पहाड़ पर लौटी हरियाली


सम्पर्क संस्था जैविक खेती पर जोर दे रही है। परम्परागत फसलों व देसी अनाजों को खेतों में लगाने व उनकी किस्में बचाने पर काम किया है। जैविक खाद व कीटनाशक बनाने की विधियाँ भी लोगों को सिखाई जाती हैं। संस्था की पहल से ही एक किसान ने अपने खेत में देसी गेहूँ की 16 प्रकार की किस्में लगाई थी। अपनी संस्था के परिसर में वर्षाजल बचाने का अनूठा काम किया है। यहाँ 3 लाख लीटर पानी की टंकी है, जो उनकी दो बिल्डिंगों में एकत्र वर्षाजल से भरी जाती हैं और इसका पानी यहाँ स्थित छात्रावास के विद्यार्थी साल भर उपयोग में लाते हैं। मध्य प्रदेश का एक गाँव है रूपापाड़ा। यहाँ पेड़ लगाने की चर्चा गाँव-गाँव फैल गई है। पहले यहाँ आसपास गाँव के हैण्डपम्प सूख चुके थे लेकिन जंगल बड़ा हुआ, हरा-भरा हुआ तो उनमें पानी आ गया। लोगों के पीने के पानी की समस्या हल हुई।

यह झाबुआ जिले की पेटलावद विकासखण्ड में है। यहाँ के लोगों को खेती के लिये पानी नहीं है, सूखे की खेती करते हैं, यानी वर्षा आधारित। लेकिन जब पीने के लिये पानी का संकट खड़ा हुआ तो लोगों को चिन्ता में डाल दिया। क्या किया जाये, इस पर बातचीत शुरू हुई।

पानी लाने और पेड़ लगाने की मुहिम ने जोर तब पकड़ा जब स्थानीय लोग सम्पर्क संस्था से मिले, अपनी समस्या बताई। संस्था ने गाँव वालों पानी बचाने के जहाँ-जहाँ काम हुए हैं, उनकी कहानी बताई, लोगों को वहाँ लेकर गए। महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धी, राजस्थान के अलवर ग्रामीण गए।

महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धी में अन्ना हजारे के नेतृत्व में पानी के मामले में अच्छा काम हुआ है। राजस्थान में तरुण भारत संघ ने सैकड़ों जोहड़, तालाब बनाने के साथ सूखी नदियों को सदानीरा बनाने का काम किया है। यहाँ से प्रेरणा लेकर गाँव के लोगों ने अपने गाँव में जंगल लगाने की पहल शुरू की।

वर्ष 1998 में इसकी शुरूआत हुई। रूपापाड़ा की 50 एकड़ की गोचर भूमि में पेड़ लगाने की मुहिम चलाई गई। पानी रोकने के लिये कंटूर बनाए गए। यह पहाड़ी में पत्थर थे।

यहाँ गाँववालों ने श्रमदान से 20 हजार पेड़ लगाए थे जो बढ़कर अब 50 हजार हो गए हैं। अकेसिया, शीशम, सुबबूल, खैर, खेचड़ी, नीम, बाँस, सागौन, आँजन, करंज, धावड़ा, महुआ इत्यादि कई प्रजातियों के पेड़ लगाएँ हैं। इन्हें दूर-दूर से टैंकर से लाकर सींचा भी, जब सूखा पड़ा था।

सम्पर्क से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण सिंह कहते हैं कि यहाँ पत्थर हैं, ‘हमने इनके बीच में पेड़ लगाए, इनका जतन किया और इस पहाड़ी को हरा-भरा बनाया। वे कहते हैं पहले यहाँ बहुत जंगल था लेकिन अब नहीं रहा।’

गाँव के लोग ही बारी-बारी से इसकी निगरानी करते हैं। गाँव के 42 परिवार मिलकर इसकी रखवाली करते हैं। अगर पलायन के कारण लोग खुद निगरानी कर पाते तो एक व्यक्ति की नियुक्ति की जाती है, जो इसकी देखभाल करता है। यहाँ की लकड़ी और चारा बेचा जाता है लेकिन गाँव के लोगों को ही, बहुत कम दाम में। एक घास के पूले (गट्ठर) का दाम 5 या 10 रुपया होता है।

इस सबका परिणाम यह हुआ है कि भूजल रिचार्ज हुआ है। हैण्डपम्प में पानी आ गया है। यहाँ कुंड में पानी भरा होता है। कई तरह के पक्षी यहाँ आने लगे हैं। छोटे-मोटे जंगली जानवर भी आ गए हैं और आसपास के गाँव की लकड़ी चारा की जरूरत पूरी हो जाती है।

यहाँ की चौकीदार तेजूबाई कहती है, ‘शुरूआत में जंगल लगाने का कुछ लोगों ने विरोध भी किया था पर बाद में सबकी मदद मिलने लगी। हम समय-समय पर पेड़ों की कटाई-छंटाई करते हैं और लकड़ी चारा गाँव में भी बिक जाता है।’

हरियाली की चादर ओढ़ी रुपापाड़ा गाँव की पहाड़ीसम्पर्क संस्था जैविक खेती पर जोर दे रही है। परम्परागत फसलों व देसी अनाजों को खेतों में लगाने व उनकी किस्में बचाने पर काम किया है। जैविक खाद व कीटनाशक बनाने की विधियाँ भी लोगों को सिखाई जाती हैं। संस्था की पहल से ही एक किसान ने अपने खेत में देसी गेहूँ की 16 प्रकार की किस्में लगाई थी। अपनी संस्था के परिसर में वर्षाजल बचाने का अनूठा काम किया है।

यहाँ 3 लाख लीटर पानी की टंकी है, जो उनकी दो बिल्डिंगों में एकत्र वर्षाजल से भरी जाती हैं और इसका पानी यहाँ स्थित छात्रावास के विद्यार्थी साल भर उपयोग में लाते हैं। और उनके द्वारा उपयोग किये गए पानी से परिसर के खेतों में सिंचाई होती है। यानी वर्षाजल के पानी का दो बार उपयोग होता है।

संस्था के प्रमुख नीलेश देसाई कहते हैं कि जंगल, पानी, खेती और मुर्गी पालन जैसे परम्परागत कामों से ही हम लोगों के जीवनस्तर को बेहतर कर सकते हैं। इस दिशा में संस्था की भूमिका लोगों की सहयोगी है पर लोगों को ही नेतृत्व व पहल करनी होगी। कुल मिलाकर, जंगल और पानी बचाने के काम प्रेरणादायक, अनुकरणीय और सराहनीय हैं।

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