अप्रैल से सितम्बर तक जो समुद्री हवाएं हिंद महासागर से उठ कर हिमालय की तरफ चलती है, उन्हीं का नाम मानसून है। यही मानसून हिंदुस्तान की भूमि पर हर साल इतना जल इकट्ठा कर देता है कि हिमालय से निकलने वाली सिंधु गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी विशालतम महानदियों के अतिरिक्त डेढ़ दर्जन सदा सुहागन महानदियां इस देश के चप्पे-चप्पे को सर्वदा जल प्लावित बनाएं रखती हैं।जम्बू दीप स्थित हिन्दुस्तान का एक नाम भारतवर्ष है। भारतवर्ष एक समुचित अर्थपूर्ण मुहावरा है। भारत का अर्थ है भरत (यानी शकुंतला और दुष्यंत का पुत्र) से सम्बन्धित, किन्तु वर्ष बहु-अर्थीय शब्द है। वर्ष, वर्षा को भी कहते हैं और धरती के भू-भाग को भी कहते हैं। वर्ष उस कालावधि को भी कहते हैं, जिनमें पृथ्वी सूर्य की निर्धारित परिक्रमा को पूरा करती है। भारतवर्ष के मुहावरे में वर्ष के ये तीनों अर्थ समाहित है। सरल भाषा में कहें तो भारतवर्ष उस देश का नाम है जहां स्थान, समय, समृद्धि तीनों की पहचान वर्षा से होती है।
भारतवर्ष और उसकी पारिस्थितिकी निर्माण के दो मूल कारक है। पहला हिमालय और दूसरा हिंद महासागर। आधुनिक जियोपालिटिकल मुहावरे में दक्षिण एशिया कहा जाने वाला यह भू-भाग पूरी दुनिया का सर्वाधिक अन्न उत्पादक क्षेत्र या धान का कटोरा है। इस क्षेत्र में प्राकृतिक क्षमता के अनुरूप योगदान होने लगे तो अकेला दक्षिण एशिया देश-दुनिया की भूख का निराकरण कर सकता है। विभिन्न शाखाओं के वैज्ञानिक एकमत हैं कि भारत देश की अन्न उत्पादन क्षमता 100 करोड़ टन से ज्यादा है। यह कोई गोपनीय तथ्य नहीं है। इस तथ्य का सीधा रिश्ता हिमालय के दक्षिणी पनढाल और हिंद महासागर से है यानी मानसून पारिस्थितकी या जलवायु से है।
अप्रैल से सितम्बर तक जो समुद्री हवाएं हिंद महासागर से उठ कर हिमालय की तरफ चलती है, उन्हीं का नाम मानसून है। यही मानसून हिंदुस्तान की भूमि पर हर साल इतना जल इकट्ठा कर देता है कि हिमालय से निकलने वाली सिंधु गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी विशालतम महानदियों के अतिरिक्त डेढ़ दर्जन सदा सुहागन महानदियां इस देश के चप्पे-चप्पे को सर्वदा जल प्लावित बनाएं रखती हैं। यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अरावली से निकल कर मरुस्थल में बहने वाली लूनी भी ऐसी ही नदीं है जिसने कच्छ डेल्टा का निर्माण किया है। यह बात अलग है कि हम पिछले दो सौ बरस से लगातार भारत की उत्पादकता का विनाश कर रहे हैं। इसी प्रक्रिया में हम लूनी और साबरमती जैसी कई नदियों की पारिस्थितिकी को नष्ट कर उनकी हत्या कर चुके हैं। यह सारा विनाश हमने साइंस से प्रेरित होकर मानवता आदि के नाम पर किया है। उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी सांस्कृतिक चेतना का जो ह्रास हुआ उसका हमें ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है। इसमें पानी चेतना का ह्रास तो विशेष चिंता का विषय है।
