पीपीपी के पक्ष के कुछ तर्कों का परीक्षण हम इस अध्याय में करेंगें। इसका उद्देश्य इन तर्कों के आधारों को स्पष्ट करना और इस संदर्भ में पीपीपी के अनुभवों पर विचार करना है। जबकि उन्हें पूरी सावधानी से विचार-विमर्श के बिना व्यवस्था में लागू कर दिया गया है।
पहला प्रमुख दावा जो पीपीपी परियोजनाओं के पक्ष में पहला प्रमुख दावा यह दिया जाता है कि यह माडॅल नए निजी पूँजी निवेश का एक सस्ता विकल्प है आरै इस प्रकार सरकारें बुनियादी ढाँचों पर होने वाले खर्च से पैसा बचा सकती है। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता है। सरकारी अंश जरूर कम हो सकता है लेकिन इससे परियोजना की लागत कम नहीं होती है। निजी ठेकेदारों को दिए गए पारंपरिक सरकारी ठेकों के विपरीत पीपीपी ज्यादा महँगे भी हो सकते हैं। इसे निम्नलिखित कारणों से स्पष्ट किया जा सकता है-
‘‘निजी क्षेत्र के भागीदारों को आकर्षित करने के लिए लाभ देने की आवश्यकता होती है; शासन द्वारा दिए गए पारंपरिक सरकारी ठेकों की तुलना में पीपीपी अनुबंधों की प्रक्रिया भारी-भरकम होने के कारण ये अनुबंध अधिक महँगे होते हैं; और पूँजी (कर्ज) की लागत भी निजी क्षेत्र के लिए ज्यादा होती है। निजी क्षेत्र को आकर्षित करने के लिए परियोजना की लाभ प्राप्ति की दरें सार्वजनिक उपक्रमों की तुलना में ज्यादा होती है।’’
निजी कंपनियाँ अपने उद्यमों से लाभार्जन के लिए कार्य करती हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व और जनकल्याण उनके सिद्धांत का हिस्सा नहीं होते। कोई भी निजी कंपनी जब भी किसी योजना पर कार्य करती है तो योजना की कुल लागत में उसका सुनिश्चित लाभ भी शामिल होता है। उदाहरणार्थ, भारत की प्रथम औद्योगिक एवं घरेलू जलप्रदाय परियोजना तिरूपुर जलप्रदाय और मलनिकासी परियोजना में कंपनी को परियोजना से प्रतिवर्ष 20% का लाभ अनुमानित है।
निजी निवेश में एक अन्य समस्या है कि ऊँची ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध होने से ब्याज का खर्च बढ़ जाता है। केनेडियन सेन्टर फॉर पालिसी आल्टरनेटिव की रिपोर्ट कहती है-‘‘पीपीपी से जुड़ी समस्याओं में से एक यह है कि निजी भागीदार प्रायः ऋण लेता है और निजी कर्जदार के लिए सरकार की तुलना में ब्याज दर ज्यादा होती है। समय के साथ ब्याज दर बदलती रहती है, परंतु सामान्यतः निजी क्षेत्र के ऋण-पत्रों (बॉण्ड्स) की दर उसी प्रकार के सार्वजनिक क्षेत्र के ऋण-पत्रों से 1% ज्यादा होती है। निजी कंपनियों के लिए ब्याज दर अधिक होने की मुख्य वजह यह है कि निजी कंपनियों द्वारा समय पर धन चुकाने की कम संभावनाएँ इस ऋण को काफी जोखिमपूर्ण बना देती हैं। निवेशक इन जोखिमों की क्षतिपूर्ति चाहते हैं। इसलिए कंपनियों के ऋण पर बाजार अधिक ब्याज दर चाहता है। बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं से जुड़ी आशंकाओं पर विचार करने से पहले ही, निजी क्षेत्र की समय पर धन चुकाने की कम संभावनाओं के चलते पीपीपी के लिए ब्याज दर अधिक होती है’’।
पीपीपी में सामान्य रूप से अनुबंधों की प्रक्रिया लम्बी और ज्यादा समय लेने वाली होती है, जो इस तरह की परियोजनाओं को महँगा कर देती है। इंग्लैण्ड के कोषालय के अनुसार ‘‘प्रायवेट फायनेंस इनिशिएटिव (इंग्लैण्ड में पीपीपी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली) या निजी-वित्त पहल का सौदा एक अत्यंत जटिल व्यापारिक और वित्तीय समझौता होता है, जिससे उसके सार्वजनिक क्षेत्र के अनुबंधकर्ता को गुजरना होता है। इस प्रक्रिया में अनेक तरह के व्यवसाइयों और वित्तीय संस्थानों से सौदेबाजी करनी होती है जो सभी अपने कानूनी और वित्तीय सलाहकार रखते हैं। फलस्वरूप अन्य सामान्य ठेकों के बजाय अनुबंध करने की अवधि और प्रक्रियागत लागत दोनों प्रभावी रूप से बहुत अधिक बढ़ जाती हैं’’।
मौजूदा आर्थिक मंदी और उससे हुई निजी कंपनियों के लिए धन की कमी के कारण पीपीपी का भविष्य संदेहास्पद है। साथ ही दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, मध्य पूर्व, संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको जैसे देश पीपीपी परियोजनाओं को खारिज कर रहे हैं।
भारत पर विश्व बैंक टिप्पणी करती है-‘‘वैश्विक वित्तीय संकट के परिणामस्वरूप न केवल अंतर्राष्ट्रीय अपितु भारत के घरेलू साख बाजार में भी तंगी आई है। घरेलू निवेशकों के लिए ऋण की ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी (साल 2008 से पहले की तुलना में कम से कम 20 से 30%), और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए ऋण और जोखिमपूर्ण निवेश दोनों की उपलब्धता में कमी आई है। इस परिप्रेक्ष्य में, ग्यारहवीं योजना में बुनियादी ढाँचे में निजी क्षेत्र के निवेश बढ़ाने के लक्ष्य चाही गई सीमा तक पूर्ण नहीं हो सकेंगें, जिनमें पीपीपी द्वारा निवेश भी शामिल है। यहाँ तक कि लम्बे समय के लिए पूँजी जुटाने में शासन समर्थित संस्थानों जैसे आईआईएफसीएल (इण्डिया इन्फ्रास्ट्रक्चर फायनेंस कंपनी लिमिटेड) और पॉवरग्रिड (कॉर्पोरेशन) को भी परेशानी आ सकती है’’ । भारत में बैंकों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र को दिए जाने वाले ऋण पर ब्याज दर में कम से कम 2-3% का अंतर रहता है और परियोजना से जुड़ी जोखिमों के आधार पर यह ब्याज दर और भी बढ़ सकती है।
उपरोक्त कारण स्पष्ट करते हैं कि पीपीपी परियोजनाएँ सस्ती नहीं हो सकती हैं और इनके अलावा अन्य दूसरे भी कारण हैं जिनसे पीपीपी परियोजना की लागत बढ़ जाती है। कुछ कारण निम्नानुसार हैं:-
1. पीपीपी में निर्माण लागत अधिक आती है क्योंकि निर्माण पूरा करने की समय सीमा निर्धारित होती है।
2. लम्बे प्रतीक्षा काल (गेस्टेशन पीरियड) और लम्बी अनुबंध प्रक्रिया के कारण पीपीपी परियोजना प्रक्रिया की लागत ज्यादा होती है।
3. इस बात की भी संभावनाएँ बनी रहती हैं कि अज्ञात कारणों तथा बदलते राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्यों के कारण लागत वृद्धि हो जाए।
