राहुल पराशर, भारतीय पक्ष
झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर है उरांव आदिवासियों का सातो गांव। इस गांव में 1966-1967 में भयंकर अकाल पड़ा। लोगों के भूखों मरने की नौबत आ गई। अकाल के दिनों में चारों ओर पहाड़ों से घिरे इस गांव को पहाड़ के ऊपर बहने वाली सातो नदी मुंह चिढ़ाया करती थी। लेकिन प्रकृति की मार सह चुके ग्रामीणों ने एक ऐसा तरीका ढूंढ़ निकाला जिससे न केवल उनके जीवन में खुशी आई, बल्कि दूसरे गांवों को भी उनसे कुछ कर गुजरने की प्रेरणा मिली।
कई सालों से सरकारी उपेक्षा सह रहे इस गांव में जब अकाल और सूखे से राहत की कोई ठोस सरकारी योजना न बनी तो ग्रामीणों ने अपने स्तर पर इस समस्या का हल ढूंढ़ने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने पहाड़ के ऊपर बहने वाली सातो नदी को नीचे लाने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने प्रखंड अधिकारियों से मदद मांगी। काफी जद्दोजहद के बाद वहां से इंजीनियर आए और स्थल का मुआयना किया। लेकिन उन्होंने इस काम को यह कहकर करने से इनकार कर दिया कि नदी का पानी नीचे लाने के काम में भारी लागत आएगी और पत्थर तोड़ने के लिए मशीन को ऊपर पहाड़ पर ले जाना होगा, जो संभव नहीं है। इंजीनियरों का जवाब सुनने के बाद एक बार गांववाले निराश तो जरूर हुए लेकिन उनकी हिम्मत नहीं टूटी। उन्होंने मशीन की बजाय हाथ से ही इस काम को अंजाम देने का बीड़ा उठाया। सबसे पहले पत्थरों को तोड़ने का काम शुरू किया गया। गांव के बुजुर्गों ने सलाह दी कि गांव का हर युवक और बुजुर्ग पत्थर तोड़ने में लग जाए तो काम आसान हो जाएगा। बुजुर्गों की सलाह पर पड़ोस के गांवों से चंदा इकट्ठा कर जरूरी औजार खरीदे गए और रोजगार की तलाश में विभिन्न राज्यों में गए युवकों को भी भागीदार बनाने के लिए गांव वापस बुलाया गया। हालांकि उरांव समुदाय में महिलाओं को काफी सम्मान दिया जाता है और उन्हें भी पुरुषों के बराबर का दर्जा हासिल है लेकिन पत्थर तोड़ने के काम में महिलाओं की मदद नहीं ली जा रही थी। इससे वे दुखी थीं। गांव की कुछ अनुभवी महिलाओं ने मिलकर गांव में एक बैठक की और सब मिलकर गांव के बुजुर्गों के पास गईं। उनका उत्साह देख बुजुर्गों ने उन्हें भी इस काम में हाथ बंटाने की इजाजत दी। करीब आठ महीने की मेहनत के बाद ऊपर से नीचे पानी उतारने के लिए कामचलाऊ चैनल बन कर तैयार हो गया।
ग्रामीणों ने चैनल बनने की जानकारी प्रखंड के अधिकारियों और इंजीनियरों को दी तो वे हैरत में पड़ गए। गांववाले चाहते थे कि अब नदी के पानी को रोकने के लिए वहां एक बांध का निर्माण किया जाए ताकि अकाल और सूखे से लड़ने का कोई स्थाई हल निकल जाए। इसके लिए एक बार फिर उन्होंने इंजीनियर और अधिकारियों से मदद की गुहार लगाई। लेकिन उन्होंने इस बार भी पहाड़ पर मशीन न जा सकने की असमर्थता जताते हुए बांध बनाने से इनकार कर दिया। अपने फैसले पर अडिग रहते हुए ग्रामीणों ने अब किसी तरह की सरकारी सहायता न लेने का निश्चय किया।