हिन्दुस्तान सदा-सर्वदा से नदी-नालों का देश है। उत्तर में सिंधु ब्रह्मपुत्र से लेकर कन्याकुमारी तक उन्नीस महानदी क्षेत्रों में हजारों नद-नदियां साल भर जल प्लावित रहती हैं। हिमालय के दक्षिण क्षेत्र में समस्त मानव जाति के लिए सिंधु अथवा हिंदू संज्ञा का प्रयोग प्राचीन काल से प्रचलित है। सिंधु जल का पर्याय है, इसलिए सिंधु से परिवर्तित हिंदू भी जल-प्लावित व्यक्ति और देश का पर्याय है। भारत देश की सनातन संस्कृति, पाप-पुण्य, शुद्ध-अशुद्ध, पवित्र-अपवित्र, जीवन-मृत्यु, दुख-सुख, जल के दर्शन पर आधारित है। जल पूजनीय है, देवता है, क्योंकि वह एक ऐसा तत्व है जो निरंतर निज का बलिदान कर जीवन की सृष्टि करता है। जीवित तत्व अथवा जीव-द्रव्य का बनना उसी क्षण शुरू होता है जब सूर्य, पृथ्वी, वायु और आकाश जल में निजी आहुति करते हैं। पानी मात्रा में चार हिस्सा और पांचवा शेष चार तत्वों का होता है। जीव विज्ञान के अनुसार मनुष्य मात्र में 78 प्रतिशत पानी होता है उसमें से यदि एक प्रतिशत घटे तो जीवन दूर्भर हो जाता है।
आधुनिक साइंस के विपरीत शाश्वत जल विज्ञान की मान्यता है कि जल का संरक्षण ठीक उसी स्थान पर होना चाहिए जहां जल की बूंद बरसती है। जब पृथ्वी पर गिरी बूंद अपने स्थान से आगे बढ़ जाती है, तब उसके संरक्षण का प्रयास अनर्थकारी नहीं तो भी अवैज्ञानिक तो है ही।
बूंद गिर कर बह जाएगी तो सतह पर अपेक्षित सजलता नहीं बनेगी क्योंकि पानी तो अपने दबाव से ही धरती के भीतर प्रवेश करता है। इसलिए अनिवार्य है कि पानी जहां गिरे, वहीं थमे और उस बिदूं पर पर्याप्त सजलता निर्मित हो जाय यानी पानी को धरती के भीतर जाने का यथोचित मार्ग मिल जाय, ताकि अतिरिक्त पानी आगे जा सके। यदि जल आकाश से गिरते ही आगे बढ़ गया तो न धरती सजल बनेगी और न ही मिट्टी अपने स्थान पर रूकेगी। सतही सजलता का शीघ्र वाष्पीकरण होता है। धरती काफी गहराई तक सजल होगी तो शीघ्र वाष्पीकरण की बजाय हरियाली (बायोमास) उत्पादन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। जमीन की सतह पर बायोमास होगा तो मिट्टी का संरक्षण होगा। पर्याप्त मिट्टी और हरियाली होगी तो जल का स्वतः संरक्षण होगा - पानी नदी, नालों, झरनों, झील, तालाबों में स्वतः रिस-रिस कर आवश्यकता के अनुरूप पहुंचेगा और ऊपरी सतह के नीचे अनेक स्तरों पर ड्रेनेज (पानी की निकास बहाव) बना रहेगा। धरती को क्षारीकरण से बचाने के लिए धरती की सतह और उसके बहुत नीचे तक नियमित ड्रेनेज अनिवार्य है।
हिंदुस्तान में पानी सिर्फ 60 से 100 दिन बरसता है, किंतु ड्रेनेज तो साल भर बना रहना चाहिए। यह तभी संभव है जब धरती के भीतर पर्याप्त पानी होगा। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष है कि धरती भीतर से सजल होगी तो खाद्यान्न उत्पादकता के लिए ऊपर की मामूली सिंचाई पर्याप्त होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि जल विज्ञान के अनुसार जल का लगातार बहते रहना अनिवार्य तथ्य है, न कि बांध बना कर उसमें गतिरोध पैदा करना।हिंदुस्तान में पानी सिर्फ 60 से 100 दिन बरसता है, किंतु ड्रेनेज तो साल भर बना रहना चाहिए। यह तभी संभव है जब धरती के भीतर पर्याप्त पानी होगा। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष है कि धरती भीतर से सजल होगी तो खाद्यान्न उत्पादकता के लिए ऊपर की मामूली सिंचाई पर्याप्त होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि जल विज्ञान के अनुसार जल का लगातार बहते रहना अनिवार्य तथ्य है, न कि बांध बना कर उसमें गतिरोध पैदा करना। बाढ़ नियंत्रण एवं बांध बना कर जल संरक्षण की आधुनिक अवधारणा प्राकृतिक विज्ञान पर आधारित नहीं, क्योंकि जल विज्ञान का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत समस्त डेल्टा क्षेत्र की नियमित एवं निरंतर धुलाई (फ्रलशिंग) है। डेल्टा की उत्पादकता ऐसी धुलाई पर निर्भर है। यदि नदी मुख (डेल्टा) समुचित रूप से धुलेंगे नहीं तो समुद्रीय क्षार तट