पहाड़ों पर चढ़ता विकास का भूत

आज मुख्य समस्या यह है उफनती नदियों का वेग कैसे कम करें। बारिश तो कम ज्यादा होती रहती है और होती रहेगी । इसके चक्र को हमें पूरी तरह से समझना होगा । हमारे देश की गंगा, सिन्धु, एवं ब्रह्मपुत्र की सहायक धाराएं हिमालय क्षेत्र से ही नहीं अपितु इनकी कई धाराएं भूटान, नेपाल के पहाड़ों के साथ-साथ तिब्बत से भी निकलती हैं । इसी प्रकार गोदावरी, नर्मदा आदि अनेकों नदियां पूर्वी घाट, पश्चिमी घाट या देश के छोटे-बड़े पहाड़ों एवं जंगलों से निकलती है । इस वर्ष उत्तराखंड में आई बाढ़ ने एक बार पुन: विकास की नई अवधारणा के यंत्रों जैसे सड़क व बिजली व पानी के न्यायोचित इस्तेमाल की ओर इशारा किया है। उत्तराखंड एवं अन्य पहाड़ी क्षेत्रों को मैदानी प्रभावी तबका दुधारू गाय की तरह दुहता रहता है । पहले यहां के पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को अपने उपयोग में लाकर और बची- कुची कसर यहां पर छुटि्टयां बिताने के लिए होटल और मनोरंजन केन्द्र बनाकर पूरी कर लेता है । धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले पहाड़ी क्षेत्र अब शोषण के प्रतीक बन कर रह गए हैं ।

इस वर्ष पहाड़ों से लेकर मैदानों तक लगातार नदियों में आयी बाढ़ से डूब क्षेत्रों का विस्तार हुआ है । २५ अगस्त की सुबह दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय बस अड्डे सहित यमुना नदी के किनारे की बस्तियों एवं गांवों में पानी घुसने के समाचार प्रमुखता से प्रसारित होते रहे । इससे पूर्व पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के कई गांव और क्षेत्र बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए थे । इस वर्ष बारिश कुछ ज्यादा हुई है जिससे इन क्षेत्रों में जो छोटे-बड़े बांध तथा ताल-तलैया हैं उनमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया है । इस खतरे को देखते हुए उनसे अधिक पानी छोड़े जाने से कई राज्यों में बाढ़ की स्थिति पैदा हुई । दिल्ली-हरियाणा तथा पंजाब में तो यही कुछ देखा गया । हरियाणा के हथिनीकुण्ड बैराज से लाखों क्यूसेक पानी लगातार छोड़े जाने से तो ऐसा लगा था कि दिल्ली में युमना के तटवर्ती इलाके अब डूबे कि तब डूबे ।

मुम्बई, दिल्ली सहित कई बड़े-बड़े शहरों में बारिश के पानी के समुचित निकास एवं अपशिष्ट आदि का ठीक से प्रबन्धन होने को भी पानी के भराव का एक कारण गिनाया जा रहा है । दिल्ली-मुम्बई में तो यह अब हर वर्ष की समस्या बन गई है । संबंधित लोग जिम्मेदारियों से बचने के लिए एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं । जैसे ही बारिश थमती है तो फिर साल भर के लिए चैन की सांस ले लेते हैं ।

सन् १९९० के जुलाई के तीसरे हफ्ते में, मैं जब मुम्बई में था तो भायकला से गोरेगांव गया । उस दौरान लगातार मुसलादार बारिश हो रही थी । तीन घंटे की बारिश के बाद भी सड़क जाम एवं जलभराव जैसे स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा । लेकिन एक दशक से वहां पर जलभराव की बात लगातार सुनने को मिलती है । यही हाल दिल्ली का था पहले तिलक ब्रिज एवं मिन्टों ब्रिज के नीचे जरूर जलभराव देखा जाता था । अत्यधिक बारिश के बाद स्कूटरों एव छोटे तिपहियों वाहनों को परेशानी होती थी, पर बड़े वाहन सहजता से निकल जाते थे परन्तु जाम की जैसी स्थिति कम ही होती थी ।

