औपनिवेशिक काल में पहाड़ की आर्थिकी को मजबूत करने के नाम पर तुरन्त लाभ कमाने के उद्देश्य से लाया गया चीड़ आज पहाड़ की आर्थिकी ही नहीं वरन पूरे मानव जीवन के लिये संकट का कारण बन खड़ा हुआ है। चीड़ के जंगलों में लगने वाली आग प्रतिवर्ष जहाँ करोड़ों रुपए मूल्य की वन सम्पदा नष्ट कर रही है, वहीं पहाड़ के पर्यावरण में भी आमूलचूल परिवर्तन कर प्राकृतिक जलस्रोतों का भी ह्रास कर रही है।
हमारे राज्य का ये दुर्भाग्य है कि यहाँ कोई भी जन सरोकार का मुद्दा यदि उठाया जाये तो उसके परिणाम या उस पर चिन्तन करने के बजाय पहले उसे राजनैतिक चश्मे से देखा जाता है। पिछले ही दिनों की बात है ग्लोबल वार्मिंग से गंगोत्री हिमनद के पिघलने को लेकर पर्यावरणविदों से लेकर राजनेताओं तक ने भाषण दे डाले, एक केन्द्रीय मंत्री जी ने तो बाकायदा गंगोत्री हिमनद के गलने को ही गलत करार दे दिया। क्या उनके कहने के बाद गंगोत्री हिमनद पिघलना बन्द हो गया?
एक लम्बे अरसे से कई शोधों और अनुभवों के बूते यह बात साफ हो चुकी है कि कभी पहाड़ की अर्थव्यवस्था के आधार के रूप में अपनाए गए चीड़ ने ही आज पहाड़ को विनाश के चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। 1995 में उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी भीषण आग के बाद हुए तमाम अध्ययनों की पड़ताल भी इसी निष्कर्ष पर पहुँची है कि चीड़ के जंगल पहाड़ के लिये वरदान नहीं वरन अभिशाप ही साबित हुए हैं।
चीड़ की सबसे बड़ा दुर्गुण यह है कि वह अपने आच्छादित क्षेत्र में किसी भी अन्य वनस्पति को पनपने का मौका ही नहीं देता है। चीड़ की झड़ी पत्तियाँ (पिरूल) चीड़वन क्षेत्र की पूरी भूमि को ढँक लेती हैं जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है।
चीड़ के इस प्रतिकूल पर्यावरणीय स्वभाव के अध्ययन के बाद आई वैज्ञानिक रिपोर्टों के बाद भारत सरकार ने राज्य सरकार को कई बार यह निर्देश दिया कि राज्य का वन विभाग चीड़ उन्मूलन की दिशा में ग्रामीणों को उनके हक-हकूक की लकड़ी देने में चीड़ के पेड़ों को ही प्राथमिकता दे और ठोस कार्य योजना बनाते हुए इसे संचालित करे और साथ-ही-साथ नौला संवर्धन कार्यक्रम पर अपना ध्यान केन्द्रित करे, किन्तु इसके उलट राज्य सरकार के वन महकमें ने नौला संवर्द्धन के लिये तो त्वरित गति से बजट का प्रावधान कर चाँदी उगाने का एक नया रास्ता अपने लिये बना डाला किन्तु चीड़ उन्मूलन के लिये मिले निर्देशों को ठेंगा दिखा दिया। चीड़ उन्मूलन के बिना नौला सुधार योजना मात्र सरकारी धन को ठिकाने लगाने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाई।
राज्य के गढ़वाल मण्डल में अकेले ही 12 हजार वर्ग किमी वन क्षेत्र है जिसमें अकेले चीड़ का साम्राज्य 4.2 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र पर है। इस 4 हजार किमी वन क्षेत्र पर प्रतिवर्ष लगने वाली वनाग्नि से शेष 8 हजार वर्ग किमी. वन क्षेत्र भी लगातार प्रभावित होकर घटता जा रहा है किन्तु कागजों पर चलने वाली सरकार को गहराते पेयजल संकट को नंगी आँखों से देखते हुए भी अपने वन महकमें की आँकड़ेबाजी पर ज्यादा भरोसा दिखाई देता है।
ये वही विभाग है जिसने कुछ वर्ष पहले (तत्कालीन उत्तर प्रदेश के दौर में) वनीकरण के नाम पर कागजों में इतने गड्ढे कर दिये थे कि जब इनके मानक परिमाप को किये गए गड्ढों से जोड़ा गया तो राज्य के कुल क्षेत्रफल से कहीं ज्यादा वन विभाग ने नई पौध के लिये गड्ढे कर दिये थे। खेद जनक स्थिति ये है कि लगातार घट रहे इन वन क्षेत्रों में चीड़ के जंगल लगातार प्राकृतिक रूप से बढ़ रहे हैं जिस कारण गढ़वाल मण्डल में चीड़ के वन क्षेत्र में लगातार वृद्धि हो रही है जो कि आने वाले समय के लिये भूजल विनाश की दस्तक दे रहे हैं।