के कण-कण को क्षारीय/लवणीय बनाता समूची भारत भूमि को लील सकता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय धरती नदियों द्वारा बिछायी गयी मिट्टी में बनी है, न कि यूरोप की तरह चट्टानों से। भारत की बड़ी विशेषता है कि यहां की उत्पादकता केवल मध्य देश आधारित नहीं बल्कि डेल्टा आधारित है - पूर्व में गंगा-ब्रमपुत्र के डेल्टा से लेकर दक्षिण में पेन्नार के डेल्टा तक और उत्तम-पश्चिम में साबरमती, लूनी के डेल्टा कच्छ तक और उससे आगे सिंधु के डेल्टा तक अत्यंत उपजाऊ असंख्य तटीय-डेल्टा क्षेत्र स्थित हैं। अब साइंस लगातार नारा लगा रही है कि देश का बहुमूल्य पानी समुद्र में व्यर्थ बह कर जा रहा है।
देश के महानतम साइंसटिस्ट पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की भी राय है कि बडे़-बड़े बांधों-जलाशयों में पानी रोक कर भारत की समस्त नदियों को नहरों से जोड़ दिया जाय और पानी की एक बूंद भी समुद्र में व्यर्थ न बहने दी जाय। समुद्र को तो तरह-तरह से अत्याचार सहने की आदत है - वह शायद इस अत्याचार को भी सह लेगा - लेकिन भारत का आम आदमी एक-एक बूंद के लिए तरस जाएगा और जिस तरह हमारे डेल्टा नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे उसका हमें कोई अनुमान ही नहीं है।
समुद्र में जाने वाली नदियों के पानी को व्यर्थ बताने का यह तर्क बार-बार दिया जाता है। बांध बनाकर नदी के पानी को समुद्र में जाने से रोकने की यह तर्क प्रणाली विध्वंसकारी है। इसलिए अपने-अपने राज्यों में बह रही नदियों के पानी पर एकछत्र अधिकार का दावा करने वाले मुख्यमंत्रियों और देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को सबसे पहले यह जानना होगा कि नदियों के पानी के असली स्वामी वे नहीं, समुद्र है। कोई भी साइंस या विज्ञान नदी जल को समुद्र में जाने से नहीं रोक सकता। इसलिए सबसे पहले हमें अपने संविधान में लिखना होगा कि पानी पर पहला हक समुद्र का है। इस बुनियादी सिद्धांत को मानकर ही नदी जल बंटवारे के नियम-कानून बनाने होंगे।
लोक विज्ञान का मुहावरा है - बहता पानी निर्मला। इस मुहावरे का दार्शनिक तत्व यही है कि पानी की निर्मलता उसकी गत्यात्मकता में निहित है। पानी की उपलब्धि चक्रीय प्रणाली के तहत है जिसमें अनेक वैज्ञानिक कारणों से जो पानी भाप बन कर समुद्र से चला है और बारिश बन कर धरती पर बरसा है, उसका समुद्र में वापस लौटना अनिवार्य है। मनुष्य जब इस प्रक्रिया में अवरोध स्थापित करेगा तो पानी की प्रवृत्ति में आमूलचूल परिवर्तन हो जाएगा। पानी के नियमित प्रवाह को अवरूद्ध करना प्रकृति के विरूद्ध गंभीर हिंसा है। प्राकृतिक विधान के अनुसार नदियों में उपलब्ध समस्त जल पर प्रथम और अंतिम अधिकार समुद्र का है। इस सिद्धांत का उल्लंघन मानव के आत्मघाती चरित्र का लक्षण है। पानी को हरियाली द्वारा रोके जाने के अतिरिक्त सिर्फ प्रकृति द्वारा निर्मित भराव क्षेत्रों में ही रोका जाना चाहिए और उसे अपने द्वारा निर्धारित प्राकृतिक मार्गों पर ही बहने देना चाहिए। दामोदर नदी घाटी जल विद्युत योजना का इतिहास प्रमाण है कि पानी किसी की धींगामस्ती बर्दाश्त नहीं करता। साइंस को साइंस का इतिहास जरूर पढ़ना चाहिए। साइंस और समाज का जो संबंध विकसित हुआ है उसे भी जानना समझना आवयक है। पानी को अप्राकृतिक ढंग से बांधने पर ही पानी का सम्पत्तिकरण शुरू होता है।