भारत में निजी पनबिजली परियोजनाओं की लागत और उनके दर निर्धारण के दृष्टिकोण पर विचार करें। इनमें दर निर्धारण अनुबंधकर्ता कंपनी द्वारा पूरी लागत की वसूली के अलावा सुनिश्चित लाभ के आधार पर होता है। सतही तौर पर यह न्यायोचित लगता है कि निवेशक को विद्युत परियोजना का स्थापना और संचालन खर्च वसूलने का हक होना चाहिए किन्तु व्यवहार में यह बनावटी लागत वृद्धि (कॉस्ट पेडिंग) को बढ़ा सकता है। चूँकि सेवा दरों का सीधा संबंध लागत से है और निवेशक यह जानते हैं कि शुल्क निर्धारण का तरीका उनकी लागत वसूल लेगा। इसलिए वे बनावटी रूप से लागत बढ़ा सकते हैं ताकि ऊँची दरें माँगकर वे मनमाना मुनाफा जुटा सकें। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि लागत पर आधारित दर निर्धारण का उपयोग पनबिजली परियोजनाओं के अलावा जलक्षेत्र की अन्य परियोजनाओं में भी किया जा सकता है।
यह भी दावा किया जाता है कि सार्वजनिक परियोजनाओं में पीपीपी के होने से मुख्य फायदा यह होता है कि निजी कंपनियाँ डिजाइन, निर्माण और संचालन की उत्कृष्ट कार्यकुशलता सार्वजनिक सेवा के लिए लाती हैं। ऐसा तर्क दिया जाता है कि निजीकरण से परियोजना संचालन में ज्यादा कुशलता आती है जिससे परियोजना लागत में बचत और लाभ अधिकतम होता है। इस तर्क का स्वाभाविक निष्कर्ष यह है कि बेहतर कार्यकुशलता से लागत में कमी आती है, जिससे कम कीमत पर सेवाप्रदाय हो सकती है। परंतु दुनियाभर के अनुभव विशेषकर पानी के क्षेत्र में यह दर्शाते हैं कि संचालन की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र का एकाधिकार नहीं है। जल आपूर्ति की कुशल सार्वजनिक सेवाओं के भी अनेक उदाहरण हैं। यह एक अलग मुद्दा है जिसे हम बाद में विस्तार से देखेंगें। हम पहले यह देखें कि निजी कंपनियाँ कितनी कार्यकुशल हैं और लागत में कमी तथा सस्ती दरें जिन्हें बेहतर कार्यकुशलता से जोड़ा जाता है, की सच्चाई क्या है।
पब्लिक प्रायवेट इफास्ट्रक्चर एडवायज़री फेसिलिटी (पीपीआयएएफ) जो कि विश्व बैंक की ही एक एजेंसी है, के 2009 के अध्ययन में इस बहस का समाधान खोजने की कोशिश की गई कि पानी और बिजली वितरण के लिए पीएसपी (निजी क्षेत्र सहभागिता) मॉडल से कार्यक्षमता वृद्धि होती है-‘‘ विकासशील और परिवर्तनाधीन अर्थव्यवस्थाओं में 1200 से अधिक उपक्रमों के आँकड़ों को उपयोग में लिया गया है। इसमें एक दशक से अधिक समय से कार्यरत 301 उपक्रम पीएसपी और 926 सार्वजनिक क्षेत्र के शामिल किए गए हैं’’।
जल व मलनिकास क्षेत्र में पीएसपी पर इस अध्ययन में यह सवाल उठाया गया है कि ‘‘चूँकि पीएसपी से कार्यक्षमता वृद्धि होने के कारण संचालन लागत में कमी होनी चाहिए, फिर भी दरें कम होती क्यों नहीं दिखाई दे रही हैं।’’ (ऐसा माना जाता है कि संचालन लागत कम होने का प्रभाव सेवा क्षेत्र और निवेश की मात्रा में वृद्धि या दरों में कमी के रूप में दिखाई देना चाहिए।) इसका एक संभावित उत्तर यह हो सकता है कि ‘‘निजी संचालक पूरी धन प्राप्तियों को लाभ के रूप में रख सकते हैं और लागत में किसी भी प्रकार की बचत का फायदा उपभोक्ताओं को नहीं पहुँचाते हैं। नियमन की शैशवावस्था वाले विकासशील देशों, जो अधिकांशतः निजी-सार्वजनिक अनुबंधों की पर्याप्त निरीक्षण क्षमता नहीं रखते है, में इस संभावना का ध्यान रखा जाना भी आवश्यक है।’’
अन्य प्रतिमानों जैसे वसूली दर के लिए अध्ययन कहता है-‘‘इस अध्ययन में ऐसे कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं कि जल क्षेत्र में पीएसपी द्वारा बिल वसूली की दर सरकारी उपक्रमों से बेहतर है और रिहायशी सेवा क्षेत्र पर इसके प्रभाव के प्रमाण निष्कर्ष निकालने लायक नहीं हैं।’’
रिहायशी सेवा के बारे में अध्ययन ने पाया ‘‘पूरे नमूने का आंकलन करने पर, सभी प्रकार के पीएसपी में या तो रिहायशी सेवा क्षेत्र काफी घट रहा है या कोई खास परिवर्तन देखने में नहीं आ रहा है। इस पर ध्यान दिए बगैर कि किस स्तर तक का निजी प्रोत्साहन अंतर्निहित है।’’
सेवा गुणवत्ता और वितरण हानियों पर अध्ययन ने पाया कि ‘‘संचालन और सेवा गुणवत्ता के परिणाम जो जल वितरण हानि और प्रतिदिन जल सेवा के आधार पर मापे गए हैं, इसी प्रकार अनिश्चित हैं’’।
निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यक्षमता पर बहस पर पीएसआईआरयू अध्ययन में दोनों की सापेक्ष कार्यक्षमता की तुलना करने पर पाया कि ‘‘सतत रूप से तथ्यात्मक प्रमाण लगातार और बारम्बार यह दर्शाते हैं कि निजी और सार्वजनिक सेवा प्रदाताओं के बीच कार्यक्षमता और अन्य पैमानों पर आधारित कोई व्यवस्थित प्रभावकारी अंतर नहीं है’’।
विश्व बैंक, आईएमएफ और एडीबी आदि के पहले कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि सार्वजनिक और निजी कंपनियों की कार्यक्षमता में कोई विशेष अंतर नहीं है।
पर्यावरण और विकास का अंतर्राष्ट्रीय संस्थान (आईआईईडी), लंदन आदि के पूर्व के अध्ययनों ने यह पाया है कि विश्वभर में जल और मलनिकासी का कार्य कुशलतापूर्वक करने वाले सार्वजनिक उपक्रमों के अनेक उदाहरण हैं। ट्रांसनेशलन इंस्टीट्यूट (टीएनआई) और कार्पोरेट यूरोप आब्सर्वेटरी (सीईओ) के अध्ययन और नए रुझान बताते हैं कि अनेक देशों में लोगों को सेवा प्रदान करने में पीपीपी के बजाय जल सेवा क्षेत्र में सुधार के अन्य मॉडल जैसे पब्लिक-पब्लिक पार्टनरशीप (पीयूपी) ज्यादा बेहतर हैं। पीयूपी के कई उदाहरण हैं जो जन सहयोगात्मक, कम खर्चीले, कार्यक्षम और पारदर्शी हैं। अल आल्टो (बोलिविया), सान्ता फे, ब्यूनस आयर्स (अर्जेन्टीना) और हान्डूरास, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इन्डोनेशिया, मलेशिया जैसे अन्य अनेक देशों में पीयूपी के बेहतर उदाहरण सामने आए हैं।
उपर्युक्त के अलावा, कार्यक्षमता और प्रोत्साहन से जुड़ा एक अन्य पक्ष यह भी है कि निजी कंपनियाँ जोखिमों से दूर रहना चाहती हैं क्योंकि इनमें निजी निवेशक शामिल होते हैं जो अपने निवेश और लाभ पर कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं। निजी कंपनी किसी भी परियोजना के क्रियांवयन से जुड़ी जोखिमों से बचती है। उदाहरण के लिए जल क्षेत्र में तकनीकी, संचालन और वित्तीय जोखिमों के अलावा संसाधनों, सामाजिक और राजनैतिक जोखिम भी होते हैं। ये जोखिमें कार्यक्षमता और प्रोत्साहनों के साथ बड़े पेचीदा तरीके से जुड़ी रहती हैं। इसके मायने हैं कि निजी कंपनियाँ सार्वजनिक उपक्रमों की तुलना में कार्यक्षमता के बेहतर प्रबंधन और इन जोखिमों की एवज में ज्यादा प्रोत्साहनों की माँग करती हैं। जब भी निजी कंपनियाँ किसी ऐसी परियोजना का क्रियांवयन करती हैं जिसमें कोई विशेष जोखिम न हो तो नियमन और नियंत्रण का तंत्र नहीं रहता है। और यदि किसी कंपनी को जोखिम नहीं उठानी पड़ती है तो वह कम खर्च और कम कीमत पर बेहतर सेवा देने के लिए आवश्यक कार्यक्षमता से कार्य नहीं करेगी। इसका कुल मिलाकर यह प्रभाव पड़ेगा कि जोखिमों के बगैर परियोजना चलाने पर निजी कंपनी को बेहतर सेवा, मितव्ययता और अधिक उत्पादकता प्रदर्शित करने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। पीपीपी के जोखिम हस्तांतरण को इस पुस्तिका में बाद में विस्तार से रखा गया है।
