दिनांक 17 अप्रैल, 2018 को सप्रे संग्रहालय, भोपाल में नदी मित्रों की बैठक हुई। इस बैठक में मध्य प्रदेश के नर्मदा कछार की सूखती नदियों को फिर से अविरल बनाने पर चिन्तन हुआ। इस बैठक में वन, बाँध निर्माण से जुड़े सिविल इंजीनियरों, भूविज्ञानियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडियाकर्मियों ने भाग लिया। लगभग दो घंटे चली चर्चा का लब्बोलुआब यह था कि नदियों को बचाने का प्रयास, उन्हें समग्रता में समझकर ही किया जा सकता है।
यह बात भी उभर कर सामने आई कि यह प्रयास सभी विधाओं के लोगों को मिलकर करना होगा। उसे एकांगी सोच के आधार पर नहीं किया जा सकता। हकीकत समझ कर ही नदियों की बदहाली से लेकर उनके पुनर्जीवन को प्रभावित करने वाले घटकों को संवारने का प्रयास होना चाहिए। बैठक की अध्यक्षता भारतीय वन सेवा के पूर्व अतिरिक्त प्रमुख मुख्य वन संरक्षक विनायक सिलेकर ने की। अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों ने अपनी-अपनी बात निम्नानुसार प्रस्तुत की।
वन प्रबन्ध संस्थान के मुखिया डा. पंकज श्रीवास्तव का अभिमत था कि नदी का काम बहना है। यदि मध्य प्रदेश की जीवन-रेखा कही जाने वाली नर्मदा को जिन्दा करना है तो सबसे पहले उसकी सहायक नदियों को जिन्दा करना होगा। विदित हो कि अमरकंटक के पठार से निकलने वाली नर्मदा के पानी का लगभग साठ प्रतिशत हिस्सा उसकी दक्षिणी सीमा पर स्थित सतपुड़ा पर्वत माला से निकलने वाली नदियों के माध्यम से आता है। उनका कहना था कि नदी यदि बहना बन्द कर देगी तो वह तालाब में तब्दील हो जाएगी। उन्होंने अपनी पुस्तक “जंगल रहे ताकि नर्मदा बहे” के हवाले से वृक्षारोपण पर जोर दिया। उनका कहना था कि जंगल, हकीकत में केवल कुदरती होते हैं। कुदरत ही उन्हें गढ़ता है। हम केवल पेड़ लगा सकते हैं, जंगल नहीं।
जंगल ही वास्तव में नदियों को बचाने के यंत्र हैं। उनका सुझाव था कि वृक्षारोपण करते समय बहुत सावधानी से प्रजातियों का चयन किया जाना चाहिए। हमें पानी की जो मौजूदा जरूरतें हैं, उन्हें समझना चाहिए। हम सबसे पहले, नदी को समझने का प्रयास करें तथा अर्धसत्य से बचें। यही सही मार्ग है। उन्होंने 6वीं सदी में वराहमिहिर द्वारा लिखी वराहसंहिता का उल्लेख किया जिसमें भूजल और वृक्षों पर आधारित अनेक लक्षणों का विवरण उपलब्ध है। नदी को जिन्दा करने का प्रयास करने वालों को उसका अध्ययन करना चाहिए।
नर्मदा घाटी से जुड़े सेवा निवृत्त मेम्बर इंजीनियरिंग राधेश्याम कश्यप का कहना था कि प्रारम्भ में नर्मदा घाटी का पूरा इलाका वनाच्छादित था। नदी तंत्र के प्रवाह को अविरल रखने में उसका पूरा-पूरा योगदान था। बाँधों के बनने के बाद भले ही नहरों ने पानी को दूर-दूर तक पहुँचाया है, पर धीरे-धीरे पानी की क्वालिटी में गिरावट आई है। अनेक नदियाँ प्रदूषित हो गर्इं हैं। कई जगह उनका पानी उपयोग के काबिल नहीं रहा है। घाटी में जल संकट दस्तक दे रहा है। नदियों खासकर नर्मदा में तेजी से रेत का खनन हो रहा है। यह नदी तंत्र के अस्तित्व के लिये खतरा है। यदि सही समाधान नहीं खोजा गया तो अगले 50 साल के अन्दर नर्मदा कछार की नदियाँ मर जायेंगी।
मीडियाकर्मी राकेश दीवान का कहना था कि नर्मदा को हमने तालाब में तब्दील कर दिया है। हमारी नासमझी, नर्मदा के सदानीरा स्वभाव को खत्म कर रही है। सभी जानते हैं कि जलस्रोतों से खिलवाड़ करना दण्डनीय है पर हमने उज्जैन में महाकाल के पीछे बुद्धि सागर तालाब के अन्दर म्यूजियम बना दिया है। मूर्ति लगा दी है। कहा जाता है कि सिंचाई से उत्पादन बढ़ता है। लेकिन बाँधों से मात्र दस प्रतिशत ही उत्पादन बढ़ा है।