वन विभाग द्वारा पिछले कई दशकों में चीड़ के वनों को विकसित करने का कार्य किया गया क्योंकि चीड़ का वन एक बार लगाने के बाद स्वतः ही वायु परागण के कारण फैलता जाता है तो विभाग के लिये घर बैठे यह फायदे का सौदा हो गया सो लगातार चार दशक तक विभाग वनीकरण के नाम पर यही काम करता रहा। यही चीड़ आज पहाड़ के पर्यावरण व जलस्रोतों के क्षरण का सबसे बड़ा कारक बन गया है।
गढ़वाल मण्डल के 8 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र के देवदार, सुराई व चौड़ी पत्ती वाले बांज, बुरांस काफल आदि मूल हिमालयी वनों के संवर्द्धन की ओर सरकार का ध्यान कहीं नजर नहीं आता है। ऐसे में सरकार की हैण्डपम्प योजना भी फेल हो रही है क्योंकि बढ़ता चीड़ भूजल को भी लगातार समाप्त कर रहा है। यही कारण है कि आज सरकार के 90 प्रतिशत हैण्डपम्प शो पीस की तरह जमीन घेरे खड़े हैं। वनस्पति विज्ञानियों के अनुसार चीड़ का पेड़ पानी रोकने के बजाय खुद ही पानी को सोख लेता है, और जिन क्षेत्रों में चीड़ वन की बहुतायत है वहाँ के प्राकृतिक जलस्रोत भी बहुत ही अल्पतम मात्रा में रिचार्ज होते हैं।
सामान्य वर्षा काल में बांज, बुरांस व हिमालयी मूल वनों के वनों में प्राकृतिक जलस्रोत जहाँ 23 से 29 फीसदी तक तुरन्त रिचार्ज होते हैं वहीं चीड़ के जंगल क्षेत्र में ये स्रोत 11 से 14 फीसदी तक ही बमुश्किल रिचार्ज हो पाते हैं, किन्तु अल्पवर्षा और अनावृष्टि के समय इन क्षेत्रों में पानी का रिचार्ज होता ही नहीं है।
यही नहीं चीड़ के वन क्षेत्र सदैव सूखे व पादपविहीन होते हैं वहीं हिमालयी मूल के जंगलों में घास, झाड़ियाँ व अन्य छोटी बड़ी विभिन्न वनस्पतियाँ भी विद्यमान रहती हैं, जो जंगल में सदैव नमी बनाए रखती हैं, ऐसे में वहाँ आग लगने का खतरा नहीं रहता। चीड़ के गुण-दोष पर पर्यावरणविद कभी भी एक राय नहीं हो पाये किन्तु यह तो पहाड़ के गाँव के आम आदमी का अनुभव बता रहा है कि हिमालयी मूल के ऊँचाई पर देवदार, सुराई व चौड़ी पत्ती वाले बांज बुरांस और निचले हिस्सों में खड़ीक, सिमल्या, डैंकण, भीमल, ग्वीराल, पैंया आदि के घटने वन क्षेत्र और चीड़ के बढ़ते क्षेत्र के साथ ही प्राकृतिक जलस्रोत भी विलुप्त होते जा रहे हैं।
चीड़ के लिसे से जहाँ तारपीन का तेल, पेन्ट, वार्निश आदि आर्थिक लाभ की वस्तुओं का निर्माण होता है वहीं इस चीड़ के पिरूल (जंगल के बारूद) से प्रति वर्ष करोड़ों रुपए मूल्य की वन सम्पदा जलकर स्वाह हो जाती है और सात ही पर्यावरण भी प्रदूषित होता है जो कहीं-न-कहीं मानव जीवन के लिये भी खतरा पैदा करता है। तब ऐसे आर्थिक लाभ का पक्ष रखने वालों को इसके दूरगामी विनाशक पहलुओं पर चिन्तन कर अपनी बात रखनी चाहिए, न कि तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखकर।
अब वह समय आ गया है जब चीड़ उन्मूलन के लिये किसी सरकार के फरमान या नीति का इन्तजार किये बिना एक जन आन्दोलन के रूप में उत्तराखण्ड के हर नागरिक को अपनी तरफ से पहल कर इस औपनिवेशिक प्रतीक वृक्ष का साम्राज्य समाप्त कर अपने मूल हिमालयी वनों के हक-हकूक के लिये भी लड़ना होगा और हमारे वनों में हमारे वृक्षों का राज कायम करना होगा। कल्पना कीजिए कि आने वाले समय में जब हमारी सन्तति नौला, पंदेरा, धारा, गाड मगरा, छोया के बारे में जानना चाहें तो उन्हें देखना समझना तो दूर शायद डिक्शनरी में भी उन्हें ये नहीं मिल पाएँगे?
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