पहाड़ी संस्कृति के बिखरने का कारण बनेगा चीड़


प्राचीन काल में भारत में ज्ञात सबसे असाध्य रोग क्षय रोग था, इसलिये इसे राज रोग भी कहा जाता था। ऐसा ज्ञात था कि इस रोग का मुख्य कारण फेफड़ों में आॅक्सीजन की कमी या खून बनने एवं साफ होने की प्रक्रिया का दूषित हो जाना था, प्राचीन आयुर्वेद के ज्ञाताओं ने इसका निदान प्राकृतिक रूप में करने का उपाय ढूँढ़ा कि ऐसे वृक्षों के समीप क्षय रोग से ग्रसित बीमार को रखा जाए जिनसे बड़ी मात्रा में आॅक्सीजन प्राप्त होती हो तो इससे बीमार के फेफड़ों को अपना काम करने में सुगमता हो जाएगी। अन्वेषण से पता चला कि ऐसा पेड़ पीपल है जो अन्य की तुलना में 40-50 गुना अधिक मात्रा में वायुमंडल में आॅक्सीजन छोड़ता है और रात के समय अन्य से विपरीत आॅक्सीजन ही छोड़ता है, सम्भवत: प्राचीन काल में क्षय रोग से पीड़ित रोगियों के लिये पीपल और आम्रकुंज में आवास बनाकर रखने की व्यवस्था रही होगी। इसी गुण के कारण शास्त्रों में पीपल की पूजा का प्रावधान हो? परंतु इसमें समस्या सम्भवत: यह आई होगी कि पीपल का पेड़ उगाना मुश्किल कार्य होता है, एक तो यह बहुत धीमा बढ़ता है और दूसरा पशु इसकी हरी पत्तियों को खा लेते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान में यूरोप ने आधुनिक विश्व को विज्ञान की दृष्टि से परखने के तौर-तरीके ढूँढे, विज्ञान के प्रादुर्भाव ने पीपल के गुणों से काफी मेल खाती चीड़ का पता लगाया और इसे विकसित किया। चूँकि यूरोप की जलवायु पीपल के अनुरूप नहीं थी, क्योंकि पीपल मानसूनी प्रजाति का वृक्ष है, जो शीतकाल में अपनी पत्तियाँ गिराता है और यूरोप का अधिकांश भाग शीत कटिबंध में आता है जहाँ पीपल को अनुकूल जलवायु नहीं मिल पाती। अत: वहाँ चीड़ उत्पादन को प्रोत्साहन मिला होगा। भारत में अपना उपनिवेश स्थापित करने के उपरान्त अंग्रेजों ने यहाँ की ब्रिटिश समतुल्य जलवायु और जमीन पर जो प्रमुख रूप से उत्तराखंड की पहाड़ियाँ थी इनमें कुछ ऊँचे हिमालयी स्थानों पर क्षय रोगियों के लिये सेनिटोरियम स्थापित किये जहाँ क्षय रोगियों को रखा जाता था और इन सेनिटोरियमों के चारों और यूरोप मुख्य रूप से नीदरलैंड से चीड़ के पेड़ मँगाकर रोपित किये। ऐसा भी माना जाता है कि क्षय रोग एक अछूत बामारी थी इसलिये इसमें अतिरिक्त सतर्कता भी रखी जाती थी।