ऐसे अनेक उदाहरणों में से एक लंदन की भूमिगत रेल व्यवस्था का है। लंदन में मेट्रो सेवाओं के लिए लंदन मेट्रो नामक निजी कंपनियों के संघ को पीपीपी द्वारा अनुबंधित किया गया था। यह निजी कंपनी न तो सेवा देने में और न ही रखरखाव का कार्य करने में सफल रही अपितु उसने मेट्रो रेल को वित्तीय संकट में फँसा दिया और 2007 में उसने इंग्लैण्ड की सरकार से अतिरिक्त 5 अरब 51 करोड़ पाउण्ड की माँग की ताकि वह अगले वर्ष का खर्च वहन कर सके। यह उदाहरण इस काल्पनिक अवधारणा को ध्वस्त करता है कि निजी क्षेत्र कार्यक्षम होता है। अन्य कई अध्ययन और उदाहरण दर्शाते हैं कि कार्यक्षमता और संचालन के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र बेहतर हो ऐसा जरूरी नहीं है।
पीपीपी मॉडल के पक्ष में एक प्रमुख दावा यह भी किया जाता है कि चूँकि इस मॉडल में निजी वित्तीय संसाधनों का उपयोग होता है जिससे परियोजना में सार्वजनिक संसाधन लगाने ही नहीं पड़ते हैं। ये बचे हुए सार्वजनिक संसाधन सरकार की दूसरी नीतिगत प्राथमिकताओं के लिए काम में लाए जा सकते हैं।
डेविड हाल ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है ‘‘सरकारी ऋणों पर जो बजट संबंधी बाधा होती है वे राजनैतिक फैसले होते हैं न कि पत्थर की लकीर। 2008 की आर्थिक मंदी ने दर्शाया है कि किस प्रकार सभी जगहों की सरकारें अपना खर्च और कर्ज बढ़ा रही हैं ताकि वे वित्तीय क्षेत्र तथा सामान्य अर्थव्यवस्था को सहायता पहुँचा सकें। यह जिस पैमाने पर हो रहा है वह पीपीपी द्वारा सार्वजनिक सेवाओं में किए गए निवेशों की तुलना में बहुत ही ज्यादा है। इंग्लैण्ड की एक असफल बैंक (नार्दन रॉक) के 2008 में किए गए राष्ट्रीयकरण ने इंग्लैण्ड का राष्ट्रीय ऋण 8,700 करोड़ पाउण्ड बढ़ा दिया। यह आँकड़ा पिछले 13 वर्षों में इंग्लैण्ड में अनुबंधित सभी पीपीपी और पीएफआई के कुल मूल्य 6,000 करोड पाउण्ड तथा पूरे यूरोपीय यूनियन के 3,200 करोड़ यूरो (2,600 करोड़ पाउण्ड) से कहीं ज्यादा हैं‘‘। (मूल दस्तावेज में जोर दिया गया है।)
जबकि दूसरी ओर राजनैतिक दृष्टिकोण को अलग रखते हुए पीपीपी परियोजनाओं में यह अनुभव हुआ है कि सार्वजनिक क्षेत्र के संसाधन तो खर्च होते ही हैं। पीपीपी के माध्यम से निजी क्षेत्र की अपनी अक्षमताओं, गैर जिम्मेदारियों और जोखिमों से दूर रहने की प्रवृत्ति के कारण निजी मुनाफे के लिए सार्वजनिक संसाधन खींच लिए जाते हैं। तिरूपुर, नागपुर और मेट्रो मनीला जलप्रदाय परियोजना निःसंदेह यही प्रमाणित करती हैं। तिरूपुर में तमिलनाडु सरकार ने अन्य गारण्टियों और रियायतों के अलावा परियोजना कंपनी के शेयरो में 50 करोड़ रुपए का निवेश किया तथा 25 करोड़ रुपए का उप ऋण, 71 करोड़ रुपए का वाटर शार्टेज पीरियड फण्ड और 50 करोड़ रुपए डेट सर्विस रिजर्व फण्ड के रूप में प्रदान किये हैं। उसी प्रकार नागपुर में यद्यपि परियोजना पीपीपी की है इसका पाँच वर्ष का पूरा खर्च 22 करोड़ रुपए भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार द्वारा वहन किया जायेगा। नागपुर नगर निगम ने निजी कंपनी विओलिया वाटर को 9 करोड़ रुपए में प्रबंधन शुल्क भुगतान कर उसकी सेवाएँ ली हैं। मेट्रो मनीला जलप्रदाय एवं स्वच्छता परियोजना से निजी कंपनी ‘स्वेज’ द्वारा अनुबंध समाप्त किये जाने की फिलीपींस सरकार को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी।
पुनः 12,200 करोड़ रुपए की अत्यधिक विवादास्पद हैदराबाद मेट्रो रेल परियोजना, जो मायटास इन्फ्रा लिमिटेड, नवभारत वेंचर्स लिमिटेड, थाईलेण्ड के इटाल-थाई और आईएल एण्ड एफएस लिमिटेड के संघ को दी गई थी से संबंधित रिपोर्ट दर्शाती है कि सार्वजनिक संसाधनों को कितनी बड़ी मात्रा को निजी कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए उपलब्ध करवाया गया था। बाद में सत्यम कम्प्यूटर्स लिमिटेड, जो मायटास इन्फ्रा की मातृ कंपनी है, का बड़ा घोटाला यहाँ तक कि विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, बैंक और वित्तीय कंपनियाँ जो इस बीच असफल हो गए और बहुत हद तक स्वयं अपनी अक्षमताओं और भ्रष्ट तौर-तरीकों के कारण मौजूदा वैश्विक मंदी जिम्मेदार थे, अब सार्वजनिक क्षेत्रों से अपनी जमानत चाहते हैं।
विश्व बैंक का एक अध्ययन कहता है ‘‘प्रायवेट पार्टिसिपेशन इन इन्फ्रास्ट्रक्चर या पीपीआई (बुनियादी ढाँचे में निजी भागीदारी) का पानी के मामले में दक्षिण अमेरिकी अनुभव दुनियाभर में सबसे गहन है। इस अनुभव के अनुसार विश्व में पीपीआई द्वारा शहरी जलक्षेत्र में धन लगाने की संभावनाएँ क्षीण दिखाई देती हैं। जल एक ‘मुश्किल’ क्षेत्र है और इसमें दोनों पक्षों के लिए इतनी जोखिमें है कि जलप्रदाय निवेशों के लिए समुचित धनराशि जुटा पाना मुश्किल है’’।
पानी एवं मलनिकासी के क्षेत्र में पीएसपी पर पीपीआईएएफ द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है ‘‘पीएसपी के पैरोकारों ने ज्यादा उम्मीदें बाँधी और राजनेताओं ने कभी-कभी बिना विचारे वादा कर दिया कि सार्वजनिक सेवाओं में निजी क्षेत्र की बढ़ी हुई भागीदारी अत्यधिक पूँजी निवेश लाएगी और इससे ज्यादा क्षमता और कार्यक्षेत्र का विस्तार होगा। अध्ययन में इस बारे में मिले-जुले प्रमाण प्राप्त हुए हैं। अतः यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि पीएसपी से निवेश हमेशा बढ़ता ही है।’’
विश्व बैंक आगे कहती है ‘‘ग्यारहवीं योजना में पीपीपी के माध्यम से निजी क्षेत्र की प्रमुख भूमिका का अंदाज लगाया गया है, परन्तु वैश्विक मंदी के कारण शायद यह उस आशाजनक सीमा तक संभव न हो सके और निजी क्षेत्र की पहल में कमी हो सकती है’’ और ‘‘तंग साख बाजार तथा वैश्विक वृद्धि की धीमी गति के कारण निजी निवेश एवं उपभोग वृद्धि में भारी कटौती हो सकती है’’।