आज दिल्ली-मुम्बई ही नहीं देश के कई छोटे-बड़े शहरों एवं नगरों में अनियंत्रित ढंग से निर्माण हो रहा है । उसमें पानी के निकास के प्रति बहुत ही लापरवाही बरती जा रही है । जिसके कारण जलभराव की समस्या दिनों-दिन विकराल रूप धारण कर रही है । लेकिन पहाड़ों में इसका स्वरूप अलग है । पहाड़ों में अनियोजित ढंग से जो निर्माण हो रहे हैं उसके कारण समस्या दिनों-दिन विकट होती जा रही है । यहां भूमि की भारवहन क्षमता, कमजोर एवं अस्थिर क्षेत्रों में निर्माण एवं पानी के निकास को ध्यान में न रखकर जो छोटे-बड़े निर्माण हो रहे हैं उससे कई छोटे-बड़े निर्माण हो रहे हैं उससे कई छोटे-बड़े नगरों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है । भूस्खलन एवं भू-घसाव की चपेट में कई नगर और बस्तियां हैं जिनकी संख्या हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है । जहां तब बारिश के पानी से जलभराव की बात है इसमें सरकार और नागरिक समय से सावधानी बरतेंगे तो इस समस्या को पूरी तरह से समाप्त् तो नहीं किया जा सकता, किन्तु इसकी विकरालता को अवश्य ही कम किया जा सकता है ।

हिमालय से लेकर सहयाद्रि तक और उससे भी आगे सागर के छोर तक बेइंतिहा छेड़-छाड़ की जा रही है । इनके पणढ़ालों में वनों का विनाश, खनन तथा विशाल विद्युत एवं सिंचाई परियोजनाओं के लिए धरती को अविवेकपूर्ण ढंग से खोदा जा रहा है । इन इलाकों में योजनाओं के लिये सड़कों का विस्तार किया जा रहा है इस से थोड़ी सी बारिश में भी ये नदियां अपना रौद्र रूप दिखाने लग गयी हैं । नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में जो, लाखों टन मिट्टी एवं कंकड़ खोदकर मलबे के ढेर लगाया गया है वह भी नदियों में बह रहा है । साथ ही नये-नये भूस्खलनों का मलबा भी नदियों में आने से इनका तल भी ऊपर उठ रहा है । दूसरी ओर नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों तक आबादी का विस्तार हो गया है ।

हमारे यहां एक कहावत थी, नदी तीर का रोखड़ा जत-कत शोरों पार लेकिन अब इस मुहावरे को कोई मायनें नहीं रह गये हैं । इस प्रकार आबादी नदियों के विस्तार क्षेत्र में सहज रूप से आ गई है । इसलिए नदियों का कोप भाजन व केवल इनके बेसिन के अंतर्गत आने वाले मैदानी शहर ही नहीं अपितु पहाड़ी शहर और गांव भी हो रहे हैं । अभी पिछले दिनों अलकनंदा का बहाव श्रीनगर (गढ़वाल) की बस्ती में भी देखा गया है ।

यह स्थिति अब दिनों-दिन विकराल रूप धारण करने वाली है । बिगाड़ तो बहुत हो चुका है इसलिए अब आवश्यकता है बिगाड़ पर आगे रोक लगाने की । अतएव सम्पूर्ण हिमालय के अत्यंन्त संवेदनशील क्षेत्रों में प्रस्तावित बड़ी परियोजनाओं का मोह छोड़ कर उन्हें तत्काल बन्द कर दिया जाना चाहिए । जो परियोजनाएं बन चुकी हैं उनके द्वारा निकाली गयी मिट्टी और बालु-रेत के ढेरों का समुचित निस्तारण अति प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए । ऐसे क्षेत्रों में मोटर मार्गों का निर्माण पत्थरों की दीवाल बनाकर आधा कटान के आधार पर किया जाना चाहिए । काटी गई मिट्टी निचले क्षेत्रों में फेंकना प्रतिबन्धित किया जाए । सड़कों का निर्माण ढाल में किया जाए, जिससे बार-बार भूस्खलन न हो, पानी के समुचित निकास का प्रबन्ध हो, नदियों के वृक्षविहीन क्षेत्रों को अति प्राथमिकता के आधार पर हरे आवरण से भरा जाना चाहिए । इसमें न केवल बड़े वृक्ष बल्कि छोटी वनस्पति का आवरण भी आवश्यक है । नदियों में बहने वाली गाद की जो मात्रा है उसे यदि प्राथमिकता के आधार पर नहीं रोका गया तो आगे इसके भयंकर दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं ।

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