम दस वर्षों में किसी भी वर्ष में यदि विद्युत उत्पादन डिजाइन इनर्जी से कम हो तो भी परियोजना को पूरी रूपांकन ऊर्जा का मूल्य चुकाया जाएगा। चूँकि वास्तविक विद्युत प्रदाय कम होता है अतः उपभोक्ताओं को बिजली की अत्यंत ऊँची दरों का भुगतान करना पड़ेगा। इस प्रक्रिया में, हाइड्रोलोजिकल जोखिम (नदी में पानी का बहाव उम्मीद से कम होना) उपभोक्ता पर डाल दी गई है। दस वर्षों बाद भी परियोजना निर्माता द्वारा केवल 50% हाईड्रोलोजिकल जोखिम ही उठाई जाएगी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका उल्टा नहीं होता है। उन वर्षों में जब नदी में पानी का प्रवाह ज्यादा होता है और बिजली उत्पादन रूपांकन ऊर्जा से अधिक होता है तो परियोजना निर्माता को इस बढ़े हुए उत्पादन से फायदा होता है।
‘‘जब परियोजना सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी द्वारा चलाई जाती है तब यह बढ़ा हुआ लाभ व्यापक जनहित में काम आता है, ऐसा कम से कम माना तो जा सकता है। निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा बिजली उत्पादन के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि जोखिमों का भार जनता उठाए और निजी क्षेत्र मुनाफा कमाकर चलता बने।’’
भूमिका विभाजन
पीपीपी के पक्ष में संचालन संबंधी एक और तर्क है जो जोखिम हस्तांतरण के गहराई से जुड़ा है वह है निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की भागीदारी में उचित भूमिका विभाजन का। इसका मतलब है कि दोनों क्षेत्रों की क्षमताओं आरै कमजोरियों के मद्देनजर उनकी भूमिकाओं का विभाजन होता है।
उदाहरण के लिए नागपुर और तिरूपुर में जलप्रदाय परियोजना के संचालन की योजना बनाते समय भूमिकाएँ इस आधार पर बाँटी गई कि कौन क्या बेहतर कर सकता है। इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र को प्राकृतिक जल श्रोतों की जोखिम उठाने, परियोजना को वित्तीय मदद देने, माँग की जोखिम उठाने, वैधानिक और प्रशासकीय सहायता देने, पूर्व निर्धारित दरों पर सेवाओं को क्रय करने और परियोजना क्षेत्र के नागरिकों के प्रति जवाबदेह होने की भूमिका मिली। निजी सहयोगी अधिकतम निर्माण, पुनर्वास, रखरखाव की जोखिम उठायेगा और निवासियों को जलप्रदाय सेवा देगा। परंतु न तो वह माँग, वित्तीय और संसाधन संबंधी जोखिमें लेगा और न ही जनता के प्रति जवाबदेह होने की जोखिम लेगा। पीपीपी के अंतर्गत निजी क्षेत्र परियोजना में बड़ी जोखिमों और भूमिकाओं का निर्वहन करता है, यह मात्र सतही तर्क है। वास्तव में विभिन्न अनुभव बतलाते हैं कि निजी क्षेत्र सरकार से अन्य भूमिकाओं की अपेक्षाएँ भी रखता है जैसे वह अनुमति, ऋण अदायगी में चूक और वित्तीय तरलता आदि के मामलों में वैधानिक, प्रशासनिक और वित्तीय सहयोग प्रदान करेगी।
वर्तमान पीपीपी मॉडल में निजी क्षेत्र को न्यूनतम और सार्वजनिक क्षेत्र को अधिकतम भूमिकाएँ और जोखिमें दी जाती हैं। प्रभावी रूप से इसका मतलब यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र परियोजना का अधिकांश भार अपने ऊपर ले लेता है और निजी क्षेत्र भाड़े पर सिर्फ सेवा प्रदान करता है। ऐसा बिना जवाबदेही का सेवाप्रदाता इस आधार पर लिया जाता है कि वह बेहतर कार्यक्षमता रखता है। जबकि, निसंदेह निजी क्षेत्र की कार्यक्षमता सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यक्षमता से बहुत बेहतर नहीं है और ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने बेहतर योग्यता के साथ विभिन्न सेवाएँ दी हैं, जिसमें जल क्षेत्र भी शामिल है।