उन्नीसवीं सदी के मध्य में रेल का यातायात एवं व्यावसायिक उपयोग होने लगा तो अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में अपनी सैनिक सुविधाओं को देखते हुए भारत में चीड़ के महत्व को समझा और बड़े पैमाने पर इसका रोपण करना प्रारम्भ किया। चीड़ की यह विशेषता है कि वह 40-50 मीटर तक सीधे ऊपर की ओर तेजी से बढ़ता है और कुछ ही सालों में आठ से दस फीट तक का तना मोटा हो जाता है, जिससे लट्ठे बनाकर रेललाइनों के स्लीपर बनाए गये, लगभग बीसवीं सदी के अन्त तक रेललाइनों में इसी का प्रयोग होता था। बीसवीं सदी में जब पक्की सड़कें बनाने का कार्य प्रारंभ हुआ तो कोलतार बनाने के लिये चीड़ से निकलने वाले चिपचिपे गोंद, लीसा की प्रयोग इसमें कारगर हुआ और बड़ी मात्रा में चीड़ के पेड़ों से लीसा का व्यावसायिक उपयोग प्रयोग में आया। पहाड़ों में इसके तीव्र फैलाव से स्थानीय लोगों को परम्परागत घर बनाने के लिये हल्की और सीधी लकड़ी मिलने से बीसवीं सदी तक बड़े पैमाने पर इसका लाभ मिला।

इन कामों से बेशक रोजगार के अवसर भी प्राप्त हुए, परन्तु आज न तो रेलवे को चीड़ के स्लीपरों की आवश्यकता है, न सड़कों के पक्कीकरण के लिये लीसे की और न ही घर बनाने के लिये मुख्य रूप से चीड़ के लकड़ी की और न ही सेनिटोरियम की। या यूँ कहें कि पर्यावरण नीति के कारण इनकी उपलब्धता सहज नहीं रही, इस पर नियंत्रण और संतुलन की नीति निष्प्रभावी हो जाने से इसका स्वरूप विकृत हो गया। सो इसके विकल्प के रूप में अन्य सामग्री का प्रयोग होने लगा है और चीड़ लगभग निष्प्रोज्य होकर रह गया है। चीड़ की विशेषता यह है कि इसे न तो पशु खाते हैं न भेड़ बकरियाँ, न पक्षी न कीट पतंग। यह जहाँ उगता है पेड़ बन जाता है, इसके बीज में पीछे से एक लंबा पूँछ जैसा पंख होता है जो इसे कई सौ मीटर दूर तक उड़ा ले जाता है। यह एक ऐसा वृक्ष है जो पहाड़ों में किसी भी भौगोलिक परिस्थिति में उग जाता है और जीवित रह जाता है। यह सभी प्रकार की मिट्टियों में अपना भोजन प्राप्त कर लेता है।

यह जून में अपने बीजों को छोड़ता है और जैसे ही बरसात का मौसम प्रारम्भ होता है तो इसे अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती हैं इसलिये यह तुरन्त उग भी आता है। यही कारण है कि आज पहाड़ का अधिकांश भू-भाग चीड़ से आच्छादित हो गया है। चीड़ पूर्व में कितना लाभकारी था, प्रश्न अब यह नहीं है? प्रश्न यह है कि यह आज कितना विनाशकारी है, इस पर विचार किया जाना चाहिये। पर्यावरणीय दृष्टि से विशेषज्ञ इसका जो भी विवेचन करें, पर सच यह है कि चीड़ की बहुतायत से पहाड़ का पूरा पर्यावरण लकवाग्रस्त हो गया है। चीड़ ने पूरे पर्वतीय क्षेत्र को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। वानस्पतिक विविधता जैव विविधता पानी के प्राकृतिक जलस्रोत, रसीले जंगली फलों की झाड़ियाँ, पशुओं के लिये हरी नरम घास, बागवानी और सबसे बढ़कर आबो-हवा, वातावरण की नमी, खेतों की लहलहाती फसल, सभी कुछ तो छीन लिया है इसने।

आज पर्यावरणविद और वनस्पति विज्ञानी चीड़ की पत्तियों से कोयला बनाने का दावा करते हैं, बन रहा है पर यह इतना श्रम साध्य और व्यय साध्य है कि गाँववासी इसे प्रयोग में लाना ही नहीं चाहता। सबसे अधिक चीड़ क्षेत्रों में से एक थैलीसैंण रेंज कार्यालय में यह उपकरण धूल फाँक रहे हैं। चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करना मानव श्रम से बाहर है क्योंकि चीड़ निरन्तर महीनों तक पत्तियाँ गिराता रहता है और प्राय: चीड़ के जंगलों में आग लगती रहती है।

