वास्को-द-गामा (गोवा) : वातावरण की वायु गुणवत्ता में हो रही निरन्तर कमी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर गम्भीर चिन्ता का विषय बना हुआ है। भारत के अधिकांश शहर भी खराब वायु गुणवत्ता से प्रभावित हैं। ऐसे में वैज्ञानिक और पर्यावरणविद इसका एक सार्थक हल निकालने की दिशा में प्रयासरत हैं।
बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय और भारतीय विषविज्ञान अनुसन्धान संस्थान के वैज्ञानिकों ने लखनऊ के शहरी इलाकों की वायु गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले पीएम10 कणिकीय पदार्थ के गहन आकारिकीय एवं रासायनिक विश्लेषण किए हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस अध्ययन से कणिकीय पदार्थ की उत्पत्ति, रासायनिक संरचना और संभावित रोगजन्यता के माध्यम से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले घातक प्रभावों को बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा।
शोधकर्ता नरेंद्र कुमार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “यूँ तो लखनऊ में पीएम10 और पीएम 2.5 पर बहुत से वैज्ञानिक अध्ययन चल रहे हैं, लेकिन कणों की आन्तरिक व मौलिक संरचना और इसमें मौजूद रासायनिक कार्यात्मक समूहों का अध्ययन पहली बार किया गया है।”
उन्होंने बताया कि जैसे-जैसे कणों का समतुल्य गोलाकार व्यास (ईएसडी) बढ़ेगा वैसे वैसे कणों का सतह क्षेत्र भी बढ़ेगा जिससे ज्यादा मात्रा में जहरीले पदार्थ उसकी सतह पर चिपक जायेंगे, जो साँस के रास्ते से फेफड़ों में पहुँच जायेंगे एवं श्वसन नली को संकरा कर देंगे, जिससे लोगों को साँस लेने में बहुत दिक्कत महसूस होगीI इससे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसॉर्डर (सी ओ पी डी) जैसी गम्भीर बीमारियाँ हो सकती हैI
पीएम शब्द का प्रयोग पार्टिकुलेट मैटर यानि वायु में निलम्बित उन कणिकीय पदार्थों के लिये किया जाता है, जो अत्यन्त सूक्ष्म ठोस कणों और तरल बूँदों से बने होते हैं। इसमें धूल, गर्द और धातु के सूक्ष्म कण शामिल होते हैं। वास्तव में कणिकीय पदार्थ ईंधन जैसे कोयला, लकड़ी, डीजल के दहन और विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं एवं खेतों आदि में खरपतवार या पराली आदि के जलाने से बनते हैं। कणिकीय पदार्थों को उनके कणों के व्यास के आधार पर दो समूहों पीएम10 और पीएम 2.5 में बाँटा गया है। ये ऐसे कणिकीय पदार्थ होते हैं जिनके कणों का व्यास क्रमशः 10 और 2.5 माइक्रोमीटर या उससे कम होता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार पीएम10 में साँस ली जा सकती है, परन्तु पीएम 2.5 साँस द्वारा फेफड़ों के भीतर जाकर उनको क्षति पहुँचाते हैं।
लखनऊ के छः इलाकों अलीगंज, बीबीएयू, चौक, भारतीय विषविज्ञान अनुसन्धान संस्थान, मोहनलालगंज और निशातगंज में अक्टूबर 2015 से सितम्बर 2016 के दौरान पीएम10 के अध्ययन किए गए। अध्ययन स्थलों में पीएम10 की वार्षिक औसत सान्द्रता 124 से लेकर 193.28 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर आंकी गई, जो राष्ट्रीय परिवेश वायु गुणवत्ता मानक द्वारा निर्धारित वार्षिक मानक स्तर से तीन गुना तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन से लगभग 7-8 गुना अधिक पाई गई।
शोध में स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप द्वारा कणिका पदार्थों के आकारिकीय विश्लेषण, तत्वीय संरचना और रासायनिक कार्यात्मक समूह परिवर्तनशीलता के अध्ययन के लिये कुल 5000 कणों का विश्लेषण किया गया। आकारिकीय गुण जैसे कणों की संख्या, घटक अनुपात, परिसंचरण, गोलाई, समतुल्य गोलाकार व्यास (ईएसडी) और सतह क्षेत्र दर्शाते हैं कि ये कण पूर्णतया गोलाकार से लेकर अनियमित आकार के होते हैं। कणिका पदार्थों के मुख्यतः दो प्रकार कार्बनिक एवं अकार्बनिक समूहों का पता चलाI इसके आधार पर वैज्ञानिकों ने इनको चार अलग-अलग समूह यानि अकार्बनिक अवयवों, काले धुएँ वाली कालिखों, टार के गोल कणों तथा एल्यूमिनोसिलेट्स युक्त कार्बनिक कणों में बाँटा है। प्राप्त परिणामों से कणिका पदार्थों में अकार्बनिक समूह जैसे सल्फेट, बाइसल्फेट, कणिका जल, सिलिकेट, अमोनियम तथा कार्बनिक समूह जैसे एलीफैटिक कार्बन, एलीफैटिक अल्कोहल, कार्बोनिल और कार्बनिक नाइट्रेटों की उपस्थिति की पुष्टि हुई है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्य का तंत्रिका तंत्र अकार्बनिक पदार्थों की तुलना में कार्बनिक पदार्थों के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है, अतः कार्बनिक कणों के श्वसन तंत्रिका तक पहुँचने की सम्भावना भी उतनी ही अधिक बढ़ जाती है, जिससे अल्जाइमर और पार्किसंस रोग हो सकते हैंI
लखनऊ की हवा में पाए गए इन विभिन्न कणिका पदार्थ समूहों की उत्पत्ति और आकारिकीय गुणों का तुलनात्मक अध्ययन अन्य शहरों जैसे चण्डीगढ़, आगरा और पुणे के साथ किए गए। यह पाया गया कि सभी जगह कणों के आकारों में बहुत अधिक विविधताएँ देखने को मिलती हैं। वहीं इनकी उत्पत्ति के बारे में जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे एक बात स्पष्ट रुप से यह दर्शाती है कि लखनऊ के अलावा शेष सभी तुलनात्मक स्थानों पर ये कण ज्यादातर प्राकृतिक कारणों से ही उत्पन्न होते हैं, जबकि लखनऊ में प्राकृतिक रुप से उत्पन्न होने वाले सिलिका और अल्युमिनोसिलिकेट को छोड़कर शेष सभी तरह के कणों की उत्पत्ति के स्रोत अधिकांशतया मानवजनित गतिविधियाँ ही हैं।
पीएम10 को श्वसनीय स्तर के लिये भले ही सुरक्षित माना गया हो, परन्तु लखनऊ में किए गए ये शोध इसे नए सिरे से समझने की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। प्राप्त परिणाम वर्तमान वायु गुणवत्ता के गहराई से अध्ययन के साथ-साथ पीएम10 के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में भी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में सुशील कुमार भारतीय, धनंजय कुमार, संगीता आनंद, पूनम, श्यामल चंद्र बर्मन, नरेंद्र कुमार शामिल थे। यह शोध पत्रिका माइक्रॉन में प्रकाशित हुआ है।
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