पहाड़ों में औधौगिक विकास तथा पर्यावरणः वास्तविकता व भावी दिशा

पर्वतीय विकास और रोजगार-सुविधा के नाम से पिछले 10 वर्षों में उत्तराखण्ड में औद्यौगिकरण के कई नये उपायों को प्रारम्भ किया गया है। यूं तो रोजगार देने के हर प्रयास का स्वागत पहाड़ की जनता भी करती है और वहां के सरकारी, अर्द्धसरकारी व सामाजिक संस्थान भी करते हैं, क्योंकि पहाड़ की ‘युवा-पलायन’ की समस्या का हल इन उद्योगों के जरिये होगा तथा पहाड़ के under employment को पूरक-रोजगार भी इन उद्योगों से मिलेगा। ऐसी आकर्षक अपेक्षा वे इन उद्योग योजनाओं से करते हैं, परन्तु इन उद्योगों के योजनाकारों, वित्त पोषकों तथा कार्यकारी संस्थाओं या इकाईयों को यह भी सोचना पड़ेगा कि यह रोजगार कहीं ऐसा रोजगार तो नहीं बन रहा है कि किसी व्यक्ति को मजदूरी दी जाये कि वह अपने घर को उखाड़ने के लिए काम करे। यह बहुत चौंकाने वाला रूपक है। यह काफी अंशों तक सही है; फिर एक बड़ा प्रश्न-चिन्ह इस पर और भी लग जाता है कि इस घर उजाड़ने के रोजगार से पर्वत वासियों को रोजगार कितना मिलता है? इन उद्योगों से होने वाले लाभ व आय का कितना भाग पर्वतियों के हाथों में जाता है। इन पर्वतीय क्षेत्रों की ‘अर्थ व्यवस्था’ जिसने उस क्षेत्र की जनता का अस्तित्व इतने वर्षों से बनाये रखा है; इस क्षेत्र का अपना पर्यावरण, जिस पर केवल इस क्षेत्र की जनता की ही जिन्दगी नहीं, बल्कि हिमालय के दक्षिण में बसे हमारे देश के सारे मैदान का पर्यावरण भी निर्भर करता है; तथा इसका सौन्दर्य, शक्ति व सांस्कृतिक विरासत, जिसकी खोज में अपने ही देशवासी नहीं, वरन विदेशी भी वहां जाते हैं, उसे ये उद्योग सुरक्षित रहने देगें? इस ओर ध्यान दिये बिना यदि हम रोजगार की भूल-भुलैया (क्योंकि पहाड़ के सामान्य व्यक्ति को इससे जो रोजगार मिलता है, वह बहुत ही कम रोजगार मिल रहा है) और औद्योगीकरण के क्षेत्र में आगे बढ़े तो, लाभ से भी ज्यादा हानि होने की संभावना है। इस आशंका की चिन्ता इस क्षेत्र के पर्यावरण-संतुलन के कार्य में जुटे कार्यकर्ता अथवा हिमालय की सुरक्षा की शोध करने वाले वैज्ञानिक व भूगर्भवेत्ता आदि ही नहीं करते वरन सरकारी विभागों ने भी की हैं। मार्च 1979 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन वन सचिव के हस्ताक्षरों से प्रकाशित एवं शासकीय डाक्यूमैन्ट ‘Chipko Movement-state Government’s view’ में उन्होंने कहा – “Due weight has in the past not been given to consideration of Ecology and Environment while sanctioning leases or actually conducting mining and quarrying operations in pursuance of the sanctioned leases. This needs to be effectively corrected forthwith. A set of guidelines needs to be developed in this regard in consultation with the Ecologists and Environmentalists and the same should be rigorously enforced”

इस प्रकार का स्पष्ट व मूल्यवान सुझाव देने के बाद निश्चित ही खनन-कार्य के मार्गदर्शक बिन्दु तय किये गये होंगे, पर अभी भी खनन की वह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है, जिस पर वन सचिव, उत्तरप्रदेश व विभाग ने तीन वर्ष पहले मोहर लगाई थी। इस समस्या के संक्षिप्त पहलू इस प्रकार हैः

1. खनन कार्यों के लिए ऐसे भू-गर्भिक संवेदनशील क्षेत्रों में अभी तक भी “लीज स्वीकृत की जा रही है। जहां पिछले दशक के भीतर कई विनाशकारी भू-स्खलन हुए हैं। इसका नमूना है-अल्मोड़ा जिले के कपकोट प्रखंड के भीतर आने वाली खड़िया-खान जो चौड़ास्थल में पिछले 8 माह से चल रही है। इस खड़िया खान के आस पास के लगभग दस-पन्द्रह गांवों के नागरिकों के विरोध के बावजूद भी खान में काम चल रहा है। कपकोट प्रखंड का यह भाग प्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. के.एस. वाल्दिया के अनुसार उस संवेदनशील और संचालित चट्टानों वाली पट्टी के अर्न्तगत आता है जो पूर्व में पिथौरागढ़ के तवाघाट से लेकर पश्चिम में उत्तरकाशी तक फैली है। कपकोट प्रखंड के क्षेत्र में ही पिछले दो दशकों के भीतर कई भू-स्खलन हुए हैं जिससे गांव के गांव बह गये थे, या दब गये थे। इनमें अपार जनहानि, पशु हानि तथा उपजाऊ भूमि की हानि हुई थी।