मुख्यमंत्री ने अपने संबोधन में कहा है कि हम उत्तराखंड में चीड़ की पत्तियों से कागज बनायेंगे, इस संबंध में जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, स्व. कुँवर सिंह कर्मठ की तेरहवीं पर आयोजित शोक सभा में अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कागज विज्ञानी डॉ. जय प्रकाश सेमवाल ने इसका उल्लेख किया कि स्व. कर्मठ जब भी मिलते थे तब पिरुल से कागज बनाकर पहाड़ को इससे छुटकारा दिलाने की बात अवश्य करते थे पर पिरुल में वह तरलता नहीं है जिससे उसे लुग्दी में बदला जा सके। तो यह कैसे संभव होगा मुख्यमंत्री को सलाह देने वाले वैज्ञानिक या पर्यावरणविद ही जानें और यदि ऐसा हो पाता है तो यह एक प्रशंसनीय कार्य कहा जायेगा परन्तु चीड़ की पत्तियों के उपयोग से चीड़ के दुष्प्रभावों में कहीं भी कोई कमी नहीं आयेगी, उसका मूल स्वभाव नहीं बदलेगा, यह विज्ञान सम्मत सत्य है।

एक स्वस्थ चीड़ का पेड़ एक दिन में अपने आस-पास की चालीस लीटर तक नमी का अवशेषण करता है, चीड़ वन क्षेत्र में मिट्टी नमी रहित हो गई है इसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए।

चीड़ के पेड़ों के नीचे पशुओं के खाने लायक घास नहीं उगती, पहाड़ में पशु चारागाह पर निर्भर रहते हैं। जिन कृषि जोत खेतों में चीड़ की पत्तियाँ गिरती हैं उनमें दीमक लगने से फसल चौपट हो जाती है। जहाँ चीड़ के घने क्षेत्र उग आये हैं वहाँ प्राकृतिक जलस्रोत सूख गये हैं। पहाड़ों में दावानल का प्रमुख कारण चीड़ ही है, उसके फल जिनमें बीज पलता है आग के वाहक होते हैं।

जहाँ-जहाँ चीड़ क्षेत्र विकसित हो रहे हैं वहाँ रसीले फलों की झाड़ियाँ समाप्त हो रहीं हैं, जो पक्षिओं के प्राकृतिक आवास और भोजन के भण्डार थे। चीड़ के अतिशय विस्तार से चौड़ी पत्तियों के जंगल और झाड़ियाँ बहुत तेजी से घट रहे हैं, चौड़ी पत्तियों के वृक्षों की टहनियाँ और झाड़ियाँ अनेक प्रकार के छोटे बड़े पक्षियों के प्राकृतिक आवास थे, इन्हीं से वह अपना भोजन प्राप्त करते थे, इनमें ही वे निवास करते थे और इन्हीं में घोसले बनाकर वह अपने वंश में वृद्धि करते था। चीड़ के फैलाव और निरन्तर लगने वाली आग से यह आवास समाप्त हो रहे हैं, जिससे पहाड़ों में दिखाई देने वाली विभिन्न प्रकार की पक्षियाँ विलुप्त हो गई हैं। 20-25 साल पूर्व तक जिन पक्षियों का झुण्ड पहाड़ों में यहाँ-वहाँ उड़ता नजर आता था आज विलुप्त हो गए हैं। चौड़ी पत्तियों के जंगलों, झाड़ियों में पक्षियों का कलरव सुनाई देता था, कई प्रकार की मीठी बोलियाँ सुनाई देती थी, आज चीड़ के वनों में केवल हवा की सरसराहट भर सुनाई देती है। पहाड़ी क्षेत्रों में जैव विविधता समाप्त हो रही है क्योंकि चीड़ क्षेत्र में न वह सुरक्षित हैं न उनके लिये भोजन ही है। चीड़ क्षेत्रों के आस-पास कृषि भूमि पूर्णत: बंजर हो गई है।