धरती का आवरण जल नहीं, हरियाली है। पानी का स्थायी स्रोत भी हरियाली है। जहां पर्याप्त हरियाली हैं वहां प्रकृति आवश्यकता का पानी जुटा देगी। हरियाली नष्ट करके पानी एकत्रित करना केवल खतरनाक खिलवाड़ ही नहीं अवैज्ञानिक भी है। जल से ऊर्जा/विद्युत का उत्पादन भी बहते पानी से होना चाहिए वनस्पति, वन्य-जीव, प्राणियों को उजाड़ कर नहीं। बरसात का चरित्र पूर्णरूपेण हरियाली के चरित्र पर निर्भर करता है। जहां हरियाली है वहां किसी असंतुलन के कारण यदि बादल फट भी जाय तो वहां की धरती अति-वर्षा सहन कर लेती है, किंतु जहां हरियाली नहीं है वहां तो साधारण से थोड़ी ज्यादा बारिश भी व्यापक विनाश का कारण बन जाती है और नन्हीं बूंदे भाप बन कर तुरत-फुरत उड़ जाती हैं यानी कम बरसात निरर्थक है। अनेक बार तो पानी भरे बादल बिना बरसे लौट जाते हैं।
पानी के नियमित प्रवाह को अवरूद्ध करना प्रकृति के विरूद्ध गंभीर हिंसा है। प्राकृतिक विधान के अनुसार नदियों में उपलब्ध समस्त जल पर प्रथम और अंतिम अधिकार समुद्र का है। इस सिद्धांत का उल्लंघन मानव के आत्मघाती चरित्र का लक्षण है।तीर्थ अथवा जल विज्ञान वृहद शास्त्र का विषय है। अभी दो-चार सौ बरस पूर्व तक यह समस्त चेतना हमारे स्वभाव का अंग थी। गुलाम मानसिकता से निर्मित टोडी एवं मक्कार हिंदू मानस का तीव्रता और गहराई से व्यापक स्तर पर प्रसार हुआ है। समस्त हिंदू आचार-विचार, स्थानीयता पारिस्थितिकी वैशिष्ट्य के विज्ञान और सरकार से अलग हट गया है। आधुनिक हिंदुत्ववादी के लिए गंगाजल की झूठी शपथ उठा लेना सहज हो गया है, इसी टोडी-गुलाम मानसिकता के प्रभाव से मक्कार हिंदुत्ववादियों ने नर्मदा स्थित पवित्र एवं ऐतिहासिक सैकड़ों शिव मंदिर नष्ट कर दिये। इसी कारण गंगा, नर्मदा, कावेरी के प्रदूषण से हमें अब कोई व्यथा नहीं होती। मक्कार हिंदुत्व से मुक्ति पाने पर ही कावेरी विवाद का समाधान संभव होगा।
हिन्दुस्तान में जिस विचार और आचरण को धर्म कहा जाता है उसमें जल शास्त्र, शुचिता और कर्मकांड आदि का प्राथमिक महत्व है। हमारे समाज ने इस विज्ञान को अनादि काल से आत्मसात किया था कि धरती भीतर से सजल हो तो मामूली छिड़काव भी पर्याप्त सिंचाई का काम करता है। आर्द्र जलवायु में वनस्पति अपने आप श्रेष्ठतम उत्पादकता के स्तर पर स्थिर हो जाती है। हिंदू जाति ने इसी ज्ञान को तीर्थ परंपरा में अभिव्यक्त किया है। तीर्थ सिद्धांत में महत्व जल की अनवरत अविरलता का है न कि बांध और बांधे बना कर उसमें गतिरोध पैदा करने का। जीवन के लिए जल का अविरल बहना उतना ही जरूरी है जितना कि जल का संरक्षण।
जल के समुचित संरक्षण और पर्याप्त व अविरल बहाव में संतुलन स्थापित करने के विज्ञान को ही तीर्थ विज्ञान कहते हैं। यह हिंदू जीवन दर्शन का तत्वबोध है। जल संरक्षण का कार्यक्रम न्यूनतम स्तर का हो या नर्मदा और टिहरी जैसी नदियों पर बड़े बांधों के स्तर का हो, उसमें जल दर्शन के ऊपर बताए गए दोनों सिद्धातों का पालन अनिवार्य है। इस संदर्भ में आज जिस प्रकार तदर्थवादी और अवैज्ञानिक तरीके से जल भरण क्षेत्र के विकास के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं वे बहुत खतरनाक है। इस आत्मघाती मानस के नतीजे निकट भविष्य में कितने घातक हो सकते हैं इसका अनुमान पानी-जन्य महामारियों के व्यापक विस्तार से लगाया जा सकता है।