भारत में उन कुछ निजी संचालित परियोजनाओं का परिदृश्य प्रस्तुत करती है जिसमें सार्वजनिक संसाधनों का निवेश किया गया है। इस तालिका में दर्शाया गया है कि किस हद तक व किस प्रकार के सार्वजनिक संसाधनों को इन परियोजनाओं में निजी कंपनियों को मुनाफे हेतु सौंप दिया गया है। यहाँ महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि निवेशित संसाधन मात्र पूँजी तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उसमें मानवीय संसाधन, विशेषज्ञता, प्रतिभूतियाँ, प्रोत्साहन आदि भी शामिल हैं।
भारत में पीपीपी एवं निजी निवेश के संदर्भ में नई निजी पनबिजली परियोजनाओं पर विचार करें। जिनमें से अधिकांश की जानकारी भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग की वेबसाईट पर पीपीपी सूचना सामग्री में दी गई है। केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग (CERC) के नए नियमों (जनवरी 2008) का इस संदर्भ में प्रभावकारी असर हो सकता है। श्रीपाद धर्माधिकारी के अनुसार -
‘‘केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग ने परियोजना कंपनियों को उनकी भागीदारी से होने वाली आय पर लगे टेक्स की वापसी की इजाजत दी है। पनबिजली कंपनियों को उनकी अंशपूँजी पर हुए पर भुगतान किए गए आयकर की धनराशि को बिजली दरों में जोड़ा जायेगा और उपभोक्ताओं से वसूला जाएगा। दूसरे शब्दों में, अंशपूँजी पर 16% की दर से मुनाफा टेक्स भुगतान के बाद का है। इसे सुनिश्चित करने के लिए सीईआरसी ने कंपनी को मिलने वाले कुल लाभ को अंशपूँजी पर मिलने वाले मुनाफे के अलावा कपनी द्वारा भुगतान किए जाने वाले टेक्स के बराबर कर दिया है। इस प्रकार कोई कंपनी जो सामान्यतः 33.99% कारपोरेट टेक्स देती है, उसे अपने उपभोक्ताओं से लगभग 23.5% की दर से अंश पूँजी पर मुनाफा कमाने की छूट होगी।
‘‘जब पनबिजली कंपनियों की टेक्स छूट की पात्रता पर विचार किया जाए तो यह मुद्दा और जटिल हो जाता है। सीईआरसी चाहता है कि टेक्स छूट का लाभ उपभोक्ताओं को दिए जाने के बदले परियोजना निर्माता को मिले। इसके सही अर्थ के लिए अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि इस प्रावधान से तब बड़ी अजीब स्थिति बनेगी जब परियोजना द्वारा विद्युत उपभोक्ताओं से टेक्स तो उनके बिल में जोड़ कर वसूल लिया जाएगा परंतु उसे शासन को भुगतान न करते हुए निजी कंपनी अपने पास ही रख लेगी।’’
पीपीपी परियोजनाओं की योग्यता के बारे में किए गए अध्ययन दर्शाते हैं कि इन परियोजनाओं के द्वारा अपने घोषित लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी बड़ी मुश्किल होती है। पीपीपी परियोजनाएँ धन (बजट) की कसौटी और समय पर पूरे होने की दृष्टि से खरी नहीं उतर पाई हैं।
पीपीपी परियोजनाओं के ‘बजट में’ व ‘समय पर’ पूरे हो पाने के वादों की असफलता का मुख्य कारण यह है कि परियोजना प्रारंभ किए जाने से पूर्व ही निविदा प्रक्रिया और समझौता चर्चाओं में लम्बा समय लग जाता है। निविदा और समझौता वार्ता पर खर्च तथा इसमें लगने वाले समय को परियोजना की कुल लागत में शामिल किया जाना चाहिए।
उदाहरण के लिए नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (केग/CAG) ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) की पीपीपी परियोजनाओं की लेखा परीक्षा में पाया है कि पीपीपी परियोजनाओं का प्रदर्शन कैसा है-
‘‘यद्यपि एनएचडीपी (राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम) की प्रथम चरण की परियोजनाओं को पूर्ण किए जाने का लक्ष्य जून 2004 था। प्राधिकरण पीपीपी की 17 में से केवल 5 परियोजनाओं को ही पूर्ण कर पाया। शेष परियोजनाओं में 2 से 42 माह तक का अप्रत्याशित विलम्ब था।’’
एक अन्य उदाहरण मुम्बई की बहु प्रचारित मेट्रो रेल परियोजना का है जो 19 माह के न समझाए जा सकने वाले विलम्ब के साथ प्रारंभ हुई और उसकी समाप्ति की समय सीमा का कोई ठिकाना नहीं है। विलम्ब के कारण परियोजना लागत 1500 करोड़ रुपए से बढ़कर 2356 रुपए करोड़ हो गई। इसमें अभी ऐसी रुकावटें हैं जिन्हें हल किया जाना बाकी है, जैसे मेट्रो से संबंधित विभिन्न कार्यों के लिए जमीन और सार्वजनिक सेवाओं यथा पानी, बिजली, टेलीफोन आदि की अचिन्हित लाईनों को हटाने का खर्च।
म॰प्र॰ में नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन महेश्वर पनबिजली परियोजना बनावटी लागत वृद्धि (कॉस्ट पेडिंग) के बारे में गंभीर संदेह पैदा करती है। बुनियादी ढाँचा विकास की आस्ट्रेलियाई परिषद ने अपना अभिमत व्यक्त किया है कि ‘‘अगर निविदा प्रक्रिया ठीक तरह से नहीं चलती है तो यह संभव है कि निविदा प्रक्रिया खर्च के बोझ से परियोजना संचालन में पीपीपी के लाभ कम हो जाएँ’’ जबकि दूसरी ओर ’’पारम्परिक ठेकों के अंतर्गत निजी ठेकेदारों की लागत बहुत कम होती है और ये ठेके (संचालन के) पाँच वर्ष से अधिक समय नहीं लेते’’।
इसके अलावा बदली हुई परिस्थितियों में यदि परियोजना पर पुनर्विचार होता है तो लागत और बढ़ जाती है। और ज्यादातर ठेकों पर पुनर्विचार होता है क्योंकि अनुबंध समयावधि में परिस्थितियाँ बदलती हैं। वर्तमान वित्तीय और आर्थिक उतार-चढ़ाव इस बात का स्पष्ट उदाहरण है।
यदि अनुबंध पूर्व की सभी प्रक्रियाओं और नियमन की लागत और समयावधि को परियोजना लागत में जोड़ा जाए तो अधिकांश पीपीपी परियोजनाएँ पारंपरिक सार्वजनिक ठेकों की तुलना में ज्यादा मँहगी पड़ेंगी।
भारत जैसे विकासशील देशों में उन तरीकों का अभाव है जिससे पीपीपी परियोजनाओं का सार्वजनिक क्षेत्र के ठेकों से तुलनात्मक मूल्यांकन किया जा सके। बहुधा विकसित देशों में एजेंसियों द्वारा निवेश के लाभ (वेल्यू फॉर मनी) पद्धति से पीपीपी मॉडल के समय और लागत संबंधी लाभों का अध्ययन के लिए किया जाता है। अधिक लाभप्रद होने पर ही पीपीपी मॉडल की अनुशंसा की जाती है।
जबकि दूसरी ओर भारत में हमारे पास सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ जैसे दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी), एनएचपीसी, एनटीपीसी, बीएचईएल आदि हैं जिनकी परियोजना को दिए गए संसाधनों और समय सीमा में पूरा करने की क्षमता है। अतः ऐसा नहीं है कि अधिक दाम वसूलने वाली केवल निजी कंपनियाँ ही बजट और समय-सीमा का लाभ प्रदान कर सकती हैं।