चीड़ क्षेत्रों के विस्तार से ही बचे-खुचे जंगली जानवर आबादी की ओर रुख कर रहे हैं, क्योंकि चीड़ क्षेत्रों में उनके लिये न तो भोजन ही है न पानी ही, अधिकांश जंगली जानवर घुरुड़, काकड़, चीतल, बारहसिंहा, बाघ, चीता, गीदड़, सियार, ऊदबिलाव, साही, जंगली खरगोश, भालू आदि आग की भेंट चढ़ गए हैं या भूख से मरकर लुप्त प्राय: हो चुके हैं और यदि इनमें से कुछ जैसे बाघ, चीता, बंदर, सुअर आदि बच पाये तो वह मानव बस्तियों में पहुँचकर उन्हें उजाड़ रहे हैं।

अत: हमारे इस महान देश के प्रधानमंत्री से, पर्यावरणविदों से, वैज्ञानिकों से, भारत सरकार के वन मंत्री से, पर्यावरण मंत्री से और विशेषकर वन महकमें से अपील है कि उत्तराखंड के पहाड़ी भविष्य को बचाने के लिये ऐसा शोध करें, चिंतन करें, सरकारों को दिशा-निर्देश दें, परामर्श दें, जिससे पहाड़ों को चीड़ से हो रहे पर्यावरणीय क्षति से बचाया जा सके। आने वाला कल उत्तराखंड का नैसर्गिक सौंदर्य हो, जो देश-विदेश के आकर्षण का केंद्र बने। वास्तव में स्विट्ज़रलैंड बने। आपका अपना आज नहीं अपनों का कल आपके लिये महत्त्वपूर्ण है।

तो आइये हम सब मिलकर कदम मिलाकर इस ओर प्रयास करें, पहाड़ों का पारिस्थितिकी तंत्र बचाने में सहयोग करें। चीड़ को सीमित कर चौड़ी पत्तियों के जंगल विकसित करें। आपका, हमारा सहयोग सहायक होगा पहाड़ों में जैव-विविधता को बचाने के लिये, बहुमूल्य प्राकृतिक औषधियों, वनस्पतियों को बचाने के लिये पेयजल स्रोतों को बचाने के लिये, कृषि और बागवानी पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को बचाने के लिये, निरन्तर हो रही घास की कमी को बचाने के लिये भू-गर्भीय जल के संग्रहण के लिये, पेड़-पौधों पर जीवित रहने वाले पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों को बचाने के लिये, कृषि भूमि को ऊसर होने से बचाने के लिये, कृषि बागवानी आदि को दीमक से बचाने के लिये, जंगलों को आग से बचाने के लिये, पशु-पक्षियों के प्राकृतिक आवासों को बचाने के लिये और इन्हें संरक्षित करने के लिये।

जिस ऊँचाई पर चीड़ के जंगल फैल गये हैं यह ऊँचाई पहाड़ों में बागवानी के लिये आदर्श ऊँचाई रही है, इसलिये इनके विस्तार को रोककर इनके स्थान पर बागवानी विकास की योजनाएँ तैयार की जानी चाहिये।

चीड़ के फैलते जाल को रोकने के लिये ठोस कदम उठाये जाने आवश्यक हैं, इसके लिये निम्नांकित उपाय किये जाएँ-

चीड़ को मिश्रित वन क्षेत्रों से नष्ट किया जाए।

15 वर्ष की आयु से अधिक पेड़ों से अधिकतम मात्रा में लीसा प्राप्ति एवं और उसके उपयोग की विधियाँ प्रयोग में लाई जाएँ, इसे रोजगारपरक योजना बनाई जाए।