पानी के बारे में भारतीय जीवन दर्शन को न समझ पाने के चलते आज हम भंवर में उलझते जा रहे हैं। विश्व बैंक और आईएमएफ के सुझावों पर भारत का विकास कर रहे नौकरशाहों, साइंसवादियों और राजनेताओं ने संगठित हो कर भारत की नदियों को जोड़ने का संकल्प कर लिया है। इस योजना की अनुमानित लागत पचपन लाख करोड़ रुपये आंकी जा रही है। इससे भारत की नदियों का जीवन खतरे में दिखाई पड़ता है। जबकि भारत की मूल संपदा इस देश की नदियां हैं। इन नदियों के बहते रहने की विधिवत व्यवस्था कर भारत फिर सोने की चिड़िया और जगद्गुरु बन सकता है। लेकिन इस काम की उम्मीद अब आम जनता से ही है।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हैं।)
भारतवर्ष और उसकी पारिस्थितिकी निर्माण के दो मूल कारक है। पहला हिमालय और दूसरा हिंद महासागर। आधुनिक जियोपालिटिकल मुहावरे में दक्षिण एशिया कहा जाने वाला यह भू-भाग पूरी दुनिया का सर्वाधिक अन्न उत्पादक क्षेत्र या धान का कटोरा है। इस क्षेत्र में प्राकृतिक क्षमता के अनुरूप योगदान होने लगे तो अकेला दक्षिण एशिया देश-दुनिया की भूख का निराकरण कर सकता है। विभिन्न शाखाओं के वैज्ञानिक एकमत हैं कि भारत देश की अन्न उत्पादन क्षमता 100 करोड़ टन से ज्यादा है। यह कोई गोपनीय तथ्य नहीं है। इस तथ्य का सीधा रिश्ता हिमालय के दक्षिणी पनढाल और हिंद महासागर से है यानी मानसून पारिस्थितकी या जलवायु से है।
अप्रैल से सितम्बर तक जो समुद्री हवाएं हिंद महासागर से उठ कर हिमालय की तरफ चलती है, उन्हीं का नाम मानसून है। यही मानसून हिंदुस्तान की भूमि पर हर साल इतना जल इकट्ठा कर देता है कि हिमालय से निकलने वाली सिंधु गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी विशालतम महानदियों के अतिरिक्त डेढ़ दर्जन सदा सुहागन महानदियां इस देश के चप्पे-चप्पे को सर्वदा जल प्लावित बनाएं रखती हैं। यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अरावली से निकल कर मरुस्थल में बहने वाली लूनी भी ऐसी ही नदीं है जिसने कच्छ डेल्टा का निर्माण किया है। यह बात अलग है कि हम पिछले दो सौ बरस से लगातार भारत की उत्पादकता का विनाश कर रहे हैं। इसी प्रक्रिया में हम लूनी और साबरमती जैसी कई नदियों की पारिस्थितिकी को नष्ट कर उनकी हत्या कर चुके हैं। यह सारा विनाश हमने साइंस से प्रेरित होकर मानवता आदि के नाम पर किया है। उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी सांस्कृतिक चेतना का जो ह्रास हुआ उसका हमें ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है। इसमें पानी चेतना का ह्रास तो विशेष चिंता का विषय है।
हिन्दुस्तान सदा-सर्वदा से नदी-नालों का देश है। उत्तर में सिंधु ब्रह्मपुत्र से लेकर कन्याकुमारी तक उन्नीस महानदी क्षेत्रों में हजारों नद-नदियां साल भर जल प्लावित रहती हैं। हिमालय के दक्षिण क्षेत्र में समस्त मानव जाति के लिए सिंधु अथवा हिंदू संज्ञा का प्रयोग प्राचीन काल से प्रचलित है। सिंधु जल का पर्याय है, इसलिए सिंधु से परिवर्तित हिंदू भी जल-प्लावित व्यक्ति और देश का पर्याय है। भारत देश की सनातन संस्कृति, पाप-पुण्य, शुद्ध-अशुद्ध, पवित्र-अपवित्र, जीवन-मृत्यु, दुख-सुख, जल के दर्शन पर आधारित है। जल पूजनीय है, देवता है, क्योंकि वह एक ऐसा तत्व है जो निरंतर निज का बलिदान कर जीवन की सृष्टि करता है। जीवित तत्व अथवा जीव-द्रव्य का बनना उसी क्षण शुरू होता है जब सूर्य, पृथ्वी, वायु और आकाश जल में निजी आहुति करते हैं। पानी मात्रा में चार हिस्सा और पांचवा शेष चार तत्वों का होता है। जीव विज्ञान के अनुसार मनुष्य मात्र में 78 प्रतिशत पानी होता है उसमें से यदि एक प्रतिशत घटे तो जीवन दूर्भर हो जाता है।