पीपीपी मॉडल में एक महत्त्वपूर्ण पक्ष भूमिका विभाजन का है जिसमें यह भी आता है कि एक ही समय में सरकार द्वारा विभिन्न भूमिकाओं के निर्वहन से आपसी टकराव होता है। जैसा कि हॉज और ग्रीव ने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन रिव्यु में लिखा है -
‘........सरकार स्पष्टतः अपनी संरक्षक की भूमिका से हटकर प्रबल नीति समर्थक की भूमिका में आ चुकी है। परिणामस्वरूप हम समझ सकते हैं कि सरकार अब खुद को दायित्वों के बहुआयामी विवादों में घिरा पाती है। नीति समर्थक, आर्थिक विकासकर्ता, सार्वजनिक वित्त संरक्षक, नीति निर्धारण के लिए निर्वाचित जन प्रतिनिधि, अनुबंध काल में नियामक, अनुबंध पर व्यावसायिक हस्ताक्षरकर्ता और नियोजनकर्ता आदि की भूमिकाओं में लम्बे समय के जनहित किस प्रकार से श्रेष्ठ तरीके से संरक्षित और पोषित हो सकते हैं, इस पर विचार करने के लिए अनुभवों पर आधारित बहसों की आवश्यकता है, विशेषकर नागरिकों की इन चिंताओं के परिप्रेक्ष्य में कि पीपीपी में कम पारदर्शिता और बड़ी भारी जटिलताएँ हैं।’’
सार्वजनिक सेवा परिसंपत्तियों के संचालन, प्रबंधन और स्वामित्व की भूमिका का विभाजन निजी कंपनियों और सार्वजनिक उपक्रमों के बीच गंभीर विवादास्पद स्थितियों को जन्म देता है। एक तरफ निजी कंपनी अपने भागीदारों और निवेशकों को अधिकतम लाभ देना चाहती है वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक उपक्रम न्यूनतम खर्च पर समुदायों को लाभ पहुँचाना चाहते हैं, सार्वजनिक सेवाओं को समान रूप से फैलाना चाहते हैं और निर्वाचित सरकार और कल्याणकारी राज्य की सामाजिक जिम्मेदारी पर खरा उतरना चाहते हैं।
ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जब सार्वजनिक एजेंसियाँ अपने उपर्युक्त दायित्वों का निर्वहन न कर पा रही हों फिर भी अंततः निर्वाचित प्रतिनिधियों को अपने निर्वाचकों के सामने जाना पड़ता है और वे जनता के प्रति सीधे-सीधे उत्तरदायी होते हैं। सार्वजनिक सेवाओं में सुधार की निश्चित रूप से आवश्यकता है और उन्हें जनता के प्रति और अधिक जवाबदेह बनाया जाना चाहिए, किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि निजी कंपनियों को लाया जाए जो जनता के प्रति सार्वजनिक क्षेत्र से कम जवाबदेह हैं।
पीपीपी समर्थक वास्तव में इसी प्रकार के तर्क देते रहते हैं कि परियोजना में जोखिम उपयुक्त (सार्वजनिक क्षेत्र) भागीदार द्वारा उठाई जाना चाहिए। प्रभावी रूप से यह उनकी स्वीकारोक्ति है कि सार्वजनिक क्षेत्र की क्षमताएँ अधिक हैं और वह ज्यादा जोखिम ले सकता है। इसका यह मतलब भी है कि वे स्पष्टतः चाहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र ज्यादा जोखिम ले ताकि निजी कंपनियों को सार्वजनिक सेवाओं से मुनाफा कमाना आसान हो।
यह अनेक अनुभवों और परियोजना अनुबंधों के आधार पर दर्शाती है कि अधिकांश जोखिमें सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा वहन की जाती हैं जिसमें स्वामित्व, वित्त, कानून और प्राकृतिक दृष्टि से अपरिहार्य जोखिमें शामिल हैं। निजी क्षेत्र डिज़ाइन, निर्माण, और संचालन की जोखिमें लेता है। इसमें से भी संचालन संबंधी जोखिमों की भरपाई सरकार द्वारा थोक फीस, गारंटियों, लो या कीमत चुकाओ (टेक ऑर पे) की शर्तों और संभावित आय आदि से कर दी जाती है।