कम खर्चीली परियोजनाएँ
पहला प्रमुख दावा जो पीपीपी परियोजनाओं के पक्ष में पहला प्रमुख दावा यह दिया जाता है कि यह माडॅल नए निजी पूँजी निवेश का एक सस्ता विकल्प है आरै इस प्रकार सरकारें बुनियादी ढाँचों पर होने वाले खर्च से पैसा बचा सकती है। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता है। सरकारी अंश जरूर कम हो सकता है लेकिन इससे परियोजना की लागत कम नहीं होती है। निजी ठेकेदारों को दिए गए पारंपरिक सरकारी ठेकों के विपरीत पीपीपी ज्यादा महँगे भी हो सकते हैं। इसे निम्नलिखित कारणों से स्पष्ट किया जा सकता है-
‘‘निजी क्षेत्र के भागीदारों को आकर्षित करने के लिए लाभ देने की आवश्यकता होती है; शासन द्वारा दिए गए पारंपरिक सरकारी ठेकों की तुलना में पीपीपी अनुबंधों की प्रक्रिया भारी-भरकम होने के कारण ये अनुबंध अधिक महँगे होते हैं; और पूँजी (कर्ज) की लागत भी निजी क्षेत्र के लिए ज्यादा होती है। निजी क्षेत्र को आकर्षित करने के लिए परियोजना की लाभ प्राप्ति की दरें सार्वजनिक उपक्रमों की तुलना में ज्यादा होती है।’’
निजी कंपनियाँ अपने उद्यमों से लाभार्जन के लिए कार्य करती हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व और जनकल्याण उनके सिद्धांत का हिस्सा नहीं होते। कोई भी निजी कंपनी जब भी किसी योजना पर कार्य करती है तो योजना की कुल लागत में उसका सुनिश्चित लाभ भी शामिल होता है। उदाहरणार्थ, भारत की प्रथम औद्योगिक एवं घरेलू जलप्रदाय परियोजना तिरूपुर जलप्रदाय और मलनिकासी परियोजना में कंपनी को परियोजना से प्रतिवर्ष 20% का लाभ अनुमानित है।
निजी निवेश में एक अन्य समस्या है कि ऊँची ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध होने से ब्याज का खर्च बढ़ जाता है। केनेडियन सेन्टर फॉर पालिसी आल्टरनेटिव की रिपोर्ट कहती है-‘‘पीपीपी से जुड़ी समस्याओं में से एक यह है कि निजी भागीदार प्रायः ऋण लेता है और निजी कर्जदार के लिए सरकार की तुलना में ब्याज दर ज्यादा होती है। समय के साथ ब्याज दर बदलती रहती है, परंतु सामान्यतः निजी क्षेत्र के ऋण-पत्रों (बॉण्ड्स) की दर उसी प्रकार के सार्वजनिक क्षेत्र के ऋण-पत्रों से 1% ज्यादा होती है। निजी कंपनियों के लिए ब्याज दर अधिक होने की मुख्य वजह यह है कि निजी कंपनियों द्वारा समय पर धन चुकाने की कम संभावनाएँ इस ऋण को काफी जोखिमपूर्ण बना देती हैं। निवेशक इन जोखिमों की क्षतिपूर्ति चाहते हैं। इसलिए कंपनियों के ऋण पर बाजार अधिक ब्याज दर चाहता है। बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं से जुड़ी आशंकाओं पर विचार करने से पहले ही, निजी क्षेत्र की समय पर धन चुकाने की कम संभावनाओं के चलते पीपीपी के लिए ब्याज दर अधिक होती है’’।
पीपीपी में सामान्य रूप से अनुबंधों की प्रक्रिया लम्बी और ज्यादा समय लेने वाली होती है, जो इस तरह की परियोजनाओं को महँगा कर देती है। इंग्लैण्ड के कोषालय के अनुसार ‘‘प्रायवेट फायनेंस इनिशिएटिव (इंग्लैण्ड में पीपीपी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली) या निजी-वित्त पहल का सौदा एक अत्यंत जटिल व्यापारिक और वित्तीय समझौता होता है, जिससे उसके सार्वजनिक क्षेत्र के अनुबंधकर्ता को गुजरना होता है। इस प्रक्रिया में अनेक तरह के व्यवसाइयों और वित्तीय संस्थानों से सौदेबाजी करनी होती है जो सभी अपने कानूनी और वित्तीय सलाहकार रखते हैं। फलस्वरूप अन्य सामान्य ठेकों के बजाय अनुबंध करने की अवधि और प्रक्रियागत लागत दोनों प्रभावी रूप से बहुत अधिक बढ़ जाती हैं’’।
मौजूदा आर्थिक मंदी और उससे हुई निजी कंपनियों के लिए धन की कमी के कारण पीपीपी का भविष्य संदेहास्पद है। साथ ही दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, मध्य पूर्व, संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको जैसे देश पीपीपी परियोजनाओं को खारिज कर रहे हैं।
भारत पर विश्व बैंक टिप्पणी करती है-‘‘वैश्विक वित्तीय संकट के परिणामस्वरूप न केवल अंतर्राष्ट्रीय अपितु भारत के घरेलू साख बाजार में भी तंगी आई है। घरेलू निवेशकों के लिए ऋण की ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी (साल 2008 से पहले की तुलना में कम से कम 20 से 30%), और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए ऋण और जोखिमपूर्ण निवेश दोनों की उपलब्धता में कमी आई है। इस परिप्रेक्ष्य में, ग्यारहवीं योजना में बुनियादी ढाँचे में निजी क्षेत्र के निवेश बढ़ाने के लक्ष्य चाही गई सीमा तक पूर्ण नहीं हो सकेंगें, जिनमें पीपीपी द्वारा निवेश भी शामिल है। यहाँ तक कि लम्बे समय के लिए पूँजी जुटाने में शासन समर्थित संस्थानों जैसे आईआईएफसीएल (इण्डिया इन्फ्रास्ट्रक्चर फायनेंस कंपनी लिमिटेड) और पॉवरग्रिड (कॉर्पोरेशन) को भी परेशानी आ सकती है’’ । भारत में बैंकों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र को दिए जाने वाले ऋण पर ब्याज दर में कम से कम 2-3% का अंतर रहता है और परियोजना से जुड़ी जोखिमों के आधार पर यह ब्याज दर और भी बढ़ सकती है।
उपरोक्त कारण स्पष्ट करते हैं कि पीपीपी परियोजनाएँ सस्ती नहीं हो सकती हैं और इनके अलावा अन्य दूसरे भी कारण हैं जिनसे पीपीपी परियोजना की लागत बढ़ जाती है। कुछ कारण निम्नानुसार हैं:-
1. पीपीपी में निर्माण लागत अधिक आती है क्योंकि निर्माण पूरा करने की समय सीमा निर्धारित होती है।
2. लम्बे प्रतीक्षा काल (गेस्टेशन पीरियड) और लम्बी अनुबंध प्रक्रिया के कारण पीपीपी परियोजना प्रक्रिया की लागत ज्यादा होती है।
3. इस बात की भी संभावनाएँ बनी रहती हैं कि अज्ञात कारणों तथा बदलते राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्यों के कारण लागत वृद्धि हो जाए।
भारत में निजी पनबिजली परियोजनाओं की लागत और उनके दर निर्धारण के दृष्टिकोण पर विचार करें। इनमें दर निर्धारण अनुबंधकर्ता कंपनी द्वारा पूरी लागत की वसूली के अलावा सुनिश्चित लाभ के आधार पर होता है। सतही तौर पर यह न्यायोचित लगता है कि निवेशक को विद्युत परियोजना का स्थापना और संचालन खर्च वसूलने का हक होना चाहिए किन्तु व्यवहार में यह बनावटी लागत वृद्धि (कॉस्ट पेडिंग) को बढ़ा सकता है। चूँकि सेवा दरों का सीधा संबंध लागत से है और निवेशक यह जानते हैं कि शुल्क निर्धारण का तरीका उनकी लागत वसूल लेगा। इसलिए वे बनावटी रूप से लागत बढ़ा सकते हैं ताकि ऊँची दरें माँगकर वे मनमाना मुनाफा जुटा सकें। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि लागत पर आधारित दर निर्धारण का उपयोग पनबिजली परियोजनाओं के अलावा जलक्षेत्र की अन्य परियोजनाओं में भी किया जा सकता है।