लोहारखेत में 1967 में सुमगढ़ में 1968 में, कर्मी में 1983 में, तथा जगथाना में 1984 में जो भयंकर भू-स्खलन हुए उनकी त्रासदी अभी ताजा ही है। जगथाना में तो 1904 तथा 1944 में भी भू-स्खलन की दुर्घटनाएं हुई थीं। कन्याली कोट के पास एक गांव के ऊपर एक विशाल दरार बन गयी है जो प्रति वर्ष ही चौड़ी व गहरी होती जाती है। इस क्षेत्र के कई गांवों के लोग अपने मकानों को छोड़कर सुरक्षित स्थानों में जाने को मजबूर हो गये हैं। जो वहां अभी तक रह रहे हैं उनके जीवन असुरक्षा के भय से ग्रसित हैं। उन्हें पुनर्वास की सुविधा देने के बदले खनन कार्यों द्वारा इन खतरों को और गहरा बनाया जा रहा है। खड़िया-खनन की लीज इस प्रखंड में पिछले साल भी स्वीकृत हुई है। चौड़ास्थल के अतिरिक्त गड़िया, गडेरा, बसगुना, फरसाली तथा दुगपट्टी में सुरकाली आदि की नई खानें हैं।

अल्मोड़ा जिले में कपकोट प्रखंड में संवेदनशील क्षेत्र में खनन कार्यों की बहुतायत का एक नमूना है। पिथौरागढ़ जिले में मैगनेसाइट का खनन भी इसी प्रकार आठ-दस कम्पनियों द्वरा विभिन्न घाटियों में पिछले बारह वर्षों से हो रहा है। अब उसमें सीमेन्ट-उद्योग भी जुड़ गया है। लोहाघाट-में ऐसे एक सीमेन्ट उद्योग का प्रारम्भ हो चुका है।

2. खनन समस्या का दूसरा पहलू है, खनन कार्यों को करने वाली व्यापारी कम्पनियां। सरकार द्वारा पहले से बनाये गये कानूनों को भी वे नहीं मानती, वे तो जल्दी पैसा कमाने के अपने एक मात्र मुख्य व महत्वपूर्ण लक्ष्य के लिए हर प्रकार की धोखाधड़ी, गलत राजनीतिक दबाव एवं झूठे कागजातों को तैयार करने से भी नहीं हिचकती हैं। उनके सामने इस पर्वतीय पर्यावरण का संरक्षण तो उनकी समझ से ही बाहर है। वे केवल प्रकृति का शोषण करके अपनी धन-सम्पत्ति बढ़ाना चाहती हैं। इसलिए वह जनता को बहकाती हैं, धोखे में रखती हैं और मृत्यु का भय ही नहीं दिखाती, मृत्यु तक पहुंचा देने में भी कसर नहीं रखती हैं। ऐसी स्थिति में सरकारी या अर्द्धसरकारी संस्थान याने विभिन्न विकास निगम इन कम्पनियों द्वारा ऐसे खनन उद्योगों को चलवा कर विकास व गरीबी निवारण के अपने लक्ष्य से पूर्णतः भ्रष्ट होते रहे, यह बहुत बड़ा शोचनीय पहलू है। कम्पनियों के इस प्रकार अवैधानिक या मनमानी की गतिविधियों के कई नमूने हैं। जैसे-

• बेईमानी द्वारा ग्राम सभा का अनापत्ति नहीं (No objection) प्रस्ताव प्राप्त करना।

• भ्रष्ट तरीकों द्वारा अपनी खानों के लिए सुविधाएं प्राप्त करना।

• मजदूरों के मरने या चोट लगने पर उन्हें कोई मुआवजा नहीं देना या अत्यल्प मुवाजे देना।

• खानों के मलवे को ग्रामीणों की उपजाऊ कृषि व पशुपालन योग्य भूमि में बहने देना व उसका भी कोई मुआवजा नहीं देना।

• लीज में प्राप्त निर्धारित भूमि से बाहर की भूमि में यदि अच्छा खनिज मिलता है तो उसे जोर-जबरदस्ती हथियाना अथवा भोली जनता को बहलाकर या उनकी मजबूरी का लाभ उठाकर उनकी भूमि उनसे ले लेना।