राकेश का कहना था कि इतना अनाज तो चूहे और कीड़े ही खा जाते है। वे आगे कहते हैं कि यदि नर्मदा समाप्त होगी तो मध्य प्रदेश का परिदृश्य अकल्पनीय हो जायेगा। देश के 91 प्रतिशत तालाबों में केवल 25 प्रतिशत पानी बचा है। यदि बाँध बनता है तो एक नदी मार दी जाती है। हमने नदियों को मारा है। हमने जंगलों की हत्या की है। वन्य प्राणियों को मारा है। वे जोर देकर कहते हैं कि बाँधों में सिल्ट भर रही है। वे उथले हो रहे हैं। बाँधों के कारण नदी के प्रवाह को शून्य नही होना चाहिए।
श्याम बोहरे का मानना था कि सरकारी व्यवस्था लोगों को अपने देशज ज्ञान के अनुसार नहीं चलने देती। व्यवस्था जिन्हें तवज्जो नही देती उनके पास भी विज्डम है। प्रश्न यह है कि क्या हम उनसे कुछ सीखना चाहते हैं? समाज में अनेक लोग हैं जो एकजुट हो, अपने-अपने तरीके से अच्छा काम कर रहे हैं। हमें उनके काम का संज्ञान लेना चाहिए। लेखा-जोखा रखना चाहिए। सरकार को गलतियाँ करने से रोकना चाहिए। उन्होंने सरदार सरोवर बाँध के आन्दोलनकारियों तथा सरकार के बीच सम्पन्न वार्ता के उल्लेख द्वारा बताया कि जो लोग प्रारम्भ में एक-दूसरे की बात सुनने के लिये तैयार नहीं थे, बाद में मुद्दों को समझने के लिये सहमत हुए। नदियों के मामले में भी सबको मिल-बैठ कर हल खोजना चाहिए।
समाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र हरदेनिया ने बताया कि प्रदेश के अनेक नगरों तथा कस्बों में नर्मदा के पानी पर आधारित प्रोजेक्ट बने हैं। कुछ जगह औचित्य पर चर्चा के बिना भी योजना बनी है। योजना बनाते समय इस बात पर भी विचार नहीं हुआ कि पानी उठाने से नर्मदा के प्रवाह पर क्या असर होगा? पिपरिया में नर्मदा पेयजल योजना लागू की गई है। पाइप लाइन बिछ चुकी है। योजना के शुभारम्भ की घड़ी तो नहीं आई पर नदी में इंटेक-वेल के पास पानी नहीं है। पिपरिया के आस-पास की नदियाँ सूख गई हैं। पिपरिया में समाज की पहल से स्थानीय नदी (जो कभी सदानीरा थी और अब सूख चुकी है) को जिन्दा करने का प्रयास किया जा रहा है। वह नर्मदा की सहायक नदी है। उस नदी पर किया जा रहा प्रयास यदि सफल होता है तो वह लाइट हाउस का काम करेगा।
के. जी. व्यास ने भू-विज्ञान की दृष्टि से नदी के उद्भव तथा उसकी भूमिका पर प्रकाश ड़ाला। नर्मदा घाटी के मानचित्र की मदद से अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि बारिश का पानी और धरती में रिसा पानी खुद अपना रास्ता चुनता है। बड़ी नदी, छोटी-छोटी सरिताओं के माध्यम से एकत्रित किये मलबे को, समुद्र में पहुँचा देती है वहीं भूजल कछार की उथली परतों को साफ करता है पर यह तभी संभव है जब भूजल का स्तर नदी तल के ऊपर रहे।
श्री व्यास ने नर्मदा नदी के प्रवाह की यात्रा का ब्यौरा भी प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि सहायक नदियों के योगदान अर्थात भूजल के योगदान के कारण ही बरगी बाँध में 87 प्रतिशत लाइव-स्टोरेज उपलब्ध है। सहायक नदियों के योगदान के कम होने के कारण इंदिरा सागर में 39 प्रतिशत लाइव-स्टोरेज बचा है। तवा बाँध में केवल तीन प्रतिशत लाइव-स्टोरेज बचा है। उल्लेखनीय है कि तवा की सहायक नदियाँ सूख चुकी हैं। उन्होंने रेखांकित किया कि भूजल के अति दोहन के कारण भूजल स्तर गिरा है। उसके कारण सहायक नदियाँ सूख रही हैं। योगदान के घटने और जल उठाव के कारण नर्मदा के प्रवाह पर संकट है।
नदियों के प्रवाह की बहाली, समानुपातिक ग्राउंड वाटर रीचार्ज की मदद से सम्भव है। इसके लिये वनभूमि सहित सभी इलाकों में विभिन्न विधाओं के इस्तेमाल के साथ ही समाज को भी मिलकर काम करना होगा। यह सम्भव है।
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