अधिक कार्यकुशलता
यह भी दावा किया जाता है कि सार्वजनिक परियोजनाओं में पीपीपी के होने से मुख्य फायदा यह होता है कि निजी कंपनियाँ डिजाइन, निर्माण और संचालन की उत्कृष्ट कार्यकुशलता सार्वजनिक सेवा के लिए लाती हैं। ऐसा तर्क दिया जाता है कि निजीकरण से परियोजना संचालन में ज्यादा कुशलता आती है जिससे परियोजना लागत में बचत और लाभ अधिकतम होता है। इस तर्क का स्वाभाविक निष्कर्ष यह है कि बेहतर कार्यकुशलता से लागत में कमी आती है, जिससे कम कीमत पर सेवाप्रदाय हो सकती है। परंतु दुनियाभर के अनुभव विशेषकर पानी के क्षेत्र में यह दर्शाते हैं कि संचालन की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र का एकाधिकार नहीं है। जल आपूर्ति की कुशल सार्वजनिक सेवाओं के भी अनेक उदाहरण हैं। यह एक अलग मुद्दा है जिसे हम बाद में विस्तार से देखेंगें। हम पहले यह देखें कि निजी कंपनियाँ कितनी कार्यकुशल हैं और लागत में कमी तथा सस्ती दरें जिन्हें बेहतर कार्यकुशलता से जोड़ा जाता है, की सच्चाई क्या है।
पब्लिक प्रायवेट इफास्ट्रक्चर एडवायज़री फेसिलिटी (पीपीआयएएफ) जो कि विश्व बैंक की ही एक एजेंसी है, के 2009 के अध्ययन में इस बहस का समाधान खोजने की कोशिश की गई कि पानी और बिजली वितरण के लिए पीएसपी (निजी क्षेत्र सहभागिता) मॉडल से कार्यक्षमता वृद्धि होती है-‘‘ विकासशील और परिवर्तनाधीन अर्थव्यवस्थाओं में 1200 से अधिक उपक्रमों के आँकड़ों को उपयोग में लिया गया है। इसमें एक दशक से अधिक समय से कार्यरत 301 उपक्रम पीएसपी और 926 सार्वजनिक क्षेत्र के शामिल किए गए हैं’’।
जल व मलनिकास क्षेत्र में पीएसपी पर इस अध्ययन में यह सवाल उठाया गया है कि ‘‘चूँकि पीएसपी से कार्यक्षमता वृद्धि होने के कारण संचालन लागत में कमी होनी चाहिए, फिर भी दरें कम होती क्यों नहीं दिखाई दे रही हैं।’’ (ऐसा माना जाता है कि संचालन लागत कम होने का प्रभाव सेवा क्षेत्र और निवेश की मात्रा में वृद्धि या दरों में कमी के रूप में दिखाई देना चाहिए।) इसका एक संभावित उत्तर यह हो सकता है कि ‘‘निजी संचालक पूरी धन प्राप्तियों को लाभ के रूप में रख सकते हैं और लागत में किसी भी प्रकार की बचत का फायदा उपभोक्ताओं को नहीं पहुँचाते हैं। नियमन की शैशवावस्था वाले विकासशील देशों, जो अधिकांशतः निजी-सार्वजनिक अनुबंधों की पर्याप्त निरीक्षण क्षमता नहीं रखते है, में इस संभावना का ध्यान रखा जाना भी आवश्यक है।’’
अन्य प्रतिमानों जैसे वसूली दर के लिए अध्ययन कहता है-‘‘इस अध्ययन में ऐसे कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं कि जल क्षेत्र में पीएसपी द्वारा बिल वसूली की दर सरकारी उपक्रमों से बेहतर है और रिहायशी सेवा क्षेत्र पर इसके प्रभाव के प्रमाण निष्कर्ष निकालने लायक नहीं हैं।’’
रिहायशी सेवा के बारे में अध्ययन ने पाया ‘‘पूरे नमूने का आंकलन करने पर, सभी प्रकार के पीएसपी में या तो रिहायशी सेवा क्षेत्र काफी घट रहा है या कोई खास परिवर्तन देखने में नहीं आ रहा है। इस पर ध्यान दिए बगैर कि किस स्तर तक का निजी प्रोत्साहन अंतर्निहित है।’’
सेवा गुणवत्ता और वितरण हानियों पर अध्ययन ने पाया कि ‘‘संचालन और सेवा गुणवत्ता के परिणाम जो जल वितरण हानि और प्रतिदिन जल सेवा के आधार पर मापे गए हैं, इसी प्रकार अनिश्चित हैं’’।
निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यक्षमता पर बहस पर पीएसआईआरयू अध्ययन में दोनों की सापेक्ष कार्यक्षमता की तुलना करने पर पाया कि ‘‘सतत रूप से तथ्यात्मक प्रमाण लगातार और बारम्बार यह दर्शाते हैं कि निजी और सार्वजनिक सेवा प्रदाताओं के बीच कार्यक्षमता और अन्य पैमानों पर आधारित कोई व्यवस्थित प्रभावकारी अंतर नहीं है’’।
विश्व बैंक, आईएमएफ और एडीबी आदि के पहले कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि सार्वजनिक और निजी कंपनियों की कार्यक्षमता में कोई विशेष अंतर नहीं है।
पर्यावरण और विकास का अंतर्राष्ट्रीय संस्थान (आईआईईडी), लंदन आदि के पूर्व के अध्ययनों ने यह पाया है कि विश्वभर में जल और मलनिकासी का कार्य कुशलतापूर्वक करने वाले सार्वजनिक उपक्रमों के अनेक उदाहरण हैं। ट्रांसनेशलन इंस्टीट्यूट (टीएनआई) और कार्पोरेट यूरोप आब्सर्वेटरी (सीईओ) के अध्ययन और नए रुझान बताते हैं कि अनेक देशों में लोगों को सेवा प्रदान करने में पीपीपी के बजाय जल सेवा क्षेत्र में सुधार के अन्य मॉडल जैसे पब्लिक-पब्लिक पार्टनरशीप (पीयूपी) ज्यादा बेहतर हैं। पीयूपी के कई उदाहरण हैं जो जन सहयोगात्मक, कम खर्चीले, कार्यक्षम और पारदर्शी हैं। अल आल्टो (बोलिविया), सान्ता फे, ब्यूनस आयर्स (अर्जेन्टीना) और हान्डूरास, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इन्डोनेशिया, मलेशिया जैसे अन्य अनेक देशों में पीयूपी के बेहतर उदाहरण सामने आए हैं।
उपर्युक्त के अलावा, कार्यक्षमता और प्रोत्साहन से जुड़ा एक अन्य पक्ष यह भी है कि निजी कंपनियाँ जोखिमों से दूर रहना चाहती हैं क्योंकि इनमें निजी निवेशक शामिल होते हैं जो अपने निवेश और लाभ पर कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं। निजी कंपनी किसी भी परियोजना के क्रियांवयन से जुड़ी जोखिमों से बचती है। उदाहरण के लिए जल क्षेत्र में तकनीकी, संचालन और वित्तीय जोखिमों के अलावा संसाधनों, सामाजिक और राजनैतिक जोखिम भी होते हैं। ये जोखिमें कार्यक्षमता और प्रोत्साहनों के साथ बड़े पेचीदा तरीके से जुड़ी रहती हैं। इसके मायने हैं कि निजी कंपनियाँ सार्वजनिक उपक्रमों की तुलना में कार्यक्षमता के बेहतर प्रबंधन और इन जोखिमों की एवज में ज्यादा प्रोत्साहनों की माँग करती हैं। जब भी निजी कंपनियाँ किसी ऐसी परियोजना का क्रियांवयन करती हैं जिसमें कोई विशेष जोखिम न हो तो नियमन और नियंत्रण का तंत्र नहीं रहता है। और यदि किसी कंपनी को जोखिम नहीं उठानी पड़ती है तो वह कम खर्च और कम कीमत पर बेहतर सेवा देने के लिए आवश्यक कार्यक्षमता से कार्य नहीं करेगी। इसका कुल मिलाकर यह प्रभाव पड़ेगा कि जोखिमों के बगैर परियोजना चलाने पर निजी कंपनी को बेहतर सेवा, मितव्ययता और अधिक उत्पादकता प्रदर्शित करने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। पीपीपी के जोखिम हस्तांतरण को इस पुस्तिका में बाद में विस्तार से रखा गया है।