फिर क्या था। सामूहिक श्रम से नदी के बीचों-बीच पत्थरों की दीवार खड़ी कर दी गई जिससे बरसात में पानी का बहाव रोककर उसके पानी को गांव में उतार लिया गया। 1967 में भारी वर्षा हुई और नदी का बहाव काफी तेज होने से यह कच्चा बांध टूट गया। लेकिन बांध के टूटने से पहले ही चैनल से ऊपर का पानी नीचे गांव में उतर चुका था। इस तरह उनका प्रयोग सफल रहा। 1967 के बाद के कुछ सालों में अच्छी वर्षा होती रही। लिहाजा लोगों को बांध या चैनल की जरूरत नहीं महसूस हुई। लेकिन 1983 के बाद फिर से पानी की कमी होने लगी। ग्रामीण इस बार कोई स्थाई व्यवस्था करना चाहते थे। दो दशक पहले किया गया अपना प्रयोग वे फिर दुहराना चाहते थे। इसलिए वे एक बार फिर पक्का बांध बनाने की सोचने लगे। उसी साल विकास भारती संस्था के संस्थापक अशोक भगत उस गांव में गए। उन्होंने ग्रामीणों के बनाए गए कच्चे बांध के बारे में सुन रखा था। ग्रामीणों ने उनसे बांध को पक्का करने के संबंध में जरूरी सलाह मशविरा किया। उन्होंने ग्रामीणों को हरसंभव सहायता देने का भरोसा दिलाया और गांव के सभी व्यक्तियों को श्रमदान करने के लिए कहा। गांव का हर व्यक्ति श्रमदान के लिए तैयार था। बांध बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। गांव की महिलाएं हर घर से चावल इकट्ठा करके संयुक्त रूप से भोजन बनाने लगीं। बांध बनाने के लिए किसी प्रकार स्रोत में नींव की खुदाई की गई। नींव तो खोद ली गई लेकिन दिक्कत यह थी कि उसमें हमेशा पानी भर जाता था। बांध का निर्माण करवा रहे निरीक्षक कमलाकांत पांडे ने इस स्थिति से निपटने के लिए पहाड़ पर मशीन लाने को कहा। लेकिन वह मुमकिन नहीं था। तभी कुछ लोगों के दिमाग में पानी सुखाने के लिए मशीन की बजाय युवकों से पानी खिंचवाने की युक्ति आई। बीस युवकों को ऊपर खड़े रहने के लिए कहा गया। वे वहां खड़े होकर पानी खींचते रहे। उनके थकने के बाद फिर बीस युवक ऊपर चले जाते। इस तरह धुन के पक्के ग्रामीणों और विकास भारती की कोशिशों से सातो गांव में पहाड़ पर पक्के बांध का निर्माण हुआ।
इस बांध से यहां के लगभग 300-400 एकड़ जमीन पर सिंचाई होने लगी। लेकिन एक बार और प्रकृति ने गांव वालों का इम्तिहान लिया, जब 1996-97 में तेज बारिश होने से यह बांध टूट गया। तत्कालीन प्रखंड विकास अधिकारी रणेंद्र उन दिनों अक्सर उस गांव में आया-जाया करते थे। इस बार उन्होंने अपनी तरफ से ग्रामीणों की मदद करने की पेशकश की। हमेशा सरकार और प्रशासन से निराश हुए ग्रामीणों को एकबारगी उनपर भरोसा न हुआ, लेकिन जब बांध को पक्का करने के लिए उन्होंने पैसा देने की सरकारी घोषणा की तो वे चकित हुए। हांलांकि यह पैसा बांध को पक्का करने के लिए र्प्याप्त नहीं था, फिर भी गांववालों ने अपने दम पर डेढ़ महीने में इस बांध को पक्का कर लिया।
गांव के अभय यादव और उदय महतो दावे के साथ बताते हैं कि अब उन्हें अकाल से डर नहीं लगता क्योंकि उन्होंने उसपर जीत हासिल कर ली है। वे बताते हैं कि उनके गांव के आस-पास के क्षेत्रों में अब भी अकाल पड़ता रहता है, लेकिन इससे उनके गांव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। सातो गांव से सिंचाई का पानी अब नवाटोली टोले में भी पहुंचने लगा है।
गांववालों का कहना है कि पानी के पहाड़ के नीचे आने से उनका जीवन पहले की तरह अभावग्रस्त नहीं रहा। बांध बनने से पहले लोग मुश्किल से एक वक्त के खाने का जुगाड़ कर पाते थे। पहले यहां बमुश्किल धन फसल हुआ करती थी। सीमित खेती और कम आय के चलते युवाओं का पलायन होने लगा था। लेकिन आज धान और गेहूं दोनों फसलों का उत्पादन होने से लोग साल भर खेतों में काम करते रहते हैं जिससे उन्हें आर्थिक समृद्धि भी हासिल होने लगी है।
भारतीय पक्ष
झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर है उरांव आदिवासियों का सातो गांव। इस गांव में 1966-1967 में भयंकर अकाल पड़ा। लोगों के भूखों मरने की नौबत आ गई। अकाल के दिनों में चारों ओर पहाड़ों से घिरे इस गांव को पहाड़ के ऊपर बहने वाली सातो नदी मुंह चिढ़ाया करती थी। लेकिन प्रकृति की मार सह चुके ग्रामीणों ने एक ऐसा तरीका ढूंढ़ निकाला जिससे न केवल उनके जीवन में खुशी आई, बल्कि दूसरे गांवों को भी उनसे कुछ कर गुजरने की प्रेरणा मिली।
कई सालों से सरकारी उपेक्षा सह रहे इस गांव में जब अकाल और सूखे से राहत की कोई ठोस सरकारी योजना न बनी तो ग्रामीणों ने अपने स्तर पर इस समस्या का हल ढूंढ़ने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने पहाड़ के ऊपर बहने वाली सातो नदी को नीचे लाने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने प्रखंड अधिकारियों से मदद मांगी। काफी जद्दोजहद के बाद वहां से इंजीनियर आए और स्थल का मुआयना किया। लेकिन उन्होंने इस काम को यह कहकर करने से इनकार कर दिया कि नदी का पानी नीचे लाने के काम में भारी लागत आएगी और पत्थर तोड़ने के लिए मशीन को ऊपर पहाड़ पर ले जाना होगा, जो संभव नहीं है। इंजीनियरों का जवाब सुनने के बाद एक बार गांववाले निराश तो जरूर हुए लेकिन उनकी हिम्मत नहीं टूटी। उन्होंने मशीन की बजाय हाथ से ही इस काम को अंजाम देने का बीड़ा उठाया। सबसे पहले पत्थरों को तोड़ने का काम शुरू किया गया। गांव के बुजुर्गों ने सलाह दी कि गांव का हर युवक और बुजुर्ग पत्थर तोड़ने में लग जाए तो काम आसान हो जाएगा। बुजुर्गों की सलाह पर पड़ोस के गांवों से चंदा इकट्ठा कर जरूरी औजार खरीदे गए और रोजगार की तलाश में विभिन्न राज्यों में गए युवकों को भी भागीदार बनाने के लिए गांव वापस बुलाया गया। हालांकि उरांव समुदाय में महिलाओं को काफी सम्मान दिया जाता है और उन्हें भी पुरुषों के बराबर का दर्जा हासिल है लेकिन पत्थर तोड़ने के काम में महिलाओं की मदद नहीं ली जा रही थी। इससे वे दुखी थीं। गांव की कुछ अनुभवी महिलाओं ने मिलकर गांव में एक बैठक की और सब मिलकर गांव के बुजुर्गों के पास गईं। उनका उत्साह देख बुजुर्गों ने उन्हें भी इस काम में हाथ बंटाने की इजाजत दी। करीब आठ महीने की मेहनत के बाद ऊपर से नीचे पानी उतारने के लिए कामचलाऊ चैनल बन कर तैयार हो गया।
ग्रामीणों ने चैनल बनने की जानकारी प्रखंड के अधिकारियों और इंजीनियरों को दी तो वे हैरत में पड़ गए। गांववाले चाहते थे कि अब नदी के पानी को रोकने के लिए वहां एक बांध का निर्माण किया जाए ताकि अकाल और सूखे से लड़ने का कोई स्थाई हल निकल जाए। इसके लिए एक बार फिर उन्होंने इंजीनियर और अधिकारियों से मदद की गुहार लगाई। लेकिन उन्होंने इस बार भी पहाड़ पर मशीन न जा सकने की असमर्थता जताते हुए बांध बनाने से इनकार कर दिया। अपने फैसले पर अडिग रहते हुए ग्रामीणों ने अब किसी तरह की सरकारी सहायता न लेने का निश्चय किया।