• पेयजल व्यवस्था और पर्वतीय क्षेत्रों के लिए ईंधन की कुव्यवस्था।

• दुष्ट व गुंडे लोगों के द्वारा गांवों में आतंक फैलाना।

• मजदूरों को पूरी सुविधाएं तो दूर, उन्हें पूरी मजदूरी भी नहीं देना।

ऐसे कई अवैधानिक कार्यकलापों को ये कम्पनियां खुलेआम करती रहती हैं और बहुत ही दुख की बात तो यह है कि सम्बंधित सरकारी विभाग भी इससम्बंध में उन्हें न तो देखते हैं और न ही रोकते हैं, ऐसी स्थिति में ये कम्पनियां पहाड़ के विकास का नहीं, बल्कि शोषण का एक बहुत बड़ा जरिया बनकर जड़े जमा रही हैं, जिससे पहाड़ों के सरल विकास का नहीं, बल्कि शोषण का एक बहुत बड़ा जरिया बनकर जड़े जमारही हैं, जिससे पहाड़ों के सरल जीवन में अशांति और तनाव पैदा हो रहे हैं।

3. खनन समस्या का तीसरा बिन्दु है, प्राकृतिक पर्यावरण का ह्रास। पहाड़ों की धरती, पानी और वनों के साथ-साथ यहां के निवासियों की स्वतंत्र व शांतिपूर्ण जीवन पद्धति एवं यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य – यह सब सुरक्षित रहें तो यहां का पर्यावरण सन्तुलित रह सकेगा। इस बुनियाद पर इस क्षेत्र में समृद्धि लाने की कोशिश हो, तथा इन सीमा रेखाओं पर ही औद्यौगीकरण को चलना चाहिए, खनन आधारित उद्योग हो अथवा पर्यटन आधारित या कोई अन्य, सभी उद्योगों को उस क्षेत्र की प्रकृति व सांस्कृतिक विरासत एवं जीवन शैली की गुणवत्ता (क्वालिटी ऑफ लाइफ) से मेल खाते हुए चलना चाहिए परन्तु पर्यावरण की दृष्टि से खनन-उद्योग का जो आज तक का अभ्यास रहा है वह पर्यावरण संरक्षण व संतुलन के खिलाफ ही रहा है, क्योंकि-

• खनन उद्योगों ने खनिज के लोभ में सैकड़ों फीट गहरे गड्ढे उन पहाड़ी ढलानों पर बना दिये हैं जहां ग्रामीण स्वयं तथा उनके पशु अपने दैनन्दिन कार्यों के लिए जाते हैं। इससे उनके गड्ढ़ों में गिरकर चोट खाने तथा मर जाने के उदाहरण सामने आये हैं। इसके साथ-साथ वर्षा काल की तेज व लगातार वर्षा में इन गड्ढों में भरने वाला पानी पूरे ढाल को ही खिसका देगा, यह भय बना ही रहता है, पर इन गड्ढ़ों को भरने की किसी को कोई चिन्ता नहीं हैं।

• खड़िया या मैगनेसाइट का मलबा बेतरतीब फैला दिया जाता है, जिससे तीव्र वर्षा में ये खनिज अंश बहकर कृषि तथा उस पर खड़ी फसल को दबा देता है तथा पेयजल के स्रोतों को प्रदूषित कर देता है।

• ब्लास्टिक (विस्फोट) – ब्लास्टिक के धक्के पहाड़ों की धरती को हिला देने से कमजोर तो बनाते ही हैं, दूसरी ओर ये गांव वासियों के घरों की पत्थर से बनी मजबूत दीवारों में दरारें डाल देते हैं।

• एक ओर उत्तराखण्ड में वन-संरक्षण व संवर्द्धन की इतनी बड़ी मुहिम छेड़ी गई हैं। सरकारी विभाग भी प्रतिवर्ष अधिक से अधिक संख्या में वृक्षारोपण करने में जुटे पड़े हैं, दूसरी ओर पहाड़ में स्थित समस्त स्वयं सेवी संस्थाएं वृक्षारोपण व पर्यावरण संवर्द्धन को अपना मुख्य काम मान कर चल रही हैं, पर इधर इन खनन कार्यों के तहत हजारों वृक्ष उखाड़े जा रहे हैं और वे कहीं गिनती में भी नहीं आते।

पर्यावरण के अंदर भौतिक या प्राकृतिक बायोमास के साथ-साथ सामाजिक वातावरण भी शामिल है। यह अविवेकपूर्ण उखाड़-पछाड़, जो उद्योग व विकास जैसे उच्च अर्थी शब्दों की आड़ में, इस समय पहाड़ पर हो रही है, वह पहाड़ के सारे सामाजिक वातावरण, वहां की सुरक्षा, वहां की जीवनचर्या की गुणात्मकता तथा स्थायित्व को विश्रृंखल कर रही है।