ऐसे अनेक उदाहरणों में से एक लंदन की भूमिगत रेल व्यवस्था का है। लंदन में मेट्रो सेवाओं के लिए लंदन मेट्रो नामक निजी कंपनियों के संघ को पीपीपी द्वारा अनुबंधित किया गया था। यह निजी कंपनी न तो सेवा देने में और न ही रखरखाव का कार्य करने में सफल रही अपितु उसने मेट्रो रेल को वित्तीय संकट में फँसा दिया और 2007 में उसने इंग्लैण्ड की सरकार से अतिरिक्त 5 अरब 51 करोड़ पाउण्ड की माँग की ताकि वह अगले वर्ष का खर्च वहन कर सके। यह उदाहरण इस काल्पनिक अवधारणा को ध्वस्त करता है कि निजी क्षेत्र कार्यक्षम होता है। अन्य कई अध्ययन और उदाहरण दर्शाते हैं कि कार्यक्षमता और संचालन के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र बेहतर हो ऐसा जरूरी नहीं है।
निजी पूँजी निवेश में वृद्धि
पीपीपी मॉडल के पक्ष में एक प्रमुख दावा यह भी किया जाता है कि चूँकि इस मॉडल में निजी वित्तीय संसाधनों का उपयोग होता है जिससे परियोजना में सार्वजनिक संसाधन लगाने ही नहीं पड़ते हैं। ये बचे हुए सार्वजनिक संसाधन सरकार की दूसरी नीतिगत प्राथमिकताओं के लिए काम में लाए जा सकते हैं।
डेविड हाल ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है ‘‘सरकारी ऋणों पर जो बजट संबंधी बाधा होती है वे राजनैतिक फैसले होते हैं न कि पत्थर की लकीर। 2008 की आर्थिक मंदी ने दर्शाया है कि किस प्रकार सभी जगहों की सरकारें अपना खर्च और कर्ज बढ़ा रही हैं ताकि वे वित्तीय क्षेत्र तथा सामान्य अर्थव्यवस्था को सहायता पहुँचा सकें। यह जिस पैमाने पर हो रहा है वह पीपीपी द्वारा सार्वजनिक सेवाओं में किए गए निवेशों की तुलना में बहुत ही ज्यादा है। इंग्लैण्ड की एक असफल बैंक (नार्दन रॉक) के 2008 में किए गए राष्ट्रीयकरण ने इंग्लैण्ड का राष्ट्रीय ऋण 8,700 करोड़ पाउण्ड बढ़ा दिया। यह आँकड़ा पिछले 13 वर्षों में इंग्लैण्ड में अनुबंधित सभी पीपीपी और पीएफआई के कुल मूल्य 6,000 करोड पाउण्ड तथा पूरे यूरोपीय यूनियन के 3,200 करोड़ यूरो (2,600 करोड़ पाउण्ड) से कहीं ज्यादा हैं‘‘। (मूल दस्तावेज में जोर दिया गया है।)
जबकि दूसरी ओर राजनैतिक दृष्टिकोण को अलग रखते हुए पीपीपी परियोजनाओं में यह अनुभव हुआ है कि सार्वजनिक क्षेत्र के संसाधन तो खर्च होते ही हैं। पीपीपी के माध्यम से निजी क्षेत्र की अपनी अक्षमताओं, गैर जिम्मेदारियों और जोखिमों से दूर रहने की प्रवृत्ति के कारण निजी मुनाफे के लिए सार्वजनिक संसाधन खींच लिए जाते हैं। तिरूपुर, नागपुर और मेट्रो मनीला जलप्रदाय परियोजना निःसंदेह यही प्रमाणित करती हैं। तिरूपुर में तमिलनाडु सरकार ने अन्य गारण्टियों और रियायतों के अलावा परियोजना कंपनी के शेयरो में 50 करोड़ रुपए का निवेश किया तथा 25 करोड़ रुपए का उप ऋण, 71 करोड़ रुपए का वाटर शार्टेज पीरियड फण्ड और 50 करोड़ रुपए डेट सर्विस रिजर्व फण्ड के रूप में प्रदान किये हैं। उसी प्रकार नागपुर में यद्यपि परियोजना पीपीपी की है इसका पाँच वर्ष का पूरा खर्च 22 करोड़ रुपए भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार द्वारा वहन किया जायेगा। नागपुर नगर निगम ने निजी कंपनी विओलिया वाटर को 9 करोड़ रुपए में प्रबंधन शुल्क भुगतान कर उसकी सेवाएँ ली हैं। मेट्रो मनीला जलप्रदाय एवं स्वच्छता परियोजना से निजी कंपनी ‘स्वेज’ द्वारा अनुबंध समाप्त किये जाने की फिलीपींस सरकार को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी।
पुनः 12,200 करोड़ रुपए की अत्यधिक विवादास्पद हैदराबाद मेट्रो रेल परियोजना, जो मायटास इन्फ्रा लिमिटेड, नवभारत वेंचर्स लिमिटेड, थाईलेण्ड के इटाल-थाई और आईएल एण्ड एफएस लिमिटेड के संघ को दी गई थी से संबंधित रिपोर्ट दर्शाती है कि सार्वजनिक संसाधनों को कितनी बड़ी मात्रा को निजी कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए उपलब्ध करवाया गया था। बाद में सत्यम कम्प्यूटर्स लिमिटेड, जो मायटास इन्फ्रा की मातृ कंपनी है, का बड़ा घोटाला यहाँ तक कि विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, बैंक और वित्तीय कंपनियाँ जो इस बीच असफल हो गए और बहुत हद तक स्वयं अपनी अक्षमताओं और भ्रष्ट तौर-तरीकों के कारण मौजूदा वैश्विक मंदी जिम्मेदार थे, अब सार्वजनिक क्षेत्रों से अपनी जमानत चाहते हैं।
विश्व बैंक का एक अध्ययन कहता है ‘‘प्रायवेट पार्टिसिपेशन इन इन्फ्रास्ट्रक्चर या पीपीआई (बुनियादी ढाँचे में निजी भागीदारी) का पानी के मामले में दक्षिण अमेरिकी अनुभव दुनियाभर में सबसे गहन है। इस अनुभव के अनुसार विश्व में पीपीआई द्वारा शहरी जलक्षेत्र में धन लगाने की संभावनाएँ क्षीण दिखाई देती हैं। जल एक ‘मुश्किल’ क्षेत्र है और इसमें दोनों पक्षों के लिए इतनी जोखिमें है कि जलप्रदाय निवेशों के लिए समुचित धनराशि जुटा पाना मुश्किल है’’।
पानी एवं मलनिकासी के क्षेत्र में पीएसपी पर पीपीआईएएफ द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है ‘‘पीएसपी के पैरोकारों ने ज्यादा उम्मीदें बाँधी और राजनेताओं ने कभी-कभी बिना विचारे वादा कर दिया कि सार्वजनिक सेवाओं में निजी क्षेत्र की बढ़ी हुई भागीदारी अत्यधिक पूँजी निवेश लाएगी और इससे ज्यादा क्षमता और कार्यक्षेत्र का विस्तार होगा। अध्ययन में इस बारे में मिले-जुले प्रमाण प्राप्त हुए हैं। अतः यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि पीएसपी से निवेश हमेशा बढ़ता ही है।’’
विश्व बैंक आगे कहती है ‘‘ग्यारहवीं योजना में पीपीपी के माध्यम से निजी क्षेत्र की प्रमुख भूमिका का अंदाज लगाया गया है, परन्तु वैश्विक मंदी के कारण शायद यह उस आशाजनक सीमा तक संभव न हो सके और निजी क्षेत्र की पहल में कमी हो सकती है’’ और ‘‘तंग साख बाजार तथा वैश्विक वृद्धि की धीमी गति के कारण निजी निवेश एवं उपभोग वृद्धि में भारी कटौती हो सकती है’’।
