हिमालय के मध्य क्षेत्र उत्तराखण्ड में बरसात के मौसम में अक्सर बादल फटना, अतिवृष्टि, निरंतर बारिश होना आम बात हो गई है। आखिर क्यों हो रहा है यह बदलाव, सोचने को विषय है? पहाड़ों का सीना चीरकर सीमेंट-कंक्रीट का बोझ लादकर उनके प्राकृतिक स्वरूप को बिगाड़कर हम अपने आप को शाबाशी तो दे रहे हैं, किन्तु उससे होने वाले दुष्प्रभावों को नजरअंदाज कर रहे हैं।
देहरादून। पहाड़ी इलाकों के लिये बरसात का मौसम आफत बनता जा रहा है। प्रकृति के चक्रानुकूल मौसम बदलाव जरूरी भी है। पहाड़ जब स्वतंत्र थे तो समय पर मौसम में बदलाव होता था।
जब से मनुष्य ने पहाड़ों पर अपना एकाधिपत्य जमाकर उनका जमकर दोहन शुरू किया, तब से हालात में भी बदलाव आने लगे, जिसका परिणाम आज विनाश के तौर पर साफ देखने को मिल रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण उत्तराखण्ड है।
राज्य बनने के बाद तो यहाँ के नेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों, पुलिस, भूखनन एवं वन माफियाओं की पाँचों उंगलियाँ घी में तर-बतर होती रही हैं। प्रदेश की जमीन, जंगल और जल आदि संपदा को समेट चुके हैं ये लोग। पहाड़ पूरी तरह से दलालों के चंगुल में फंसा हुआ है। यहाँ राज करने वाले दल अपनी ही आपसी खींचतान में इतने कमजोर हो चुके हैं कि राज्य के विकास की कोई फिक्र ही नहीं।
ऐसा नहीं कि पहाड़ में पहले बारिश ने अपना प्रकोप न दिखाया हो लेकिन ऐसी विनाशलीला कभी देखने को नहीं मिली जो आज मिल रही है। पहाड़ जो हमारे जीवन की कई आवश्यकताओं की पूर्ति करते आते रहे हैं, हमें स्वच्छ जल व शुद्ध वायु भी देते रहे हैं। साथ ही जीव-जंतुओं, जंगली पशु-पक्षियों को जीवनदान व आश्रय भी देते हैं।
खोखले होते पहाड़ इतने कमजोर हो चुके हैं कि हल्की सी बरसात से भी दरकने लगते हैं। जब अतिवृष्टि होती है या बादल फटने जैसी घटनाएँ घटती हैं तो जो भयावह मंजर देखने को मिलता है उसकी कल्पना करने से भी डर लगता है। अब आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देखते ही पहाड़वासियों को अनहोनी घटने का डर सताने लगता है।
अपने को सुरक्षित रखने का कोई विकल्प वहाँ के लोगों के पास नहीं है। हर तरफ खतरा ही खतरा नजर आता है। जन जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। जान-माल, पशुधन व खेती की क्षति का आकलन कर पानी मुश्किल हो जाता है। यहाँ तक कि बरसात में पर्यटन उद्योग भी पूरी तरह चौपट हो जाता है। पर्यटक पहाड़ आने में कतराते हैं। उत्तराखण्ड में चारधाम एवं हेमकुण्ड साहिब यात्रा इसी समय जारी रहती हैं। यात्री जगह-जगह फँस जाते हैं।
हालाँकि प्रकृति कब विकराल रूप धारण कर बैठे कुछ नहीं कहा जा सकता। किन्तु यह बात भी सच है कि पहाड़ों का स्वरूप बिगाड़ने में मानव का सबसे बड़ा हाथ है। 2013 में केदारनाथ में आए जल-प्रलय से भी सबक नहीं ले पाए हैं।
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