आधुनिक साइंस के विपरीत शाश्वत जल विज्ञान की मान्यता है कि जल का संरक्षण ठीक उसी स्थान पर होना चाहिए जहां जल की बूंद बरसती है। जब पृथ्वी पर गिरी बूंद अपने स्थान से आगे बढ़ जाती है, तब उसके संरक्षण का प्रयास अनर्थकारी नहीं तो भी अवैज्ञानिक तो है ही।
बूंद गिर कर बह जाएगी तो सतह पर अपेक्षित सजलता नहीं बनेगी क्योंकि पानी तो अपने दबाव से ही धरती के भीतर प्रवेश करता है। इसलिए अनिवार्य है कि पानी जहां गिरे, वहीं थमे और उस बिदूं पर पर्याप्त सजलता निर्मित हो जाय यानी पानी को धरती के भीतर जाने का यथोचित मार्ग मिल जाय, ताकि अतिरिक्त पानी आगे जा सके। यदि जल आकाश से गिरते ही आगे बढ़ गया तो न धरती सजल बनेगी और न ही मिट्टी अपने स्थान पर रूकेगी। सतही सजलता का शीघ्र वाष्पीकरण होता है। धरती काफी गहराई तक सजल होगी तो शीघ्र वाष्पीकरण की बजाय हरियाली (बायोमास) उत्पादन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। जमीन की सतह पर बायोमास होगा तो मिट्टी का संरक्षण होगा। पर्याप्त मिट्टी और हरियाली होगी तो जल का स्वतः संरक्षण होगा - पानी नदी, नालों, झरनों, झील, तालाबों में स्वतः रिस-रिस कर आवश्यकता के अनुरूप पहुंचेगा और ऊपरी सतह के नीचे अनेक स्तरों पर ड्रेनेज (पानी की निकास बहाव) बना रहेगा। धरती को क्षारीकरण से बचाने के लिए धरती की सतह और उसके बहुत नीचे तक नियमित ड्रेनेज अनिवार्य है।
हिंदुस्तान में पानी सिर्फ 60 से 100 दिन बरसता है, किंतु ड्रेनेज तो साल भर बना रहना चाहिए। यह तभी संभव है जब धरती के भीतर पर्याप्त पानी होगा। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष है कि धरती भीतर से सजल होगी तो खाद्यान्न उत्पादकता के लिए ऊपर की मामूली सिंचाई पर्याप्त होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि जल विज्ञान के अनुसार जल का लगातार बहते रहना अनिवार्य तथ्य है, न कि बांध बना कर उसमें गतिरोध पैदा करना।हिंदुस्तान में पानी सिर्फ 60 से 100 दिन बरसता है, किंतु ड्रेनेज तो साल भर बना रहना चाहिए। यह तभी संभव है जब धरती के भीतर पर्याप्त पानी होगा। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष है कि धरती भीतर से सजल होगी तो खाद्यान्न उत्पादकता के लिए ऊपर की मामूली सिंचाई पर्याप्त होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि जल विज्ञान के अनुसार जल का लगातार बहते रहना अनिवार्य तथ्य है, न कि बांध बना कर उसमें गतिरोध पैदा करना। बाढ़ नियंत्रण एवं बांध बना कर जल संरक्षण की आधुनिक अवधारणा प्राकृतिक विज्ञान पर आधारित नहीं, क्योंकि जल विज्ञान का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत समस्त डेल्टा क्षेत्र की नियमित एवं निरंतर धुलाई (फ्रलशिंग) है। डेल्टा की उत्पादकता ऐसी धुलाई पर निर्भर है। यदि नदी मुख (डेल्टा) समुचित रूप से धुलेंगे नहीं तो समुद्रीय क्षार तट के कण-कण को क्षारीय/लवणीय बनाता समूची भारत भूमि को लील सकता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय धरती नदियों द्वारा बिछायी गयी मिट्टी में बनी है, न कि यूरोप की तरह चट्टानों से। भारत की बड़ी विशेषता है कि यहां की उत्पादकता केवल मध्य देश आधारित नहीं बल्कि डेल्टा आधारित है - पूर्व में गंगा-ब्रमपुत्र के डेल्टा से लेकर दक्षिण में पेन्नार के डेल्टा तक और उत्तम-पश्चिम में साबरमती, लूनी के डेल्टा कच्छ तक और उससे आगे सिंधु के डेल्टा तक अत्यंत उपजाऊ असंख्य तटीय-डेल्टा क्षेत्र स्थित हैं। अब साइंस लगातार नारा लगा रही है कि देश का बहुमूल्य पानी समुद्र में व्यर्थ बह कर जा रहा है।