भारत में उन कुछ निजी संचालित परियोजनाओं का परिदृश्य प्रस्तुत करती है जिसमें सार्वजनिक संसाधनों का निवेश किया गया है। इस तालिका में दर्शाया गया है कि किस हद तक व किस प्रकार के सार्वजनिक संसाधनों को इन परियोजनाओं में निजी कंपनियों को मुनाफे हेतु सौंप दिया गया है। यहाँ महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि निवेशित संसाधन मात्र पूँजी तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उसमें मानवीय संसाधन, विशेषज्ञता, प्रतिभूतियाँ, प्रोत्साहन आदि भी शामिल हैं।
भारत में पीपीपी एवं निजी निवेश के संदर्भ में नई निजी पनबिजली परियोजनाओं पर विचार करें। जिनमें से अधिकांश की जानकारी भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग की वेबसाईट पर पीपीपी सूचना सामग्री में दी गई है। केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग (CERC) के नए नियमों (जनवरी 2008) का इस संदर्भ में प्रभावकारी असर हो सकता है। श्रीपाद धर्माधिकारी के अनुसार -
‘‘केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग ने परियोजना कंपनियों को उनकी भागीदारी से होने वाली आय पर लगे टेक्स की वापसी की इजाजत दी है। पनबिजली कंपनियों को उनकी अंशपूँजी पर हुए पर भुगतान किए गए आयकर की धनराशि को बिजली दरों में जोड़ा जायेगा और उपभोक्ताओं से वसूला जाएगा। दूसरे शब्दों में, अंशपूँजी पर 16% की दर से मुनाफा टेक्स भुगतान के बाद का है। इसे सुनिश्चित करने के लिए सीईआरसी ने कंपनी को मिलने वाले कुल लाभ को अंशपूँजी पर मिलने वाले मुनाफे के अलावा कपनी द्वारा भुगतान किए जाने वाले टेक्स के बराबर कर दिया है। इस प्रकार कोई कंपनी जो सामान्यतः 33.99% कारपोरेट टेक्स देती है, उसे अपने उपभोक्ताओं से लगभग 23.5% की दर से अंश पूँजी पर मुनाफा कमाने की छूट होगी।
‘‘जब पनबिजली कंपनियों की टेक्स छूट की पात्रता पर विचार किया जाए तो यह मुद्दा और जटिल हो जाता है। सीईआरसी चाहता है कि टेक्स छूट का लाभ उपभोक्ताओं को दिए जाने के बदले परियोजना निर्माता को मिले। इसके सही अर्थ के लिए अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि इस प्रावधान से तब बड़ी अजीब स्थिति बनेगी जब परियोजना द्वारा विद्युत उपभोक्ताओं से टेक्स तो उनके बिल में जोड़ कर वसूल लिया जाएगा परंतु उसे शासन को भुगतान न करते हुए निजी कंपनी अपने पास ही रख लेगी।’’
बजट में व समय पर
पीपीपी परियोजनाओं की योग्यता के बारे में किए गए अध्ययन दर्शाते हैं कि इन परियोजनाओं के द्वारा अपने घोषित लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी बड़ी मुश्किल होती है। पीपीपी परियोजनाएँ धन (बजट) की कसौटी और समय पर पूरे होने की दृष्टि से खरी नहीं उतर पाई हैं।
पीपीपी परियोजनाओं के ‘बजट में’ व ‘समय पर’ पूरे हो पाने के वादों की असफलता का मुख्य कारण यह है कि परियोजना प्रारंभ किए जाने से पूर्व ही निविदा प्रक्रिया और समझौता चर्चाओं में लम्बा समय लग जाता है। निविदा और समझौता वार्ता पर खर्च तथा इसमें लगने वाले समय को परियोजना की कुल लागत में शामिल किया जाना चाहिए।
उदाहरण के लिए नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (केग/CAG) ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) की पीपीपी परियोजनाओं की लेखा परीक्षा में पाया है कि पीपीपी परियोजनाओं का प्रदर्शन कैसा है-
‘‘यद्यपि एनएचडीपी (राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम) की प्रथम चरण की परियोजनाओं को पूर्ण किए जाने का लक्ष्य जून 2004 था। प्राधिकरण पीपीपी की 17 में से केवल 5 परियोजनाओं को ही पूर्ण कर पाया। शेष परियोजनाओं में 2 से 42 माह तक का अप्रत्याशित विलम्ब था।’’
एक अन्य उदाहरण मुम्बई की बहु प्रचारित मेट्रो रेल परियोजना का है जो 19 माह के न समझाए जा सकने वाले विलम्ब के साथ प्रारंभ हुई और उसकी समाप्ति की समय सीमा का कोई ठिकाना नहीं है। विलम्ब के कारण परियोजना लागत 1500 करोड़ रुपए से बढ़कर 2356 रुपए करोड़ हो गई। इसमें अभी ऐसी रुकावटें हैं जिन्हें हल किया जाना बाकी है, जैसे मेट्रो से संबंधित विभिन्न कार्यों के लिए जमीन और सार्वजनिक सेवाओं यथा पानी, बिजली, टेलीफोन आदि की अचिन्हित लाईनों को हटाने का खर्च।
म॰प्र॰ में नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन महेश्वर पनबिजली परियोजना बनावटी लागत वृद्धि (कॉस्ट पेडिंग) के बारे में गंभीर संदेह पैदा करती है। बुनियादी ढाँचा विकास की आस्ट्रेलियाई परिषद ने अपना अभिमत व्यक्त किया है कि ‘‘अगर निविदा प्रक्रिया ठीक तरह से नहीं चलती है तो यह संभव है कि निविदा प्रक्रिया खर्च के बोझ से परियोजना संचालन में पीपीपी के लाभ कम हो जाएँ’’ जबकि दूसरी ओर ’’पारम्परिक ठेकों के अंतर्गत निजी ठेकेदारों की लागत बहुत कम होती है और ये ठेके (संचालन के) पाँच वर्ष से अधिक समय नहीं लेते’’।
इसके अलावा बदली हुई परिस्थितियों में यदि परियोजना पर पुनर्विचार होता है तो लागत और बढ़ जाती है। और ज्यादातर ठेकों पर पुनर्विचार होता है क्योंकि अनुबंध समयावधि में परिस्थितियाँ बदलती हैं। वर्तमान वित्तीय और आर्थिक उतार-चढ़ाव इस बात का स्पष्ट उदाहरण है।
यदि अनुबंध पूर्व की सभी प्रक्रियाओं और नियमन की लागत और समयावधि को परियोजना लागत में जोड़ा जाए तो अधिकांश पीपीपी परियोजनाएँ पारंपरिक सार्वजनिक ठेकों की तुलना में ज्यादा मँहगी पड़ेंगी।
भारत जैसे विकासशील देशों में उन तरीकों का अभाव है जिससे पीपीपी परियोजनाओं का सार्वजनिक क्षेत्र के ठेकों से तुलनात्मक मूल्यांकन किया जा सके। बहुधा विकसित देशों में एजेंसियों द्वारा निवेश के लाभ (वेल्यू फॉर मनी) पद्धति से पीपीपी मॉडल के समय और लागत संबंधी लाभों का अध्ययन के लिए किया जाता है। अधिक लाभप्रद होने पर ही पीपीपी मॉडल की अनुशंसा की जाती है।
जबकि दूसरी ओर भारत में हमारे पास सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ जैसे दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी), एनएचपीसी, एनटीपीसी, बीएचईएल आदि हैं जिनकी परियोजना को दिए गए संसाधनों और समय सीमा में पूरा करने की क्षमता है। अतः ऐसा नहीं है कि अधिक दाम वसूलने वाली केवल निजी कंपनियाँ ही बजट और समय-सीमा का लाभ प्रदान कर सकती हैं।
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