चीड़ के जंगलों में चौड़ी पत्ती के घने वृक्ष रोपण की एक पाँच वर्षीय संरक्षण योजना लागू की जाए। पाँच वर्षों को पेड़ इतने बड़े हो जाते हैं कि उसके नुकसान की संभावनाएँ कम हो जाती हैं।

जंगलों को आग से बचाने की वार्षिक योजना तैयार की जाएँ। आग लगने के लिये सम्बंधित वन कर्मियों और अधिकारियों का उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाए।

चीड़ के बीजों का क्रय करने की योजना बनाई जाए। ऐसा करने से जहाँ एक ओर बड़ी मात्रा में ग्रामीणों को लिये रोजगार सृजन होगा वहीं चीड़ के फैलाव में कमी आएगी।

मनरेगा जैसे रोजगारपरक कार्यक्रमों के द्वारा चीड़ हटाकर इनके स्थान पर बांज आदि चौड़ी पत्तियों के पौधरोपण (एक चीड़ की जगह एक बाँज) का कार्य किया जाए।

चीड़ के जंगलों को आग बचाने के लिये एक निश्चित क्रम में 05 से 10 फीट लंबी और 02 से 03 फीट चौड़ी खन्तियों का निर्माण ज्यामितीय आधार पर किया जाए, ताकि वर्ष में अधिकतम समय जंगल में नमी रहे और आग लगने की स्थिति में आग इनसे आगे न बढ़ सके।

यूरोप में आज बड़ी मात्रा में घरेलू उपयोग में आने वाली पानी की टंकियाँ एक फैशन के रूप में पसन्द की जा रही हैं, बढ़ते हुए शहरीकरण और आर्थिकी को देखते हुए चीड़ आधारित यह उद्योग भी स्थापित किया जा सकता है।

अपने-अपने हित साधन की दृष्टि से पर्यावरणविद, राष्ट्रीय हरित अभिकरण, पर्यावरण मंत्रालय, तथाकथित कोयला और कागज विज्ञानी इसे किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं करेंगे, पर पहाड़ की बलि चढ़ाकर चीड़ को अति संरक्षण देना किसी भी प्रकार पहाड़वासी भी मान्य नहीं करेंगे। पहाड़ की बलि का अर्थ एक संस्कृति की मृत्यु होना तय है। पहाड़ के अतीत और उसकी संस्कृति पर जिन लोगों को गर्व है, उनके विचार भी इस संबंध में सुने जाने आवश्यक होंगे। जिस प्रकार चिनार के बिना कश्मीर, सुन्दर के बिना बंगाल, चंदन के बिना कर्नाटक अस्तित्वहीन है उसी प्रकार बांज और बुरांस के बिना उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र भी अस्तित्वविहीन होगा।

चीड़ के फैलाव की यही गति अगर अगले कुछ दशक तक इसी प्रकार बनी रही तो उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र वर्ष के अधिकांश महीनों में आग और धुएँ का गुबार भर दिखाई देता रहेगा, इस आग में जंगल ही नहीं गाँवों के घर-आंगन भी सुरक्षित नहीं रहेंगे और फिर अगले कुछ दशक में पहाड़ में मानव, पशु-पक्षी, वनस्पति कुछ भी नहीं दिखाई देंगे, यहाँ तक कि चीड़ भी नहीं।

समय रहते अगर हम चीड़ के जंगलों के स्थान पर चौड़ी पत्तियों के जंगल विकसित कर पाने में सफल होते हैं तो हम पहाड़ का जीवन, पहाड़ की संस्कृति, कृषि, बागवानी, औषधि, सबसे अधिक पानी के स्रोत, जंगलों पर आधारित रंग-बिरंगे पशु-पक्षी सभी को बचा लेंगे।

आइये सब मिलकर प्रयास करें कि चीड़ क्षेत्र सीमित हो और पहाड़ अपने पुराने वानस्पतिक और पर्यावरणीय स्वरूप में लौट आए।

(वाचस्पति बहुखण्डी)

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