अनुबंध के बाद परिवर्तन
सामान्यतः देखा गया है कि कई कंपनियाँ कम कीमत और कम शुल्क पर अनुबंध इस आधार पर हस्ताक्षर कर लेती हैं कि लोगों की निजीकरण के प्रति प्रतिक्रिया न हो। लेकिन बाद में नगरनिकाय अथवा सरकार पर अनुचित दबाव डालकर शर्तें बदलवाने की कोशिश की जाती हैं। सार्वजनिक सेवाओं में व्यवधान उत्पन्न न हो इसलिए इनकी माँगें मान ली जाती हैं। इसी को अनुबंध के बाद वाला बदलाव कहा जाता है।
इस संदर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हवाई अड्डों, ऊर्जा और जल क्षेत्र की पीपीपी परियोजनाओं में अनुबंध के बाद किस प्रकार के बदलाव प्रभावी रूप से किए गए हैं। ये बदलाव प्रतिस्पर्द्धि और शुल्क आधारित नीलामी की सार्थकता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नीलामी के वक्त कंपनियाँ परियोजना लागत कम दर्शाकर परियोजना के लिए लोकप्रिय समर्थन जुटा लेती हैं। साथ ही, यह उम्मीद भी रखती है कि क्रियांवयन या संचालन के समय इस पर पुनर्विचार किया जा सकेगा।
उदाहरण के लिए हम दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद और बैंगलोर (बैंगलुरु) हवाई अड्डों की निजी परियोजनाओं पर विचार करें जो पीपीपी मॉडल के तहत विकसित किए गए हैं। मीडिया रिपोर्टें खुलासा करती है कि नए निजी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे यात्रियों से प्रत्येक घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय उड़ान के लिए मुंबई में क्रमशः 100 रुपए और 600 रुपए तथा दिल्ली में 200 रुपए और 1300 रुपए हवाई अड्डा विकास शुल्क वसूल करेंगें अनुबंध की शर्तों में यह बदलाव सरकार और निजी कंपनियों के बीच करार पर दस्तखत होने के बहुत बाद में किया गया।
इसी प्रकार हैदराबाद और बैंगलोर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों में भी यात्रियों से उपभोक्ता विकास शुल्क (यूज़र डेवलपमेंट फीस) वसूला जाना शुरू कर दिया गया है। हैदराबाद में यह घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए क्रमशः 375 रुपए और 1000 रुपए तथा बैंगलोर में 260 रुपए और 1070 रुपए प्रति यात्री है।
बाद के समाचारों के अनुसार इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (आईएटीए) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी जियोवानी बरसिगनानी ने कुआलालम्पुर (मलेशिया) में आईएटीए की 65 वीं वार्षिक सामान्य सभा और विश्व हवाई यातायात के शिखर सम्मेलन में बोलते हुए दिल्ली तथा मुंबई के हवाई अड्डों के द्वारा विकास शुल्क बढ़ाए जाने की आलोचना की थी। बरसिगनानी ने कहा कि, ‘‘दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डों का आईएटीए की इज्जत मिट्टी में मिलाने वालों (wall of shame) में एक विशेष स्थान है। उन्होंने कहा कि दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डे अपनी 207% शुल्क वृद्धि के साथ संकट पैदा करने में सबसे बुरे भागीदार हैं। इस बकवास के लिए भविष्य में कोई स्थान नहीं है। जब माँग घटती है तब सेवाप्रदाता द्वारा थोड़े उपभोक्ताओं पर वही लागत विभाजित नहीं की जा सकती है’’।
मनीला में क्या हुआ ?