देश के महानतम साइंसटिस्ट पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की भी राय है कि बडे़-बड़े बांधों-जलाशयों में पानी रोक कर भारत की समस्त नदियों को नहरों से जोड़ दिया जाय और पानी की एक बूंद भी समुद्र में व्यर्थ न बहने दी जाय। समुद्र को तो तरह-तरह से अत्याचार सहने की आदत है - वह शायद इस अत्याचार को भी सह लेगा - लेकिन भारत का आम आदमी एक-एक बूंद के लिए तरस जाएगा और जिस तरह हमारे डेल्टा नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे उसका हमें कोई अनुमान ही नहीं है।
समुद्र में जाने वाली नदियों के पानी को व्यर्थ बताने का यह तर्क बार-बार दिया जाता है। बांध बनाकर नदी के पानी को समुद्र में जाने से रोकने की यह तर्क प्रणाली विध्वंसकारी है। इसलिए अपने-अपने राज्यों में बह रही नदियों के पानी पर एकछत्र अधिकार का दावा करने वाले मुख्यमंत्रियों और देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को सबसे पहले यह जानना होगा कि नदियों के पानी के असली स्वामी वे नहीं, समुद्र है। कोई भी साइंस या विज्ञान नदी जल को समुद्र में जाने से नहीं रोक सकता। इसलिए सबसे पहले हमें अपने संविधान में लिखना होगा कि पानी पर पहला हक समुद्र का है। इस बुनियादी सिद्धांत को मानकर ही नदी जल बंटवारे के नियम-कानून बनाने होंगे।
लोक विज्ञान का मुहावरा है - बहता पानी निर्मला। इस मुहावरे का दार्शनिक तत्व यही है कि पानी की निर्मलता उसकी गत्यात्मकता में निहित है। पानी की उपलब्धि चक्रीय प्रणाली के तहत है जिसमें अनेक वैज्ञानिक कारणों से जो पानी भाप बन कर समुद्र से चला है और बारिश बन कर धरती पर बरसा है, उसका समुद्र में वापस लौटना अनिवार्य है। मनुष्य जब इस प्रक्रिया में अवरोध स्थापित करेगा तो पानी की प्रवृत्ति में आमूलचूल परिवर्तन हो जाएगा। पानी के नियमित प्रवाह को अवरूद्ध करना प्रकृति के विरूद्ध गंभीर हिंसा है। प्राकृतिक विधान के अनुसार नदियों में उपलब्ध समस्त जल पर प्रथम और अंतिम अधिकार समुद्र का है। इस सिद्धांत का उल्लंघन मानव के आत्मघाती चरित्र का लक्षण है। पानी को हरियाली द्वारा रोके जाने के अतिरिक्त सिर्फ प्रकृति द्वारा निर्मित भराव क्षेत्रों में ही रोका जाना चाहिए और उसे अपने द्वारा निर्धारित प्राकृतिक मार्गों पर ही बहने देना चाहिए। दामोदर नदी घाटी जल विद्युत योजना का इतिहास प्रमाण है कि पानी किसी की धींगामस्ती बर्दाश्त नहीं करता। साइंस को साइंस का इतिहास जरूर पढ़ना चाहिए। साइंस और समाज का जो संबंध विकसित हुआ है उसे भी जानना समझना आवयक है। पानी को अप्राकृतिक ढंग से बांधने पर ही पानी का सम्पत्तिकरण शुरू होता है।
धरती का आवरण जल नहीं, हरियाली है। पानी का स्थायी स्रोत भी हरियाली है। जहां पर्याप्त हरियाली हैं वहां प्रकृति आवश्यकता का पानी जुटा देगी। हरियाली नष्ट करके पानी एकत्रित करना केवल खतरनाक खिलवाड़ ही नहीं अवैज्ञानिक भी है। जल से ऊर्जा/विद्युत का उत्पादन भी बहते पानी से होना चाहिए वनस्पति, वन्य-जीव, प्राणियों को उजाड़ कर नहीं। बरसात का चरित्र पूर्णरूपेण हरियाली के चरित्र पर निर्भर करता है। जहां हरियाली है वहां किसी असंतुलन के कारण यदि बादल फट भी जाय तो वहां की धरती अति-वर्षा सहन कर लेती है, किंतु जहां हरियाली नहीं है वहां तो साधारण से थोड़ी ज्यादा बारिश भी व्यापक विनाश का कारण बन जाती है और नन्हीं बूंदे भाप बन कर तुरत-फुरत उड़ जाती हैं यानी कम बरसात निरर्थक है। अनेक बार तो पानी भरे बादल बिना बरसे लौट जाते हैं।