पर्यावरण के अन्तर्गत मानव समुदायों की प्रतिदिन के जीवन की शांति भी निहित है। मानव विकास के इतिहास में हर स्थान व क्षेत्र की अपनी विष्टिता भी कोई अर्थ रखती है। ऋषि मुनियों के हिमालय में कोई नया वातावरण, नई परम्परा प्रारम्भ करने के पूर्व सोचना चाहिए कि उस क्षेत्र की हजारों वर्षों पुरानी भूमिका को नेस्तनाबूद करने का दुस्साहसी कार्य करने का क्या हमें अधिकार भी है? उस भूमिका को सही सलामत रखते हुए भी हम एक ऐसे विकास की राह प्रशस्त कर सकते हैं जो उस क्षेत्र की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक विरासत को जीवित रखे व लोगों को समरसतापूर्ण ढंग से विकसित कर सके। उपर्युक्त तीनों पक्षों को अधिक पुष्टि देते हुए भी कैसे पहाड़ को अधिक समृद्ध किया जाय? यह एक सही विकास की दृष्टि से खोजने व कार्यान्वित करने की चुनौती है, सरकार, सरकारी नियमों, व्यापारियों तथा पर्यावरण कर्मियों के सामने। मै सोचती हूं कि एक राह निकल सकती है जो मोटी तौर पर इस तरह व्यक्त की जा सकती है। सर्वप्रथम, किसी प्रकार के उद्योग को प्रारम्भ करने के पूर्व उसके स्थान व उसके आस-पास के सम्पूर्ण बायोमास का ईमानदारी पूर्वक सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। इस बायोमास, पर्यावरण तथा जनजीवन का पूरा अध्ययन उन व्यापारिक कम्पनियों या सहकारी समितियों को भी होना चाहिए। हर ऐसे औद्योगिक संस्थान के कार्य क्षेत्र में एक अधिकार सम्पन्न पर्यावरण इकाई होनी अत्यावश्यक है जो उपर्युक्त सर्वेक्षण में भी साथ हो तथा पर्यावरण के विपरीत जाने से उन्हें रोक सके।

इस इकाई में औद्योगिक संस्थान एवं आस-पास की जनता के एवं गांव में निवास करने वाले प्रतिनिधि शामिल हों, जो उद्योग की कार्यविधि में उसे मार्गदर्शन दें।

दूसरा, उद्योग की लीज विभिन्न चरणों में दी जाय। एक चरण तक कार्य हो जाने के बाद आस-पास के पर्यावरण एवं बायोमास तथा जन जीवन को हुई लाभ-हानि अथवा अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाले ह्रास का पुनर्निर्माण यानि नवीनीकरण किया गया या नहीं, इस सबका अवलोकन सरकार तथा उक्त पर्यावरण इकाई द्वरा किया जाएं। इसमें संतुष्टि होने के बाद ही आगे का चरण प्रारम्भ किया जाय। इस प्रकार अंतिम चरण के लिए खनन जैसे कार्यों में एक महत्वपूर्ण शर्त होनी ही चाहिए कि अंतिम चरण तक पहुंचने तक उन्हें वही बायोमास व प्राकृतिक पर्यावरण पुनः उस क्षेत्र पर लाना होगा, जो प्रारम्भ में वहां था। उतनी ही वनस्पति व उतनी ही जीवन-जंतुओं की क्रियाशीलता वहां होनी चाहिए। कागज उद्योग के सामने भी इसी प्रकार की शर्तें रखनी चाहिए कि उसको सरकार लीज पर भूमि देगी उस पर उद्योगपति स्वयं जंगल लगायें और उससे अपना कारखाना चलाए तब जंगल लगाने व काटने का रोटेशन सही ढंग से स्वयं कम्पनी यानी उद्योग संस्थोओं को चलाना होगा।

संक्षेप में उद्योग के साथ-साथ पर्यावरण को अत्यंत महत्वपूर्ण अंग के रूप में जोड़ना चाहिए और किसी भी दोहन-योजना को तब तक पूरी नहीं मान लिया जाये कि जब तक उसमें संवर्धन की योजना न जोड़ी जाये। दूसरा यह एकदम आवश्यक है कि ऐसी संतुलित योजना भी उन्हीं स्थानों के लिए बने जो पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील नहीं हैं। संवेदनशील क्षेत्रों को तो किसी प्रकार की भी खनन या दोहन के अन्य कार्यों से अछूता ही रखना होगा। तभी हिमालय पर्यावरण, यहां की सांस्कृतिक विरासत व यहां के जीवन की गुणात्मकता भी सुरक्षित रह सकेगी और औद्योगिक विकास को भी सही दिशा मिल सकेगी।

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