जलक्षेत्र में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ निजी कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए अनुबंध के बाद शर्तों में बदलाव किए गए हैं। उदाहरण के लिए मेट्रो मनीला जल प्रदाय एवं मलनिकास परियोजना को लें जहाँ कंपनी अनुबंध की शर्तों के तहत दरें कम करने को बाध्य थी और उसने दावा भी किया कि आधे शहर में जलप्रदाय शुल्क में 50% तथा शेष में 75% कमी कर दी गई है। लेकिन, अगस्त 1996 में निजीकरण अनुबंध हस्ताक्षरित होने से कुछ ही पहले जलप्रदाय शुल्क में 38% की वृद्धि कर दी गई थी। इस प्रकार निजीकरण अनुबंध के 1997 में हस्ताक्षरित होने के बाद दावे के विपरीत वास्तव में शुल्क दर तेजी से बढ़ने लगी। 2003 तक यह दरें 500% तक बढ़ गई। पश्चिम क्षेत्र में यह बढ़त 1997 की 4.96 फिलीपीन पेसो/घन मीटर से 24 फिलीपीन पेसो और पूर्वी क्षेत्र में 2.32 फिलीपीन पेसो से 14 फिलीपीन पेसो हो गई। निजीकरण पूर्व यह दर 8.78 फिलीपीन पेसो थी। पुनः 2002 में दो ठेकेदारों में से एक ने 100% शुल्क वृद्धि की माँग की और जब इससे इनकार किया गया तो उसने दिसंबर 2002 में परियोजना समाप्ति का नोटिस दे दिया।
ब्यूनस आयर्स में क्या हुआ?
इसी प्रकार ब्यूनस आयर्स (अर्जेंटीना) में यह दावा किया गया कि निजीकरण से जलप्रदाय शुल्क दर में कमी हुई है। परंतु निजीकरण करने से पूर्व फरवरी 1991 में सरकार ने दरें 25% बढ़ा दी तथा पुनः अप्रैल 1991 में 29% और बढ़ा दी। अप्रैल 1992 में जलप्रदाय के बिलों में 18% वस्तु व सेवा शुल्क जोड़ दिया गया। निजीकरण से कुछ माह पूर्व इसमें भी 8% की वृद्धि कर दी गई। इन वृद्धियों के कारण कंपनी ने निजीकरण के कुछ माह के भीतर ही दरों में 27% बनावटी कमी की। लेकिन वास्तव में यह कोई कमी नहीं बल्कि प्रभावी रूप से 20% की वृद्धि थी क्योंकि पानी की कीमतें पहले ही काफी बढ़ा दी गई थीं। इसके बाद भी शुल्क दर की जारी रही।
एल अल्टो और ला पाज में .......
इसी प्रकार की बातें बोलिविया के अल अल्टो और ला पाज शहरों में हुई जहाँ एक फ्रान्सीसी निजी कंपनी स्वेज को जल वितरण का ठेका दिया गया था। ‘इम्पीरियल नेचर’ में माईकल गोल्डमेन लिखते हैं-
‘‘मौजूदा अनुबंधित (और नैतिक) वादों से कि सबको पानी दिया जाएगा अपने आपको कैसे भी बचाने के लिए जलप्रदाय कंपनियाँ कानूनी अनुबंध की भाषा को पुनर्परिभाषित कर रही है। उदाहरणार्थ बोलिविया के ला पाज शहर में स्वेज ने अपने अनुबंध के अनुसार हाल ही में तर्क दिया कि अल अल्टो की झुग्गी बस्तियों को जल वितरण व्यवस्था से जोड़ने के लिए ‘कनेक्शन’ का मतलब मात्र ‘पाइप कनेक्शन’ ही नहीं होकर उसका मतलब ‘सार्वजनिक नल तक पहुँच या टेंकर’ से भी हो सकता है - यह ठीक वही शर्त है जिसे अभी तक पानी की कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारीगण और उच्चवर्गीय अंतर्राष्ट्रीय नीतिगत नेटवर्क सार्वजनिक सेवाओं के तहत इसे दयनीय करार दे रहे थे।’’
और तिरूपुर में ......