पानी के नियमित प्रवाह को अवरूद्ध करना प्रकृति के विरूद्ध गंभीर हिंसा है। प्राकृतिक विधान के अनुसार नदियों में उपलब्ध समस्त जल पर प्रथम और अंतिम अधिकार समुद्र का है। इस सिद्धांत का उल्लंघन मानव के आत्मघाती चरित्र का लक्षण है।तीर्थ अथवा जल विज्ञान वृहद शास्त्र का विषय है। अभी दो-चार सौ बरस पूर्व तक यह समस्त चेतना हमारे स्वभाव का अंग थी। गुलाम मानसिकता से निर्मित टोडी एवं मक्कार हिंदू मानस का तीव्रता और गहराई से व्यापक स्तर पर प्रसार हुआ है। समस्त हिंदू आचार-विचार, स्थानीयता पारिस्थितिकी वैशिष्ट्य के विज्ञान और सरकार से अलग हट गया है। आधुनिक हिंदुत्ववादी के लिए गंगाजल की झूठी शपथ उठा लेना सहज हो गया है, इसी टोडी-गुलाम मानसिकता के प्रभाव से मक्कार हिंदुत्ववादियों ने नर्मदा स्थित पवित्र एवं ऐतिहासिक सैकड़ों शिव मंदिर नष्ट कर दिये। इसी कारण गंगा, नर्मदा, कावेरी के प्रदूषण से हमें अब कोई व्यथा नहीं होती। मक्कार हिंदुत्व से मुक्ति पाने पर ही कावेरी विवाद का समाधान संभव होगा।
हिन्दुस्तान में जिस विचार और आचरण को धर्म कहा जाता है उसमें जल शास्त्र, शुचिता और कर्मकांड आदि का प्राथमिक महत्व है। हमारे समाज ने इस विज्ञान को अनादि काल से आत्मसात किया था कि धरती भीतर से सजल हो तो मामूली छिड़काव भी पर्याप्त सिंचाई का काम करता है। आर्द्र जलवायु में वनस्पति अपने आप श्रेष्ठतम उत्पादकता के स्तर पर स्थिर हो जाती है। हिंदू जाति ने इसी ज्ञान को तीर्थ परंपरा में अभिव्यक्त किया है। तीर्थ सिद्धांत में महत्व जल की अनवरत अविरलता का है न कि बांध और बांधे बना कर उसमें गतिरोध पैदा करने का। जीवन के लिए जल का अविरल बहना उतना ही जरूरी है जितना कि जल का संरक्षण।
जल के समुचित संरक्षण और पर्याप्त व अविरल बहाव में संतुलन स्थापित करने के विज्ञान को ही तीर्थ विज्ञान कहते हैं। यह हिंदू जीवन दर्शन का तत्वबोध है। जल संरक्षण का कार्यक्रम न्यूनतम स्तर का हो या नर्मदा और टिहरी जैसी नदियों पर बड़े बांधों के स्तर का हो, उसमें जल दर्शन के ऊपर बताए गए दोनों सिद्धातों का पालन अनिवार्य है। इस संदर्भ में आज जिस प्रकार तदर्थवादी और अवैज्ञानिक तरीके से जल भरण क्षेत्र के विकास के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं वे बहुत खतरनाक है। इस आत्मघाती मानस के नतीजे निकट भविष्य में कितने घातक हो सकते हैं इसका अनुमान पानी-जन्य महामारियों के व्यापक विस्तार से लगाया जा सकता है।
पानी के बारे में भारतीय जीवन दर्शन को न समझ पाने के चलते आज हम भंवर में उलझते जा रहे हैं। विश्व बैंक और आईएमएफ के सुझावों पर भारत का विकास कर रहे नौकरशाहों, साइंसवादियों और राजनेताओं ने संगठित हो कर भारत की नदियों को जोड़ने का संकल्प कर लिया है। इस योजना की अनुमानित लागत पचपन लाख करोड़ रुपये आंकी जा रही है। इससे भारत की नदियों का जीवन खतरे में दिखाई पड़ता है। जबकि भारत की मूल संपदा इस देश की नदियां हैं। इन नदियों के बहते रहने की विधिवत व्यवस्था कर भारत फिर सोने की चिड़िया और जगद्गुरु बन सकता है। लेकिन इस काम की उम्मीद अब आम जनता से ही है।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हैं।)
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Post By: pankajbagwan