फिर क्या था। सामूहिक श्रम से नदी के बीचों-बीच पत्थरों की दीवार खड़ी कर दी गई जिससे बरसात में पानी का बहाव रोककर उसके पानी को गांव में उतार लिया गया। 1967 में भारी वर्षा हुई और नदी का बहाव काफी तेज होने से यह कच्चा बांध टूट गया। लेकिन बांध के टूटने से पहले ही चैनल से ऊपर का पानी नीचे गांव में उतर चुका था। इस तरह उनका प्रयोग सफल रहा। 1967 के बाद के कुछ सालों में अच्छी वर्षा होती रही। लिहाजा लोगों को बांध या चैनल की जरूरत नहीं महसूस हुई। लेकिन 1983 के बाद फिर से पानी की कमी होने लगी। ग्रामीण इस बार कोई स्थाई व्यवस्था करना चाहते थे। दो दशक पहले किया गया अपना प्रयोग वे फिर दुहराना चाहते थे। इसलिए वे एक बार फिर पक्का बांध बनाने की सोचने लगे। उसी साल विकास भारती संस्था के संस्थापक अशोक भगत उस गांव में गए। उन्होंने ग्रामीणों के बनाए गए कच्चे बांध के बारे में सुन रखा था। ग्रामीणों ने उनसे बांध को पक्का करने के संबंध में जरूरी सलाह मशविरा किया। उन्होंने ग्रामीणों को हरसंभव सहायता देने का भरोसा दिलाया और गांव के सभी व्यक्तियों को श्रमदान करने के लिए कहा। गांव का हर व्यक्ति श्रमदान के लिए तैयार था। बांध बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। गांव की महिलाएं हर घर से चावल इकट्ठा करके संयुक्त रूप से भोजन बनाने लगीं। बांध बनाने के लिए किसी प्रकार स्रोत में नींव की खुदाई की गई। नींव तो खोद ली गई लेकिन दिक्कत यह थी कि उसमें हमेशा पानी भर जाता था। बांध का निर्माण करवा रहे निरीक्षक कमलाकांत पांडे ने इस स्थिति से निपटने के लिए पहाड़ पर मशीन लाने को कहा। लेकिन वह मुमकिन नहीं था। तभी कुछ लोगों के दिमाग में पानी सुखाने के लिए मशीन की बजाय युवकों से पानी खिंचवाने की युक्ति आई। बीस युवकों को ऊपर खड़े रहने के लिए कहा गया। वे वहां खड़े होकर पानी खींचते रहे। उनके थकने के बाद फिर बीस युवक ऊपर चले जाते। इस तरह धुन के पक्के ग्रामीणों और विकास भारती की कोशिशों से सातो गांव में पहाड़ पर पक्के बांध का निर्माण हुआ।
इस बांध से यहां के लगभग 300-400 एकड़ जमीन पर सिंचाई होने लगी। लेकिन एक बार और प्रकृति ने गांव वालों का इम्तिहान लिया, जब 1996-97 में तेज बारिश होने से यह बांध टूट गया। तत्कालीन प्रखंड विकास अधिकारी रणेंद्र उन दिनों अक्सर उस गांव में आया-जाया करते थे। इस बार उन्होंने अपनी तरफ से ग्रामीणों की मदद करने की पेशकश की। हमेशा सरकार और प्रशासन से निराश हुए ग्रामीणों को एकबारगी उनपर भरोसा न हुआ, लेकिन जब बांध को पक्का करने के लिए उन्होंने पैसा देने की सरकारी घोषणा की तो वे चकित हुए। हांलांकि यह पैसा बांध को पक्का करने के लिए र्प्याप्त नहीं था, फिर भी गांववालों ने अपने दम पर डेढ़ महीने में इस बांध को पक्का कर लिया।
गांव के अभय यादव और उदय महतो दावे के साथ बताते हैं कि अब उन्हें अकाल से डर नहीं लगता क्योंकि उन्होंने उसपर जीत हासिल कर ली है। वे बताते हैं कि उनके गांव के आस-पास के क्षेत्रों में अब भी अकाल पड़ता रहता है, लेकिन इससे उनके गांव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। सातो गांव से सिंचाई का पानी अब नवाटोली टोले में भी पहुंचने लगा है।
गांववालों का कहना है कि पानी के पहाड़ के नीचे आने से उनका जीवन पहले की तरह अभावग्रस्त नहीं रहा। बांध बनने से पहले लोग मुश्किल से एक वक्त के खाने का जुगाड़ कर पाते थे। पहले यहां बमुश्किल धन फसल हुआ करती थी। सीमित खेती और कम आय के चलते युवाओं का पलायन होने लगा था। लेकिन आज धान और गेहूं दोनों फसलों का उत्पादन होने से लोग साल भर खेतों में काम करते रहते हैं जिससे उन्हें आर्थिक समृद्धि भी हासिल होने लगी है।
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