भारतीय संदर्भ में तिरूपुर परियोजना पीपीपी के तहत देश की पहली औद्योगिक और घरेलू जलप्रदाय परियोजना है। इस परियोजना का संचालन 2005 के मध्य में ही प्रारंभ हुआ था और अभी से इस पर संकट के बादल मँडराते नजर आने लगे हैं। परियोजना का प्रारंभ बड़ी धूमधाम से किया गया और उससे 185 एमएलडी पानी तिरूपुर के उद्योगों और क्षेत्र के घरों को दिया जाना था। किन्तु ’’हिन्दू’’ समाचार पत्र की रपट में लिखा गया है-‘‘जलप्रदाय तथा मलनिकासी की सार्वजनिक-निजी कंपनी न्यू तिरूपुर एरिया डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एनटीएडीसीएल) डेट रिस्ट्रक्चरिंग (ऋण की शर्तों में बदलाव) का प्रयास कर रही है क्योंकि क्षमता से कम उपयोग के कारण उसके राजस्व पर भारी असर पड़ा है।’’ रिपोर्ट में आगे कहा है-‘‘वर्ष 2008-09 में एनटीएडीसीएल ने $ 70 करोड़ का घाटा उठाया है। अब तक कुल मिलाकर उसका घाटा $ 177 करोड़ हो गया है। इसके लिए उसने राज्य सरकार से $ 65 करोड़ की सहायता की माँग की है ताकि आईडीबीआई के नेतृत्व वाले बैंकों के संगठन से उसे डेट रिस्ट्रक्चरिंग में सहयोग मिल सके’’। समाचार रपट में आगे कहा है –
‘‘जलप्रदाय 2005 के मध्य में प्रारंभ हुआ परंतु अपनी क्षमता से आधे तक भी नहीं पहुँचा। 185 एमएलडी की क्षमता में से 130 एमएलडी पानी उद्योगों को $ 55 प्रति किलोलीटर तथा शेष घरेलू उपभोक्ताओं को रियायती दर $ 3.5 प्रति किलोलीटर पर दिया जाना था। एनटीएडीसीएल के लिए पानी की पंम्पिग, ट्रीटमेंट और सप्लाई का खर्च $ 41.70 प्रति किलोलीटर है, परंतु एनटीएलडीसीएल के कुल 100 एमएलडी जलप्रदाय में से 45 एमएलडी घरेलू उपभोक्तओं को दिया जा रहा है। जबकि उद्योगों की वास्तविक माँग अनुमानित माँग के मुकाबले एक तिहाई तक भी नहीं पहुँची है। सूत्रों का कहना है कि इसका मतलब है कि एनटीएलडीसीएल प्रतिमाह $ 5.2 करोड़ का घाटा उठा रहा है। कम क्षमता के उपयोग का कारण आर्थिक मंदी है जिससे कपड़ा निर्यात प्रभावित हुआ है।’’
इसी प्रकार रिलायन्स पॉवर लिमिटेड की म॰प्र॰ स्थित सासन अल्ट्रा मेगा पॉवर परियोजना (यूएमपीपी) के मामले में भी सरकार द्वारा परियोजना को चलाने के लिए दी गई अनुबंध पश्चातवर्ती छूटों पर गंभीर विवाद खड़े हुए हैं। उपर्युक्त घटनाएँ इस तथ्य को उजागर करती हैं कि प्रतिस्पद्र्धी नीलामी प्रक्रिया की निष्पक्षता में दम नहीं है। यहाँ तक कि अनुबंध की शर्तें भी इतनी सशक्त नहीं होती हैं कि वह निजी लाभ प्राप्ति पर नियंत्रण रख सकें तथा अनुबंधकर्ता को शर्तों के खिलाफ काम करने से रोक सकें। जब मामला पानी जैसी आवश्यक, सार्वजनिक सेवा का मामला हो तो यह अत्यधिक भयावह हो सकता है। वहीं उनकी माँग न मानने पर अचानक अनुबंध समाप्ति की धमकियाँ या सेवाप्रदाय से इंकार या संचालन बंद कर देने आदि हथकण्डों से निजी कंपनियाँ सरकार से वक्त-बे-वक्त फिरौती वसूल सकती हैं।
इकॉनॉमिक टाइम्स के एक हाल के एक आलेख में सारगर्भित तरीके से लिखा गया है-‘‘अनुबंध के पुनर्विचार एक स्पष्ट संकेत देते हैं कि सरकार न केवल अनुबंधीय शर्तों से खेलने की अनुमति देती है बल्कि पूरे अनुबंध पर ही पुनर्विचार के लिए सहमत होती है। अतः निवेशक पीपीपी अनुबंधों पर हस्ताक्षर करने के पूर्व और बाद में भी वित्तीय तथा अन्य लाभों के लिए मोलभाव कर सकते हैं। स्पष्टतः ऐसे पुनर्विचारों से बुनियादी ढाँचे के उपयोगकर्ताओं और व्यापक रूप से करदाताओं पर अतिरिक्त भार बढ़ जाता है’’।
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